शनिवार, 27 मार्च 2010

खिलौने

' वहाँ की यहाँ से क्या बराबरी ?वहाँ की चीजों की बात ही और है ।क्या फ़िनिश ,क्या बारीकियाँ ,जैसे असली ही छोटी कर के रख दी हो ।'
' भाई कब से अमरीका में है?' सुदीप के पापा कनु के खिलौनों की हाथ में उठा उठा कर तारीफ़ कर रहे हैं ।
कनु के लिये चाचा ने भेजे हैं अमरीका से !
' कौन? कमल ?वह गया था दो साल के लिये ,पर वहीं जॉब ले लिया ।एक बार आया था बीच में ,पर यहाँ कहाँ मन लगता उसका !' विमल गर्व से बता रहे हैं -' अब शादी करवाने आयेगा अगले साल ।'
' सच में ! क्या परफ़ेक्शन है ?' सुधा उत्फुल्ल भाव से सोच रही है ।
सुदीप के माता-पिता आये हैं । उन्हें चाचा के भेजे खिलौने दिखाये जा रहे हैं ।कनु और सुदीप रेलगाड़ी चला रहे है,' देखो , कैसे पटरी पर दौड़ती है ।'
सुदीप की माँ छोटा सा वायलिन उठाती हैं -' ये बजाना सीखना पड़ता होगा ?'
' अरे नहीं ,इसमें सात ट्यूने भरी हुई हैं -देखिये ,ऐसे बजाते हैं।'
विमल वायलन की ट्यून सुनवा रहे हैं ।
' वाह ,क्या बात है !'
सत्ते आ कर खड़ा हो गया ,चन्दो का बड़ा बेटा ।कनु से दो साल बड़ा ।
कई साल हो गये हैं चन्दो को इस घर में काम करते । यहीं पास में रहती है ।साफ़-सुथरी समझदार महिला है ।रंग-ढंग देख कर कोई नहीं कह सकता कामवाली है ।वो तो समय ने काम करने पर मजबूर कर दिया नहीं तो खाता-पीता परिवार था ,ससुर की दुकान थी, अच्छी चलती थी ।पर तीनों भाइयों के बँटवारे में सब चौपट हो गया ।
चन्दो का आदमी सबसे छोटा था ।पढने लिखने में मन नहीं ,दुकान पर बैठने लगा ।बँटवारे के बाद पनप नहीं पाया ।ठेला लगा कर गृहस्थी पालता है ,चन्दो दो घरों में काम कर लेती है ।बड़ा बेटा सत्य नारायण उर्फ़ सत्ते का इस घर में अबाध रूप से आना-जाना है ।कनु से अच्छी पटरी बैठती है उसकी।
चन्दो का व्यवहार ही ऐसा है कि वह कामवाली नहीं घर की सी लगती है ।उस पर बहुत निर्भर है सुधा ।
सत्ते खिलौनों का प्रदर्शन देखता रहा ,फिर कनु की ओर बढ गया ।
कोई घर मे आ जाये तो विमल को सत्ते का कनु के साथ होना भाता नहीं ।इसका यहाँ क्या काम !
' क्या सत्ते, अम्माँ ने किसी काम से भेजा है ?'
' नहीं ।हम तो ऐसे ही चले आये ।कनु भैया के पास ।'
' सत्ते ,वो वायलिन इधर लेते आना ,' कनु ने कहा ।
वह वायलिन लेने बढ़ा ।
विमल ने टोका , ' देखो इसके तार वगैरा न दब जायें ,कनु तुम क्यों नहीं ले जाते ?'
' पापा, उसे सब पता है ।वो अच्छी तरह बजा भी लेता है ।सत्ते बजा कर दिखाओ तो।'
विमल का मुँह बिगड़-सा गया ।
' ठीक है ,ठीक है ।पर जरा सम्हाल कर ।'
' बच्चों ,तुमलोग उस तरफ़ जाकर गाड़ी और प्लेन चलाओ वहाँ खुली जगह है ।'
सुधा चाय की व्यवस्था करने जाते जाते बोली ।
वे लोग दूसरी ओर चले गये
सत्ते के उधऱ जाते ही सुदीप के पिता ने पूछा ,' यह लड़का पड़ोस में रहता है क्या ?'
' हाँ ,' विमल कह नहीं पाये कि कामवाली का बेटा है ।
वे एक-एक की बारीकियाँ बता रहे हैं ।बच्चों से ज्यादा उछाह तो उनमें है ।
सुदीप की मम्मी बड़ा सा टैडी बियर उठाते हुये कह रही थीं ,' और ये स्टफ़्ड वाले भी तो देखो ।कितने सुन्दर एकदम मुलायम !'
' वहाँ बच्चे इन्हें साथ में लेकर सोते हैं ।'
' हैं ही इतने प्यारे !'
' पेंग्विन तो लग रहा है ,अभी चल पड़ेगी ।'
' और सबसे अच्छी बात, गंदे हो जायँ तो वाशिंग मशीन में डाल कर धो लो ,फिर एकदम साफ़ ,जैसे के तैसे !'
उनकी बेटी उससे गाल सटा कर खुश हो रही है ।
' ये मिकी माउस है ,वहाँ डिज़नी लैंड हैं न वहाँ का खासमखास ।'
' सुना है बिल्कुल परीलोक है ।'
' हमारे पास एल्बम है ।वहाँ की तस्वीरें देख के अंदाजा मिल जायेगा ।'
विमल एल्बम निकाल लाये ।
बड़े लोग तस्वीरों पर झुक आये ।
' ये मिकीमाउस-मिनीमाउस हैं ।ये इनका घर ।ये कॉसल है ,परियों के महल जैसा ।लेक बनाई है ,एक ट्रेन पूरा चक्कर लगवाती है,और खूब सारे राइड्ट !.अरे, एक दिन में तो आधे भी नहीं ले पाते ! ..रात को फ़ायरवर्क्स.. ..वंडरफ़ुल.।
***
दोस्त आते हैं तो कनु उन्हे बड़े चाव खिलौने से निकाल कर दिखाता है ।
बताता हैं यहाँ थोड़े ही मिलते हैं ,चाचा ने अमेरिका से भेजे हैं ।
बच्चों के माता-पिता भी उत्सुक हैं ।कभी कभी ख़ुद पूछ देते हैं -' विधु बता रहा था देखें तो कौन सा खिलौना है अमरीकावाला ।'
कनु ला कर दिखाता है बड़े लोग हाथ में लेकर घुमा फिरा कर देखते हैं । परम संतुष्ट भाव विमल के चेहरे पर! वे उनकी आँखों में प्रशंसा देख तुष्ट होते हैं ।
इधर सुधा एक चीज़ नोट कर रही है - चंदो का वह बेटा जिसका मुँह ' भइया भइया ' करते नहीं थकता था ,बड़े सहज रूप से घर में खप गया था , अलग-थलग रहने लगा है । अभी तक कनु और सत्ते दोनों मिल कर खेलते थे ।सत्ते कनु का पूरा-पूरा ध्यान रखता था ।अब चुप-चुप रहता है ,पहले की तरह हँसना -बोलना खत्म हो गया है ।पहले जो सहज रूप से घर के सामान की सम्हाल करता था अब तटस्थ -सा देखता रहता है ।विमल होते हैं तो बाहर -बाहर से चला जाता है ।
**
पिता ने कनु को समझाया था ,' ज़रा सावधान रहा करो ।'
' क्यों ,पापा ?'
' सबके सामने निकाल कर बैठ जाते हो और सत्ते वहीं मँडराया करता है,ज्यादा सिर मत चढाओ उसे ।
वह तो उपत कर वहीं जाता है जहाँ खिलौने रखे हैं ।'
फिर एक दिन -
विमल के ऑफ़िस के तनेजा सपरिवार आये थे ।
बातों-बातों में कमल की शादी की चर्चा -
' बढिया नौकरी है ।वहाँ के ठाठ के क्या कहने !'
' हाँ ,हमारे साढू का भाई भी वहीं है । जाकर आने का नाम नहीं लेता ।क्या फटाफट अंग्रेजी बोलते हैं बच्चे ।
वहाँ के कपड़े भेजता है ।क्या मेटीरियल ,क्या सिलाई ।सालोंसाल खराब नहीं होते ।'
'एक हमारे यहाँ !एक टाँका निकले तो उधड़ता चला जाये ।क्वालिटी पर कोई ध्यान नहीं देता ।'
' और खिलौने यहाँ के ऐसे कि पानी पड़े रंग उतर जाये ।एकाध बार खेलें तो कोरें निकल आती हैं ।नोंके और कोरें चुभने लगती हैं। .और वहाँ के खिलौने !नन्हा बच्चाभी मुँह में दे ले तो भी कोई डर नहीं ।अभी कमल ने भेजे हैं ,कनु के लिये ।बस , देखने की चीज़ है ।'
' अच्छा ,कमल ने भेजे ? .वहाँ से ?'
कनु की पुकार हुई ।
'वह के सत्ते के साथ बाहर खेल रहा था ।साथ-साथ सत्ते भी चला आया ।'
खिलौने मँगाये गये ।
' उत्साह में सत्ते कनु के साथ उठा-उठा कर लाने लगा । '
'रेलगाड़ी औऱ पटरी दोनों एक साथ उठाये चला आ रहा था ।
' अरे ,सम्हालकर,' जोर से विमल ने टोका ।
सत्ते चौंक गया ,सब उधऱ देखने लगे ।
'दोनो एक साथ उठा लिये ?उसे क्यों दे दिये कनु ?कहीं गिरा दिया तो यहाँ तो ठीक भी नहीं होगा ,',विमल ने एकदम कहा ।
' पापा. इतना वह समझता है ।वह तो मुझे भी बताता रहता है।'
इस बीच सत्ते एकदम सहम गया था गाड़ी उसके हाथ से छूट गई ।
' देखो कनु कुछ टूटा तो नहीं ।मैंने पहले ही कहा था ।'
सत्ते जड़-सा खड़ा। फिर धीरे से बाहर निकल गया ।
**
उस दिन कनु का उड़नजहाज नहीं मिल रहा था ।सारा घर छान डाला ।बाहर झाड़ियों में पड़ा मिला ।फिर तो आये दिन खिलौने कहीं के कहीं मिलते ।एक तो कूड़े में पड़ा दिखा । सुधा कहीं से आ रही थी उसने देख लिया ।
टूटा हुआ था । हारकर सुधा ने अल्मारी में रख दिया ।
विमल का शक सत्ते पर है ।
उस लड़के को इतनी छूट मिलेगी तो यही होगा ।
कनु को दस बार समझाया लेकिन उससे थोड़ा दूर -दूर रहे पर उसके साथ खेले बिना इसका जी नहीं भरता ।
' पर कहाँ खेलता है अब सत्ते साथ ?सुस्त सा घर में बैय़ा रहता है ।और उसके साथ खेलने में बुराई क्या थी ?मैं तो निश्चिंत हो जाती थी ।कनु तो लापरवाह है उसकी चीजों की वही तो ध्यान रखता था ।'
'क्यों, कनु से खुद नहीं रखा जाता ?अब देख लिया न नतीजा ।पता नहीं क्या-क्या चुरा ले गया हो ।'
' बस करो उन लोगों पर सारा घर छोड़ जाती हूँ ।कितने साल हो गये ।बेकार तोहमत मत लगाओ किसी पर ।'
' मैं तो लड़के की बात कर रहा हूँ ।अपने पास नहीं है तो इसका उड़ा दिया ।'
' माँ-बाप ऐसे नहीं कि ऐसी चीज़ घऱ में रख लें ।फिर खेलना तो यहीं है न '!
विमल भुनभुनाते रहे ।
उसने कनु से पूछा था -सत्ते अब तुम्हारे साथ नहीं खेलता ?
उसे इन चीजों से खेलने का ढंग नहीं है ।पापा कह रहे थे गिरा देगा तो खराब हो जायेगा ।यहाँ तो ऐसा मिलेगा भी नहीं ।उसकी नियत मेरी चीजों पर लगी रहती है। अकेले में मेरी चीजें छूता है ।'
जिस दिन खिलौने आये थे सुधा को याद है ,सत्ते का उत्साह कनु से कम नहीं था ।दौड़-डौड़ कर पैकिंग खुलवाने में चीज़ें उठाने-धरने में मदद करता रहा ।कनु से किसी घट कर नहीं था उसका चाव और खुशी । उमंग और कौतूहल से भरे दोनों एक -एक चीज़ को समझने की कोशिश करते रहे ।
कितना परायापन आ गया है अब ! कुण्ठित-सा अलग-थलग खड़ा रहता है ।कनु से दूरियाँ बढती जा रही हैं । उसकी नज़रों में अक्सर ही क्या होता है -द्वेष .घृणा ,प्रतिहिंसा ?वह समझ महीं पाती ।
परेशान है वह भी ।पति कहते हैं उसी सत्ते के कारनामे हैं ।सुधा कुछ बोल नहीं पाती। कुछ कुछ शक उसे भी है ।
पर कैसे हो गया यह सब ?सत्ते तो कभी ऐसा नहीं था! कनु उस पर कतना निर्भर रहा है ! उससे ज़्यादा सावधान वह रहता था कि कनु को या उसकी चीज़ों को कोई नुक्सान न पहुँचे ।कनु के लिये दूसरों से लड़ जाता था ।उसके लिये कोई कुछ कह दे तो उसे सहन नहीं होता था । और दोस्त हों या न हों, सत्ते के साथ मगन रहता था कनु । और अब क्या हो गया कि किसी काम से आता भी है तो रुकता नहीं , फ़ौरन चला जाता है ।चेहरे पर न मुस्कराहट न खुशी ,जैसे अपरिचित लोगों के बीच आ गया हो ।

सुधा जानती है अब वह पहले जैसा पास नहीं आता पर तृषित निगाहों से कनु के खिलौने देखता है ।कई बार उसने देखा है उसकी माँ जब उसे कुछ कहने -बताने या किसा और काम से भेजती है तो वह वहीं जाकर खड़ा होता है जहाँ कनु खेल रहा होता है ।कनु उधर न भी हो तो वह खिलौनों के पास ही जाकर खड़ा होता है ।
अकेले में छू कर देखता है ,किसी के आते ही डर कर अलग हो जाता है ।पहले खिलौने पड़े होते थे तो खूब इत्मीनान से समेट कर डब्बे में रखकर अल्मारी में रख देता था ।इससे पहले भी सत्तेहमेशा कनु के बाहर पड़े खिलौनों को सम्हाल कर लाताथा ,' देखिये , कनु भैया ये बाहर ही छोड़ गये थे '-कह कर अल्मारी में जमा देता।पर अब ..अब कितना बदल गया है ,जैसै उसे कोई मतलब ही न हो ।
**
मैंने तो पहले ही कहा था कि उन लोगों को मत दिखाओ ,उनके सामने निकालो ही मत खेलो ही मत ,।कैसी ललचायी निगाहों से देखता रहता है ...!
' तो खिलौने बंद कर रखने को होते हैं ?'
सुधा को अच्छा नहीं लगता कही है ,'बस बस रहने दो।खिलौने खेलने को हैं कि सेंत कर रखने को ?।दूसरों को तरसा कर क्या खुशी बढ जाती है ?ज्यादा संतोष मिलता है? "..

' क्या फ़ायदा कि मिल कर मन भऱ के खेल भी न पाये। ।आपस में मेल रखाने के जगह भेद डालें ! अकेले में निकालो और बंद करके रख दो ये भी कोई खेलना हुआ ?'
' अपने दोस्त आयें उनके साथ खेले ।'
' हाँ , खेले तो पर उन्हें भी ईर्ष्या होती है । और हमारा बच्चा कैसा खुश होता है कि मेरे पास है और किसी के पास नहीं ।यह क्या खेलना हुआ ?
' तो उन्हें मना किया है किसी ने ? वे भी मँगा लें ।'
' औरों के बल पर दिखावे की जरूरत नहीं ।कोई हमारे यहाँ का तो है नहीं कि कोई चाह कर भी ले ले ।
अभी से कनु को ये सब मत सिखाओ ।खेलने में सब बराबर ।पर यहाँ तो एक सबसे खास बनना चाहता है ।
खिलौने भी दिखावट की चीज़ हो गये !और लोग तरसें और एक खुश हो।
सब मिल कर नहीं खेलें तो खेल काहे का ?
वह सोचती रही पता नहीं कैसे खिलौने जो निर्मल आनन्द की जगह दूसरे के अभाव पर खुश हों ।खेल की भावना तो मर गई, रह गया दिखावा कि ,देखो ,हम ऐसे हैं ।
एक दूसरे से सहयोग की जगह साथ मिल कर खुश होने के दूसरे की मजबूरी का मज़ा लेना ।.मिल कर रहने की तो बत ही नहीं ।बस हम खास बने रहें बच्चों में यही भर दो ।आपसी दूरियाँ और हीनता की भावना पनप रही है जो किसी को चैन से नहीं रहने देगी ।
खिलौने थोड़े ही हैं दिखौने हैं !कोई तरसे किसी को खुशी हो ।

कई दनो से सुधा नोट कर रही है सत्ते की भाव-भंगिमा बदलती जा रही है ।।पहले कनु के लिये दौड़ कर आता था ,उसकी आँखों में प्यार और सम्मान था ,हमेशा मदद को तैयार ।।लापरवाह कनु की चीज़े सम्हालता था जैसे उसकी जुम्मेदारी हो उसके लिये। हमेशा मुस्तैद रहता था कि कहीं कोई नुक्सान न हो जाये ।कितना मानता था कनु को ।दोनों खेलते ।वह भी निश्चिंत रहती थी कि वह है तो कनु का पूरा ध्यान रखेगा ।चन्दो कहती थी कनु भैया बुलायें तो इसका खाने में भी मन नहीं लगता ,तुरंत दौड़ता है।
अब तो कनु घर में ही ज्यादा रहता है पहले मौका मिलते ही बाहर खुली हवा में दौड़-भाग के खेल खेलने निकल जाता था।अब अंदर घुसा रहता है ।कहो तो कह देता है बाहर कोई खेलता ही नहीं ।एक-दूसरे को देख कर चेहरे खिल जाते थे -चाहे सत्ते ही क्यों न हो ।
कभी-कभी वैसे ही खाली -खाली सा। खिलौनो में भी रुचि कम हो गई हो जैसे ।पहले की चपलता-चंचलता समाप्त हो गई ,खिन्न-सा रहता है ।सारा उछाह खत्म हो गया हो जैसे । दोस्त आते हैं वे बाहर खुली हवा मे न खेल कर उसके खिलौनों से ही खेलना चाहते हैं । पहले खूब कर भागते-दौड़ते हँसते खिलखिलाते थे ।कूदने -फाँदने गेंद खेलने का किसी को ध्यान ही नहीं आता ।
' जाओ मैदान मे खेल लो ,' वह कहती है ।
वे सब कह देते हैं,' बाहर से ही तो खेल कर आ रहे हैं ।'
कनु नहीं उसके खिलैने इन्हें खींच लाते हैं ।
कैसी कुंठाये पनप रही हैं जो संबंधों को सहज नहीं होने देतीं ।
**
चन्दो उदास रहती है ।आती है काम करके चली जाती है ।बहुत कम बोलती है -सिर्फ़ काम की बात ।
सुधा परेशान है ।क्या करे कुछ समझ में नहीं आता ।घर में चन्दो हँसती-बोलती थी तो कितना अच्छा लगता था ।
सुधा ने उसे कभी नीचा नहीं समझा -उसमें ओछापन बिल्कुल भी नहीं, नियत की अच्छी है माँगने की आदत बिल्कुल नहीं ।अपनी सीमायें समझती है ।
सुधा से रहा नहीं गया ।
'चन्दो ,क्या हो गया है आजकल ?तबीयत खराब चल रही है क्या ?'
'क्या कहें बीबी जी ,कुछ कहते नहीं बन रहा ।आज कल घर में बड़ी अशान्ति चल रही है ।'
'क्यों ?'
उसने ठंडी साँस भरी ।कुछ बोली नहीं ।
' बताती क्यों नहीं ,क्या हुआ ?'
'क्या बतायें ?सत्ते को का जाने क्या हो रहा है ?'
'हाँ , मुझे भी आज कल बड़ा बदला-बदला लगता है ।'
'न अपना खुस रहे न कसी को रहने दे ।कलेस मचाये रहता है घर में ।'

वह रोने लगी ,' बीबीजी भइया के खिलौने आये ।पहले कई दिन ये भी बड़ा खुस रहा ।आये-गये सबको चाव से बताता रहा -ऐसी रेलगाड़ी है पटरी पर भागती है ।उड़न जहाज उड़ता है और उसे एक बटन दबा कर मनचाही तरफ घुमा दो ।और बहुत बातें । बड़ा मगन रहता था -कनु भइया का खिलौना ऐसा है जैसे सचमुच का हो ।
पर फिर जाने का हुइ गया ।अब कैसा होता जा रहा है ,चुप चुप रहता है।किसी काम मे मन नही लगता उसका ।
।उखड़ा-उखड़ा रहता है ।छोटे भाई बहनों को जरा सी बात पर पीट देता है।'
ऐसा तो नहीं था ।क्या होता जा रहा है सत्ते को ।कभी-कभी चन्दो बड़ी दुखी हो जाती है ।
दुखी तो सुधा भी हो जाती है ।
चन्दो कहे जा रही ,' पहले कभी ऐसा नहीं था। अब तो बाप के सामंने-सामने बोलने लगा है ।बहस करता है ।'
' अच्छा !क्यों ?'
' कहता है मुझे भी खिलौने दो लाकर ।'
सुधा को कैसा-कैसा लग रहा है ।
' हमने समझाया ।कनु भैया के साथ खेल तो लेते हो ।पर उसकी समझ मे नहीं आता ।कहता है अपनी चाहिये ।
कुछ दिन से हल्ला मचाये है -मुझे भी ऐसी गाड़ी ला दो जो पटरी पर भागती है ।बस एक चीज़ ला दो ।
एक रेलगाड़ी ला कर दी तो उसने उठा कर फेंक दी ।इसी बात पर बाप को गुस्सा आ गया ,पीट दिया । रोते रोते सो गया ।अब बीबी जी ,सुबह का गया गया दिन भर मेहनत कर शाम को आता है। उस दिन सीधा बाज़ार होता हुआ उसके लिये रेलगाड़ी ले कर आया। पर इसके मिजाज मिलेंतब न !अब बीबी जी, मँहगी चीज़ें हम कहाँ से खरीदें ?उसकी समझ में कुछ नहीं आता ।बाप झींक जाता है ।
परसों तो बाप ने इसी से पीटा ।हम ग़रीब आदमी कहाँ से लायें ऐसे मँहगे खिलौने ।'
सुधा क्या कहे ।सुनती रही ,अपना काम करती रही ।
***

और फिर एक दिन पटरी पर दौड़नेवाली रेलगाड़ी गायब हो गई ।
घर मे से कहाँ चली जायेगी ।उसके सिवा और कौन घर में आता है ?
विमल का गुस्सा सत्ते पर है ,' पहले ही कहता था उसे सर मत चढाओ । पर तुमन लोग मानो तब '
' देखो ,जब से रेलगाड़ी ग़ायब हुई है उसने शकल भी नहीं दिखाई है ।'
' कनु के दोस्त ?नहीं वो ऐसा नहीं कर सकते !और इत्ती बड़ी रेलगाड़ी छिपा कर कैसे ले जायेंगे !
वही ले गया है ।मैं अच्छी तरह जानता हूँ ।उसकी निगाहें लगी थीं गाड़ी पर ।'
चंदो से पूछा गया ।
' अभी तक तो कभी चोरी की नहीं ।बीबी जी ,घर जाकर पता लगाऊँगी।हाँ, और कोई तो आया भी नहीं दो दिनों से। फिर गई कहाँ?।इस लड़के के लच्छन आजकल समझ में नहीं आते ,पर लाता तो घर में ही लाता ।उसका कसूर होगा तो बाप जान से मार देगा ।मिलनी चाहिये रेलगाड़ी कहीं तो ,आप चिन्ता मत करो ।जायेगी कहाँ घऱ में से ?
परेशान सी चन्दो चली गई ।
सुना रात में बाप ने खूब मारा,बदन में नील पड़ गये पर सत्ते साफ़ मना करता रहा ।
दो दिन से सत्ते बाहर नही निकला ।

तीसरे दिन चन्दो दोपहर में आई ।
छिपा कर लाई हुई रेलगाड़ी निकाली और मेज़ पर रख दी ।
अरे ये कहाँ मिली ?
चन्दो रोने लगी ।
'माफ़ करना बीबी जी ,हमें पता नहीं था ।घर में लाने की हिम्मत तो थी नहीं सो उसने बाहर भूसे के ढेर में छिपा कर रखी थी ।आज कंडे लेने गई तो दिखाई दे गई । उसके बाप ने चमड़ी उधेड़ दी ,उस दिन से खाना भी नहीं दिया है ।वहीं भूसे की कोठरी में पड़ा है । सारा बदन नीला पड़ा है ।
सुधा सिहर उठी ।
चन्दो कह रही है,' कहीं सिर उठाने लायक नहीं रखा ।इससे तो मर ही जाता अभागा !
अब आपको भी जो सजा देना हो दे दो ।उसे भी और हमें माँ-बाप को भी !'
सुधा सुन रही है ।
सुधा सुन रही है ,कानों में जैसे कोई लावा उँडेल रहा है ।कान मूँद कर भाग जाना चाहती है , पर सब सुनना पड़ रहा है ।
'जो जो कुछ खराब हुआ है सबके पैसे काट लो ।मैं क्या करूं ,मैं तो हार गई ।'

कितने प्रयास से मुँह से बोल फूटे ,' बस ,बस चन्दो ,बहुत हो गया ।'
पल्ले से मुँह दबाये चंन्दो सिसक रही है ।
' रो मत चन्दो ,गलती तेरी नहीं है ।बड़ों-बड़ों को अपने पर काबू नहीं रहता ।वह तो बच्चा है ।जैसा तेरा ,वैसा मेरा ।...मैं भी दुखी हूँ चन्दो !
बड़ी मुश्किल से समझा कर चन्दो को भेजा ।
अब मारना-पीटना नहीं ,ऐसे तो लड़के बिगड़ जाते है ।जाकर खाना खिलाओ उसे ।
सुधा का मन खराब हो रहा है ।दिमाग में क्या क्या खयाल आ रहे हैं - कभी कनु को तरसना पड़े तो ? तो क्या गुज़रेगी उस पर.?क्या गुज़रेगी हम पर ?
जो नहीं खरीद सकता वह क्या करे ?और फिर बच्चे ?उन्हे कैसे समझाया जाय ?
कितने सवाल उठ रहे हैं ,खूब पिटा है भूखा पड़ा है सत्ते ?
ऐसा तो नहीं था !क्या हो गया उसे ?
दो दिन से भूखे बच्चे का बार-बार ध्यान आ रहा है । रह-रह कर तिलमिला उठता है मन ।
भूखे शरीर पर क्रोध से पागल बाप की लगातार पड़ती मार- सुधा झेल नहीं पा रही ।
**
क्या हो गया ? सब समझ रही है सुधा !
अब तक सिर्फ सोचती थी ।अब समझ में आ रहा है ।
यह कैसा खेल हैं ? आपस में असंतोष पलता रहे ,सब अलग-अलग पड़ते जायें, संवेदना -सहानुभूति रहित ? कनु जब खेलने बैठता है तो औरों को कैसे देखता है जैसे कह रहा हो -जो मेरे पास है तेरे पास कहाँ !तू कहाँ से लायेगा !और बच्चों पर जैसे कृपा कर रहा हो अपने साथ खिला कर ।कैसा खेल है यह ?
जहाँ की है वहीं रहें ऐसी चीज़ें ।वहाँ सबके पास होंगी ,दूसरों के बच्चों को तरसना नहीं पड़ता होगा !यहाँ ये खेलने के लिये थोड़े ही, हम कुछ खास है ये दिखाने के लिये आये हैं ?
या फिर सबके साथ खेले, मिल बाँट-कर । सो नहीं ।
सुनने को मिलता है,' हरेक के सामने मत निकाला करो ।खराब हो जायेंगे ।'
हरेक ?माने साधारण लोग !
और कनु तो खास बन गया है ।
खिलौने ?बच्चों के खेलने की निर्दोष चीज़े । को आनन्द देने के साधन !और ये मँहगी मँहगी मशीनों जैसी चीजें सिर्फ अपना बड़प्पन के दिखावे के लिये ! औरों को दिखा कर उनके मन में तृष्णा जगाने के लिये !चार जनो के साथ मिल कर खेलने के बजाय पड़ते जाने के लिये ! इसीसे बड़प्पन पता लगेगा ।इसीसे संतुष्टि होगी ?
तो रख लो सम्हाल कर सहेज कर !सबसे हटा कर। संदूक में बंद कर दो ।

***
एक झोला हाथ में पकड़े सुधा चन्दो के घर जा रही है ।
' अरे बीबी जी ,आप ?मुझे बुला लेतीं ।'
' क्यों? मैं नहीं आ सकती ?'
' आइये ,कही जा रही हैं क्या ?'
' नहीं । सत्ते कहाँ है ?'
' फिर कुछ किया क्या उसने ?'
' नहीं ।उसने कुछ नहीं किया । बुलाओ तो ।'
सत्ते कहीं से आ रहा है- चेहरा दुर्बल,सूखा-सा ठीक से चल नहीं पा रहा है ,हाथों पर नीले निशान ।
सुधा को देखा ,चौंक गया ।चाल थम-सी गई ।
' बीबी जी तुम्हें बुला रही हैं ।'
' रुक क्यों गये सत्ते ?आओ ,मैं तुम्हीं से मिलने आई हूँ ।'
कहीं शिकायत का स्वर नहीं , आवाज़ सहज स्नेहमय ।
सुधा खुद बढी ।उदास खड़े सत्ते का कंधा पकड़ अपने से सटा लिया ।
साथ लाये झोले से खिलौने निकालने लगी -वही पटरीवाली रेलगाड़ी !दो-तीन-और चीजें हैं ।
' ये ,तुम्हारे लिये !'
चन्दो चौंक गई है ।
' बीबी जी,ये क्या कर रही हो ?हम कहाँ इन खिलौनों के लायक।।कनु भइया के हैं। ले जाइये ।'
सत्ते अवाक् खड़ा है ।
' नहीं । अब सत्ते के हैं ।कनु के पास और भी हैं । इन से खेलना होगा तो सत्ते के साथ खेल लेगा ।'
सत्ते ने सिर झुका लिया है ।
किसी की समझ में नहीं आ रहा क्या बोले ।
'क्यों, मैं सत्ते को कुछ नही दे सकती ?'
सत्ते विमूढ !क्या कहे ,क्या करे !अंदर से गले-गले तक कुछ उमड़ा आ रहा है ।बड़ी मुश्किल से बोल निकले -
' माफ़ कर दीजिये १गलती हो गई ।'
आवाज़ बिल्कुल ऱुँधी है ।
' पागल है क्या ?खुशी से खेल ।'
चन्दो की ऑखों में द्विविधा है ,' और बाबूजी ?'
' मैं चुरा कर नहीं दे रही हूँ । बाबूजी की चिन्ता मत कर ।मैं हूँ न ?'
सत्ते फूट-फूट कर रो उठा है । आँखों से धाराधार आँसू बह रहे हैं ।
उसने आगे बढ कर सिर पर हाथ रखा -हथेली से गालें पर बहते आँसू पोंछ दिये ।
' अब कभी नहीं आंटी जी ।'
'मुझे मालुम है अब कभी नहीं ! गलती किससे नहीं होती ? '
'चन्दा ,तुम लोग उससे कुछ मत कहना ।'
विमल को वह समझा लेगी ।
पर ये चन्दो क्यों रो रही है ?
उद्वेलित लहरों को सहज होने में थोड़ा समय तो लगेगा ही ।
- प्रतिभा सक्सेना .

पुनर्नवा

अपू अपने कमरे में गुमसुम बिस्तर पर लेटी है।
घर-भर की चिन्ता रखनेवाली,संयत ,शिष्ट ,कर्तव्यपरायण ,बड़ी बहू, आज सुबह से उठी नहीं। हमेशा मुस्तैद रहकर ,खुशी-खुशी सारे काम निपटानेवाली,अपर्णा चुपचाप लेटी हुई है ,जैसे किसी से कोई मतलब ही नहीं।
मुँह से कुछ बोलती नहीं ,बस आँखों से आँसू बह आते हैं।कमरे में लोग आ रहे हैं ,जा रहे हैं। उसे किसी का भान नहीं ।आँखें बन्द किये पड़ी है, बेख़बर!
पत्नी के माथे पर हाथ रखा प्रबोध ने , उसने हल्के से पलकें उघारीं ।
'अपू ,तुम्हें क्या हो गया है ?'
उसने आँखें बन्द कर लीं उत्तर कुछ नहीं ।
'बोलो न ।तुम्हें क्या होगया, अपू ?'
'दुनिया मे कितने लोग हैं मुझे नहीं मालूम ।'
विस्मित से प्रबोध उसे हिलाते हैं ,'क्या कह रही हो ?'
कैसी निगाहों से देख रही है जैसे पहचानती न हो ।
'अपू,अपू, क्या कह रही हो तुम ?'
' मुझे कुछ नहीं मालूम ,कितने लोग हैं।'
'कैसा लग रहा है तुम्हे ,अपू ओ अपू ?'
देवर सुशील कमरे मे आया ,'भैया , क्या हो गया भाभी को ?'
'कुछ समझ मे नहीं आता । बुख़ार तो नहीं है।'
'भाभी, कैसी हो ?'
'दुनिया मे कितने लोग हैं , मुझे कुछ नहीं मालूम ।'
बालों मे कंघा लगाये शोभना कमरे मे आ रही थी ,बिस्तर की ओर आते-आते उसने अपू की बात सुनी,और ज़ोर से खिलखिला उठी ।
हँसी की आवाज़ ,कमरे की उदास स्तब्धता को चीरती चली गई। दोनो भाई चौंक कर उसकी ओर देखने लगे।
'कॉलेज जाना है ,' घबराकर शोभना बाहर निकल गई।
' क्या बड़ी भाभी की तबीयत कुछ खराब है?'
छोटी बहू ,ललिता ,कटोरी से चावल नाप कर थाली मे डाल रही थी ।
उसने सिर उठाकर शोभना को देखा ,बोली ,' कल रात पिक्चर से लौट कर मै उनके कमरे मे गई थी,तब तो ठीक थीं। ' फिर मुड़कर रसोई से बाहर निकलती शोभना को आवाज़ लगाई ,' अरे,कहाँ जा रही हैं ,सुनिये तो...सब काम लेट हुए जा रहे हैं जरा ये चावल तो बीन दीजिये। '
'मुझे तो ख़ुद देर हो रही है,पता नहीं कॉलेज टाइम से पहुँच पाऊँगी कि नहीं .... अच्छा लाओ,बीन दूँ।'
बे-मन से शोभना ने चावल की थाली पकड़ ली ,हथेली से चावल समेटती बीनने का उपक्रम करने लगी। बड़ी मुश्किल है।अभी नहाना है, तैयार होना है,नाश्ता करना है और ये चावल बीनने को पकड़ा दिये! शोभना को बड़ा नागवार गुज़र रहा था।
सास आवाज़ लगा रही थीं,' अरे, बड़ी बहू कहाँ है?आज सुबह से नहीं दिखी।'
सब एक-दूसरे से पूछ रहे हैं , ' अपू को क्या हो गया/'
आज सुबह से कमरे से बाहर नहीं आई ।
रोज़ तो मुँह अँधेरे से उठकर कितना काम निपटा डालती थी ! अब तक किसी को पता ही नहीं था कि घर मे ये काम भी होते हैं।इस बेला तक नहा-धोकर माथे पर बिन्दी लगाये चौके मे लगी दिखाई देती थी।
सुशील ने ललिता से कहा ,'तुम जाकर देखो, भाभी को क्या हो गया।'
गैस पर चाय का पानी रख कर देवरानी पहुँची अपू के पास ! छूकर देखा ,' नहीं देह तो बिल्कुल नही तप रही ,'दीदी,माथे मे दर्द है ?'
अपू ने शायद सुना नहीं।
'दीदी ,कैसी तबीयत है ,कुछ बताओ न। '
उसने आँखें खोलकर नहीं देखा ।
घऱ भर मे शोर मच रहा है ,सब अपना-अपना राग अलाप रहे हैं।
सास झींक रही हैं ,'मै मरूँ चाहे जिऊँ ,परवाह किसे है ? कब से नहा कर बैठी हूँ किसी ने एक कप चाय को नहीं पूछा । ठिठुरते हाथों पूजा के बर्तन माँजे ,सामग्री जुटाई । बुढ़ापे मे किसी का आसरा नहीं...। '
ससुर को शिकायत है ,'मेरा अब कोई पुछवैया नहीं। गुसलखाने मे न गरम पानी पहुँचा न तेल!मेरा ध्यान रखनेवाला कोई नहीं इस घर मे ....।'
ऊपरवाले कमरे मे ननद शोर मचा रही है ,' मेरा सलवार-कुर्ता बिना प्रेस के पड़ा है ....अब तो इतना भी टाइम नहीं कि खुद प्रेस कर लूँ ।....अरे छोटी भाभी..।'
और छोटी भाभी ललिता,रसोई में धीरे-धीरे कुछ कर रही है। सुबह बेड-टी मिली नहीं सिर दर्द कर रहा है।दिन भर का रुटीन बिगड़ गया, सो अलग !
बरामदे मे प्रबोध परेशान- से बैठे हैं। ऐसा तो कभी नहीं हुआ था । उनकी समझ मे नहीं आ रहा है क्या करें । किससे शेव का पानी मागे , कहाँ से अपने कपड़े निकालें !
सुशील ललिता पर झल्ला रहा है ,' तुम एक दिन भी सम्हाल नहीं सकतीं ?'
अपू पर इस सबकी कोई प्रतिक्रिया नहीं । जैसे कान तक कोई आवाज़ पहुँच ही न रही हो ! रुचि एकटक माँ का चेहरा ताक रही है,कार्तिक उदास दरवाज़े के पास खड़ा है।
हरेक को एक ही शिकायत है- घर में इतने लोग है,किसी को मेरा ध्यान नहीं।
हाँ, कितने लोग हैं घर मे ,पर हरेक को कुछ-न-कुछ परेशानी है । किसी का अपना काम ही नहीं हुआ दूसरे को कौन देखे ?
सब बार-बार पूछ रहे हैं ,'अपू को क्या होगया है ?','बड़ी बहू को क्या हो गया है?'
उत्तर किसी के पास नहीं कि उसे क्या हो गया।
ताज्जुब तो यह है कि अब तक किसी को ध्यान नहीं आया कि पूछे ',अपू ,तुम्हे क्या हो रहा है ?'
***
बिदा करते समय माँ ने कहा था ,'बेटी अपनी कोई इच्छा नहीं ,अपना मन कुछ नहीं होता ।वहाँ सबका मन देख कर चलना ।सबको सन्तुष्ट करने मे ही अपना सुख समझना।'
शुरू-शुरू मे बहुत मुश्किल लगा था अपू को।नई ब्याही आई थी ।नये लोग ,नया वातावरण !
सुबह से शाम तक कुछ-न-कुछ काम चलता रहता है।और जब कुछ काम नहीं होता तो सास का घुटनो का दर्द मुखर हो जाता।हर व्यक्ति अपने मन से रहना चाहता है ,और सारी सुविधायें भी । ऐसे कैसे जीवन बितायेगी जहाँ अपना मन ही खत्म हो जाये ।
इतनी चौकस बनी रही , अपू कि कभी टोके जाने की नौबत नहीं आई।गृहस्थी की मशीन चलती रही .उसी का एक पुर्ज़ा बन गई अपर्णा - ऐसा पुर्ज़ा जो मशीन के साथ चलता रहता है ,अविराम !
फिर बच्चे हुए ,रुचि और कार्तिक !पालन - पोषण अपू की जुम्मेदारी ,सास-ससुर की सेवा ,देवर-ननद का ध्यान और घर की व्यवस्था सब अपू की जिम्मेदारी -प्रबोध को हर सुविधा देना तो उसका धर्म है ही ,सबसे प्रथम कर्तव्य !
अपू न दे तो पति को पहनने को कपड़े नहीं मिलते । वह न हो तो सास की पूजा ,ससुर का स्नान भोजन न हो ! देवर कैसे चुस्त - दुरुस्त ऑफ़िस जाये,ननद कैसे कॉलेज मे पढ़े ?
सोचती है कभी,अपू कि वह कपड़े न दे तो पति बनियान पहने ऑफ़िस चले जायेंगे ? कभी-कभी सब-कुछ अपरिचित लगने लगता है उसे । बच्चे मेरे हैं ,पति मेरे हैं ,घर मेरा है - सब कुछ मेरा है ।पर मै कहाँ हूँ ?
अम्माँ ने कहा था मन कुछ नहीं । मन कुछ नहीं तो भीतर-भीतर क्या उमड़ने लगता है ?क्यों होती है इतनी अशान्ति ?कभी ऐसा क्यों लगने वगता है जैसे कोई कलेजे को मुट्टी मे भर-भर कर निचोड़ रहा हो ?बड़ा अजीब लगने लगता है अपू को! पति को,बच्चों को चुपचाप देखती रहती है ।पढ़ने की कोशिश करती रहती है, इनमे कहाँ मेरा अपनापन है?ये मुझे जानते -समझते हैं ? पहचानते हैं मुझे ?
ललिता ने कहा था ' दीदी ,तुम्हारे जैसी आदर्श नारी नहीं बन सकती मै !तुम कैसे कर पाती हो इतना सब ? इतनी ठण्ड मे मुँह- अँधेरे उठ जाती हो ,तुम्हे जाड़ा नहीं लगता ? गर्मी मे तुम घन्टों चौके मे काम करती हो -पसीने से तर-बतर ।तुम्हे कष्ट नहीं होता ?तुम्हे क्या सर्दी-गर्मी नहीं लगती ?'
' मुझे..?मैने कभी सोचा ही नहीं।और जो करना है वह तो करना ही है,सर्दी-गर्मी लगने से क्या फ़र्क पड़ेगा ?'
शरीर तो शरीर है।सर्दी मे हाथ-पाँव ठिठुरते हैं ,अँगुलियाँ सुन्न पड़ने लगती हैं: गर्मियों मे पसीने से लथपथ कपड़े चुभते हैं घमौरियाँ काटती हैं ,पर अपू के मन तक यह सब कुछ नहीं पहुँचता ।
सब काम नियमित चलते रहते हैं ,वही क्रम साल के साल ,बारहों महीने ,तीसों दिन !
देर से उठनेवाली ललिता कहती है,'तुम्हारा मन कभी नहीं करता दीदी, कि सुबह देर तक रजाई ओढ़ कर सोओ ?'
मन ?
फिर मन की बात !यह ललिता हमेशा मन की बात लेकर बैठ जाती है । कहती है जिस लड़के से मेरे पिता ने मेरी शादी तय की थी , वह मेरे मन का नहीं था।
हाँ, उसका मन मिला था अपू के देवर से ! घर मे सब ने ग़ैर जात मे शादी का विरोध किया।ख़ूब झंझट हुआ । पर इधर सुशील अड़ गया उधर ललिता ने जान देने की धमकी दी । झख मार कर दोनो परिवारों को मानना पड़ा।
बेकार मे किया इतना विरोध, झगड़ा- झंझट दोनो घरों के लोगों ने! अरे, किसी से भी शादी हो कौन फर्क पड़ता है! फिर इन्ही दोनो को कौन अंतर पड़ गया!जिन्दगी का ढर्रा तो बदल नहीं जायेगा।चाहे कोई चाहे जिससे शादी करे ! रहना जब उसी तरह है तो इस आदमी या उस औरत से क्या बनना-बिगड़ना है -अपू ने सोचा था पर कहा कुछ नहीं।
गृहस्थी की मशीन, कल शाम तक दुरुस्त थी।रात पिक्चर से आकर ललिता अपू के पास गई थी । खुशी से फूली नहीं समा रही थी । दीवाली के लक्ष्मी-पूजन के लिये सबकी साड़ियाँ आई थीं , वही लेकर आई थी ललिता ,इस कमरे मे । शोभना कहाँ पीछे रहनेवाली थी।तुरन्त हाज़िर हो गई ,पैकेट से निकाल कर चारों साड़ियाँ बिस्तर पर डाल दीं।
'देखना यह अम्माँ की है।' क्रीम कलर की साड़ी अलग हो गई।
रुचि उठा कर साड़ियाँ देखने लगी।उसके हाथ मे हरी साड़ी है-सुनहरा बॉर्डर !अपू की आँखों मे चमक आ गई निगाहें उसी साड़ी पर अटक गईं।
ललिता ने बढ़ कर हाथ मे ले ली,'यह हरीवाली तो मै लूंगी।'
शोभना ने फ़ौरन टोका ,'छोटी भाभी ,तुम्हारे लियो तरबूज़ीवाली आई है,हरी तो बड़ी भाभी की है।'
'ना,ना मुझे नहीं चाहिये तरबूज़ी।इस तरह का शेड मेरे पास है, मै तो हरी लूँगी।'
आज फिर हरा रंग हाथ से निकल गया ! आँखें बुझ-सी गईं अपू की।रुचि समझ रही है।मन-ही-खीझ रही है।सब अपनी कह लेते हैं ,माँ क्यों नहीं बोल पातीं ?कभी नहीं बोलतीं !
'यह पहन कर टीका करने जाऊँगी' मगन सी ललिता बोल रही है ,'दीदी आज पिक्चर मे बड़ा मज़ा आया।'
फिर वह अपू से पूछने लगी ,' दिन-रात घर मे रहते ऊब नहीं लगती तुम्हें ?तुम्हारा मन नहीं करता - बाहर निकलो ,घूमो , फिरो पिक्चर देखो?'
अपू चुपचाप बैठी है।
ललिता ने आकर कहा ,' खाना खाने चलो ,दीदी।'
'भूख नहीं है। '
. ' कुछ भी नहीं खाओगी क्या ?' शोभना ने पूछा था ।
' नहीं। '
बिल्कुल चुपचाप बैठी है अपू ।
मन था क्या कभी ?कब कहाँ चला गया ?खोई सी बैठी है वह।वर्तमान अतीत की गहराइयों मे डूबता जा रहा है --

आठ-नौ बरस की बच्ची है अपू ।
अम्माँ के सामने मचल रही है - धोबन की मुनिया ने जैसी गोटेदार हरी चुन्नी ओढ़ी है ,उसे भी चाहिये ।
अम्माँ समझा रही हैं,' तेरी यह लाल चुन्नी बढ़िया है ,देख मोती जैसी बूँदें चमक रही हैं।'
'नहीं वह चुन्नी अच्छी है ,मुझे तो वही चाहिये ।'
'धत् ,कैसी सस्ती सी चुन्नी है ।और गोटा भी बिल्कुल देहातियों जैसा।'
'नहीं मुझे वैसी ही चाहिये।हरी चुन्नी चाहिये। '
'अरी ,तू धोबन है क्या ?उसकी तो गन्दी है ,तेरी कितनी सुन्दर है।'
' नहीं ,यह खराब है ।यह उसे दे दो।'
रोते-रोते ज़मीन पर लोट रही है।सब समझा कर हार गये।उसे धुन लग गई है- हरी चुन्नी चाहिये गोटेवाली।बहलाये -फुसलाये किसी तरह नहीं मानती अपू। चुन्नी उठा कर ज़मीन पर फेंक दी उसने।समझाने-बहलाने से काम नहीं चला तो दो झापड़ रसीद कर दिये अम्माँ ने।
उसने खाना लहीं खाया ,रोते-रोते सो गई ।
महीनो हरी चुन्नी को भूली नहीं अपू।जब-जब बाज़ार गई उसी के लिये ललकती रही,पर वह न मिलनी थी ,न मिली!फिर वह भूल गई उसे या शायद कहना बन्द कर दिया।अम्माँ कहती हैं यह लड़की हमेशा झिंकाती है मुझे!पराये घर जाकर पता नही क्या करेगी!
भाई बड़े है और छोटी बहिन ना-समझ। अपू की हम- उम्र पड़ोस की दो लड़कियाँ हैं श्यामा और बेबी।उनके साथ खेलने अपू नीचे उतर जाती है।एक बार उतर जाये तो उसे भूख-प्यास कुछ नहीं लगती।इच्छा होती है खेलती रहे ,बस खेलती रहे!
अम्माँ ने ऊपर से झाँक कर देखा,' देखो कब की निकली है खेलने !अरी अपू ,ओ अपरना, आ ।'
श्यामा और बेबी के साथ इक्कल-दुक्कल चल रहा है ,सामने के मैदान मे खड़िया से लाइने खींची गई है।श्यामा और बेबी खड़ी हैं ,अपू एक टाँग से कूद रही है।माँ की पुकार सुनाई नहीं दे रही अपनी धुन मे मस्त है।
बेबी ने बताया ,' अपू ,तेरी अम्माँ बुला रही हैं।'
'आ रही हूँ ' अपू ने आवाज़ लगाई ,' देखो, मै अभी आ रही हूं । मेरी बारी है, तुम रुकी रहना। '
वह ऊपर दौड़ गई।
'क्या कह रही हो अम्माँ ? '
'उन्हीं लड़कियों के साथ सड़क पर खेलना रह गया है ?जुएँ भर लाओगी सिर मे फिर कौन बीनेगा ? '
'जुएँ नहीं भरूँगी । अलग-अलग खेलूँगी।'
'नहीं घर मे खेलो। वहाँ जाने की जरूरत नहीं।'
'अच्छा ,जरा-सी देर ।अपनी बारी पूरी कर दूं।'
'नीचे जाकर तो तुम सब कुछ भूल जाती हो।काफ़ी खेल लिया।अब नहीं।'
'बस अभी आ जाऊँगी।'
अपनी गुड़िया खिलौने बर्तन ले लो ,घर मे खेलो।'
जिद करती रही वह,किसी ने नीचे नहीं जाने दिया।गुस्से मे गुड़िया फेंक दी खिलौने बिखेर दिये और रोने बैठ गई।
पिता ने पूछा ,'क्यों रुला रही हो उसे ?खेल आती जरा देर।'
'ज़िद पूरी कर-कर के सिर चढ़ाना है क्या ?ऐसी ही अड़ियल बनी रही तो कहीं निभाव नहीं होनेवाला।'
फिर स्कूल मे पढ़नेवाली अपर्णा! डिबेट मे पुरस्कार जीतनेवाली,क्लास सबसे अधिक नंबर लानेवाली -अपर्णा !टीचर कहती अपर्णा जैसी लड़कियाँ आगे चल कर जरूर कुछ कर दिखाती हैं।
साथिने ईर्ष्या से देखतीं ,उससे पूछतीं ,' अपर्णा ,तू डाक्टर बनेगी या कलक्टर ?हमे भूल तो नहीं जायेगी? '
और खूब पढ़-लिख कर कुछ कर दिखाने के स्वप्नो मे डूब-डूब जाती अपर्णा । मन ही-मन योजनाएँ बनाती ,ये विषय लेने हैं ,ख़ूब आगे बढ़ना है!
होम साइन्स का तो नाम सुनकर हँसी आती अपू को । उसने देखा है कैसे परीक्षायें होती हैं।स्टोव,कड़ाही,बर्तन लाद-लाद कर लड़कियाँ कुकिंग की परीक्षा देने आती हैं।अपू भी पहुँची थी,अपनी सहेली की बड़ी बहन के साथ ! सामान उठवाने,पानी लाकर देने ,रखवाली करने और इधर-उधर के कामो के लिये छोटी बहिनो का उपयोग ,और किसी-किसी के तो भाई भी साइकिल लिये बाहर खड़े रहते कि कोई ज़रूरत हो त झट् बाज़ार से खरीद कर ला दें।
हुँह,ऐसी होती है परीक्षा ? घर से सारा सामान तैयार करा के ले आईं औऱ गर्म करके सजा दिया; लूट लिये नम्बर !हँसी उड़ाते हुये कहती वह ,'खाना बनाने को घर ही काफ़ी नहीं क्या ?अब स्कूल मे भी यह सब चलेगा !'
'हमारी क्लास मे जाओगी तो तुम्हे भी यही सब करना पड़ेगा।'
' मै लूँगी ही नहीं ऐसा विषय ।'
'फिर सीखोगी कैसे ?'
' सीखूँगी ! हूँह ...यहाँ सीखा किसने है ?सब तो घर से तैयार करवा लिया।ये सिलाई-कढाई भी कौन अपनी बनाई हुई है! दूसरों से बनवा कर नमूने टांक दिये कापी मे ..और किसी-किसी की तो कॉपी भी माँगे की हैं ।मुझे नहीं करना यह सब।'
और घर पर घोषणा कर दी उसने ,मुझे होमसाइन्स नहीं साइन्स लेनी है.।
'अरे साइन्स किस काम आयेगी तुम्हारे ?आगे तो होमसाइन्स ही काम देगी ।'
' मेरे तो अंग्रेज़ी और गणित में सबसे बढ़िया नम्बर आये हैं।आगे कुछ करने के लिये...।'
'आगे करने के लिये ?कौन तुम्हें लाट-गवर्नर बनना है!घर-गिरस्थी मे सब भूल जाओगी।'
अपू के सारे तर्क बेकार गये ।वहाँ कोई सुनने - समझनेवाला नहीं था।हफ़्ते भर का विरोध प्रदर्शन भी काम न आया और हार कर होमसाइन्स लेकर अपू पिछले साल की लड़कियों की कापियाँ लाकर नकल उतारती रही।
सच मे आज वह सब भूल गई है।
समझ मे नहीं आता सुख किसे कहते हैं , दुख किसे । मन क्या होता है ? क्या बनना चाहती थी बिल्कुल याद नहीं रहा?सब विस्मृत हो गया हो जैसे !
***

ललिता आकर पास बैठ गई ।
वह क्या बोल रही है अपू की समझ मे नहीं आ रहा। कभी हाँ कर देती है कभी हूँ।शब्द कानो से टकरा कर लौट जाते हैं।भीतर-भीतर क्या कुछ हो रहा है,यह भी समझ नहीं पा रही।लगता है कोई दनादन घूँसे लगा रहा है - सीधे कलेजे पर।भीतर से मरोर सी उठ रही है।
पता नहीं ललिता कब चली गई।सुशील बैठा है पास मे।
'भाभी, आज शीतल आया था ।याद कर रहा था ,तुम्हे।'
शीतल -सुशील का दोस्त!अपू की बनाई कचौड़ियाँ बहुत पसन्द हैं उसे। बिना भाभी के हाथ की कचौड़ियों के इन लोगों को पिकनिक मे ज़रा मजा नहीं आता।और फिर घर पर चाय-नाशते के साथ चलता है प्रशंसा का दौर!
'मेरे दोस्त कहते हैं भाभी हो तो अपू भाभी जैसी।इतना ध्यान तो उनकी अपनी भाभियाँ नहीं रखतीं ।'
सगा तो अपू को शोभना की सहेलियाँ भी सबसे ज्यादा मानती हैं । उन्हे ज़रा सी भी ज़रूरत हो अपू के पास दौड़ी चली आती हैं।कहती हैं,'शोभना ,तू कितनी सौभाग्यशाली है ,ऐसी प्यारी,हमेशा मदद को तैयार भाभी है तेरी।'
अपू के मन मे सन्देह सिर उठाने लगते हैं - अगर कभी वह उनकी फ़र्माइशें पूरी न कर पाई तो ? तो ये सारा प्यार-प्रशंसा ताश के पत्तों की तरह ....आगे सोच नहीं पाती वह । बस तारीफ़ के रास्ते पर चलती जाती है-चलती जाती है।न चलने पर आलोचना होगी ,शिकायतें होंगी, तिरस्कार होगा ,कटुता बढ़ेगी और जीना मुश्किल हो जायेगा।बड़ी बहू बन कर आई इस घर मे, सबको अपेक्षायें थीं और वह अकेली १ घबरा गई थी पहले तो । प्रबोध किसी बात मे कभी बोलते नहीं ,अपने काम से काम !
पर यह सब पहले की बातें है ,उन पर भी सोच-विचार नहीं कर रही अपू ,बस गुमसुम लेटी है।
' पापा , माँ को क्या अच्छा लगता है ?'
'मुझे नहीं पता ,रुचि ,'अख़बार तहाते हुए प्रबोध ने कहा ।
'आपको कुछ भी नहीं पता ?'
अख़बार मेज़ पर रख दिया उन्होने , कुछ क्षण चुप रहे फिर बोले , ' उसने मुझे कभी कुछ नहीं बताया ।'
' उन्हें तो सब पता है , आपको क्या अच्छा लगता है ,और किसे क्या अच्छा लगता है।'
'तुम्हारी मम्मी ने अपने मन की कोई बात मुझे आज तक नहीं बताई।'
' वे तो हम सबका मन बिना बताये ही समझ लेती हैं।'
कुछ देर खड़ी रह कर रुचि निराश लौट गई । कमरे के दरवाज़े पर कार्तिक उदास खड़ा है।रुचि को आते देख बोला ',जिज्जी ,माँ को क्या होगया? उनका कोई ध्यान नहीं रखता।'
आवाज़ से लगता है अभी रो पड़ेगा । रुचि से एकदम कुछ बोलते नहीं बना ।
फिर कुछ सोचती सी बुदबुदाई,' किसी को क्या पड़ी है ? जब अपने आप कोई अपने लिये न सोचे तो दूसरा क्यों सोचे? मैने माँ से कित्ती बार कहा ,वे सुनती ही नहीं । देखूँ ,क्या कर रही हैं...।'
रुचि कमरे मे घुस गई। अपू सीधी लेटी छत को ताक रही थी।रुचि पलँग की पट्टी पर ठोड़ी टिका कर ज़मीन पर बैठ गई,एक हाथ मे अपू का हाथ पकड़ लिया , 'मोँ,तुम्हारी तबीयत कैसी है ?'
कोई उत्तर नहीं।
'ठीक है मत बोलो ।हमारी बात सुननेवाला हई कौन ? सबको अपनी-अपनी पड़ी है।भैया- हम दोनो फ़ालतू हैं इस घर मे ।'
रुचि को रोना आ रहा है।उसे लगा माँ ने उसका हाथ थाम लिया है , वह और पास खिसक आई।अपू के हाथ पर सिर टिका दिया उसने ।
'सब चाहते हैं हम उनके मन से चलें , और तुम कुछ बोलोगी नहीं...' रुचि चुपचाप रो रही है ,सिर टिकाये ।
अपू का हाथ उसके सिर पर आ गया ।
' घर मे बड़ी होकर अपने लिये नहीं बोलतीं तो हमारे लिये क्या बोलोगी.. ?.'
अपू रुचि की तरफ़ देख रही है - उसे लग रहा है,रुचि नहीं स्वयं अपू पलँग की पट्टी से सिर टिकाये रो रही है।अभी तक ऐसा नहीं लगा था उसे ।
रुचि का स्वभाव बहुत भिन्न है-वह धीरे नही बोलती,गुस्साती है तो चार कमरों तक आवाज़ जाती है।दादी टोकती हैं तो कहती है,'यह घर है या कैदखाना , अपनी बात भी नहीं कह सकते हम ?'
अभी तक अपू को लगता था एक छोर वह स्वयं है,,दूसरा रुचि । बोल-चाल स्वभाव मे बिल्कुल भिन्न ! आज लग रहा है सिक्का एक ही है - एक तरफ़ ऱुचि ,दूसरी तरफ़ वह!अलगाव कहीं है ही नहीं।रुचि के बहाने स्वयं को पहचान रही है वह !
अपू का हाथ रुचि के सिर पर थपकी-सी दे रहा है।माँ का प्यार पाने की आशा मे कार्तिक भी आ कर पलँग पर बैठ गया,अपू की गोद मे झुक आया और उसका दूसरा हाथ उठाकर अपने सिर पर रख लिया।
अपू के चेहरे पर शान्ति-सी छा गई।
***

'माँ,देखो क्या लाई हूँ तुम्हारे लिये...!'
अपू के पास बैठ कर पैकेट खोल दिया रुचि ने ,' देखो माँ ,कैसी है यह ?'
सुआपंखी साड़ी,ज़री का बॉर्डर और बूटियाँ !
'तुम्हारीवाली साड़ी बदलवा लाई हूँ मै ,यह तुम्हारे ऊपर ज्यादा अच्छी लगेगी।'
निर्निमेष देखे जा रही है अपू । मन की किस तह मे छिपी पड़ी थी यह इच्छा ? बचपन की गोटेवाली हरी चुन्नी, स्मृति मे लहरा गई। अपू ने हल्के से सिर हिलाया - स्वीकृति मे ।
रुचि ने साड़ी खोल कर फैलाई और ज़रीवाला पल्ला माँ के सिर पर उढ़ा दिया ।
'देखो न, कितनी सुन्दर लग रही है १'
अपू की आँखों मे सितारे झिलमिला उठे ,जिसे मै खुद भूल-बिसर गई, इसने कैसे जाना ?
प्रबोध रुचि को आवाज़ देते कमरे मे आये हैं।
' रुचि बेटे,तुम यहाँ हो ?दादी को बुरा लग रहा है तुमने उनसे क्या कह दिया ?'
'आप तो पापा , हर बात मे कह देते हैं दादी से पूछ लो । उन्हे कुछ पता भी है ? दुनिया की सारी लड़कियां स्कर्ट-ब्लाउज़ पहन रही हैं । बेवकूफ़ बनने को एक मै ही रह गई हूँ ?'
रुचि की आवाज.ऊँची हो गई है।
ललिता अपनी सफ़ाई देने आगई ,' मुझे क्या पता था ज़रा-सी बात पर अम्माँजी हल्ला मचा देंगी। रुचि का मन था मै खरीद लाई।'
वह जाकर अपू के पास बैठ गई,' अम्माँजी को तो हर बात बुरी लगती है।उनका बस चले तो,अभी से इसे साड़ी पहना दें...।'
प्रबोध उलझन मे पड़े हैं,'उधर अम्माँ नाराज़ हो रही हैं।
' ललिता ,तुम पहले उनसे पूछ लेतीं । '
जेठ के सामने कुछ नहीं बोलती ललिता।उसने सिर्फ़ रुचि की ओर दृष्टि डाली,फिर अपू को देखने लगी।
'तुम्हे लगता है अपने मन का कर लेने से बड़ी हिंसा हो जयेगी ,क्यों माँ ?स्कर्ट-ब्लाउज़ पहन लेने से बड़ा अनर्थ हो जायेगा ?'
उसी समय अम्माँ जी ने कमरे मे पैर रखा ,' सोचा, देख आऊँ बड़ी बहू को..क्या हो गया है?....यहाँ तो पंचायत जुड़ी है।'
प्रबोध बाहर चले गये,ललिता ने खिसक कर अम्माँ के लिये जगह बना दी।
'मै पूछ रही हूँ ,मेरे स्कर्ट-ब्लाउज़ पहन लेने से बड़ा अनर्थ हो जायेगा ?'
'सो बात नहीं है ,बिटिया,..ज़माना बड़ा खराब है । तुम समझती नहीं हो।'
'ज़माना सिर्फ़ मेरे लिये ख़राब है ?'
ललिता ने रुचि को चुप रहने का इशारा किया।
'अम्माँ जी , इतनी बड़ी-बड़ी लड़कियाँ स्कर्ट-ब्लाउज़ पहनती हैं आजकल।रुचि तो अभी छोटी है।'
' छोटी है १इत्ते बड़े पे हमारी शादी होगई थी।'
'दादी तुम अपनी लेकर बैठ जाती हो । अब ज़माना बदल गया है।अच्छा माँ , तुम बताओ। ये पहनना तुम्हे बुरा लगता है?'
' मुझे क्यों बुरा लगेगा ?'
अम्माँ ने ताज्जुब से बड़ी बहू को देखा। बड़ी बहू ने उन्हें प्रश्न भरी दृष्टि से देखा,' वह कोई दुनिया से निराली तो नहीं है !'
ललिता का चेहरा हँसी से भरा है।
अम्माँ कुछ तेज पड़ीं.' हमे क्या ! अधनँग नचाओ, तुम्हारी बिटिया है । हम होते कौन है ?'
बोलते-बोलते उन्हे लगा तीन जोड़ी आँखें उन्हे विचित्र निगाहों से देख रही हैं।उनका सुर फ़ौरन बदल गया, ' पहनो ,बिटिया पहनो । हमे लगा सो कह दिया । अरे, हमे का पता दुनिया मे क्या हो रहा है।और तुम्हारी उमर ही क्या है अभी।'
उसके बाद रुचि को किसी ने नहीं टोका। सब चुप हो गये।
चुप्पी और सहमति एक दूसरे से बहुत दूर नहीं होतीं।
अपू को लगा उसके भीतर एक नई अपू करवट ले रही है।
अम्माँ को शिकायत है इतने दिन हो गये छोटी बहू को आये इस घर मे!अभी यहाँ के ढर्रे पर नहीं आई। कभी चटनी मे लहसुन डाल देती है कभी दाल मे करी पत्ता १अब तक नहीं समझ पाई किस चीज़ मे यहाँ क्या पड़ता है।अरे, पता नहीं तो पूछ तो सकती है !
छोटी का कहना है - ' उसी ढर्रे पर चलते-चलते ऊब नहीं लगती ।मैने तो चेन्ज के लिये किया था !'
जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुये आये और सामने-सामने बोलने लगीं - सास के असन्तोष का पार नहीं । ये अपने आगे किसी को नहीं गिनेगी ! एक हमारी बड़ी बहू को देखो,मजाल है बिना पूछे कुछ भी करे!सत्रह साल हो गये ब्याह को -कभी जो अपने मन की की हो!ऐसा ढाला है अपने आप को कि बस पानी ! जिधर चाहो ढलका दो,कभी चूँ तक नही। हरेक के लिये करने को हमेशा तैयार ! और एक ये आई हैं...! पर सुशील के सांमने कुछ कह नहीं पातीं।जानती हैं अपने मन से ब्याह किया है,उससे कुछ कहने से पहले दस बार सोचेगा । ललिता का घूमना-फिरना ,हँसना-बोलना भी उन्हें सुहाता नहीं । लेकिन कहने से क्या फ़ायदा ? अपनी इज़्ज़त अपने हाथ - न मुँह बाओ न उत्तर पाओ।
रुचि का रिज़ल्ट आ गया है । बड़े अच्छे नंबरों से पास हुई है ! वह साइन्स -मैथ्स लेना चाहती है।
अम्माँ पूछती हैं इन्टर के बाद क्या लड़कों के स्कूल मे पढेगी?
प्रबोध को भी लगता है,यह विषय लड़कियों के कॉलेज मे तो हैं नहीं,रुचि को समझा रहे हैं। वह ज़िद पर अड़ी हुई है,'मुझे पास कर के सिर्फ़ घर पर नहीं बैठ जाना है।आगे कॉम्पटीशन मे बैठना है।'
'लेकिन ,बेटे ,ज़रा सोचो तो,इन्टर के बाद...।'
'मै ने सब सोच लिया है पापा,पहले इन्टर का एक्ज़ाम तो दे लूं।आगे का रास्ता फिर देखा जायेगा ।'
उनका कोई तर्क रुचि के गले से नहीं उतर रहा । अपू चुपचाप सुने जा रही है।
प्रबोध झल्ला उठे ,' तो,अपने ही मन का करोगी तुम ?अपू तुम क्यों नही समझातीं उसे ?'
'कोई ग़लत काम तो कर नहीं रही।पढ़ना उसे है ,अपने मन का पढ़े तो क्या हर्ज है ?'
कभी निर्णय न देनेवाली बड़ी बहू बोल रही है,प्रबोध ने आश्चर्य से देखा।
'हियर,हियर,'सुशील ने ताली बजाई , ' बिल्कुल ठीक कह रही हो भाभी ।अरे, लड़कों के कॉलेज मे पढ़ लेगी तो कौन गज़ब हो जायेगा। नहीं तो होस्टल मे रख देंगे हम अपनी बिटिया को।'
फिर किसी ने आपत्ति नहीं उठाई।किसी को नहीं लगा, लड़की उद्दंड हो रही है।
कोई एक जन भी लड़की की तरफ़ बोले तो सहारा पा जाती है.नहीं तो निपट अकेली रह जाती है वह...अपू ने सोचा। वह उठ कर बैठ गई।
'अब कैसी तबीयत है भाभी?'
' बहुत ठीक।'
रुचि बाहर निकल रही थी,अपू ने उसकी ओर देख कर कहा , ' ललिता से कहो एक कप चाय बना दे।'
अपनी ही धुन मे तेज़ी से बाहर निकल रही रुचि के कानो मे उसकी आवाज़ नहीं पहुँची । प्रबोध उठ कर चल दिए। रसोई के दरवाज़े पर जाकर बोले,' ललिता ,एक कप चाय है क्या?'
'अभी बनी जा रही है ,दादा जी आप पियेंगे?'
'नहीं ,अपू को चाहिये।'
यह कैसी नई बात !
विस्फारित नेत्रों से देख रही है ललिता!दादा जी चौके के दरवाज़ पर पत्नी के लिये चाय ले जाने को खड़े हैं ? अभी तक तो पानी का गिलास तक ख़ुद उठाते नहीं देखा था।
ट्रे लगा कर पकड़ा दी उसने।
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सुबह-सुबह अपू को उठने से रोकते हुए प्रबोध ने कहा, ' क्या करोगी इतनी जल्दी उठ कर ?और लोग भी तो हैं।'
नये दिन की हलचल शुरू हो गई है।रसोई से ललिता ने शोभना को पुकारा। थोड़ी देर मे हाथों मे चाय की ट्रे लेकर आती हुई शोभना ने देखा रुचि पढ़ाई मे लग गई है।एक कप उसके सामनेवाली मेज़ पर रख आगे बढ़ शोभना ने अपू के कमरे का उड़का हुआ दरवाज़ा खोला और दो चाय के कप अन्दर दे कर निकल गई।
' चलो अपू , बग़ीचे मे चलकर चाय पियेंगे । '
अपू की दृष्टि मे अचरज है।
'तुम्हे पेड़ के नीचे बैठना अच्छा लगता है न।'
'तुम्हे कैसे मालूम?'
'समझने की कोशिश कर रहा हूँ।'
अम्माँ ने अपने कमरे से आवाज़ लगाई ,' छोटी बहू,पूजा के बर्तन निकाल कर रख दो,महरी ही माँज देगी। अरे वह भी तो इन्सान है ,बर्तनों में क्या ?''
दो दिनो से जो चल रहा था लोग उसे शुरुआत समझ रहे थे । पर रुचि जानती है वह क्लाइमेक्स थी जो बीत गई । अब सब उतार पर आ रहा है।
गृहस्थी के ढर्रे ने करवट बदली है , दो-चार दिन तो लग जायेंगे नये क्रम को सहज गति पकड़ने मे ।
बरामदेवाली कुर्सी पर कोहनियाँ मेज़ पर टिकाये , हथेलियों पर ठोड़ी जमाये रुचि परम संतुष्ट भाव से बैठी है।
- प्रतिभा सक्सेना.






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