सोमवार, 18 जनवरी 2010

कर्ज़

' उस दिन मैं मर गया होता तो आज को तुम विधवा होतीं ।ये बच्चे अनाथ ... ।..।'
'बस, अब कुछ मत कहना,.' हाथ से बरजते हुये रमना बीच में बोल पड़ी ,' ये तो अपनी-अपनी किस्मत है ।'
'किस्मत ?अरे, मेरी मौत उसने अपने सिर ले ली ।अस्पताल में कितनी पीड़ा झेल कर मरा है वह । '
' खर्चा तो सारा तुम करते रहे !'
' क्या पैसा ही सब कुछ होता है ? कितनी भाग-दौड़, दिनरात की सेवा उन लोगों ने की ! मानसिक कष्ट उन लोगों ने झेला और ज़िन्दगी भर झेलेंगे ।अरे ,मैं तो आधा हिस्सा ही देता हूँ ।अगर तुम पर यह मुसीबत पड़ी होती तो ...कैसे क्या होता सोच कर ही दहल जाता हूँ ?'
' बस ,चुप करो !अशुभ बातें मुँह से मत निकालो ।'
' तुम्हें सुनना भी सहन नहीं होता ,और वह जो झेल रही है ,मेरी वजह से ! '
' किसी की वजह से कोई नहीं मरता ।जिसकी लिखी होती है उसी की आती है ।'
' यह तुम्हें लगता है न !उसके साथ कैसे क्या हुआ मुझे मालूम है ।मैंने जो देखा है ,जो बीती है मुझ पर वह तुम नहीं जानतीं और जान सकती भी नहीं ।तुम वहाँ होतीं तब जानतीं ।मैं जो कर रहा हूँ वह कितने साल ? उसके लड़के कमाने लगेगे तब क्या वह कुछ लेंगे हमसे १'
प्रकाश के मुँह से अनायास निकलता चला जा रहा था ,
' वह तो अभी भी कहती है -भाई साहब दूकान डलवा दीजिये, लड़का बैठेगा पर मैं सम्हालूँगी ।आपने बहुत किया पर आपकी अपनी गिरस्थी है ।मैं बहिन के सामने सिर नहीं उठा पाती ।'
' तो दुकान डालने में क्या हर्ज ?'
' उसके सपने थे एक बेटे को डाक्टर एक को वकील बनायेगा , मैं कम से कम उन्हें पढ़ने-लिखने में मदद कर सकता हूँ ।आगे वो जो करें वह उनकी किस्मत !उस दुखी विधवा को देख मुझे तुम्हारा ध्यान आता है ,वह दुख मुझसे सहन नहीं होता ।'
' मत कहो ।आगे से कभी मेरे लिये ये शब्द मत बोलना ।'
' उन बच्चों के चेहरे देखे हैं तुमने ?कितने खुश थे पहले ।अब कैसे हो गये हैं -क्यों ?कभी समझने की कोशिश की तुमने ?नहीं न ?अपने बच्चे होते इस हालत मैं तब .. ..?'
कानों पर हाथ रख लिये रमना ने ,चीख उठी ,' बस करो !नहीं सुना जाता मुझसे।मेरे बच्चों के लिये मत कहो ऐसे !'
' ओह ,सुन कर मन इतना इतना खराब हो जाता है।अगर ..खैर जाने दो ।....और वह -जो दूसरे का दुर्भाग्य जिन्दगी भर झेलेगी ? उसका कर्ज़दार तो मैं हूँ ।'
रमना सन्न बैठी है ।
' तुमने वह नहीं देखा जो मैंने देखा है ।अपनी मौत देखी मैंने ,तुम्हें .बच्चों को कैसै-कैसे देखा- क्या-क्या सुना ..कैसी गुज़री मेरे ऊपर , तुम कुछ नहीं जानतीं ।'
अवसन्न-सी रमना को देख प्रकाश चुप हो गया ।
अब भी ,चन्दू की मृत्यु की चर्चा सुनता है ,तो सिर घूमने लगता है - कानों में आवाज़ें आने लगती हैं।
तमाम लोग इकट्ठा हैं ।हाँ, पुलिसवाले ,अखबारवाले और जाने कौन-कौन ।खोज-बीन चल रही है ।
लोग कह रहे हैं 'प्रकाश वर्मा मर गया ।...चेहर पहचान में नहीं आ रहा ।... 'च्च्चच् चच्च' हो रही हं ।.....,उधर देखो पिछली सीटवाला आदमी हिल रहा है... लगता है होश आ गया ।...क्या नाम है ?...ये जाकेट में पर्स और कुछ कागज़-पत्तर निकले हैं ।...हाँ ,चन्द्रभान है ...।चन्द्रभान होश में आ गया है ।...और प्रकाश ?बुरी तरह घायल -शरीर की दशा देखो ज़रा ,, उफ़ देखा नहीं जात... पता नहीं बचेगा या नहीं ,होश ही नहीं है ।... जाकेट में रखे पर्स से और कागजों से पहचान हो गई है ।
' प्रकाश' नाम सुनकर कुछ-कुछ होने लगता है ,अंदर कुछ हिल जाता है ।
क्षत-विक्षत ,बेहोश और मृत ! कितने नाम लिये जा रहे हैं पर एक यही नाम जाकर बार-बार मन से टकराता है ,कानों में बार-बार गूँजता है ।' प्रकाश' ,' चन्द्रभान ' कितने जाने-पहचाने नाम ।कौन हैं ये ?मैं कौन हूँ ?
सब कह रहे हैं मैं चन्द्रभान हूँ -हो सकता हैं । भारी चोट लगी है सिर पर अभी तक चक्कर खा रहा है ।कैसा अजीब अजीब लग रहा है । दिमाग़ मे कुछ आता है, फिर एकदम गायब हो जाता है ।
बोलने की कोशिश करता है गले में आवाज़ नहीं, जीभ हिलती नहीं।
आवाज़ें ही आवाज़ें ।बस सुन रहा है ।
' हाँ होश आ गया -चन्द्रभान को ...बस में उछल गया ऊपर सिर टकराया था..., पाँव पर कुछ भारी चीज़ गिरी है ।उँगली से खून बह रहा है बिल्कुल पिच गई ।'
वह अपना पाँव देखने की, हिलाने की कोशिश करता है ।आँखें खुलती नहीं ,शरीर पर वश नहीं।
सारे इन्द्रिय-बोध कुंठित हो गये हैं, शरीर विल्कुल सुन्न । कुछ जानने -समझने में सामर्थ्य चुक गई-सी !
आज भी प्रकाश की नज़र अपने पाँव पर जाती है ।उसे भ्रम होने लगता है -यह उँगली किसकी है -पिची हुई उँगली चन्द्र भान की थी ?और फिर मैं .?
याद कर उसी मनस्थित में पहुँच जाता है ।भ्रम होने लगता मैं कौन हूँ? प्रकाश ?चन्द्रभान ?
सिर घूमने लगता है सब कुछ भूल जाता है सोचने -समझने की क्षमता ग़ायब हो जाती है ।मैं कौन हूँ ? पहचानने की कोशिश करता है। चारों ओर देखता है ।।कुछ अपना नहीं लगता ।घर ,पत्नी ?! ध्यान से देखता है सबको ।सब अपरिचित-से ।
उस काल उसके भीतर का ' मैं ' कुछ नहीं रहता, कहीं नहीं रहता ।जैसे विलीन हो गया हो - न वर्तमान ,न अतीत -कहाँ होता है कुछ पता नहीं ।
समय का कौन सा विभाग है जो सब निगल लेता है ।जहाँ जाकर बार-बार फँस जाता है प्रकाश ?

***
बड़ी आसानी से टिकट मिल गया था उस दिन।
बस भरने में भी अधिक समय नहीं लगा ।
अभी तो घाटी में काफ़ी दूर चलेगी ।पहाड़ों के पास आते ही ठंडक बढ़ने लगेगी ।
थोड़ी चाय अभी थर्मस में है ।पी ली जाय ।प्रकाश उठा और टँगा हुआ थर्मस उतारने पीछे घूमा ,बस के झटकों में बैलेन्स बना रहा था कि पीछे से आवाज़ आई -
-' अरे ,प्रकाश !तुम भी चल रहे हो ?'
पीछे घूम कर देखा उसने -
'वाह चन्दू ,तुम कहाँ से टपक पड़े ?'
उसका बचपन का दोस्त चन्द्रभान।चलो, रास्ता अच्छा कटेगा ।
चन्दू उठ कर चला आया ।
'तुम कब आये ?मैंने देखा नहीं ।'
' बस भरनेवाली थी ,वो तो ये कहो सीट मिल गई ।पीछे ही सही , बैठने को तो है ।'
प्रकाश की सीट पर दोनों आगे पीछे होकर बैठ गये ।
' कितनी अच्छी जगह पाये हो ।तीनों तरफ का व्यू बस तुम्हारा ही है।
प्रकाश को आगे ड्राइवर के साइड में सीट मिली थी ।सामने का पूरा व्यू ।साइड के शीशे भी अपने।
पहाड़ों पर पहली बार जा रहा था चन्दू । दृष्य देखने का लोभ प्रकाश की सीट पर खींच लाया था ।
' इधऱ बैठना है ?'
' नेकी और पूछपूछ ।'
मेरा तो महीने में एक चक्कर लग ही जाता है इसलिये कुछ नया नहीं लगता । कल रात जगना पड़ा, आँखें बंद हुई जा रही हैं ।
' तो तू चला जा मेरी सीट पे ।आराम से सोइयो ।'
' ठीक है ।तू चाहे तो खुशी से बैठ यहाँ ।मैं उधऱ सो लूँगा ।पहली बार जा रहे हो ऊपर ?'
'हाँ ,नीचे तो हमेशा घूमता रहा हूँ ।ऊपर जाने का मौका नहीं लगा ।एक बार हो आऊँ फिर बीवी-बच्चों को भी घुमा दूँगा ।'
' तो मैं जा रहा हूँ तुम्हारी जगह ।पर इधर वो शीशे की सँध से बला की ठंडी हवा आयेगी फिर मत कहना कि ...।'
'नहीं कहूँगा ,नहीं कहूँगा तेरी सीट की बला मेरे सिर !बस और कुछ ?

पहाड़ों की परिक्रमा करती बस आगे बढने लगी थी ।हरियाली से भरी घाटियाँ और ढलानो से ऊपर उठते पेड़ ,जिन पर लिपटी लतायें कहीं कहीं माला जैसी लटक रही थीं ।कहीं ऊपर से गिरते झरने , कहीँ छोटे छोटे गाँव ।
सामने की हवा खिड़की की सँधों से आ रही थी ।प्रकाश को झुरझुरी हो आई ।
' सामने बैठोगे तो रात पड़ते ही ठिठुर जाओगे ।'
'जाकेट पहन लूँगा ।तुम फ़िकर मत करो ।'
पहाड़ों पर पहली बार जा रहा था वह। दृष्य देखने का लोभ था प्रकाश की सीट से सब कुछ दखाई देता है न ।
प्रकाश उठ कर चल दिया ।फिर घूम कर बोला
अरे, मेरी जाकेट सीट पर रह गई देखना ,मोटी है पहन लेना नहीं तो कुल्फ़ी जम जायेगी ।'
'कोई बात नहीं मेरी भी उधर है ,ऐसे ही उठ कर चला आया था । पहन लेना जरूरत हो तो ।'
'ठीक है , मुझे क्या ?फिर जैसा हो तुम्हीं निपटना ,मुझे दोष मत देना ?
'कह दिया न तेरी बला मेरे सिर अब तू जा ,निश्चिंत सो ।!'
और मेरी बला उसने अपने सिर ले ली ।उसे क्या पता मेरी सीट पर क्या बला टूटने वाली है ।उसने तो भावी जीवन के कितने अरमान सँजोये थे ।सब बताता था मुझे । वे सारी बातें मुझे याद हैं ।पर अचानक सब बदल गया । मेरी जगह वह चला गया ।
***
बड़ा मुश्किल लगता है ,रमना को ।कभी-कभी तो असहनीय हो उठता है ।प्रकाश से नहीं कहे तो किससे कहे ?
रहा नहीं गया तो बोली -
'जाने कैसी छाया-सी छाई गई है हमारे घर पर ।'
'छाया ही छाई है न ?वज्रपात तो नहीं हुआ ?किस पर गिरनी थी और किसने झेल ली । जिस पर गिरी उस की सोचो ।'
क्यों कहते हैं ऐसा ?
क्यों कहता है प्रकाश ?
वज्रपात हुआ था उस दिन ।हुआ था उसी जगह.... पर किस टूटना था किस पर टूट पड़ा । ...
चन्दू ने कहा था -
'तेरी बला मेरे सिर ।जा, निश्चिंत सो जा ।'
और वह निश्चिन्त सो गया था ।
चन्दू की सीट कोज़ी लगी थी , सामने वाली ठण्डी हवा की सिहरन यहाँ नहीं थी ।
पहाड़ों पर बस चक्कर खाती घूम-घूम कर चल रही थी ।कभी खाई इधऱ, पहाड़ उधऱ ,कभी पहाड़ इधऱ खाई उधऱ ।
नीचे घरघराती बहती नदियां काफ़ी दूर साथ चल कर ओझल हो जाती थीं ।जलधार धूप में चमकती कभी पथरीली सतह पर फुहारे बिखेरती ।
चन्दू कभी सामने शीशे से देखता फिर सिर घुमा कर साइड से दृष्य को पकड़ने की कोशिश करता ।
कितने सुन्दर दृष्य हैं अबकी बार बसन्ती और बच्चों को पहाड़ की सैर करा दूँगा ,' चन्दू बोला था ।
जाने कब प्रकाश की आँख लग गई ।
पता नहीं कितनी देर सोया ।अचानक बड़े ज़ोर के झटके से उछल गया । प्रकाश का सिर छत से जा टकराया ।लोग ऊपर-नीचे झोंके खाते चिल्ला रहे थे। ऊपर रखा सामान लोगों के ऊपर आ-आ कर गिर रहा था ।चारों ओर -चीख पुकार ।प्रकाश गिरा तो अपने को सम्हाल नहीं पाया, एकदम वहीं गिर पड़ा ।एक हाथ इधर दूसरा नीचे दबा ,पाँव बीच के रास्ते में फैले हुये।फिर क्या हुआ कुछ नहीं मालूम ।चेत आया तो सीट पर टिका था ।किसी ने साध कर सीट पर कर दिया था। ' क्या हुआ' -प्रकाश के मुँह से निकला ?
धीरे-धीरे समझ पाया ।उनकी बस की टक्कर हो गई थी ,दूसरी बस तो झटका खाकर नीचे खड्ड में जा गिरी।
ज़रा स्थिर हुआ तो देखा चारों ओर ख़ून ही ख़ून।साइड का शीशा टूट कर यात्रियों के खुले अंगों हाथों और चेहरों को घायल कर गया था । कुछ लोग बेहोश पड़े थे चीखें ओर कराहें चारों ओर गूँज रही थीं ।
चन्दू कहाँ है?
कुछ पता नहीं ।छत की टक्कर से सिर में घुमनी आ रही हैं ।पाँवों पर कोई भारी चीज़ ऊपर से आ गिरी थी कितना दर्द ।पाँव !हिलाते बन नहीं पाता कहीं हड्डी तो नहीं टूट गई ?
पता नहीं चन्दू कैसा है
इतनी बुरी टक्कर थी ! आगे की सीटों की हालत सबसे खराब है ।पता नहीं कितने बचेंगे ! इधर ये 6-7 बुरी तरह घायल हैं ।कुछ थोड़ा होश में हैं ।बाकी तो ..।'
आगे के कुछ लोग बुरी तरह घायल ,उनका बचना मुश्किल है । इस तरफ़ पाँच -छः तो गये !
और चन्दू आगे बैठा था ।
चन्दू को पुकारना चाहता है ।मुँह से आवाज़ नहीं निकलती ।सिर घूम रहा है ।

कैसा-कैसा लग रहा है ।चन्दू का बार-बार ध्यान आ रहा है ।कैसा है वह ?
जो लोग सामने बैठे थे ,उनके बारे में जानना चाहता है ।पर मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही ।.बार बार सुन रहा है आगेवालों को .सबसे ज़्यादा चोट आई -बहुत बुरा हुआ उनके साथ । ।
अब भी इस कटी उँगली को देखते ही प्रकाश को याद आ जाता है । चंदू की उँगली है सब कह रहे थे ,और जो शरीर खून से लथपथ निश्चेष्ट पड़ा था वह मेरा । कभी-कभी सचमुच लगने लगता है प्रकाश मर गया था उस दिन। यह जो ज़िन्दा है चन्द्रभान है ,चन्दू !
उसे लगता है वह न इधर में है न उधर में ।
**
विवाह के बाद चन्दू मिलता था तो भावी जीवन की योजनायें बताता था ।उसकी शादी प्रकाश से दो साल पहले हुई थी । दो बच्चे हो गये थे -प्रकाश के बच्चों से बड़े ।
साधारण क्लर्क की चाहना थी एक डाक्टर बने ,और दूसरा बेटा इंजीनियर ,सी.ए. या औऱ कुछ। कोई बढ़िया लाइन ।सब को पढा-लिखा कर ....औरे क्या क्या .कहता था ?..एकदम उतर गया उसके दिमाग से । क्या सोच रहा था याद नहीं आ रहा ।
सिर मे ऐसी घुमनी आई , सब ओझल हो गया ।
बार बार सुनाई देता है प्रकाश वर्मा की मृत्यु हो गई ।जाकेट की जेब से पर्स निकला उसी से पहचान हो रही है ।पत्नी और बच्चों की फ़ोटो देख कर लोग 'चच्च्चच' कर रहे हैं ।यह स्त्री विधवा होगई ,बेचारी को पता भी नहीं ।बच्चे अनाथ हो गये । अरे ,कोई घर पर ख़बर भेजो ।अब तो लाश ही पहुँचेगी ।उसे अपनी विधवा पत्नी और अनाथ बच्चे दिखाई देने लगते हैं ये सब क्या कह रहे हैं ।।प्रकाश मर गया ,ओफ़ सिर घूम रहा है ।मैं मर गया हूँ .मरने के बाद ऐसा ही लगता है क्या ?बहता खून शीशों से बिंधा घायल विरूपित चेहरा ,यह मैं हूँ ?
सब कह रहे हैं प्रकाश का शरीर है - कुछ बचा ही नहीं इसमें ।
कितने लोग इकट्ठा हैं - सब कह रहे हैं प्रकाश मर गया ।मैं कौन हूँ ?सब धुँधला गया है ,कुछ भी भान नहीं ।!प्रकाश ?यह नाम बड़ा परिचित है ।नाम तो कई लिये जा रहे हैं इस नाम से मैं क्यों चौंक रहा हूँ । बार- बार क्या हो रहा है मुझे ? जैसे आँखों के सामने से सब कुछ ग़ायब ,अजीब सी सनसनी ।मरने पर ऐसा ही होता है ?
कानों में आवाज आ रही है - चंद्रभान के सिर में चोट लगी है ।हाँ होश में है -थोड़ा-थोड़ा ।
चंद्रभान ?चन्दू !लोग उसके पास आ गये हैं ।नाक के आगे हाथ लगा कर देख रहे है साँस चल रही है । यह तो मैं हूँ ।मैं ..मेरा नाम ..?
, ये लोग चंद्रभान कह रहे हैं ।
औह सिर घूम रहा है ।कौन हूँ मैं ,कहाँ हूँ ?
जो चंद्रभान है , ज़िन्दा है ।प्रकाश मर गया
लेकिन मैं ?मैं कौन - सोचते ही सब गड्मड्ड होने लगता है, सिर के अन्दर कैसे झटके से उठते हैं ।चारों तरफ़ भनभन की आवाज़ सुनाई देने लगती है ।मैं जिन्दा हूँ या मर गया ? कुछ समझ में नहीं आता ।रोशनी है ,अँधेरा है क्या है ।क्या हो रहा है सब घूम रहा है ?अरे, मेरे साथ सब घूम रहा है ।ये चक्कर छोटे,और छोटे, और छोटे होते जा रहे हैं ,जैसे बहुत अंदर से कुछ खिंचा जा रहा है । झकझोरा देती चेतनायें क्षीण होती जा रही हैं , साथ छोड़ती जा रही हैं ।पता नहीं क्या हो रहा है - बेबस ,अकेला ,निरुपाय!
**
वह उदास रहता है -हर समय कुछ सोचता-सा ।-- मेरी बला उसने अपने सिर ले ली ।उस बेचारे को भान भी न होगा कि इस सीट पर क्या बला टूटने वाली है ।अन्दाज़ तो मुझे भी नहीं था पर जो हुआ वह मेरे लिये था । भावी जीवन के कितने अरमान सँजोये थे उसने ।शादी के शुरू के कुछ साल तो पत्नी ससुराल में रही थी ।दो बहनों की शादी होनी थी।चन्दू सबसे बड़ा बेटा था ।सब बताता था मुझे ।अब बसन्ती को साथ रखूँगा ।पर अचानक सब बदल गया । मेरी जगह वह चला गया दिमाग़ में !और भी बहुत कुछ बराबर घूमता रहता है ।

रमना पढ़ी-लिखी है समझदार। पर मन नहीं मानता ।हज़ार तरह के तर्क सामने रखता है - बीतती उसी पर है जिस पर बीतनी होती है ।और सब तो उपकरण बन जाते हैं ,उस परिणति के लिये !मैं क्या कर सकती हूँ?किसी का कोई बस नहीं होता ।होनी हो कर रहती है ।
अपना आदमी सामने-सामने आधी कमाई उस परिवार पर खर्च कर देता है ।कैसे समझाये उसे ?और कोई मेरे लिये यह सब करता अगर मैं ...? नहीं,नहीं हे भगवान ।
आगे नहीं सोच पाती। उस रूप में अपनी कल्पना भी असह्य है ।
मिन्टू और मीतू को देखती है ।फिर उसके बच्चों का ध्यान आता है ।।जी भर आता है ।
नहीं ऐसा नहीं हो सकता ।पति तो मेरा है ।
तुम्हारे पति को हटा दिया था उसने वहाँ से जहाँ मौत टूटने वाली थी ।और खुद उसकी चपेट में आ गया
तभी तुम विधवा नहीं हुई ।
वह सिहर उठती है ।
लोग कहते हैं -प्रकाश बाबू ,तुम्हारे जैसा होना इस ज़माने में मुश्किल है । इतना कर पाना तो किसी के बस की बात नहीं , और वह भी सिर्फ मित्रता के नाम पर ?असंभव ।
पर असंभव क्या है ।दूसरे की बला अपने सिर लेना संभव है ?उससे कह देना कि तुम निश्चिंत रहो ,मैं झेल लूँगा तुम्हारी जगह पर ?कोई संभव मानेगा ?
पर ऐसा हुआ है ।असंभव कुछ नहीं होता ।
प्रकाश सोचता है - उसने जो किया उसकी भर पाई क्या संभव है ?
रमना से कहा था उसने -हम सब पर उसका कर्ज़ है,उतारने की कोशिश कर रहा हूँ ।
कुछ कह नहीं पाती रमना ।बस सोचती है - दुनिया में क्या कोई मरता नहीं ?सब अपनी मौत मरते हैं।

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' अब जाड़े आ गये हैं ।स्वेटर बिनने को ऊन लाऊंगी और तुम्हारा कोट भी बड़ा पुराना-सा लगता है ।एक महीने में कपड़ा लेकर दूसरे में सिलवा लेना।'
'मुझे अभी कोट की ज़रूरत ही नहीं ।यह वाला तो अभी दो साल और चलेगा ।'
अरे, देखो कितना घुर्रैला लगने लगा है । तुम तो कपड़ों के मामले में बड़े चौकस थे ?.
' समय-समय की बात है ।जाड़े से बचाव का इन्तज़ाम है वही काफ़ी है ।और स्वेटर भी मुझे अभी चाहिये नहीं ।पूरी बाहों का - और दूसरावाला दोनों ठीक हैं ।तुम लोग अपने लिये बनवा लो ।'

' अपने बनवा लो ?' कैसे आराम से कह दिया !
क्या करे रमना ?प्रकाश की कठिन मुद्रा के आगे बोलना मुश्किल हो जाता है ।और खुद भी तो ....!
एक शर्ट नहीं बनवाई ,वही घिसी पहने चल देते हैं ।अब तो खुद ही प्रेस करने बैठ जाते हैं ।कहो तो करते हैं -अपना काम कर रहा हूँ ,काहे की शरम ?उसे प्रेस करने को दो तो दो दिन तो वहीं पड़ी रहेंगी और मेरे पास तीन शर्ट हैं ।कहीं जला दीं या फाड़ दीं तो... ?वह तो कह कर छुट्टी पा लेगा -साब पुरानी थी प्रेस करने में फट गई,नुक्सान तो मेरा होगा ।'
'तभी तो कहती हूँ ...।'
'क्यों पुराने कपड़े क्या फेंक दिये जाते हैं ? मैंने कह दिया मुझे अभी नहीं चाहिये ।'
हर महीने डेढ सौ रुपये अपनी जेब में रखते थे - बाहरी खर्च , चाय-पानी ।अब नहीं लेते ।कह देते है क्या करूगा ?घर खर्च के काम आयेंगे ।
रमना सब समझ रही है। खिसियाती है ,कुढ़ती है ।कमाते हैं इतना ,अपने को ही कसते जा रहे हैं ।
पहले वाले प्रकाश कहाँ खो गये -ठहाके लगाते ,खाने में नुक्ता-चीनी करते ,अच्छा पहनने-पहनाने के शौकीन प्रकाश ?
अब तो सब छोड़ते जा रहे हैं ।
कुछ कहने को नहीं ,बेबस हो रह जाती है ।रोना आता है - कैसे करे ,क्या करे ?ऑफिस में चाय-नाश्ता करते थे बंद कर दिया है
उसने कहा था ,'आफिस में इत्ती देर बैठते हो भूख तो लगती होगी ?'
' भूख नहीं लगती ।'
अपना आदमी खुद को कस कर दूसरों पर खर्च दे हम देखते रह जायँ ,मन तो दुखेगा ही ।एक दो बार नहीं हर महीने !जैसे उधार चढ़ा हो उनका !
उसे याद है प्रकाश ने कहा था -
'हाँ ,उसका कर्ज़ है मुझ पर ।'
कितनी योजनायें थीं ।पहाड़ों पर तो ले जा चुके हैं अबकी बार साउथ जाने का सोच रहे थे ।अब तो हो चुका ।रमना बस जा रही है ।
बड़ा मन था अब के देवर की शादी में भाभी जैसी मैसूर सिल्क की साड़ी पहने ।और यह मंगल-सूत्र कितना पुराना लगता है ,नये डिज़ाइन का तीन लड़ोंवाला बनवाने तमन्ना थी ।कितना सुन्दर लगता है बीच में काले मोतियों की लड़ और दोनों ओर सुनहरी चेन !अपने गलें में उसकी कल्पना करते अचानक बसंती का सूना गला और उजड़ी माँग सामने आ गई ।
नहीं मुझे कोई जल्दी नहीं है ।सुविधा से सब हो जायेगा ।
प्रकाश कहते हैं उस दिन वह नहीं होता तो मैं मर गया होता मेरी मौत की जगह उसने ले ली ! क्या सचमुच ?
रमना के मन में द्वंद्व मचा रहता है । अगर, चन्दू भाई साब इनकी जगह न आये होते ?तो आज बसन्ती की जगह मैं ..?.नहीं ,नहीं जो होना होता है वही होता है ।उसके साधन अपने आप बन जाते हैं इसमें मेरा क्या दोष ? मैं क्या करूँ ?
अरे ,मैं तो मैं ,बच्चे भी छोटी-छोटी चीजों के लिये डाँट खा जाते है ।मन मसोस कर रह जाते हैं ,बेचारे !दीवाली पर आधे पटाखे और मिठाई उधर चली गई।
बच्चों से कहा था प्रकाश ने -बेटा ,उनके पापा मर गये ,कौन लायेगा ?बेचारे दीवाली में भी ऐसे ही रहेंगे ?ज़रा सोचो जिसके पापा नहीं होते उन्हें कैसा लगता होगा !'
और बच्चों ने कह दिया ' पापा ,इसमें से आधा उन्हें दे दीजिये ।'
' तो बेटा तुम खुद पहुँचा आओ ।'
चलो ,ठीक है उनकी भी दीवाली मने ,पर हर बार बच्चों का हिस्सा बँटता रहे ? जी दरकने लगता है उसका ।

मन मानता नहीं और मना कर पाती नहीं ।
कितनी अच्छी तरह सब चल रहा था ।
कभी-कभी जी करता है जाये बसंती के पास ।वह आराम से रह रही है,निश्चिन्त! किसके बल पर ?
पूछना चाहती है बसन्ती से कि हमारे हिस्से का लेते तुम्हें कुछ झिझक-शरम है या नहीं ?दूसरे के सिर पर कब तक डाले रहोगी अपना बोझ ।तुम्हें कुछ करना चाहिये ।

ताव में एक दिन पहुँच गई उनके घर 1
देखा, उजड़ी सी बसन्ती, सफ़ेद धोती में हाथ गला सब सूना ।आँखें रोई-रोई ।उसे देख दौड़ कर आई कंधे से लग गई ,' बहन ,तुम लोग नहीं होते तो क्या होता हमारा ?हमारे लिये तो भगवान हो तुम दोनों ।ये बच्चे न पेट भऱ खा पाते न स्कूल जाते !सब तुम्हारी दया है ,तुम नहीं चाहतीं तो भाई साहब कहाँ कुछ कर पाते !बहुत वड़ा दिल है तुम्हारा !'
' सबर करो बहिन , दुख तो किसी पर भी पड़ सकता है ।एक दूसरे के काम न आये तो इन्सान कैसा !'
'अपने रिश्तेदार ,हमारे सगे भाई -बहन बातें बड़ी-बड़ी करते थे । करने की नौबत आई तो सब किनारा कर गये !आप तो इन्सान नहीं देवता हो ।भगवान ने तो नइया बीच धार में डूबने को छोड़ दी थी हमारी ।असली खेवनहार तो आप बने हो ।हमारी आत्मा से हमेशा दुआयें निकलती हैं । हमेशा आपके एहसान तले दबे रहेंगे ...आपका ऋण ...'।
' बस,बस ।बसंती बहन , इतना मत कहो ।यह तो फ़र्ज़ है हमारा ।आज को तुम मुसीबत में हो ,अगर हम होते ..' कहते-कहते वह काँप गई ।
अंतर में कोई बोल उठा -किसका किस पर ऋण है कौन जाने !
'हमने तो भाई साहब से पहले ही कहा था ,जो हमारे पास है सब लगा कर लड़के को दूकान डलवा दें ।वो तो बस बैठेगा ,सम्हालेंगे हम ।पर भाई साब को ठीक नहीं लगा ।कहने लगे -चंदू ने क्या-क्या अरमान सँजोये थे।बहिन, उनके अरमान उनके साथ गये ।पर हम भाई साहब की बात कैसे टालें? हमारे लिये तो देवता हैं वो और आप ।जो शिकन नहीं लाईँ माथे पर ! कहने लगे लड़के को पढ़ने दो । जितना हो सके उसके सपने पूरे करो । हम सहारा लगाये हैं ।
' उन्हीं ने तो हमारी ट्रेनिंग के लिये भाग-दौड़ की ,हमारे बस में तो कुछ नहीं था ।कभी घर से निकले नहीं ,बाहर क्या होता है कुछ पता नहीं ।
' टीचरी की ट्रेनिग के लिये फ़ार्म भरा है हमने ।बस ,एक बार नौकरी लग जाये। फिर तो खींच ले जायेंगे ।एक बार पाँव पर खड़े हो जायें ।।थोड़े दिन और ....।'
बसन्ती कहे जा रही थी ,' 'बहुत दिन आपका हिस्सा नहीं बटायेंगे '
मेरा हिस्सा ?रमना काँप गई ।मेरा कौन सा हिस्सा महादुख का या ..?
कुछ रुक कर बोली ,'हाँ बताया था इन्होंने ,बल्कि हमीं ने सुझाव दिया था कि आप अपने पाँव पर खड़ी हो सकें तो अच्छा। .किसी की दया पर कहाँ तक पड़ी रहेंगी !'
' हाँ बहिन ,हम तो ज्यादा पढे-लिखे हैं नहीं ,इन्टर पास हैं ।एक बार लग जायें फिर तो मेहनत कर आगे भी इम्तहान दे लेंगे ।'
' बस ऐसी ही हिम्मत रखना ।.'.
' सहारा आप लोगों का है ,हिम्मत भी आप ही दे रही हैं ।आप जो कर रहे है,उसे कैसे चुका पायेंगे हम ?'

चुकाना तो हमें है ,तुम्हारे पति जो चढ़ा गये हैं ,तुम नहीं जानती ,बसन्ती, ' रमना के भीतर कोई बोल उठा ।

उसे धीर बँधा कर चली आई वह ।उसकी जगह अपनी कल्पना नहीं कर सकती ।
नहीं ,बिल्कुल नहीं !
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' सिर्फ़ इन्टर. पास से क्या होता है आज कल ?बसंती एक साल की ट्रेनिंग करने जा रही है।फिर कहीं टीचर लग जायेगी ।और कौन सा काम करेगी बिचारी ? कभी अकेली बाहरी दुनिया में निकली नहीं ।'
प्रकाश ने कहा था,' पर आज वह जैसी है कल वैसी नहीं रहेगी। '
रमना सोच रही है - भारी दुख पड़ा है उस पर ।जीने के लिये उसे बदलना होगा ।
अच्छा है, बाहर निकल कर काम करेगी ।दुनिया का ऊँच-नीच समझेगी ।बिचारी इन्टर पास है ।कर ले जायगी धीरे-धीरे। परीक्षा हो रही है उसकी ।
कितने उदाहरण सामने हैं ।पति की मृत्यु के बाद औरतें कहाँ से कहाँ पहुँच गईं -सिर्फ़ अपनी मेहनत और के बल पर । यह भी कर लेगी ।जब दुख पड़ा है तो उबरने का उपाय भी सुझा देगा ।
आज जैसी है कल वह वैसी नहीं रहेगी । अपने पाँव पर खड़ी हो जायेगी ।फिर उसे किसी की सहायता की जरूरत नहीं रहेगी ।
समय के साथ धीरे-धीरे दुख की तीव्रता कम हो जायेगी। निराशा के बादल छँट जायेंगे ।नई दिशायें खुल जायेंगी और बसती भोगे हुये दुख का गहन गांभीर्य समेटे अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करेगी । अपनी रुचि के अनुसार जीवन जीने को स्वाधीन होगी ।किसी की दया की पात्र नहीं अपने श्रम की उपलब्धि से गौरवान्वित ! शिकायतों की जगह गहरे आत्मतोष की आभा से दीप्त !
व्यक्तित्व संपन्ना हो जायेगी बसंती !
आज कल उसके दिमाग में बसंती छाई रहती है ।उसे याद आ जाती हैं अपने कॉलेज की लेक्चरर्स ।कुछ के बारे में सुना था ,छोटे-छोटे बच्चे छोड़ कर पति चल बसे ।मायके में नौकरानी की तरह रखी गई ,ससुराल में और भी दुर्दशा ! बड़ी मुश्किल से नौकरी करने दी ।और आज देखो ,अपनी मेहनत से कहाँ पहुँच गईं ।हमीं लोग कॉलेज में हसरत भरी निगाहों से देखा करते थे ।समय के साथ-साथ आगे बढ़ रही हैं ।कैसा पहनना-ओढ़ना ,कितने ढंग से रहना ।अब कितनी पूछ हैं कितनी इज़्ज़त है । माँ का परिश्रम देख बच्चे भी एक -से एक बढ़ कर निकले हैं ।...

बहुत चुप रहती है रमना -बिल्कुल शान्त !पर भीतर ही भीतर निरंतर एक युद्ध चलता है ।
आज बसन्ती जो है ,कल वैसी नहीं रहेगी !
उसके बदले हुये जीवन की कल्पना करती है ।दुख जो पड़ा है उस पर, बहुत भारी है ।पर, समय के साथ सब सहनीय हो जायेगा ।ये दिन बीत जायेंगे -एक नई बसंती को जन्म देते हुये ।
बदलती हुई वसंती ! बाहर के संसार में अपनी जगह बनाती ,आगे बढ़ते समय के साथ कदम मिलाती ।
चार लोगों के बीच दुनिया के रंग देखती अपने को ढालती-सँवारती हुई वह धीरे-धीरे परिपक्व हो जायेगी ,कर्मठ ,.कुशल ।
आज मैं उसे दूसरों की दया पर निर्भर समझ रही हूँ ।पर कितने दिन ? फिर यही बसंती समर्थ हो जायेगी ।अपने लिये स्वयं करने में सक्षम ।आत्म गौरव से पूर्ण !
और मैं ?
इनका मुँह देखनेवाली , बस।अपनी छोटी-सी दुनिया में, सीमित सोच लिये ,छोटी-छोटी बातों में उलझती, आगे बढ़ते समय और दुनिया से तटस्थ ,बँधे हुये घेरे मे निरंतर चक्कर खाती - धीरे-धीरे आउट आफ डेट होती हुई ।
बच्चे भी कौन हमेशा साथ रहेंगे?
तब कैसा होगा जीवन ?एक जगह रुक गया सा ! दिन पर दिन निष्क्रिय !
मैं तो बी.ए. पास हूँ ।मैं कुछ नहीं कर सकती ?
उलझन में पड़ी है रमना ,पर इससे बाहर निकलना होगा - अपने लिये रास्ता ख़ुद तलाशना होगा !*
फिर एक दिन उसने प्रकाश से कहा -
' सुनो ,बसन्ती टीचर्स ट्रेनिंग कर रही है मैं भी तो कर सकती हूँ ?'
'हाँ ,क्यों नहीं कर सकतीं !तुम बी.ए. हो उससे बढ़कर ,बी.एड. कर सकती हो।
उसके आगे भी कुछ कर सकती हूँ ,सोचा रमना ने बोली ,' हाँ ,बच्चों के, घर के साथ थोड़ा मुश्किल तो पड़ेगा ,तुम्हें भी परेशानी उठानी पड़ेगी ।पर मुझे लगता है मैं कर लूँगी ।'
' बिल्कुल कर सकती हो ।मेहनत करनी पड़ेगी । पर मैं भी तो हूँ न ।'
' हाँ ,करूँगी ।मेहनत कर लूँगी मैं ।'
उसका प्रस्ताव सुनकर प्रकाश के चेहरे पर एकदम जो चमक आ गई थी वह क्या था - उत्साह ,प्रसन्नता या संतोष ?
यह भी संभव है कि झलक उठी हो मन की गहरी आश्वस्ति !
रमना समझने की कोशिश कर रही है ।
सूरज की तिरछी होती किरणें इधर की खिड़की से अंदर आने लगी हैं। कमरा उजास से भर गया है ।

ये कल्चर्ड नहीं.

ये कल्चर्ड नहीं !
साथ वाले प्लाट पर बहुमंजिली इमारत बन रही है ।मज़दूर-मज़दूरिने अधिकतर पूरब के हैं - कई के पत्नी-बच्चे भी साथ हैं - ऐसे जीवन के अभ्यस्त ।उठाऊ गृहस्थी हमेशा साथ चलती है ।पति-पत्नी दोनो मज़दूरी करते हैं ।बच्चे वहीं आस-पास खेलते रहते हैं । जहा काम पर लगे वहीं टेम्परेरी गृहस्थी जमा ली ।ऐसे काम महीनों चलते हैं न।
सुमिरनी का चौका-चूल्हा यहीं नीचे है ।वे लोग सोते भी सामने के ऊपरवाले कमरे में हैं,जो पूरा बन चुका है ।अब तो काम उससे ऊपरवाली मंज़िल पर चल रहा है।
पड़ोस की किसी बिल्डिंग में जो लोग काम कर रहे हैं उनमें लगता है इसकी बहिन भी है ।कभी-कभी एक स्त्री आती है ।.ये उससे ' दिदिया' कहती है ।उसी के मुँह से इसका नाम सुना है नौमी ने ।आवाज़ लगाती है ,'सुमिरनी हो' । 'हो' को काफ़ी लंबा खींच देती है ।उसके आदमी का भी वह नाम लेती है - 'चैतू '।
नमिता के बेडरूम की खिड़की से इधर का पूरा हिस्सा दिखाई देता है ।पर नमिता कौन कहे नौमी नाम चल गया है उसका !
सुमिरनी सुबह-सुबह ईँटों के चूल्हे पर खाना बनाती है ।
दाल उबाल कर चूल्हे के आगे अंगारे खींच कर बटलोई रख देती है मंदी आँच में धीरे-धीरे सीझने को ,और ऊपर बड़ी सी कड़ाही रख कर सब्ज़ी छौंकती है - जरा सा तेल और ,आलू , गोभी ,या जब जैसा मौसम हो ।हींग मेथी के साथ अच्छी तरह मिर्च ,चटपटी सब्जी !
,ऊँची कोरवाली थाली ऊपर से औंधा कर ढाँक देती है ।तब तक आटा गूँदती है ।
नमिता देखती है बच्चे को गोद में डाल वह आटा माड़ लेती है ,थोड़-सा नहीं ,खूब सारा ।वैसे ही रोटी बेल-बेलमें दाल चटा कर सेंकती रहती है ,लगता ही नहीं कि उसे कोई असुविधा भी हो रही है ।खाना खाते पर भी आराम से बच्चा गोदी में पड़ा रहता है ।वह बीच- बीच ती जाती है ।वह चटखारे लेकर खाता है तो देख देख कर हँसती है ।

चमचे में तेल गर्म कर दाल में लहसुन मिर्च का जो करारा बघार लगाती है उसकी तीखी धाँस यहाँ तक आती है ।
हमारे घर के लोगों को मिर्च का तीखा स्वाद लेना नहीं आता ,दूर दूर भागते हैं । नौमी को लगता है कि झन्नाटेदार बघार की तेज़ी जब कण-कण में रस जाती है तो एक सोंधी -सी महक ,एक करारा-सा स्वाद व्यंजन में बस जाता है।

बोरा बिछा कर आदमी बच्चे भोजन करने बैठते हैं ।ऊँची कोरवाली थाली के नीचे एक ओर कोयला लगा कर ढाल के हिस्से में वह चमचे से दाल परस देती है ।उसी में से दोनो बच्चे और आदमी खाते हैं । सुमिरनी चूल्हे के आगे फैले अंगारों पर तवे से उतार कर रोटी डालती है फिर उसे खड़ी कर घये की आँच में घुमा घुमा कर दोनों ओर से सेंकती है और उछाल देती है । उसका आदमी हाथ बढ़ा कर झेल लेता है -कभी-कभी थाली में जा गिरती है । गोद का बच्चा लपकता है आदमी उसे ले लेता है - बीच-बीच में उसके मुँह में भी डालता रहता है ।
दो-चार रोटी सेंक कर रख देती है ।मोड़ा-मोड़ी को तीसरे पहर भूख लगती है न !
ये गैस की नीली लपट पर सिंकी रोटियाँ और कुकर में गली दाल -सब्ज़ी,खा-खा कर जी ऊब गया है
नौमी का मन करता है सुमिरनी के बोरे पर जा बैठे और चूल्हे की मंदी आँच पर सिंकती रोटियाँ और बटलोई की दाल खा कर तृप्त हो जाये ।

रात का समय उनका अपना ।खा -पी कर इधर सामने के बड़े कमरे में इकट्ठे होते हैं ।फिर क्या ताने उठती हैं लोक गीतों की ।
कहाँ सुनने को मिलते हैं ऐसे मन में उतर जानेवाले दुर्लभ लोकगीत ?और इतना तन्मय गायन !
कोई वाद्ययंत्र नहीं ,ढोल मँजीरा नहीं ,एक घड़ा औंधा कर सुमिरनी का आदमी ,चैतू ऐसी कुशलता से बजाता कि कानों में रस घुल जाता है ।और गाने ?
पूरव के हैं ये लोग ।बिहारी और मैथिली लोक-गीत इनके कंठ में बसे हैं !मस्ती में आने पर ,कभी-कभी दिन में भी एकाध तान छेड़ देते हैं ।
**
आस-पास सभ्य जगत की दुनिया है ।पढ़ी-लिखी महिलायें भी बहुत बिज़ी हैं ।बाहर काम करने वाली तो हैं ही ,गृहिणियाँ भी कम व्यस्त नहीं हैं ।इतने काम हैं इनके पास कि समय कम पड़ जाता है ।सचेत सजग मस्तिष्क !सब .कल्चर्ड हैं।
उनकी अपनी जरूरतें हैं । परेशानी होगी तो शिकायत करेंगी ही ।
बच्चा पालना कोई आसान काम है ?
कल ही ललिता झींक रही थी -
- बाज़ार करके घर पहुँची और सास जी बच्चे को पकड़ाने आ गईं ।,ये भी नहीं सोचा थक कर आई है ,बस अपनीही गाये जाती हैं।
मैने यह किया ,मैंने वह किया कितना थक गई ।बच्चे ने इतना परेशान किया ।चार बार तो ..कपड़े बदलाये ।बस अपनी गाथा सुनाने बैठ जाती हैं ।और मैं जो सुबह से चकरघिन्नी बनी हूँ ?वह कुछ नहीं? घर में पाँव रखते ही ऊपर से लदाने को तैयार ।मैंने भी साफ़ कह दिया ,अम्माँजी ,ज़रा साँस ले लेने दीजिये ।कहीं भागी नहीं जा रही हूँ ।आधे घंटे लेट ली तब लिया जा के ।
और ऊपरवाली सरिता जी ,बैंक में काम करती हैं ।दिन का बड़ा हिस्सा बाहर निकल जाता है ।कामवाली रखी है ,बच्चे को सम्हालने के लिये एक लड़की भी ।
जब लौटती हैं तो थकी हुई ।
बच्चे को जबरन बाहर भेजना पड़ता है लड़की के साथ ।रोता है तो वह चुपायेगी ,आखिर रखा किस लिये है ?बच्चा रोते-रोते घूम-घूम कर माँ को देखता है उसकी गोद ले लपकता है पर माँ बहुत थकी है ।और बहुतेरे काम अभी बाकी पड़े हैं ,कहाँ समय है उसके पास ?
कितनी परेशानियाँ हैं यह तो पूछिये ही मत !
एक से एक दुख-तकलीफ़ का भोगा हुआ यथार्थ सुनने को मिल जायेगा ।जो सबसे अधिक विद्वान है सबसे अधिक झिंकना उसी का ।रोज का किस्सा सुन लो ।आज बच्चे ने कितनी बार शू-शू -छिछ्छी की ।बिचारी को खाना खाते से उठना पड़ा,जी ऐसा घिना गया कि फिर खाने की इच्छा नहीं हुई।अब दो पत्ते चाट के खाकर संतोष करना पड़ रहा है।
और लड़की ?उनकी व्यथा मुखर हो उठती है -जब मैं होती हूँ तब उसे लगता है ये काम मुझे कराने चाहिये ।कभी शू-शू के कपड़े तक नहीं बदलाती ।मेरे पर चढ़ाये रखती है ।बच्चा भी तो उसके पास से दौड़ा चला आता है ।कहाँ तक मना करें ,रोना-धोना मच जाये और अपना मूड खराब हो जाये ।अरे हम भी सोचते हैं हमारे पीछे तो सम्हाले रहती है ।और थोड़ा-बहुत ऊपर का काम भी करवा लेती हूँ ।छुड़ा दें सब हमें ही झेलना पड़ेगा ।
'देखो कल यहाँ कितना काम था ।बुरी तरह थकान !घर पर बैठ कर चाय का कप उठाया ही था कि वह अंदर ले आई और वह दौड़ कर गोदी में चढने लगा ।ऐसा धक्का लगा कि गरम-गरम चाय मेरे ऊपर तो गिरी ही मेरी नई साड़ी खराब हो गई ।ऐसा ताव आया कि कस के एक चाँटा रसीद कर दूँ । पर दौड़ कर लड़की ने उठा लिया ।
जितना वे बचने की कोशिश करती हैं,.उतना ही उत्कंठित हो कर वह दौड़ता है - माँ का दुलार पाने को व्याकुल ।.पर कहीं तो छुटकारा मिले ! पैदा तो कर ही दिया है किसी तरह ,अब सम्हाल तो कोई और भी कर सकता है ।
' अरे ले जाओ इसे ,सामने लिये खड़ी हो फिर तो मचलेगा ही ।उधर बाहर क्यों नहीं ले जाती ?'

न फ़ुर्सत है न निश्चिंती ! गोदी में लेकर भी तो मन उलझा रहता है ,तमाम चिन्ताये हैं ।बहुत से महत्वपूर्ण चीज़े हैं जिनके बारे में सोचना है ।इसके कारण बड़ा टाइम वेस्ट होता है, नहीं तो जाने क्या-क्या कर लेती ।
अरे, रात में भी चैन नहीं ।जरा सो जाओ तो रोना शुरू ।ऊपर से चिपटा चला आता है । जब देखो तब भीगा !लगता है आया दूध बनाने में पानी ज्यादा कर देती है ।और कहो तो कहती है बीबी जी गाढा रहेगा तो पेट में मरोड़े उठेंगे ।पेट भी तो अक्सर ही दुखता रहता है ऊपर से लूज़ मोशंस !
एक बार बात हो रही थी -हमारे यहाँ के साहित्य में बाललीलाओं का जितना व्यापक वर्णन हुआ है और कहीं सुनने में नहीं आता ।सूर तो बिल्कुल ही डूब जाते हैं ।
तुरंत उत्तर मिला -
'अरे ,सूर ने कभी बच्चा देखा तक नहीं होगा ,पालना तो दूर की बात !इन आदमियों का क्या? उन्हें कुछ करने धरने से मतलब नहीं ।जब तक हँसता -खेलता रहे उन्हें अच्छा लगता है नहीं तो तुरंत पुकारेंगे अरे ,इसे ले जाओ ।'
' आया बच्चा क्यों रो रहा है ?भूखा है क्या ?'
'अभी अभी फ़ीड किया है ।बस आपके पास लपकता है ।'
'अभी इसे बाहर ले जाओ मैं खाली नहीं हूँ ।
माँ की मुद्रा देख कर बालक सहम गया है ।
वह फिर आवाज़ लगाती है -
'अरे आज इसे जूस निकाल कर दिया कि नहीं ?'
हां , पी चुका है ।
सूप -जूस सब पीता है फिर भी ..।बताइये कितने बच्चों को यह सब मिलता है जो इसे मिल रहा है ?
गोद में लेकर भी मन कहीं औऱ भागा रहता है ।फिर टी.वी.का कोई दृष्य कहीं मिस न हो जाये ।पास होकर भी पास नहीं !
कोई सोचता नहीं चिल्लाना पड़ता है ,'अरे खाना तो खा लेने दो ,अभी हाथ चला कर कपड़े गंदे कर देगा ।'
उनके पास इतने काम हैं कि दिमाग़ वैसे ही परेशान रहता है ।थोड़ा मनोरंजन चाहें, उसमें बाधा ,घूमने फिरने में बाधा ।कभी किसी से बात करने बैठ गईँ तो तो बीच में बाधा ।हर तरह से बाधा बने रहते है ये बच्चे !
माँएँ सचमुच कल्चर्ड हैं !
अरे, मैं भी कहाँ की लेकर बैठ गई नौमी फ़लतू बातों को दिमाग़ से झटक देना चाहती है ,ये परेशानियाँ तो जग-विदित हैं !
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छोटे को दूध पिला ,ज़मीन पर बोरा बिछा कर बैठाल देती है सुमिरनी, और अपने काम में लग जाती है ।काम ?वही ,सुबह खान बनाना फिर दिन में ईँटें या सीमेंट- मसाला ढोना !
बच्चा क्या बोरे पर टिकनेवाला है -खिसक -खिसक कर कच्ची जमीन में पहुँच जाता है ।बड़े भाई बहिन या सुमिरनी चलते-फिरते उसे फिर बोरे पर कर देती है ।
कच्ची ज़मीन है हाथ-पाँव धूल-धूसरित हो जाते हैं ।माँ अपने कपड़ों की चिन्ता नहीं करती उठा कर हाथ से मिट्टी झाड़ती है और गोद में भर लेती है ।,कौन मँहगे कपड़े पहन रखे हैं जिन्हे बचाने के लिये बच्चे को दुरदुरा दे ।यहाँ तो कलफ़-प्रेस भी नहीं जो मुसने का डर हो । पयपान कराने के लिये आँचल में दुबका लेती है ।

कभी जब माँ को देखे काफ़ी देर हो जाती है और बच्चा सामने पड़ जाता है तो आकुल-सा लपकता है अपनी माँ की ओर ।
मजूरी में लगी रह कर भी सुमिरनी आँखें नहीं फेरती ।
अरे ,16 ईंटों से भरा तसला सिर पर सम्हाले वह अनायास झुकी ,आँखों में वात्सल्य उमड़ता हुआ ,और बच्चे को एक हाथ से सम्हाल कर बगल में दबा लिया ,दूसरे हाथ से ईंटों भरा भारी तसला साध कर सीढियाँ चढने लगी ।
नमिता चकित - इसने सोचा तक नहीं! सिर पर इतना भारी बोझा उठाये झुकेगी कैसे ?कैसे बच्चे को साधेगी ?
अब उसकी जगह वह ख़ुद सोच में पड़ गई है । सुबह -मुँह अँधेरे से व्यस्त रहती है ?रोज़ ही मेरे सो कर उठने से पहले उधर की अरगनी पर गहरे रंग की धोती सूखती दिखाई देती है ।लोगों की जगार से पहले वह बाहों के नीचे पेटीकोट कस बांध, इधर नल पर नहा लेती है ।यह थकती नहीं ?
एक सहज वृत्ति अनायास ,बिना कठिनाई के सहज सस्मित मुख ,सिर का भार एक हाथ से साधे कमर से झुकती है दूसरे हाथ से जमीन पर बैठे बालक को उठा कर गोद में दबा लेती है । कोई शिकायत नहीं । कैसे करेगी, कितना ज़ोर पड़ेगा सोचने की जरूरत नहीं । बस सहज ममता उमड़ती है तो अपने आप करवा लेती है। उमड़ता हुआ वात्सल्य! कोई कोई बाधा कहाँ रह जाती है । स्वचालित सा सब अपने आप हो जाता है-तनाव रहित ।दिमागी ऊहापोह यहाँ कहाँ ।सोचने-विचार करने की सारी एनर्जी क्रियाशीलता में बदल जाती है ।किसी दबाव में आकर नहीं भावना से परिचालित । अति सहज रूप से उनके क्रिया- कलाप संपन्न होते हैं ।हृदय में भावना उमड़ती है तो कोई तर्क सिर नहीं उठाता ।उस वेग में थकान बह जाती है । मन का मोह-छोह मुख पर माधुर्य बन कर छा जाता है ।

हाँ , पढ़ी-लिखी समझदार महिला होती तो सोचती-विचारती - इतने भारी बोझ के साथ कैसे उठाऊँगी ?कैसे साधूँगी दोनो को ?कहीं ईंटें गिर पड़ीं तो ? चलो रो लेगा थोड़ी देर क्या फ़र्क पड़ता है !
पर उसे अपने बोझे का भान नहीं ,शिथिलता या थकान नहीं आँखों में उमड़ा नेह चेहरे में नई दमक भर रहा है ।

आते-जाते उसकी नेहभरी दृष्टि बच्चे पर ,वह पुलक उठता है मुख पर हँसी सज जाती है ,गहरी परितृप्ति से चेहरा दमक उटता है ।भाई-बहन को आते -जाते देख कर किलकता है ।वे भी बीच-बीच में उसे बहला लेते हैं ।
आदतन काम करती रहती है थकान का भान कैसे हो? शरीर तो माध्यम है अनुभव करनेवाला मन मगन रहता है अपनी सीमित सृष्टि में ।शिकायत कौन करे दिमाग़ को प्रेरित करके ?ध्यान बच्चे में लगा होता है ।बात खतम !
बच्चा भी उस दृष्टि के वात्सल्य से सिंचित रहता है- संतुष्ट,तृप्त । दोनो एक दूसरे से दूर कहाँ ?
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रात गहरा रही है ।पड़ोस की बिल्डिंगो से खाना-पीना निबटा कर उसी कमरे में दो-चार और मज़दूर परिवार जुड़ आये हैं । छोटे बच्चे माँ या बाप की गोदी में ,बड़े भाई-बहिन रात का खाना खा साँझ पड़े से सो गये है।
चैतू ने घड़ा साध कर अपना हाथ उस पर लिया है ।
एक नहीं ,कितने-कितने गीत !रोज़ नये-नये ।बार-बार सुनते रहो तो भी जी न भरे ! सिनेमा के सारे गाने इन लोक-गीतों के आगे फीके लगते हैं ।
नौमी खिड़की खोल कर जब तक उनका संगीत चलता है सुनती रहती है ।कभी कभी आधी-आधी रात तक !
जितने सहज ये गीत हैं उतनी ही गहरी अनुभूति, संगीत के निनादित स्वरों में गूँज भरती है ! लोक-धाराओं की इस त्रिवेणी में डुबकियाँ लगाकर जो सुख मिलता है उसकी स्मृति भी तरल लहरों सी सरसा जाती है ।
इनके दिन भर के कठोर श्रम का परिहार लगता है इसी से हो जाता है- चेहरों पर क्लान्ति के बजाय स्निग्ध शान्ति छा जाती है !
बड़ी टीम-टाम वाले ,जगमगाती स्टेज पर आयोजित, सांस्कृतिक आयोजन नौमी को लगता है इनके आगे फीके हैं ।इतनी शान्ति और तन्मयता , चित्त को विभोर कर देनेवाली रस की यह सहज वर्षा वहाँ कहाँ ?
एक नये गीत की तान उठ रही है --
अकेल सिया रोवे !हो राम जी,
बोलें जिनावर ,कोई लोग ना लुगाई ,
घोर बन माँ डिरावै !हो राम जी !
गरुआ गरभ ,लाय भुइयाँ में डारी ,
हिया पल ना थिरावे , हो राम जी
कैस दुख झेले सतवंती मेहरिया ,
टेर केहि का बुलावे ,हो राम जी !
कैस बियाबान अहै ,हो राम जी !

बीच-बीच में कुछ और कंठ, अपने स्वर मिला देते हैं -पुकार और गहन हो जाती है
लगता है सारा वन-प्रदेश टेर रहा है 'हो राम जी !' ध्वनि-प्रतिध्वनि सब ओर छाई हुई है ।
अपने बिस्तर लेटे-लेटे तन्मय होकर नमिता लोक-मन में लीन हो गई है ।
--- प्रतिभा सक्सेना

रविवार, 10 जनवरी 2010

विशाखा

किसी किसी के साथ ऐसा क्यों होता है कि सारा जीवन वंचनाओं में  बीत जाता है ।सबको जो सहज रूप से उपलब्ध है उनके लिये वर्जित रह जाता है ।विषम परिस्थितियाँ रगड़-रगड़ कर ,इतना माँजती हैं कि चढ़ती उम्र की सारी चमक-दमक फीकी पड़ जाती है और रह जाता है रंगहीन नीरस जीवन !
मेरी सबसे घनिष्ठ मित्र विशाखा ,और उसकी छोटी बहिन ललिता !आज दोनो ही इस दुनिया में नहीं है इसलिये सब- कुछ कह पा रही हूँ ।जब तक कहानी चलती है मन उसी के अनुभावन में डूबा हुआ घटनाक्रम तक सीमित रहता है ,सोच-विचार का नंबर इसके बाद आता है। विशाखा की जीवन-कथा समाप्त हो गई है ,अपने को अकेले अनुभव करती हुई, मैं अलग खड़ी रह गई हूँ ।बहुत दिनों तक सोचती रही कैसे क्या करूँ ! इतनी घनिष्ठता थी कि आत्मस्थ और तटस्थ होने में काफ़ी समय लग गया ।
सारा जीवन असामान्य स्थितियों के बीच उसने कैसे जीवन बिताया होगा , सोचती ही रह जाती हूं ।सीलन भरी कुठरिया में चटाई पर ढिबरी की रोशनी में आधी-आधी रात तक पढना पडता था ।बहुत दुबली थी वह ।बिल्कुल विश्राम नहीं ,पाँवों में सूजन आ जाती थी ।बाद में सूजन स्थाई हो गई थी - कभी कम, कभी ज्यादा ।खड़े होने और चलने में उसे कष्ट होता था ।रीढ़ की हड्डी भी परेशान किये थी ।मुझसे 3-4 वर्ष बड़ी थी विशाखा और ललिता उससे कुछ वर्ष छोटी ।1934-35 में जन्मी होगी ,या इससे कुछ पहले क्योंकि तब जन्मदिन याद रखना किसी को ज़रूरी नहीं लगता था -जो व्यक्ति स्कूल में नाम लिखाने जाता था उसे जो ध्यान आया लिखवा देता था ।उस समय के बहुत कम लोग ऐसे होंगे जिनकी ठीक-ठीक जन्मतिथि लिखी गई हो ,फिर विशाखा-ललिता तो लड़कियाँ ठहरीं ।
पिता ठेकेदार थे ,घर में सिर्फ दो पुत्रियाँ ,खूब लाड़- प्यार लेकिन कितने दिन !अति उत्साही माता पिता ने नौ वर्ष की होते- होते विशाखा और उससे छोटी ललिता दोनों का विवाह रचा दिया !गौना कई-कई वर्षों बाद दिया जाना था ।ठेकेदारी अच्छी चलती थी ,पैसे की कमी नहीं थी कई मकान थे उनके ।अक्सर ही ऐसे में रिश्तेदारों को अपनों की समृद्धि सहन नहीं होती।विशाखा के पिता की अकाल मृत्यु होगई या हत्या कर दी गई।किंकर्तव्यवमूढ अपढ़ पत्नी अपने दुःख और हताशाओं में डूबी किसी निश्चय पर पहुँचने में समर्थ नहीं हो पाई ।सच बताता भी कौन !जिन लोगों से घिरी थी, उनके अपने स्वार्थ थे,जितना वसूल कर सकते हो कर लो यही मौका है।किससे कितना लेन-देन बाकी है किसी को पता नहीं। लोगों ने उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ाकर सब कुछ हड़प लिया ।
 दोनों पुत्रियों के ससुरालवालों को लगा कोई भाई तो है नहीं,  मकान हमें मिलना चाहिये।एक मकान में किरायेदार थे ,जो खाली करने के बजाय हथियाने पर उतारू थे ।दूसरे मकान में वे खुद रह रहीं थीं ।उन लोगों को लगा कि ये लोग बहाने बना रहे हैं ।वे भी लड़ाई -झगड़े पर उतारू हो गये ।विपन्न विधवा ने लोगों के घर खाना बनाने का काम किया ,एक कमरे में सिमट कर बाकी भाग किराये पर उठाया तब पेट भरने का जुगाड़ कर पाई ।कैसे उन दोनो बहनों ने दो-तीन सूती साड़ियों में साल- साल भर निकाला , कैसे मिट्टी के तेल की ढिबरी जला कर पढाई की और किसी तरह आठवीं पास कर नौकरी का जुगाड़ किया ।फिर ट्यूशन और प्राइमरी स्कूल के अल्प वेतन से माँ और बहिन के साथ गुज़ारा करते हुये उसने दसवीं पास की ।ससुरालवालों ने कैसे-कैसे हथकंडे अपनाये और परेशानियाँ पैदा करते रहे यह सब वही जान सकता है जो उन स्थितियों से गुज़रा हो ।
तब उसे मध्य-भारत कहा जाता था जिसे अब मध्य-प्रदेश कहा जाता है !मालवे की साँवली धरती का एक छोटा सा शहर- शाजापुर -लड़कियों का एक हाई स्कूल और लड़कों के लिये जनता इन्टर कॉलेज ,मुझसे बड़े भाई कुछ वर्षों तक यहाँ के प्रिन्सिपल रहे थे ।बी.ए मैंने पास किया तभी लडकियों के स्कूल की हेडमिस्ट्रेस ने भाई साहब से कहा कि वे मुझे स्कूल में नियुक्त करना चाहती हैं ।उस समय मध्यभारत में लड़कियों को पढ़ाने का चलन नहीं था ,बहुत कम बी.ए. पास लड़कियाँ मिलती थीं ।यह बताने पर भी कि अभी 18 वर्ष की होने में 6 महीने बाकी हैं उन्होंने मुझे ज्वाइन कराया और विशेष अनुमति दिलवाई ।मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया ,अंतिम दर्शन नहीं कर पाई ।
पिता का न होना पुत्री के लिये क्या होता है यह विशाखा ने और मैंने पूरी तीव्रता के साथ अनुभव किया था ।इस अनुभव तक कोई भुक्तभोगी ही पहुँच सकता है ।जीवन की बहुत सी समस्यायें विशाखा ने और मैंने एक दूसरी से बाँटी हैं।उस उम्र में घर से पहली बार बाहर के जीवन में बहुत प्रकार के लोगों के बीच, बहुत बातें समझ में नहीं आतीं थीं. कभी-कभी बड़ा अजीब लगता था ,तब विशाखा से मुझे संबल मिलता था ।ऑल इंडिया रेडिओ पर जब कविता-पाठ करने का कार्यक्रम होता था तो विशाखा ही मेरे साथ जाती थी ।
'बीती ताहि बिसारिये' की बात हर जगह लागू नहीं होती अक्सर बीत कर भी कुछ ऐसा होता है जो बीतता नहीं और आगे के रास्ते के बीच बाधा बन बन कर खड़ा हो जाता है। आगे की सुध लेने के बजाय भीतर की चुभन को झेलते -सहलाते सारी ताकत चुक जाती है ।किसी के भीतर कितने और कैसे-कैसे अभाव भरे हैं,विचलित मन किन किन स्थितियों से गुज़रा और कैसे उसे सँभाला इसका अनुमान कोई नहीं लगा सकता ।जीवन की गहराइयों में जो छिपा पड़ा है उसका कुछ आभास भले ही परखनेवालों को हो जाय पर उसे जानना -समझना सभी के बस की बात नहीं ।यह भी अच्छा ही है नहीं तो जाने कितनी गलतफ़हमियाँ खड़ी हो जायें ।
हम सब अपना विस्तार करते हैं परिवार के भीतर और बाहर भी।एक स्त्री के लिये घर के बाहर की सारी सीमायें सील करने की साजिश क्यों रची जाती है? पति के अलावा और किसी से मतलब न रहे ,घर में सीमित रह कर जीवन गुज़ार दे, कहीं कोई अपना कहने को न रह जाय कही कोई नहीं ।पता नहीं  क्यों दुनियाभर की जवाबदेही औरत के पल्ले बँध जाती है ।
विशाखा की माँ को जब घर के गहन सुरक्षा-कवच से बाहर निकल कर छाँह रहित धरती पर चारों ओर मुँह बाये समस्याओं से जूझना पड़ा,तो सारी सुकुमारता हवा हो गई और वे एक रसहीन ठूँठ- सी रह गईं । विशाखा से क्या-कुछ नहीं कहा गया और क्या-क्या आलोचनाये नहीं की गईं ।पढ़े-लिखे प्रबुद्ध कहे जाने वाले लोगों ने, उसे अपना साथी कहने का दम भरने वालों ने भी, पीठ पीछे तोहमत लगाने से बख़्शा नहीं ।
बचपन से ही उसके परिवार की अपने निकट रहनेवाले शर्मा परिवार से बहुत घनिष्ठता थी।मालवे में संबंध कोरे कहने भर के नहीं होते ,वास्तव में माना और निभाया जाता था ।तब से 48 वर्ष बीत चुके हैं ,दुनिया बहुत बदल गई है.  अब, जब  अपने ही अपनों से तटस्थ रहना पसन्द करते हैं वहां कैसा क्या होगा कह नहीं सकती ।
हाँ ,तो उन दोनों घरों में बहुत अपनापा था ।उस घर का बड़ा बेटा बाबू-देवी दयाल और विशाखा का बचपन से एक दूसरे के साथ रहे थे ,दोनों में गहरी मैत्री रही थी ।विपन्नता के दिनों में भी उन लोगों ने मुँह नहीं मोड़ा था ।बाहर के कामों के लिये बाबू और उसका छोटा भाई, शिव हमेशा तत्पर रहते थे ।रोज हाल-चाल पता करना और कोई काम हो तो कर देना उनकी दिनचर्या में आ गया था ।उस घर की बेटी का विवाह हो गया ,बाबू और शिव की नौकरी लग गई ।शिव दूसरे शहर चला गया, और बाबू अपने माता-पिता के साथ शाजापुर में ही रहा ।
बाबू के विवाह की बातं चल रहीं थीं ।विशाखा के परिवार पर आ पड़े दुःख में वह सहायक बना रहना चाहता था ।बचपन से वह विशाखा का मित्र रहा था ।वह उस समय शादी करने को तैयार नहीं था टालता जा रहा था ।विशाखा ने समझाया कि ऐसा न करे ,इससे तो बेकार उसकी बदनामी होगी कि उसके कारण विवाह नहीं कर रहा है ।विवाह हो गया ।उसकी पत्नी इस घर की बेटियों को ननद मानने लगी ।लेकिन कान भरनवालों को चैन कहाँ !रोज एक बार विशाखा के घर आने के नियम पर उसे आपत्ति होने लगी ।बाबू ने कहा तू भी मेरे साथ चल हम दोनों चलेंगे ,उनके घर कोई मर्द नहीं है ,हम लोग जाते रहेंगे तो उन्हें सहारा रहेगा ,बाहर के लोग भी सोचेंगे कि इनके लिये कोई खड़ा है. किसी की हिम्मत नहीं पड़ेगी कि उन्हें परेशान करे । उसका कहना था कि हमने उनका ठेका ले रखा है क्या !बाबू की माँ ने भी बहू को समझाने की कोशिश की पर उसने समझना नहीं चाहा ।
उसकी पत्नी एक साधारण महिला, विशेष पढ-लिखी नहीं ,और पढ़-लिख कर भी महिलायें कौन बड़ी उदार हो जाती हैं।दूसरी महिला की बात आते ही उनकी कसौटी बदल जाती है ।और जब पति उनका हो कर सहायता करना चाहे बचपन की मैत्री के नाते ही, तो उनके मन में कितने ही वहम पैदा होने लगते हैं ।वहम न भी हों तो यह उन्हें उचित नहीं लगता कि औरों के प्रति उनका पति इतना संवेदनशील क्यों है!
सोचती रह जाती हूँ,  दुनिया में कितने दुःख हैं कि दूसरे पर क्या-क्या गुज़रा है और उसके जीवन की गहराइयों में क्या-क्या समाया है इसकी थाह पाना भी संभव नहीं । किसी के बारे में कितना कम जानते हैं हम ,और फिर भी आलोचना करते समय अपने को सर्वज्ञ समझने का दम भरते हैं ।लोग मुझसे भी विशाखा के बारे में काफ़ी कुछ कहते थे और मैं उसका पक्ष स्पष्ट करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाती थी । कहनवाले की ज़ुबान तो पकड़ी नहीं जा सकती । मैं विशाखा से भी नही कह पाती थी ।कभी -कभी हम दोनों देर तक एक दूसरे के पास चुप बैठे रहते थे ।
बाबू ने मित्रता पूरी तरह निभाई ,विशाखा की माँ थीं तब भी और उनकी मृत्यु के बाद भी ।दिन में एक वह जरूर हाल-चाल लेने आता रहा,किसी के कहने सुनने की परवाह उसने नहीं की ।उसके बच्चे विशाखा -ललिता को बुआ कह कर सम्मान दते रहे ,परिवारों का संबंध बना रहा बाबू की पत्नी भी आती जाती रही ,बुलाती रही कभी कभी थोड़ी बेरुखी दिखा देती थी ।
1958 में मेरा विवाह हो गया मैं बहुत दूर उत्तर प्रदेश में नैनीताल के पास चली गई।कुछ वर्ष नये जीवन में व्यवस्थित होने में लगे,पर विशाखा से संबंध बना रहा ।बच्चे कुछ बड़े हो गये तो मैं फिर शाजापुर जाने लगी ।वर्ष में एक बार, एक सप्ताह विशाखा के पास रह कर मुझे लगता था कि आगे एक वर्ष के लिये चार्ज हो गई हूँ ।मध्यभारत के खुले वातारण से आ कर उ.प्र में रहना बड़ा मुश्किल और घुटन भरा लगता था । घर से बाहर अपने आप कुछ करने का उस समय सोचा भी नहीं जा सकता था ।इस बीच उसका कुछ जगह ट्रान्सफ़र हुआ और फिर वह शाजापुर आ गई ,जहाँ अंत तक रही ।
शाजापुर का वह घर मुझे याद आता है ,अब मैं कभी वहाँ नहीं जा सकती ।वह घर किसी और का हो चुका है ,वह छोटा सा अपना शहर अब मेरे लिये पराया हो गया है ।
ललिता के ससुरालवालों ने बहुत परेशान किया था ।उसे बुला कर मारा-पीटा, सिर पर धारदार हथियार से वार किया था ,ललिता कई महीने विक्षिप्त सी रही ।फिर विशाखा ने किसी तरह आठवीं पास करवा कर उसकी भी नौकरी एक प्राइमरी स्कूल में लगवा दी ।विशाखा के ससुरालवालों ने उसके सारे जेवर हड़पने के बाद कभी उससे संबंध नहीं रखा ।बहुत बाद में उसने तलाक लिया था ।तब भी लोगों ने बहुत बातें उछालीं कि उसे तलाक लेने की क्या जरूरत आ पड़ी ।चर्चा होने लगी कि अब वह बाबू से शादी करना चाहती है । एक बहुत प्रबुद्ध माने जानेवाले व्यक्ति ने मुझसे पूछा था वह तलाक ले रही है, इसका मतलब शादी करेगी ।मैने उत्तर दि याथा -वह शादी के लिये तलाक नहीं ले रही है ।शंकालु स्वर में वे फिर बोले -तो फिर बाबू का आना जाना बंद क्यों नहीं कर देती ?मैंने समझाने की कोशिश की थी पर जब कोई समझना ही न चाहे तो तब क्या किया जा सकता है ।विशाखा ने मुझसे कहा था अगर बाबू से शादी करनी होती तो मैं पीछे पड़- पड़ कर उसकी शादी क्यों करवाती ?मैंने इसलिये तलाक लिया है कि कभी वे लोग मेरी कमाई और मुझ पर हक जमाने न आ जाय़ँ ।सच है दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है
विशाखा आर्टिस्ट थी ,चित्रकला की शिक्षिका भी ।मेरे साथ नैनीताल घूमने के बाद मेरी पुत्री के विवाह में आई थी ।1995 में काफ़ी दिन कैंसर से पीड़ित रहने के बाद उसे इस दुनिया से छुटकारा मिल गया ।दो महीनेबाद ललिता का भी देहावसान हो गया ।बहुत सुन्दर थी वह ,लंबी ,गोरी ,बड़े-बड़े नेत्र ,जिन्हें पलकें छाये रहतीं थीं, तीखे नाक-नक्श और खूव घने, खूब लंबे बाल ।मिडिल स्कूल में शिक्षिका से प्रणय-निवेदन करने में शायद कुछ विशेष विचार न करना पड़ता हो (ग्रेज्युयेशन तो उसने बहुत बाद में कर पाया था।) । विशाखा से कई लोगों ने प्रणय-निवेदन किये थे ।उनमें से कई को मैं जानती हूँ । घर-परिवारवाले दरिया- दिल लोग - एक अदद फ़्री मेल की प्रेमिका रखने में जिन्हें गहरी आत्मतृप्ति मिलती और समाज में शान और बढ जाती ।पर वह बहुत दृढ़ चरित्र की थी ,किसी को जरा सी छूट देना भी उसे गवारा नहीं था ।
बाबू उसका बचपन का सखा था ।मैंने एक बार उससे पूछा था ,'विशाखा ,तुम बाबू से कितनी अंतरंग हो ?' उसने उत्तर दिया ,'जब माँ थीं तो एक बार उसने होली पर मेरे गालों पर गुलाल लगा दिया था। ...पर फिर कई दिनों तक मेरी उसके सामने होने की हिम्मत नहीं पड़ी ,वह भी माँ और ललिता से मिलकर बाहर ही बाहर चला जाता रहा ।बस एक ही बार !'
 मुझे श्री कृष्ण और द्रौपदी की मित्रता याद आ गई ।वे तो अपना राज-पाट और भरापुरा रनिवास छोड़ कर उसकी विपदा की हर परिस्थिति में वन-पर्वत लाँघ कर उसका साथ देते और मान बचाते रहे थे । अपनी बुआ कुन्ती के कहने पर कि मेरे पुत्र क्षात्र-धर्म से विमुख होते जा रहे हैं और द्रौपदी के कारण ही उन्होंने महाभारत युद्ध की भूमिका रची ।कृष्ण सारी विसंगतियों को जानतो थे ।जहाँ पिता वानप्रस्थ की अवस्था में अपने पुत्र का यौवन लेकर अपनी लालसाओं को तृप्त करे ,जहाँ स्वयंवर की अधिकारी कन्याओं का जबरन हरण कर उन्हे नपुंसक की ब्याहता बना कर अरुचिकर पुरुष से नियोग करने को बाध्य किया जाय,तो कैसी संतान होगी और कैसा समाज !जहाँ स्त्री अस्मिता से रहित, आरोपित मर्यादाओं में बँधी ,पुरुषों की इच्छानुसार चलनेवाली कठपुतली बन गई हो- मन और आत्मा से रहित ! कृष्ण ने पहले गोकुल में रह कर गोपियों को संसार में रहते हुये मुक्ति का आस्वाद कराया ।,यांत्रिक जीवन का एक पुर्ज़ा मात्र न रह जायँ इसलिये मानवी धरातल प्रतिष्ठित कर मानस को चेतना की अनुभूति कराई। कहीं जीवन का रस सूख न जाये ,इसलिये उन्हें वर्जनाओं के घेरे से छुटकारा दिलाया ।जीवन आनन्द का नाम है, अपने सीमित घेरे से बाहर आकर उसका रसास्वादन करो । कलायें और भावनायें उच्चस्तर पर ले जाने और मानस को समृद्ध करने लिये हैं उनसे निरपेक्ष हो जीवन को एक बेगार की तरह मत काट दो -यही संदेश उन्होने गोपयों को दिया था। उनका यदुवंश भी पतन के किस कगार पर जा पहुँचा था वे समझ रहे थे ।उसका नाश निश्चित है यह भी वे जानते थे ।अपनी कामना तृप्ति के लिये नहीं वञ्चनाओं से बचाने के लिये रनिवासों में बंदी विवश नारियों को अपना कर गौरवमय जीवन प्रदान किया ।ऐसे कृष्ण को सिर्फ़ रसिया कहनेवाले,अगर विशाखा पर आरोप लगायें तो कोई क्या कर लेगा! अरे, मैं विषय से भटकी जा रही हूँ !
विशाखा के साथ मैंने जो दिन बिताये वे भूल नहीं सकती ।शाम को अक्सर ही हम दोनों टहलने निकल जाते थे ।रोडेश्वरी देवी के मंदिर की सीढियों पर बैठना ,परिक्रमा-पथ पर पीछे के वन-प्रदेश का आनन्द लेना ।कभी-कभी पानी बरसते में भीगते हुये आना और घर पर हरी मिर्चवाले भजिये खाना ।कितना स्वाद होता था उन दिनों सब चीज़ों में । अब वे स्वाद खो गये हैं ,अब तो रोटी में भी वह बात नहीं रही ।खाद दे-दे कर बहुतायत से उगाई गई चीजों में से स्वाद का तत्व उड़ जाता है ।अब न वह हवा है ,न वह पानी ,न वे लोग न वह व्यवहार ।बस सब कुछ चल रहा है चले जा रहा है ।
मालवे के वन-भोजन याद आते हैं ।दो-तीन परिवार इकट्ठे होकर आवश्यक सामान सहित कभी नदी के किनारे वन में निकल जाते थे ।वहीं लकड़ी-कंडे बीन कर दाल ,बाटी,चूरमा बना कर ढाक के पत्तों के दोने पत्तलों पर कर भोजन होता था और पेड़ों की छाँह में मनोरंजन -संगीत ,ताश ,अंताक्षरी आदि ।शरद्पूर्णिमा की रात छत पर खीर पकने चढ़ी रहती थी और चाँदनी में श्वेत चादरों पर कविता ,संगीत का दिव्य वातावरण ।अब ऐसा कुछ कहीं नहीं होता ।
विशाखा चली गई । वृद्ध हो गई थी वह, निर्बल और असहाय ! बाबू का स्वर्गवास पहले ही हो गया था ।इस दुनिया से उसे मिला ही क्या अभाव ,संताप और तीखी आलोचनाओं के सिवा? जीवन की कटुतायें झेलते -झेलते थक गई थी ।जाने कैसी तपस्या थी सारा जीवन कष्ट उठाते, कठिन साधना में बीता था ।अब यहाँ करना भी क्या था । पीछे पीछे ललिता भी चली गई ।
मैं सोच में थी कि पता नहीं उसे उस पारस्परिक वचन की याद है या नहीं कि जो पहले इस संसार से जाय उसे कम से कम एक बार दूसरी से मिलने आना है । वह आई ।स्वप्न नहीं था वह। मैं सोचने- समझने की स्थिति में थी । वह सच में आई थी ।बस एक बार । वह स्वस्थ थी ,अपनी संतोषपूर्ण स्थिति में जैसी लगा करती थी वैसी लग रही थ ।हम लोगों ने बहुत देर तक बातें कीं ।फिर वह चली गई ,उसे जाना था ।उससे काफ़ी बातें कर लीं ।फिर मैंने नहीं चाहा कि वह यहाँ आए। कष्ट होता होगा वहाँ से यहाँ आने में ।वह शान्ति से रहे!मुझे विश्वास है उससे फिर कभी ,कहीँ मिलूँगी ज़रूर!*

झूठ कहाँ बोला

छिप कर बातें सुनने का एक अपना ही आनन्द है ।चाहे किसी से हमारी जान-पहचान न हो ,उसकी किसी बात से मतलब भी न हो ,फिर भी उसकी व्यक्तिगत बातें सुनने में जो मज़ा आता है वह सबके साथ स्टेज पर नाटक देखने में भी नहीं आता । कला यदि जीवन की अनुकृति है ।तो पराई - व्यक्तिगत - बातें सुनना जीवन की वास्तविकता है ।इससे वास्तविक आनन्द की अनुभूति होती है ।
मुझे बचपन से ही छिप कर बातें सुनने का शौक रहा है ।जब स्कूल में पढ़ता था तो क्लास में बैठ कर मुझे कभी चैन नहीं पड़ता था ।किसी -न-किसी बहाने उठ कर स्टाफ़-रूम के पास बने टायलेट में पहुँच जाता था और ऊपर के रोशनदान से कान सटा कर खड़ा हो जाता था ।टीचर्स की एक से एक मज़ेदार बातें मुझे पता हैं ।टायलेट में आधा-आधा घंटा बंद रहने के लिये साथ के लड़कों ने मेरा कितना मज़ाक नहीं उड़ाया ,पर मैंने कभी उनकी परवाह नहीं की ।अब भी किसी अकेले कमरे में दरवाज़े की सँध से कान लगाये मैं काफ़ी समय काट लिया करता हूँ । इस समय सुनाई देनेवाला वार्तालाप यदि सर्वजनिक किस्म का न होकर व्यक्तिगत किस्म का होता है तो मुझे अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है और मैं देश-काल की सीमाओं से ऊपर उठ कर तन्मय हो उठता हूँ । इससे कभी-कभी मुझे बड़ा लाभ भी हुआ है ।
नारी-चरित्र के गूढ़तम रहस्यों में मेरी विलक्षण गति है ।वैसे तो स्त्रियों की बातें अधिक रहस्यपूर्ण मानी जाती हैं ,किन्तु उन रहस्यों में विविधता अधिक नहीं है ,यह मैं डंके की चोट पर कह सकता हूँ । कौन ,किस समय ,क्या करेगा इसका अंदाज़ चाहे मैं ठीक-ठीक न भी लगा सकूँ ,पर ऐसी विचित्र बातें जिन पर दुनिया दाँतों तले अँगुली दबा ले ,मुझे नितान्त स्वाभाविक प्रतीत होती हैं ।
मेरी सबसे बड़ी कमज़ोरी यही है कि मैं अकेले में मकान लेकर नहीं रह सकता । इसलिये मैं सदा ऐसे घरों में रहा हूँ जहाँ आस-पास ,चारों तरफ लोग रहते हों ।घर मिले हुये हों तो और भी अच्छा !अब ज़रा मेरी बिल्डिंग का जुगराफिया समझ लीजिये ।
मेरे से लगे हुये कमरे में इतिहाय के प्रवक्ता रहते हैं ।बीवी -बच्चे उनके शायद हैं नहीं ,क्योंक उनके घर इस प्रकार के पारिवारक पत्र कभी नहीं आते । हालनुमा कमरेवाले हिस्से मेंएक पंजाबी व्यपारी हैं ।उनके बच्चे हैं जरूर पर यहाँ नहीं ।यहाँ फिलहाल मियाँ-बीवी दोनो ही हैं ।एक लड़की ज़रूर जब-तब दखाई दे जाती है -कहीं बाहर रह कर पढ़ती है ।
नीचे जो दिखाई दे रहा है वह मकान मालिक का आँगन है ।और ऊपर मेरे सामने जो दो कमरों का फ़्लैय है दाँतों के एक डाक्टर का सपरिवार निवास है । इनके यहाँ अक्सर ज़ोर-ज़ोर से रेडयो बजता रहता है ,जो मुझे सख़्त नापसंद है ।
पंजाबी व्यपारी की बीवी और मकान मालकिन में काफ़ी घुटती है । दिन-दुपहरी का काफ़ी समय दोनों साथ बिताती हैं ।पंजाबिन अपना घर धो-पोंछ कर बंद कर देती है और मकान मालकिन के यहाँ जा बैठती है ।मकान मालकिन के कोई बाल-बच्चा नहीं ।विवाह को सोलह बरस हो गये ।यों स्त्री-पुरुष दोनों में कोई कमी दिखाई नहीं पड़ती ,अच्छे-खासे मोटे-ताजे हैं । पैसे की भी कमी नहीं , पर माया है भगवान की क्या जाने कोई ?
कभी-कभी दाँतों के डाक्टर की दुबली-सी बीवी भी आ बैठती है ।उसे अधिकतर अपने छोटे-छोटे बच्चों से ही फ़ुर्सत नहीं मिल पाती । ये दोनों जनी टाक्टरनी की हँसी भी काफ़ी उड़ाती हैं ।
ये डाक्टर की बीवी पढ़ी-लिखी है ,हलाँकि लगती नहीं ।और पंजाबिन देखने में बी.ए. पास लगती है पर उसे लिखना तक नहीं आता । हाँ ,मेकप करने में ओर ऊपरी टीम-टाम में खूब होशियार है ।मकान-मालकिन पहले मुझे पता नहीं था ,कौन लोग हैं ,काला अक्षर भैंस बराबर ,है भी भैंस जैसी ही ।
एक बार टाक्टरनी अपनी बड़ी लड़की को डाँट रही थी ,' इत्ती बार समझाया ,बिल्कुल अकल नहीं है तुझमें ।'
पंजाबिन नीचे ही नीचे बोली ,'अकल का सारा ठेका आपने ले रखा है,किसी और के लिये बचेगी कहाँ से !'
फिर वे दोनों ज़ोर से हँसीं । डाक्टरनी को कुछ पता नहीं चला । बह अपने बच्चों से उलझ रही थी ।वह उन्हें ख़ुद ही पढ़ा लेती है ।
कभी-कभी अंग्रेज़ी भी पढ़ाती है ,और यही बात सारी मुसीबत की जड़ बन गई ।
बड़ी लड़की ने पूछा,'मम्मी ,नोउन क्या होता है ?स्कूल में दीदी ने बताया नहीं ।बस लिख कर लाने को कह दिया ।'
मां कुछ तेज़ स्र्वर में बोली ,'नोउन क्या होता है ?नाउन क्यों नहीं कहती ?बोलने में ज़ुबान साफ़ होनी चाहिये ।'
उसने कई बार शब्द लड़की से दोहराने को कहा।लड़की खीजे हुये स्वर में पाँच बार नाउन ,नाउन बोली ।
मकान मालकन आँगन में निकली थी ।
कान में भनक पड़ी तो ठिठक कर खड़ी रह गई । कान खड़े कर ध्यान लगा कर सुनने लगी ।ज़बान की सफ़ाई की बात भी उसे खटकी ।
'अपने को जाने क्या समझती है ।हम जैसे बोलते हैं अपने लिये ,इसे क्या ?करना ...चुड़ैल !' वह बड़बड़ाई ।
किसी को अपनी नहीं बताना चाहती थी , सो चुप लगा गई ।।भुनभुनाती काफ़ी देर तक रही थी ।
ये डाक्टरनी जाने क्या अल्लम-गल्लम बके जा रही है।ठीक-ठीक समझ में नहीं आता ।नाऊ ,नेम धींग (थिंग)नये तरीके की गालियाँ दे रही है ।'
साफ़-साफ़ बात उसकी समझ में नहीं आई फिर भी मतलब तो निकाल ही लिया ,ऐसे क्या वह बिल्कुल  बेवकूफ़ थी ?
ऊपर से फिर आवाज़ आई 'कमिन।'
लड़की और अम्माँ दोनो कह रही हैं 'कमीन - कमीन 'अच्छा तो हम कमीन हैं । हमारे मकान में रह कर हमीं से गाली गुप्तारी !देख लूँगी इसे भी -बड़बड़ाती हुई वह कमरे के अंदर चली गई ।
फिर तो मकान मलकिन परेशान करने पर उतर आई ।नल का पानी ऊपर जाने का मौका ही नहीं देती ।बच्चों को बात-बात पर टोका-टोकी और भी बहुत कुछ ।मन की कुढ किसी प्रकार निकाल रही थी ।
फिर एक दिन पंजाबिन के साथ बैठे-बैठे उसने कह ही डाला ,' देखो तो जरा इस डक्टराइन को ! ऊपर से कमीन-कमीन कहती रहती है ।'
'ये तो बड़ी बुरी बात है ।देखने में तो ऐसी लगती नहीं ....पर अस्लियत कौन जाने !ऐसा तो नहीं करना चाहिये ।'
'पता नहीं कैसी है ।शकल से ही ऐंठू लगती है ।पहला मकान इसीलिये छोड़ा होगा इसने ।बच्चों को भी तो देखो ,जरा-जरा से हैं और गाली देते हैं ।'
ऐसों से तो दूर रहे वोई अच्छा ।'
दोनों सोच रहीं थीं ,वे लोग उसकी जो हँसी उड़ाती हैं ,कहीं उसने सुन लिया हो और इसलिये यह सब कर रही हो ।
कहीं मेरे साथ भी न करने लगे - पंजाबिन ने सोचा आगे से सावधान रहेगी ।
***
अंदर ही अंदर घुटती मकान- मालकिन को चैन नहीं पड़ रहा ।मुकद्दमा आगे बढ़ कर मकान मालिक के पास पहुँचा --
'मैंने अपने कानों से सुना ,तुम्हें और मुझे नाऊ नाउन कहते रहते हैं ।'
कुछ देर चुप्पी ।
'कमीन,कमीन कहते भी मैंने साफ़ सुना ।
'तो तुमने अपने लिये ही कैसे समझ लिया ?"
नाऊ-नाउन कहने बाद मैंने सुना ।मैं क्या ऐसी बेवकूफ़ हूँ जो बे- बात की लड़ाई खड़ी करूँ ?'
'अच्छा !'स्वर बड़ा भारी -सा हो गया था ।
पत्नी ने कहना जारी रखा - 'एक तो वैसेई दुखी हूँ ऊपर से और कुढ़ाती है ।मरे जब देखो संडे के संडे कहते रहवें ।...अब बताओ कोई तुम्हें संडा कहे तो मुझे कैसा लगेगा ।किसी का दिल जलाना अच्छा थोड़े ई है । हमारे बच्चे नहीं तो हम संडा-संडी हो गये ! इन्हीं ने पैदा करके कौन कमाल कर लिया ।..क्या करूँ मेरी ही किस्मत फूटी है ।ये नासपीटी और जलाने आ गई मुझे ।'
इसके बाद डाक्टर का रेडियो ज़ोर-ज़ोर से बजने लगा था । कुछ सुन नहीं पाया आगे ।


***

गर्मियों की सुबहें बड़ी प्यारी नींद लाती हैं ।उस समय मानव जगत में अपेक्षाकृत शान्ति रहती है ।सुनने लायक कुछ खास होता नहीं ।अच्छी-खासी नींद में था कि कानों में कुछ आवाज़ें आने लगीं ।अलसाया-सा शरीर बिस्तर से उठना नहीं चाहता था । लगा कहीं कोई बड़े जोर से दरवाजा खड़का रहा है ।साथ में आवाज़ भी किसी लड़की की 'खोलिये,खोलिये '।
मकान मालकिन का रूखा-सा स्वर ,'कौन है ?,क्या है ?'
'आण्टी मैं हूँ ,गुड्डी ।परशाद भेजा है मम्मी ने ।'
डाक्टर की बड़ी लड़की ।
कुछ देर चुप्पी ,फिर ,'खोल रहे हैं ।'
ज़ोर से दरवाज़ा खोलने की आवाज़ ,'क्यों ये अण्टी-सण्टी क्या होवे ?'
'नहीं ,तीई जी ।मुँह से निकल गया ।
'अम्माँ पढ़येगी वही तो निकलेगा ।होवे क्या है ये अण्टी ,ये भी तो बता जा ।'
'चाची को आण्टी कहते हैं ।
'हमसे मत कहा कर ये सब ।'
'अरे भागवान ,लड़की से काहे उलझ रही है ?मकान मालिक की भारी आवाज़ ,'' बिटिया जरा अपने पिता जी को भेज दीजो ।'
मैं फ़ौरन उठ कर खिड़की से लग गया ।
मकान मालकिन ने झटाक से प्रसाद की प्लेट ली और से लाकर वापस कर दी ।
कुछ देर बाद ज़ीने पर आहट हुई ,फिर दरवाज़ा खुलवाया गया । जरूर दाँतों का डक्टर होगा ,मैं चौकन्ना हो गया ।
नमस्कार-चमत्कार के बाद दो मिनट चुप्पी रही ।,मैं झाँकने का लोभ संवरण न कर सका ।दोनों कमरे में जाकर बैठ गये ।मैंने कान खिड़की से सटा लिये ।
'देखये साब ,हम तो सोच रहे थे आप-लोग पढ़े-लखे समझदार हैं ।पर बच्चों को आपके घर से कैसी बातें सिखाई जा रही हैं ।'
'क्या हुआ ?बच्चों ने क्या किया ?'
ऊपर से हमें नाऊ-नाउन और कमीना कहा जाता है ।'
'कब ?किसने कहा ?'डाक्टर की चौंकी आवाज़ ।
'कोई बच्चे अपने मन से थोड़े ही कह देते हैं ।आपके घर से भी...।'
'ऐं ...ऐसा कैसे हो सकता है ?'
'हमने सोचा था डाक्टर हैं ,भले लोग हैं पर ये गाली-गुप्ता तो ठीक नहीं ।वह भी बेबात में ..।हमारे बच्चे नहीं हैं आपके हैं पर इससे हमें संडे-संडी तो नहीं कहना चाहिये ।कितना दुख हुआ घरवाली को ..।'
उनकी पत्नी भी बोलने आ गई थी ।
'हाँ भइया , अपने कानों से सुना ।नहीं सुनती तो क्योंकर बिसबास होता !हम तो वैसे ही दुखी हैं ऊपर से और ...7हमने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा ?ऐसे ई करना है तो हमारा मकान खाली कर दो और क्या ।'
'बेकार हल्ला मत मचाओ ,चुप रहो ।जाओ अंदर हम लोग बात कर लेंगे ।'
डाक्टर भारी सोच में था ।
..उन्होंने ऐसा कैसे कहा होगा ?...अभी बुलाता हूँ उन्हें ।'
'नहीं यहाँ बुलाने से क्या फ़ायदा ?आप खुद ही समझा देना ।बेकार तमाशा लगाने से क्या फ़ायदा ?'
'पर ऐसा हुआ कैसे ?'डाक्टर आहत स्वर में कह रहा था ।
***
एक घंटा बीत गया था ,सोचा मामला ठंडा हो गया । नहाने जा रहा था ,डाक्टरनी के चिल्लाने की आवाज़ें आने लगीं ।
पहले मैं समझा मकान मालकिन से लड़ रही हैं ।फिर समझ में आया अपनी लड़की पर बिगड़ रही हैं ।
'गुड्डी सच्ची बताओ ,तुमने क्या कहा था ..?'
'नहीं ,हमने नहीं कहा ,मम्मी ।'
'सच्ची,सच्ची बोल दे ..।'
नहीं कहा ,हमने कभी नहीं कहा ।'
तड़ाक् से एक चाँटा ,'बोल सच्ची ।'
'नहीं ,नहीं हमने कभी नहीं कहा .'.'बिलबिला कर लड़की चीखी ।
फिर तड़ातड़ मारने और रोने -चीखने की आवाज़ें ।
'ऐसे नहीं मानेगी ।पट्टू डंडा ला ।'
फिर रोना -चीखना ।'
नहीं बतायेगी तो तेरी हड्डी पसली तोड़ दूँगी ।यही सिखाया है हमने ...।'
लड़की की ज़िद ,'हम तो स्कूल से आकर पढते हैं ।नहीं कहा ,कभी नहीं ।
डाक्टरनी की दया-माया क्या बिल्कुल खत्म हो गई ।फिर पिटाई ,चीखें ।
'अपनी ही रट लगाये है ।ठहर जा .तुझे आज मार कर ही छोड़ूँगी । वे क्या झूठ बोल रहे हैं ?'
वह फिर आगे बढ़ी ,मकान मालकिन चिल्लाई ,' अब क्या मार ही डालोगी लड़की को ?'वह बीच में आ गईं ।
'नहीं बहन जी ,कबुलवा लेने दो ,बीच में मत पड़ो ।'

लड़की जोर-जोर से चिल्ला रही थी ,'ताई जी हमने कब कहा ?'
ताई जी चुप्प ।
मम्मी का फिर गरजना ।लड़की का रोये जाना ।
अब असह्य होता जा रहा है मेरे लिये ।
सामने-सामने ,सब कुछ जानते हुये भी कह नहीं सकता । दुस्सह हो उटा तो मैं कमरा बंद कर बाहर निल गया ।
बड़ी देर बाद लौटा डाक्टर का रेडियो चुप था ।लड़की की सिसकयाँ सुनाई दे रहीं थीं ।

।डाक्टरनी रो-रो कर कहे जा रही थी ,'इत्ता झूठा नाम ! उनने तो कहा गुड्डी के साथ मैंने भी कहा ।
'मेरी तो समझ में कुछ नहीं आता ।'
'मेरे बच्चे जहाँ आँखों का काँटा हों ,मुझे नहीं रहना उस मकान में ...छोड़ दो ये मकान ।..इत्ता पिटवाया लड़की को ..अब तो जी ठंडा हो गया होगा ! क्या फ़ायदा इस मकान में रहने से ?'
दूसरी ओर मकान मालकिन झींक रही थी ,'मेरी ही किस्मत खोटी है ।क्या कहेगा कोई कि अपने नहीं हैं तो दूसरे के बच्चों को पिटवाती है ।
जरा सी ममता नहीं । इत्ती बुरी तरह पीटा लौंडिया को ।कौन जलम के पाप भुगत रही हूँ । हे ,मेरे राम ।सब मुझे ही दोष देंगे ।'
'अब चुप भी करो ,तुम लोगों से चैन से रहा भी नहीं जाता ,' मकान मालिक ने डाँटा ,'न यों चैन ,न वों चैन ।'
'..तो मेरा क्या दोष इसमें ..जो सुना सो कह दिया ।तुम भी मुझे ही कहोगे ...मैं कहाँ जाऊं, मेरे राम !'
आज मुझे डाक्टर के रेडियो का न बजना खटक रहा था ।
कुसूर किसका है ?,डाक्टरनी का या मकान मालकिन का?नहीं किसी का नहीं । मैं दोनों के बीच फँस गया हूँ । सब कुछ जानता हूँ फिर भी कुछ बोल नहीं सकता ,क्योंक सच गूँगा होता है -सुनता सब है कहता कुछ नहीं ।
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दूसरा दिन ।
मुझसे रहा नहीं जा रहा था ।गुड्डी के स्कूल जाने के थोड़ा पहले जाकर मकान मालिक के घर बैठ गया ।
बातें करने लगा ,' पिता जी पूछ रहे थे आप लोगों के बारे में । हम लोग बिजनौर की तरफ़ के हैं ।आप कहाँ के हैं चाचा जी ?'
'चाचा जी ' सुन कर मकान मालिक की मुद्रा कोमल हो गई ।
' हम ? उधर मेरठ साइड में गाँव है अपना घर है ,भाई बंद हैं ,वहीं रहते हैं ।
'हाँ बोली से मैं समझ रहा था कि अपनी तरफ़ के हैं ।और चाची जी ..वे कहाँ की हैं ?'
अपना उल्लेख सुन कर वे अंदर से निकल आईँ ,' हमारा मायका उधर दौराला में ...।'
'हाँ ,हाँ ,नाम तो सुना है हंमने ,वहाँ गन्ने की मिल है ...।वहाँ के गन्ने का क्या कहना !"
वे खुश हो गईं ,' अभी भी वहाँ हमारे भाई लोग हैं ...।'
इतने में गुड्डी आती दिखाई दी ,हाथ मे बस्ता लिये थी ।
'अरे गुड्डी ,इधर तो आना ,' मैने आवाज़ लगाई ।
वह दरवाज़े तक आगई थी ,' कम इन ,कमिन ,गुड्डी अंदर आ जाओ ।'
चाची जी हैरत से देख रही हैं ।
'मेरी भतीजी भी तुम्हारे बराबर है ।तुम कौन से क्लास में हो ?अंग्रेजी ग्रामर मे आज कल क्या चल रहा है ?'
'आजकल पार्ट्स ऑफ़ स्पीच ...।'
'हाँ उसी में तो.. आज कल क्या चल रहा है ?'
'अभी तो शुरुआत है नाउन की परिभाषा और कांइंड्स ।'
तुम्हें आता है ?बताओ कितने तरह के है ?'
वह शुरू हो गई ,' कामन नाउन ,प्रापर नाउन ,एब्सट्रेक्ट ..और और ..।'
'हाँ अभी पक्के नहीं हैं ,' रटा करो ,हर इतवार को ,संडे के संडे ।' मेरी भतीजी आने वाली है मैं उसे पढ़ाऊंगा ।तुम चाहो तो आ जाना अगले संडे तुम्हारे बराबर की है ।'
'मम्मी से पूछ लूँगी ' जाते-जाते उसने कहा ।
वे दोनों अवाक् बैठे हैं । कुछ सोचते-से ।
भतीजी नहीं आनेवाली है ,लेकिन काम पूरा हो गया ।
मैं झूठ कहाँ बोला ,सच बोलने लगा हूँ ।

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