सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

काग भगोड़ा

[काग-भगोड़ा - उस डरावने पुतले को कहते हैं जिसे किसान अपने खेत की फ़सल को कौवे-तोते आदि पक्षियों से बचाने के लिये खड़ा कर देते हैं। एक मिट्टी की हाँड़ी को काला रँग कर उस पर सफ़ेद आँखे और नाक - मुँह बना कर, दो बाँसों को पाँव का रूप दे, उनके ऊपर सिर की तरह लगा देते हैं। हाँड़ी के नीचे बाँसों पर पेट के लिये फूस आदि लपेट दिया जाता है दोनो ओर दो डंड़े हाथ के लिये लगा कर, फटे-पुराने कपड़ों से सजा, खेत के बीच में खड़ा कर देते है। हवा के साथ पुतला हिलता है तो पक्षी डर कर उड़ जाते हैं।]
मनका ने घास का गट्ठर दरवाजे पर पटक दिया, उसमे घुरसी हथौड़ी निकाल कर चौखट की सँध में अटका दी, मोटी धोती के पल्ले से पसीना पोंछते हुए उसने ससुर के खटोले पर निगाह डाली, खाली था। पिछवाड़े गए होंगे, उसने सोचा। दिन भर की पत्थर-तोड़ मेहनत के बाद उसकी इच्छा हो रही थी दो घड़ी बैठ कर सुस्ता ले। लेकिन बैठ गई तो रोटी सेंकने में और देर हो जाएगी। ससुर वैसे ही बीमार ठहरे, समय से बकरी के दूध में रोटी मींज कर खा लेंगे।
चार कदम आगे बढ़कर उसने मुकले पर धरी ढिबरी उठाई और चूल्हे की राख में दबी आग पर घास के तिनके रख कर फूँकने लगी। राख के कण उड़-उड़ कर चेहरे पर आने लगे, उसने आँखे आधी मीच लीं। लपट आते ही दूसरे हाथ से बत्ती पर आया गुल नोच कर, जला दिया उसने। दीवारों पर परछाइयाँ नाचने लगीं।
पत्थर तोड़ते समय बदलू बार-बार उसी को तके जा रहा था। कितनी बार अनदेखी की, कड़ी निगाहों से देखा पर वह बाज़ नहीं आया। अबकी बार बोलने की कोसिस करेगा तो अच्छी तरह झिड़क दूँगी, मनका ने सोचा। वह आकर देहरी पर बैठ गई - बटलोई में दाल चुरने रख आई थी।
अभी तक नहीं आया, उसने सोचा, कहीं यार-दोस्तों में बैठा तमाखू पी रहा होगा। गुरदीन के बारे में सोच रही थी वह।.. अरे, वही ढंग का होता तो काहे का रोना था।
सास बकरी को झाड़ तले बाँध रही थी, सिर घुमाकर उसने मनका को घर में घुसते देख लिया था। अभी तक गुरवा नहीं आया उसने भी सोचा। कैसे सम्हाले लड़के को ? जब बचपन में नहीं सुनी तो अब क्या सुनेगा? और अब तो संगत भी ऐसी मिल गई - तम्बाकू और गाँजे का दम लगाए बिना चैन नहीं पड़ता! बड़ी चिन्ता में पड़ जाती है नथिया। इकलौता पूत और वह भी ऐसा! कभी निश्चिन्त होकर नहीं रह पाई।
मेहरुअन के साथ बैठकर बताती है वह – ,' पहलौठी की बिटिया ब्याही-ठाही आपुन घर की भई। उसके बाद के तीन बच्चे सौरी में ही दम तोड़ गए, तब ई भवा। किसी औघड़ की कृपा से गुरवा जीया-जागा। वह कहती है, “ ई भवा तो सनकै ना ! हम तो मार डेराय गए । दाई गरे माँ अँगुरिया डारिस । कुछू न भवा। फिन दुई धौल धरे ई की पीठै पर, तब ई रोवा। गुरु की किरपा ते जिवा-जागा तौन नाम धरि दिहिन - गुरदीन।”
ममता की मारी नथिया ने सौरी में ही नाक-कान बिंधवा दिए - छोरा सुरू से बिंधा रहेगा तो कउनो बाधा नहीं न बियापेगी! लाड़ - प्यार में बिगड़ गया गुरवा ! बड़ी साध थी, स्कूल में जा के चार आखर पढ़े, ढंग का मनई बने।
” पर जौन चाहो कहाँ होइत है,” ठण्डी साँस खीच कर कहती है, “ किस्मत में लिखाय के तो कुछू और आवा रहा।”
तम्बाकू की लत तो बचपन से ही लग गई। ' न जनै कहाँ-कहाँ ते बीड़िन के टोंटे बटोर लावत रहा, छिप-छिपके धुआँ निगलत रहा। हम तो बहिनी, बहुत देर में जान पाइन कि ई का करत हैं।'
देह पनपी नहीं, छोटा-सा कद और हाड़-हाड़ देही। मिरगी के दौरे भी पड़ते हैं , यह तो मनका ने इसी घर में आकर जान पाया।
“काम - धाम में कबहूँ ई का मनै नहीं लगा।” बाप की डाँट- फटकार सब बेकार। कभी सन्टी उठाई तो नथिया बीच में आकर खड़ी हो गई -
“उइसेई गिरा-परा रहित है मार-मार के हड्डी तुड़िहौ का?”
कभी रूठ कर कहीं भाग जाता तो ममता की मारी नथिया ढूँढती फिरती। नशे में धुत कहीं पड़ा मिलता। किसी तरह लाती, सम्हालती। बेटे को बिना खिलाए उसके गले से कैसे कौर उतरता ? बड़ी साध थी, बिटवा का बियाह होगा, बहुरिया आएगी, अँगना में पोता खेलेगा। पर गुरदीन को देखकर लड़की वाले बिचक जाते - ऐसे से कौन अपनी बिटिया ब्याहे ?
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पर नथिया कहाँ हार मानने वाली।
पार गाँव में बहिन की ससुराल थी। वहीं उसके ममिया-ससुर को लकवा मार गया।
' घर में कोई कमाएवाला नहीं। जवान -जहान दुई-दुई लौंडियाँ क्वाँरी बैठी हैं। लरिका छोट अहै दस बरिस का, निरा नासमुझ। कैसे पार लगेगी जिन्दगी ? 'बहिन से सहानुभूति दिखाती रही नथिया, पूछती-बताती रही। लड़कियन का भी देख-परख लिया।
महीने भर में तीन चक्कर लगा आई। सारी खबरें लेती रही। गाँववालो ने दुनिया भर की बातें शुरू कर दी हैं। इत्ती जवान लौंडियाँ भईं, घर में बिठाए हैं। कल को कुछ ऊँच-नीच हुई गया तो सारी बिरादरी की नाक कटेगी। बियाह करो, नहीं ती बिरादरी से बाहर कर देंगे। मामी बिचारी को मामा की तीमारदारी से कहाँ छुट्टी ? फिर कहाँ बहाय दे लड़कियन का ? बड़ी को तो एक तीन बच्चन का बाप बियाहन को तैयार है, दु साल से रँडुआ बैठा है। मामी चाहती हैं एकै मण्डप में दूनौ की भँवरी पड़ जायँ।
नथिया तरस खाती रही। बहिन से पूछ लिया कि लड़कियों के लच्छन कैसे हैं, बहिन का उत्तर था, “दूनौ नीक अहै, मुला छोटी केर रंग नेक सँवरा अहै, पर छब ऐसी कि चेहरे से निगाह ना हटे। दूनौ बहनी घर- बाहर सब सम्हारे है, गाँव भरै का कुटान-पिसा कर के, सिल्ला बीन के, घर खरच केर जुगाड़ किए हैं।”
“तौ बहिनी, नीक लौंडियन का लड़िकन की कमी थोरै है।”
“कौनो निगाह में होय तो तुही बतायो।”
“काहे नहीं, काहे नहीं।”
बहिन से मन की बात कह डाली मनका ने। पहले तो वह चौंकी, पर पलड़ा नथिया का भारी रहा - बहनौते की बात जो थी।
लड़का मिल रहा है यही कौन कम है, “बियाह- सादी में लड़िकन की सकल देखित है कोई ?”
नथिया ने गुरदीन को बदलू के साथ अपनी बहिन के घर भेजा, “आपुन रिस्तेदारी में हारी-बीमारी होय तो जरूर जाए क चाही। तुमका भेजित है ,काहे से कि अब तुमका ई सब सीखै क परी।.. जाओ बिटवा, हुअन के हाल - चाल लै आओ।” मौसी के साथ दोनों मनका के पिता को देखने गए। मौसी ने बात सम्हाल ली। दोनों को आदर से बैठाया गया। गुरदीन तो बिलकुलै चुप्प रहे, बदलू बोलत-बतियात रहे। चाय-पानी हुआ। गुरदीन की तो हिम्मत नहीं पड़ी, बदलू ने मनका से आँखें मिलाकर चलती-फिरती बातें कर लीं। मनका की माँ को लगा - इहै है लड़िका।
चट्ट बात पक्की हो गई और पन्द्रहवें दिन बड़ी लड़की की बारात के साथ गुरदीन की बारात पहुँच गई, मनका को ब्याहने।
“ई कइस लड़िका है? बात तो दूसर की हुई रहै ?”
“कइसी बात करित हो मामी ? ऊ तो लड़िके का दोस्त रहा। मुला लड़िका तो इहै है। इहै के महतारी बाप ते रिस्ता पक्का किहिन है। ऊ तो कौनो गैर जात होई।”
तेल चढ़ चुका था, कंगन बँध चुका था। अब बारात लौटा दें तो लड़किनी कहूं की नहीं रहेगी। महतारी-बाप का जीना मुस्किल हो जाएगा..। कौन मुह दिखाएँगे दुनिया को? पिता ने बिस्तर पर पड़े-पड़े कहा, “अब अपने हाथ में कुछ नहीं –जौन लिखाय के लाई है तौन..........।”
माँ रो कर रह गई, और मनका गुरदीन को ब्याह दी गई।
नथिया का पाँसा सही पड़ा।
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ऊँची-पूरी तन्दुरुस्त, जीवन की ऊर्जा से पूर्ण, यौवन से भरपूर, खिली-खिली फूल जैसी मनका !और गुरदीन - निस्तेज, मुरझाया-सा, हाड़- हाड़ देह, मिचमिचाती आँखें और झुकी कमर, जिससे छोठा कद और छोटा लगता था। मनका किससे क्या कहे ? रामजी के इहां से इहै लिखा कर लाई है तो अम्मा- बप्पा को कइसे दोस दे?
“ काहे भौजी, दिखावा तो हमका रहे। तुम्हार माई तो हमका दुलहा बनाए खातिर राजी रहे।”
“तो बरात लैके काहे नाहीं आएउ ? भौंरी की बेला काहे मुँह चुराए रहे ?”
“गुरदीन की अम्मां की हुसियारी ! ..अउर का ? हमका कउनो पता रहे कि का हुइ रहा है ? काहे से.., ऊ हमका बतावा नहीं कि का चाहित है। हमका कहिस कि गुरदीन का सरम आवत है, एहि का साथै तुमका जाए का परी। हम का जानी उन केर मन माँ का है।”
मनका सिर झुकाए पत्थर तोड़ती रही। हथौड़ी की ठाक्-ठाक् और पत्थर टूट-टूट कर गिरने की आवाजें। ऊपर तपता सूरज, सामने पत्थरों का ढेर। बीच-बीच में पत्थरों के छर्रे उछल जाते हैं, चिन्गारियाँ बिखर जाती हैं। पल्ला सिर से अच्छी तरह लपेट लिया है मनका ने। हथौड़ी लगातार चल रही है -ठाक्- ठाक्,ठाक्- ठाक्......।
रंग उड़ी मोटी-सी धोती, जिसका रंग कभी नीला रहा होगा, लगातार की धूप और मिट्टी से धूसर हो गई है। किनारी से जगह-जगह तागे निकल रहे हैं। लाँग लगाकर बाँध रखी है मनका ने। पल्ला ऊपर ले जाकर माथे और चेहरे पर लपेट लिया है -आँखें और नाक का हिस्सा भर खुला है।
नाक में चवन्नी बराबर चाँदी का फूल, हाथों में मोटी-मोटी चूड़ियाँ, कमर में चौड़ी गिलट की करधनी नाभि के नीचे धोती को कसकर बाँधे हुए, और पाँवों में मोटे-मोटे गिलट के कड़े। हथौड़ी उठा कर पत्थर पर मारती है तो चूड़ियों की हल्की -सी खनक उस कठोर आवाज़ में मिल जाती है। माथे पर आई लटों को ऊपर कर, मनका ने ढीला पड़ गया पल्ला समेट कर पसीना पोंछा और फिर से लपेट लिया।
“ भौजी इत्ता अन्याव मत करो आपुन ऊपर। ”
“ अच्छा, न्याव-अन्याव क बिचार तुम कब ते करै लागे? ”
“ हमका माफ करो भौजी, हम कित्ती बेर गुरदीन का समुझावा, मुला ऊ सुनतै नाहीं। हमार हिया बहुतै जरत है। ”
“ चुपाय जाओ बदलू, देख लिहिन हम सबका। इहै खातिर आपुन दोस्त का बियाह करावा रहे कि मउका पाय के......? ”
“ ई मतबल नाहिन हमार। भौजी, हम बहुतै पछताइत हैं। आपुन गलती सुधारै के मउका मिलै तौन हम नाहीं चूकब। ”
“ मउका ढूँढत हौ,” गहरी साँस खींची मनका ने, “तुम्हार निगाह खूब पहिचानित है हम। इत्ते दिनन से तुम इहै कोसिस में लगे हो? तुम का समुझत हौ, सिगरी दुनिया अन्हरी है? तुम्हारे कारन हमका का- का सुनन का परित है.......? ”
“ ऊ गुरवा का छोड़ देओ, हमार साथै चलो भौजी, हम तोहार पाँव परित हैं। कहूं अनतै जाय के गिरस्ती बसाय लेबै।”
“ बस बस, चुप्पै रहौ। इत्ती बात बोलै का मुँह है तुम्हार ? हम का कउनो कूकर-बिलार समुझै हो कि जौन मिले तिसके साथ लग लेई?”
डपट दिया था मनका ने। बदलू चुपचाप चला गया। पर एक बदलू ही तो नहीं। कितने लोग उस पर कैसी-कैसी निगाहें डालते हैं ? मनका सब समझती है। पर क्या करे ? अपना आदमी ढंग का होता तो काहे ई सब झेलना पड़ता।
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सास कहती है, “सुसरी बाँझ है। चार साल हुई गए, मुला एक बच्चा नहीं जन पाई। कैसी मुटाई चढ़ी है । आग लगे ऐसी जवानी में। ”
अपने बेटे को चढ़ाने से कभी नहीं चूकती वह।
“ कैसी इठलाय के रहित है। सरीर तो देखो, कपड़न में समाय नहीं रहा है। एक ई पहलवानिन , अउर हमार बिटवा मार झुराय रहा है।”
सचमुच मनका की कठोर श्रम से पकी हुई देह के सामने गुरदीन मरगिल्ला लगता है। नथिया बहू के चरित्र पर आक्षेप करती है तो बेटा तमक जाता है।
“ स्साली, जाने का समुझती है अपने आप का। इसे ठीक करना ही पड़ेगा।”
गुरदीन को बड़ा मलाल है - मेहरिया नब कर नहीं चलती, हमेसा सिर उठा कर बात करती है। अरे, अउरतजात है अउरतिया की तरह रहे का चाही।
नथिया और उकसाती है - “ इसके लच्छन ही खराब हैं। ऐसी महरारुन के औलाद भी नहीं होवत है। ”
दो दिनों से मनका शाम को आकर रोटी सेंकती है तो तीनों खा लेते हैं - ससुर तो अपनी खटुलिया पर ही दूध में रोटी मींज लेते हैं। और खाकर उठते ही सास कूकर के लिए रोटी निकालकर बाहर चल देती है। मनका के लिए एक-दो से ज्यादा नहीं बचतीं। नथिया जानबूझ कर अनदेखी कर जाती है। सोचती है - कैसी गदराय रही है, मेहरियाँ तो खाती ही बचा- खुचा हैं। दुइ दिन कम खाय लेगी तो मर नहीं जाएगी।
और तीसरे दिन मनका की खाए की बेला खूब हाय-हाय मची।
सास एकदम भड़क कर बोली, “ हुआँ काम करने जाती है कि दीदे लड़ाने ? किसउ को मुँह दिखाने लायक नहीं रखेगी।......अरे, तू कैसा नालायक है। आपुन मेहरिया को बस में नहीं रख सकता?”
गुरदीन संटी लेकर खड़ा हो गया, “ काहे हरामजादी, तू कौनो तरह समझेगी कि नाहीं ? ”
मनका उसकी तरफ देखने लगी।
“ कईसे दीदे फार-फार के घूर रही है,” सास कहाँ पीछे रहनेवाली।
गुरदीन ने आगे बढ़ कर चूल्हे के पास बैठी मनका को धक्का दिया और तीन-चार संटियाँ लगा कर चूल्हे से सुलगती चैली खींच ली।
जलती लकड़ी देख मनका झटके से उठी, एक हाथ से उसका हाथ पकड़ा और दूसरे से चैली छीन ली।
“ अब बोल, का करेगा ? “
गुरदीन के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। वह घबरा गया - कहीं मनका उसी को दागने न लगे! पत्थर तोड़-तोड़ कर कठोर पड़ गए उसके हाथों से अपने दुर्बल हाथ छुड़ा नहीं पाया वह। मनका ने झटका देकर उसे छोड़ा और जलती चैली चूल्हे में फेंकी। गुरदीन सम्हल नहीं पाया, गिरते-गिरते दीवार से सधा, बाप के खटोले से सिर टकराते बचा।
“अरे , मार डारिस रे,” सास चिल्लाई, “अरी, डाइन मोरे पूत को खाकर छोड़ेगी का ? अरे, दौरा पड़ि गवा ओहिका।”
मनका ने घूर कर देखा, सास चुप हो गई। दौरे का कोई लक्षण नहीं था।
गुरदीन की भयभीत आँखों पर वितृष्णा भरी दृष्टि डाल वह बाहर निकल गई। थाली की रोटियाँ चूल्हे की राख में बिखर गई थीं, उनकी ओर उसने देखा तक नहीं।
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एक दुलारी है , जिससे मनका अपने मन की बात कह लेती है । पर आज कुछ कह नहीं रही, बडी चुपचाप है । बीच मे दो बार पानी पीने उठी है , फिर आ बैठी है । हथौडी लेकर , पत्थरों पर चोट करती - लगातार , अनवरत । दुलारी छिपी निगाहों देख रही है । उसे कुछ अजीब लग रहा है । आज इसे हो क्या गया है ? मनका का सोच कर बडा दुख होता है दुलारी को ,पर ये भी एक ही जिद्दी है । दुलारी लाख समझाए वह समझती नहीं ।
घर पर मां-बेटे चैन नहीं लेने देते , एक बुढऊ हैं कुछ सहानुभूति रखनेवाले पर उनकी सुनता कौन है ।
जब गुरदीन के हाथ से जलता चैला छीनकर उसे धकिया कर मनका ओसारे मे निकली थी तब भी बूढे ससुर बडबडा रहे थे , " मत पराई जाई का जी जराओ , दो टिक्कड तो खा लेने दो...।" झिलँगे खटोले से उठने की कोशिश कर रहे थे । मनका ओसारे मे जा खडी हुई थी , ससुर की आवाज सुनी थी उसने ," अरे काहे अनियाव करते हो । कहीँ छोड के निकल जाई तो कौनो पूछने नहीं आएगा.।..रोटिन के लाले पड जाएँगे....तोर बिटवा कौनो काम का नाहीं । काहे उसकाती रहती है ?"
सास ने कुछ कहा , मनका सुन नहीं पाई ।
थोड़ी देर बाद शान्ति होगई थी घर में ।
मनका घुसी और चुपचाप अपनी जगह लेट गई । सब आँखें मूदे पडे रहे, जैसे गहरी नींद सो रहे हों । और सुबह फिर काम पर जा पहुँची थी - एकदम चुपचाप ।.
" काहे, आज का मऊन बरत साधै हो ?"
" नाहीं ,जी ठीक नाहिन । कुछू नीक नाहीं लागत है ।"
" सो तो हमका दिखात है । खाली पानी मत ना पियो , नुसकान करित है ।"
" मार कडू-कडू गरे तक आय रहा है, देह पिराय रही है ।"
"कउनो बात है का ?" दुलारी ने भेदभरी दृष्टि डालकर छेडा , " ई तबियत काहे ढीली है ? कुछू कमाई किहिस लागत है ?"
"अरे , न कहूँ । ऊ कोई मरद है ? बस खाए भर का है । हमार मन बहुतै उचाट है ।"
"तो काहे दिनैमान हाड - तोड काम करित हउ ? जरी-कटी सुनित हौ अऊर ऊपर ते । काहे क रहित हऊ ओहि का साथे ?"
कुछ देर चुप्पी रही फिर दुलारी समझाने लगी ," निकर जा बदलू के संगै - तेरी जोड का मरद है । तोहरे साथे जउन भवा ओहिका बहुतै पछतावा अहै ओह केर जिव मां ।"
" बदलू केर तरस खाए से हमार जिनगी पार ना होई । हमार देही त पत्थर तोडि तोडि के पथराय गई है....अब केहू केर बिसबास नाहीं ।"
" आपुन देही पे अन्याव न कर ।जिउ नीक नाहीं त काम करै काहे चली आएउ ? "
"ई देही क का होई,जेहि का देखि के लोगन केर जी जरत है ?"
" तोहरी सास आपुन बिटवा केर दोस न मानी , हमेसा तुह का दोस देइत है । कहित हई तू बाँझिन है ।"
मनका तमक गई ," ऊ हरामी , मरद सा मरद होतेउ तौन चार बरिस मे चार बच्चा जन देइत। फिन कहाँ रहित ई देही जेहिका देखि के सभै केर हिया मे आग बरत है ?"
" फिन काहे परी है हियन ? आपुन रास्ता देख । कमीली मेहरारू हन , आपुन जिनगी काहे बरबाद करे का बैठी है ?"
हथौडा चलाते-चलाते उसका हाथ रुक गया , दुलारी की ओर देखा बोली , " अऊर ऊ बुढवा-बुढिया का मरन के लै छोड देई ? भूखन मरि जाब त हत्या हमका लगी । हमार मरद ?' उसने लंबी साँस छोड़ी, ' ऊ त कौनो काज का नाहीं , ऊपर ते चिलम -गाँजा कउनो ऐब बाकी नाहिन बचा । एक दिन रोटी ना मिली त बिलकुलै मर जाई । हत्यारी होये क पाप हम ना करी ।"
और भी बोलती रही ,' उहि जलम केर पाप तो इह माँ भुगताय रहे हैं ....।'
"बस कर भवानी । हाड तोड आपुन ,अउर खा गारी ।"
यह बात तो उसकी सभी साथिने कहती हैं ," सास हमेसा गरियात है , कोसत है । तोहार मुहै मे जिबान नाहिन का ?"
" है काहे नाहीं ,मुला कहन ते का फायदा । ऊ जनती हैं कि उन केर बिटवा मे कमी अहै , तौन खुनिस हमते निकरती हैं ।"
सास के शब्द मनका ने सुने थे ," अईस ठीक न होई , ऊ मेहरिया तोहार बस की कहाँ ?"
गुरदीन का वह खिसियाया चेहरा बार-बार मनका के सामने डोल जाता है । अचानक ही क्या हो गया यह ? मन ही मन पछताती है ,पर जलती हुई लकडी ! इसके सिवा कोई रास्ता नहीं था बचने का । हे , राम जी छिमा करना ।
हम तो जनम के पापी हैं रामजी । पापी ना होइत तो काहे अइस जिनगी मिलती । जौन पडी तौन झेलब.। अरे,अभी न भोगी तो आगे कउनो जलम मा भोगन का परी । इससे अच्छा है इसी मे निपट जाए । सास कोसती है , कोसती रहे क्या फरक पडता है । छोड कर भागे भी तो बुढऊ-बुढिया की छीछालेदर हो जाएगी । कमाना तो किसउ के बस का नहीं । अउर ऊ मरद - ओहिका कौनो ठिकाना नहीं । मिर्गी का दौरा पडे ,कहीं गिर पडे । कित्ती बार तो लोगन से खबर पाकर मनका दौडी है, घर लाकर सम्हाल की है । मुला ऊ मानुस जलन मे फुंका जाय रहा है ।
काहे की जलन ? मनका समुझ नहीं पाती । उसने तो मेहरारू बन के रहने मे कोई कसर नहीं छोडी - आपुन धरम से विचलित नहीं हुई । माँ-बेटे चाहे जितनी तोहमतें लगाएं - मै तो कोरी हूँ , हे रामजी । एक बुढवा है , जिसका जिउ दुखता है मनका के कारन, पर बेबस है बिचारा । कभी कुछ कहता है तो माँ-बेटे दूनौ मिल कर गरियाते हैं ,चुप कर देते हैं ।
" आज हमार चित्त कैसेउ थिर नाहीं हुइ रहा दुलारी ,का करी ?"
एक वही है जो उसके हिरदै की पीर समुझती है । दुलारी के ध्यान मे एक ही उपाय आता है - बदलू !
पर मनका तैयार नहीं होती । मरदजात का कउन भरोसा - आज को खुस है तो सबई अच्छा , कल को गुस्साय जाय तो बाही-तबाही बकने लगे । और उस पर दूसरे की मेहरिया होने का दोस लगाया तो उससे सहन नहीं हो पाएगा । वह तो कहीं की नहीं रहेगी । सास के लांछन सह जाती है वह , जानती है कि आपुन जी की जलन वह मनका पर निकालती है।असलियत वह भी जानती है और मन ही मन बहू से डरती है.।आपुन बियाहे मरद की बात और है चाहे मिट्टी का ढेला ही होय - मनका सोचती है ।
सास कहती है ," बडी मुँहजोर लुगाई है ।"
मुँहजोर न होय तो का करी ?" मनका अपनी वेदना दुलारी से कहती है ," कमजोर की लुगाई को सिगरी दुनिया आपुन लुगाई बनाना चाहे ।
दुलारी भी जानती है, मनका को क्या- क्या झेलना पडता है.। ठेकेदार कहता है , " तू सबसे ढंग की है री , कभी - कभार पैसा- टका चाहिए तो मुझसे कह दिया कर..!..हाँ , तेरा मरद कहाँ रहता है;उसे भी ले आ , हल्का-फुल्क काम दे दूंगा ।"
मनका खूब समझती है । काम और वह आदमी ? उसके बस का कुछ भी है क्या ? नाम का मरद है और लुगाई पर मरदानगी दिखाना चाहे.। मनका के मुँह मे थूक भर आता है । पर मै तो नाम की औरत नहीं न हूँ १
हे , रामजी, ई मन कइसा पापी अहै !
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उधर मैदान मे पण्डाल लगा है . लोगें की आवाजाही , वाद्य-यंत्रों के साथ भजन के स्वर वातावरण मे गूँज रहे हैं ।. मनका और दुलारी काम से लौट रही हैं ।
" ई का हुइ रहा है इहाँ ?"
" कोई बडे पण्डित आय भए हैं ,कथा हुइ रही है ।"
सुबह से उचाट मनका की घर जाने की इच्छा नहीं हो रही , भीतर-भीतर मन की अशान्ति से जूझ रही है ।
"कए दुलारी , हमहूं कुछुक बेर कथा-कीर्तन सुन लेई , थोरा तो पुन्न मिली ।"
कथा समापन की ओर अग्रसर थी । कीर्तन मे मनका ने भी अपने स्वर मिला दिए । देवी की स्तुति के साथ-साथ व्याख्या भी करते जा रहे थे पण्डितजी - जगत की सारी विद्यायें उसी परम चैतन्यमयी देवी के भेद हैं , संसार की सारी नारियाँ उस परम शक्ति के भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं । एक वही है जो सारे जगत् मे समाई हुई है...........।
कुछ समझ रही है , कुछ उलझन मे हैं - चकित-सी सुन रही है दोनो ।
.अचानक मनका की नजर पण्डाल मे सजे चित्रों पर पडी । ये किसकी छाती पर विकराल रूप धरे देवी खडी हैं ? शिवजी हैं का ?चारों ओर देवता-मुनि स्तुति कर रहे हैं ।
अचकचा गई वह । "ई कइसे हुइ गया " सब तो कहित हैं कि महरारू क दब के रहा चाही १ औचक-सी खडी है वह। पण्डित बोल रहे हैं , मनका सुन रही है । न समझ कर भी बहुत-कुछ समझ रही है । अपना दुख-दर्द भूल कर एक नई उलझन मे पड गया है उसका मन ।
दोने मे मिला हलवा-पूरी का प्रसाद भी खा लिया उसने.। भूखा तन और उद्विग्न मन कुछ शान्त हो चला था।
** .. ... ... .. .. .. ..
सोते-जागते कुछ चलता रहता है उसके मन मे । क्या सोचती है वह खुद नहीं समझ पाती। भीतर-भीतर जैसे कुछ करवट ले रहा है , जागने को तैयार हो रहा है ।
पर गुरदीन को चैन नहीं पड रहा है । बस रोटी खाने और सोने घर आता है । वैसे ही घर से उसे कौन सा लगाव था ? अब तो मनका सामने पडती है तो मुँह फेर कर निकल जाता है । एक दिन बदलू रास्ते मे मिल गया , " काहे बदलू , अब हमार तुम्हार दोस्ती खतम हुई गई का ? सकलै नहीं दिखात हो । कहाँ रहत हो ?"
"अईस बात नहीं भइया , ई ससुरा ठेकेदार बहुतै कस के काम लेइत है , साम तक देही के जोड-जोड पिरान लगत हैं । खाय के जो परित हैं तौन सुबह ही नींद टूटत है । पइसा देइत है त जान निकार लेइत है ।"
फिर वह गुरदीन से बोला ," तुमहू काहे नहीं आय जाते भइया, कौनो हलुक काम मिल जाई - पइसा थोरा कम मिली त का । कुछू तो हाथै मे आई ।"
काम के नाम से जूडी चढती है गुरदीन को । कभी कुछ करने की आदत ही नहीं । हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है या यार-दोस्तों मे निकल जाता है । बदलू का उपदेश उसे अच्छा नहीं लगा , पर पचा गया ।
" एक बात पूछित हैं बदलू , मुला सच्ची-सच्ची बतायो ।"
बदलू ने सिर हालाया ।
" ई जौन हमार मेहरारू है , इह का बारे मे कुछू बात सुनित है - उह केर चाल-चलन.. । काहे से........। "
" भउजी केर बात पूछत हो ? निसा खातिर रहो । कउनो खोट नाहीं ।" फिर कान को हाथ लगा कर बोला, " नाहीं ,भइया , नाहीं । किसउ का मुँह नहीं लगउतीं । आपुन काम से काम । मुला कब हूँ हमै चाही कि भउजी से हँस-बोल लेई, तौन गुस्साय जाती है । "
ई साला कौन दूध का धोया है , सोचा गुरगीन ने - मिली भगत होगी दोनो मे । कुछ-न-कुछ तो करना पडेगा । अम्मा के सामने सिर नहीं उठा पाता । अरे , कमाती है तो का हुआ , मरद की इज्जत नहीं करेगी ? देह कइसी मुटाय रही है १ उसकी देह पर छिपी-छिपी दृष्टि डालता है, पर आँख नहीं मिला पाता । सुसरी की सारी जवानी एक दिन मे झाड दूँगा । कितना तीखा देखती है !
बहुत हिम्मत इकट्ठी करता है पर सामने बात नहीं कर पाता । भीतर ही बीतर घुट रहा है गुरदीन ! खिलावन से बहुत पटरी बैठा रखी है आजकल ! कई बार घर भी बुला चुका है । एकाध बार तो मनका के सामने ही । खिलावन आता है , उसकी आँखें मनका पर लगी रहती हैं , भौजी कहकर हँसी-ठिठोली करना चाहता है पर वह उखडी-उखडी रहती है.।
***. . . . . . . . . .
अपने आप मे डूबी मनका , शाम को लौटी तो दुआरे कोई नहीं था,दरवाजा उड़का हुआ था । चौखट की सँध मे उसने हथौडी घुरसी और दरवाजा खोल कर अन्दर घुसी । अँधेरे की अभ्यस्त होने में आँखों को कुछ समय लगा , वह अन्दाज से ढिबरी उठाने बढी । ससुर के आने से पहले बत्ती जलाना चाहती थी वह । अचानक किसी ने उसका बढा हुआ हाथ पकड लिया ।
"को है ?"उसे लगा गुरदीन आज कहीं गया नहीं , घर मे पडा है ।
"ई का करत हो.....",नहीं यह गुरदीन का हाथ नहीं हो सकता , कोई उसे पकडने की कोशिश कर रहा है ।
" कोऊ नहीं है इहाँ।चुप्पै रहो..." खिलावन की आवाज ।
' तुम इहाँ काहे घुसे बइठे हो ?" मनका बराबर धकियाने की कोशिश कर रही है ।
"हम हैं खिलावन !अउर केऊ नहिन है इहाँ , " सोर मचावन ते तुम्हार बदनामी होई ,भौजी । तुम्हार मरद त बेकार हन........।"
"अच्छा ,तो ई बात है ! निकर हियाँ ते....। अच्छा..ले..ले....। "चटाचट-चटाचट चाँटे मारे जारही है , ठौर-कुठौर जहाँ हाथ पडे । क्रोध मे भर पीटे जा रही है.अंधियारे मे नाक- मुँह कुछ सुझाई नहीं दे रहा , नाक पर एक झन्नाटेदार झापड पडा.। खिलावन बिलबिला गया.। इतने मे बाहर कुछ हलचल हुई , सुनकर वह चिल्लाया , " अरे , गुरदीन ! ई देखो तुम्हार मेहरिया का करत है ?"
गुरदीन हाथ मे जलती ढिबरी लिए अन्दर घुसा ।
सामने पिटाकुटा खिलावन और तमकी हुई मनका ।
" ई का हुइ रहा है ? इहै लीला करन को बाकी रहि गई ? इहाँ अँधियार मे आपुन यार को बुलाए मूं काला कर रही है , हरामजादी ! अउर खिलावन तुम्हऊ .......। "
" इहै हमका बुलावा रहै गुरदीन , हमते कहित रही.......।"
मनका फिर हाथ उठा कर झपटी , खिलावन तेजी से पीछे हटा , गुरदीन बीच मे आ गया ।
"काहे री बेसवा , ई सब करै का यू घर ही बचा रहै ?"
" हरामी कुत्ता ,झूठ बोलित है । हम या ते कबहूँ बातौ नाहीं करी ।"
"काहे ? हमका कसम न दिलाई रहे..इत्ती बेरा आवन की ? हम ईका बहुत समझावा...ई कहिन हमार मरद कउनो मरद नाहीं.....हमार भी मत मारी गई....।"
इतने मे नथिया आ गई और हल्ला सुनकर लडखडाते पैरों बुढऊ भी आते दिखे ।
" देख ले अम्मा इहका ! आज रँगे हाथ पकड लिहिन । बडी बदमास मेहरिया है ।"
नथिया भडक उठी , " इहै लच्छन हैं कलमुही केर ......"
गुरदीन और नथिया बाही-तबाही बक रहे हैं , बुढऊ अवाक् खडे हैं , खिलावन मुँह सहला रहा है ।
सब तरफ से घिर गई मनका । एकदम विमूढ !
" ई कसम नाही धराती तो हम काहे आते.?....अब तुम लोगन को देख के उलटी चाल चलित है ।"
चुप खडी मनका एकदम आगे बढी , सामने खडे खिलावन को जोर से धक्का दिया , वह दीवार से टकराया , आगे बढ दोनो हाथों से उसका सिर धाड़ से दीवार से दे मारा ।
"बोल , हरामी ! हम तोहका बुलाए रहे ? बोल कूकर , नाहीं अभै जान निकार के दम लैहौं..।"
खिलावन की कुछ कहने की हिम्मत नहीं पडी ।
सब भकुआए खडे रह गए ।
मनका फिर उसका सिर दीवार पर मारने को उद्यत हुई खिलावन की आँखे सफेद पड गईं ।
" बोल,सच्ची बोल ! नहीं तो ले...।"
वह भयभीत चिल्ला उठा ," नाहीं , हम सच्ची बात बताइत हैं.......।"
" अरे ,चण्डी..ओहि का मार डारै का काहे तुली है ? छोड दे ओहिका , " सास आगे बढी तो मनका ने एक हाथ से उसे परे कर दिया ।
"तुम सब चुपाय जाओ , आज हम निपट लेबै । बोल कूकर,नाहीं तो ले.....।"
वह बुरी तरह डरा हुआ,पीछे हटते हुए बोलने लगा,"हमका माफ करो...पहिले हमका छोड दे......।"
"नाहीं छोडब ," मनका गरजी , " पहिले कबूल...कबूल हरामी..." फिर झकझोरा उसने ।
" तुम नाहीं बुलावा । तुम कबहूँ नहीं बुलावा.....।"
" फिन तू काहे इहाँ घुस के बइठा , हरामी की औलाद ?" मनका ने उसे छोडा नहीं , फिर जोर से उसका का सिर झकझोरा , जैसे दीवार से भडीक देगी ।
"सब सच्ची बताइत हैं ," वह बेतरह घबराया बोलने लगा , " गुरदीन हमका कहे , हमार मेहरिया अईस नहीं दबेगी...ओहिका रँगे हाथ पकडना है । सो तुम हमार मदत करो....हम इहै के कहे ते...।. .तोहार पाँव परित हैं , भौजी..,"वह मनका के पाँवों की ओर झुकने लगा , " हमका माफ करो । "
मनका आग्नेय नेत्रों से घूर रही है , अपने पाँव नहीं छूने दिए उसने - एक ओर हट गई । ससुर ने कानो पर हाथ रख लिए हैं , सास ने सिर झुका लिया है और गुरदीन का चेहरा राख जैसा फक्क !
"बोल ,सिगरी बात बता , " उसने तुर्श स्वर मे आज्ञा दी ।
"बस , इहै बात रहे । हम इहका बहुत समुझावा त ई मार गुस्साए लाग,...फिन हमका कसम उठवाय दिहिस........।"
वह विचार करती-सी बोली , " काहे ई सब.....।"
खिलावन एकदम कबूलने लगा , " ई कहित रहा एक बेर औरतिया क ऐब लग जाई त सारी जिनगी सिर उठावन की हिम्मत ना करी । हमार भारी गलती रही जौन ईका कहे मे आय गए । हमका माफी देओ ," वह अपने गालों पर चटा-चट चाँटे मारने लगा ।
"चल भाग हियन ते ।आगे सकल न दिखायो अपनी..।"
वह एकदम दरवाजे से निकल भागा ।
मनका गुरदीन की ओर घूमी , वह एकदम लडखडा गया । भयभीत नेत्रों से मनका की ओर देखते हुए वह गिरते-गिरते दीवार से टिक कर जमीन पर बैठ गया ।
पाँव से उसे सीधा कर झकझोर दिया मनका ने , " आज तो जी करत है तोर छाती पे दूनौ पाँव धर के खडी हुइ जाऊँ । मरदुए , आपुन मां दम नाहीं त दूसर का न्यौत लाएउ....भडुए.., " मनका ने अपना एक पाँव उसकी ओर बढा दिया ।
"हाय,हाय ! मर जाई , " सास चिल्लाई , " अरे ,गल्ती हुइ गई , माफ कर दे ओहिका । रहै दे बहुरिया......अरे मर जाई ।"
"मर जाई त रोय के जिनगी काट लेबै , मुला अइस मरद से राँड भली...।"
वह फिर बढी । भय-त्रस्त सास दौड कर आडे आ गई , " नहीं-नहीँ , ओहिका छिमा कर दे बहुरिया । हम हाथ जोडित हैं , तोहार पाँव परित हैं....देख ऊ भी हाथ जोड क माफी माँग रहा है । छोड दे बहुरिया ।"
" ई कौनो आदमी है ," हिकारत से कहते हुए मनका ने ठेल दिया उसे, " जा-जा भाग ! दूर हो इहाँ ते । हमार एक हाथ पड जाई त चार गज दूर गिरी.....नेक ऊ सरम होय त चुल्लू भर पानी महियाँ डूबि मर...जा..हटि जा ,हमार सामै न ..।"
वह लडखडाता हुआ उठा और कोने मे ढेर हो गया ।
"अब सान्त हो जा । ओहिका कसूर माफ कर दे....." सास गिडगिडा उठी । उसकी हिम्मत नहीं हुई कि गुरदीन के पास जाकर देखे कि उसे दौरा तो नहीं पड गया ।
मनका ने तीखी दृष्टि सास पर डाली ।गला बिल्कुल खुश्क हो रहा था। झटके से घडे मे से पानी उँडेल कर पीने लगी ।
मन का ताप किसी तरह शान्त नहीं हो रहा ।झुक कर लोटा रखने के बजाय वहीं लुढ़का दिया उसने ।गुर दीन पड़ा था , देखती रही कुछ क्षण उसकी ओर ।नहीं, आज दया नहीं आ रही ,बिल्कुल नहीं ।
'ई सुसरा कोई मरद है ?

. एकौ लच्छन है मरद केर ? तन से तो निरा हिजड़ा रहा सुरू से ,मन भी मानुस केर नाहीं । मेहरिया की इज्जत बचावे का तो दम नाहीं ,औरन के हाथन लुटावै का उतारू है ।'
बोलने में आज किसी की शरम नहीं मनका को, किसी का लिहाज़ नहीं। ससुर मुँह ढँके पड़े सुन रहे हैं सास आँखें फाड़े देख रही है ,और मनका बोले जा रही है ,'एकौ लच्छन नाहीं , मरद समुझत है आपुन का ,,ई से का होई ,खड़े होवन का दम नाहीं ,मरो सो डरो रहत है ।... मइया .. ई पूतर केर  धोखे ते..बियाह कराय लाई ..अब हमका दोस लगाइत है,..हमका बाँझ बताइत है । औलाद चाहित है ?... बस हुइगा ।... जी फाटि गा हमार.. . अब नाहीं ..हम नाहीं निभाव सकित.. ना होई हम ते...एकर सकल ना दिखिबे कबहूँ ,,अब ना .नाहीं रहिबे इहाँ .. .।'
स्वर अस्फुट होता गया, वह बाहर निकल गई ।
ससुर थोड़ी देर आहट लेते रहे फिर बोले ,' अरी देख, ऊ कहाँ गई ?अब का होई ...?
सास की बाहर जाने की हिम्मत नहीं पड़ी ।
ससुर फिर बोले ,'अरी जा ,हाथ-पाँव जोड़ि के मनाय ला ।ऊ न होई तो का होई हमार ?
दरवाज़े पर खड़ी हो झाँक कर देखा - बाहर आधी रात का सन्नाटा पसरा था । सब तरफ़ सूनसान ।इधर-उधर निगाह दौड़ाई।
पेड़ के नीचे घुटनों में मुँह दिये मनका हिलक-हलक कर रो रही है । सास कुठ क्षण देखती रही फिर अंदर चली गई ।
' ऊ कहाँ गई ?'
' रोय रही है पेड़ तर बैठी ।'
ससुर बड़बड़ा रहे थे - ऊ घर माँ रहे तौ चैन नाहीं , निकरि जाय तौ हूँ चैन नाहीं !
' आँसू बहाय के जिउ पटाय जाई तौन फिन चली आई ।जाई कहाँ इत्ती बेरा ?
**
कोठरी का दरवाज़ा सुबह तक खुला पड़ा रहा ।
सुबह उठते ही बुढ़िया ने निगाह डाली । जगह खाली थी ।
झपट कर बाहर आई । मनका कहीं नहीं थी ।
सिर पीट लिया उसने ।
लुटी-सी खड़ी रही कुछ देर ।
अंदर आते ही कोने में पड़े गुरदीन को देखा ,कुछ क्षण देखती खड़ी रही । मन विरक्ति से भर उठा ।
' ई के बस का कबहूँ कुच्छौ न रहा। ...कइस-कइस जोड़-जतन कर सादी कराय दिहिन ...,अइस ढंग की लुगाई केऊ सम्हार न पावा ।' गुरदीन को कोसने लगी ,' अरे , हम का जानित रहे ! तो से तो ऊ कागभगोड़ा नीक अहै ... कौआ पंखिन ते आपुन खेत तो रखावत है ।तू तो बेहया ससरा खुदै न्यौत लावा ।...कुछौ न बचा ...।अब हम का कही ?..का करी.. कहाँ जाई ?.. लोगन का कईस मूँ दिखाई। ...सौरी में काहे न मरि गवा ..
जौन अऊर लरिकन का रोय-पीट के सबुर करि लीन इहै का करि लेतिउ .. ।'

कीचड़ भरी आँखें मिचमिचाता गुरदीन चुपचाप पड़ा था ।

**

फुलमतिया


*
रोज़-रोज़ उसका वही ढर्रा देख मैं खीज उठी थी .उसके आते ही बरस पड़ी ,'साढ़े पांच बज रहे हैं और अब तुम आ रही हो ?मैं तो तुम से कहते-कहते थक गई . तुम्हारे ऊपर असर ही नहीं पड़ता !'
आँगन के कोने में अपना डंडा टिका कर उसने चप्पलें उतारीं और नल के नीचे लगाने को बाल्टी उठाई .
'का करी बहू ,सुबू चार बजे उठित हैं.तऊ काम नहीं सपरत .आज पप्पू के बप्पा का मिल पठै के हम उद्यापन में लगी रहिन .'
'काहे का उद्यापन ? '
'सुक्करवार का .चहा तक नाहीं पियेन ,दउर-भाग करत-करत इत्ती बिरिया भई .बुढऊ हरामजादा तो फली नाहीं फोरत हैं .हम बनावा सबका खबावा तौन सीधी हियाँ आइत हैं .'
'अरे उद्यापन तो आज हुआ .तुम्हारा तो रोज़-रोज़ का यही ढंग है .'
कहती हुई मैं कमरे मेँ आकर धम्म से पलँग पर बैठ गई .
न बहुओं को काम करने देगी ,न खुद से सम्हलेगा !छोड़ती भई तो नहाॉीं ,जो दूसरी ही ढूं लूं .जब कह-सुनी तो वदो एक दिन साढे तीम बजे आ जायेगी ,नहीं तो वही चार-साढे चार -पाँच. भला यह भी कोई चौका बर्तन करने का टाइम है !
और कुछ कहो, तो अपना दुखड़ा लेकर रोने बैठ जायेगी .श्यामू की ससुराल यहीं शहर में है . पर उसकी सास बिदा नहीं करती बेटी को .श्यामू गये तो कह दिया ' नहीं बिदा करेंगे हम !'
' घर की खेती हो गई .फिर ब्याह क्यों किया था बिटिया का ! घर बैठाये रखते ! तुम लोग भी अजीब हो ,कह क्यों नहीं देते रख लो, हम भी नहीं बुलायेंगे .'
हम लोगन में ये सब नहीं चलता है बहू ,ऊ आपुन बिटिया केर दूसर सादी करन को तैयार हुइ जाई तो का होई ?ऊ तो कहती हैं एक महीना हमार बिटिया एक महीना ससुरारै रही तौन एक महीना पीहर माँ रही .'
'और वहाँ उससे चार घर का चौका-बर्तन करवाया जाता है .तुम क्यों नहीं उसे काम पर ले जातीं ?'
'का करी ! हमार घर के मरद नाहीं निकरन देत हैं .बुढ़ऊ हरामजादा तो हमऊ से कहित हैं -घर में बैठ के बहू की रखवारी करौ .'
मैं खिसिया उठती हूँ .
'तो तुम भी छोड़ो काम-धन्धा और बैठ जाओ घर . वो बैठालते हैं तो तुम्हें क्या परेशानी है ?और फिर अब तो बुढ़ऊ, पप्पू ,श्यामू सब कमाते हैं .'
'कमाइत तो हैं बहू ,बाकी हम जिनगी भर काम करत रहीं तो अब खाली बैठ जाई का ?'
'बुढ़ापे मे आराम करो .'
'आराम कबहूँ ना मिली बहू ,' वह हाथ हिला कर कहती है ,' घर केर काम करो ,बाहरऊ का करौ तऊ हजरामजादा गरियात है .जवान-जहान लरिकन का सामै जौन मुँह मे आवत तौन बकत है .
कहत है -साली को घर में चैन नहीं पड़ता .सच्ची बहू,हम तो कह दिहिन , कबहूँ हमका एक धोती लाय के पहराई है ?तुम्हारी सबकी उतरन पहिन के जिनगी गुजार दिहिन .'
शुरू-शुरू में उसके मुँह से 'बुढ़ऊ हरामजादा' सुनती तो हँसी भी आती और गुस्सा भी .
पहले समझ में नहीं आया तो पूछना पड़ा,'कौन ?'
बोली ,'और किसउ का काहे कहि हैं .'
और दो-एक गालियाँ सुना दीं उसने बुढ़ऊ के नांम पर .
देखा तो नहीं है अभी, पर वही बताती रहती है .उसका आदमी उससे बालिश्त भर छोटा है . बड़ा दुबला-पतला ,पक्के रंग का - पक्के रंग से उसका मतलब होता है चमकता गहरा काला रंग .
महरी खूब लंबी है .अब तो कमर भी झुक गई है. डंडे के सहारे बिना, सीधी होकर खड़ी नहीं हो पाती .एड़ी भऱ-भऱ महावर लगाती है और माथे पर बड़ी-सी कत्थई प्लास्टिक की बिन्दी .गेहुआँ चेहरे पर अब भी सलोनापन है .अपनी उमर में तो बहुत आकर्षक रही होगा !
कहती है ,'सामू पप्पू हम पे गये हैं बड़कऊ बुढऊ जइस छोट रह गये .'
क्या पप्पू से बड़ा भी है कोई ?'

'दुइ हैं बहू !एक तो गाँव में रहित है और जे हरस राम फऊज की डिरैवरी से रिटाइर हुई के आय गये हियन .'बाबू के आफिस मां डिरैवर की कौनो नौकरी होय तो लगवाय देओ .'
'अब कहाँ है नौकरी ? पिछले साल जरूरत थी, तब तुमने कहा नहीं .उसे तो पेंशन मिलती होगी ?'
' मिलत तो है ,मुला सब उड़ाय देत है .कल्ह दस रुपैया लै गई रहिन ऊ पाँच की मछरी लै आये .तब रात में मसाला पीसेन ,मछरी धोय-धाय के बनाइन .खावत-उठाइत बारह बजिगा .'
'क्यों देती हो तुम ?महीने भर मेहनत तुम करो और वो मछली में उड़ा दें !'
'माँगत हैं ऊ ! हाथ मे रुपैया होय तो नाहीं कइस करी ?कुछ दिनन में गाँव चले जइ हैं तब काहे हम से माँगन अइहैं ?'
सुबह के चौके निपटाते - निपटाते उसे दस बज जाते है .फिर थोड़ी देर गोड़ सीधे करती है ,तब खाना बनाने का लग्गा लगाती है .
पप्पू की बहू की अभी बिदा करानी है ,रामू की यहीं शहर में है. पर उसकी माँ उससे चौके करवाती है ससुराल नहीं भेजती .
बड़ा सब्र है महरी में . कहती है , ' देखित रहो बहू , दुइ-चार बरिस में बच्चा-कच्चा हुइ जाई तब देखी महतारी केतने दिन रखती हैं .अभै तो अकेल दुइ परानी हैं.बिटिया चाकरी करिके हाथ में पइसा धरत है घरउ केर धंधा करत है . तौन ऊ काहे भेजी ?'
महरी बताती है बुढ़ऊ डेढ-दो बजे आते हैं तब वह खाना बनाती है . अपने घर के कच्चे आँगन में उपलों की धुआँती आँच पर धारे-धीरे रोटियाँ सेंकती है. सूरज सिर पर आ जाता है तो छतरी लगा लेती है .
अरे,मैं तो ऐसे कहे जा रही हूँ जैसे महरी की राम-कहानी कहनी हो !
परेशानी तो मुझे है कोई क्या समझे .
सुबह सब लोग ग्यारह बजे तक निकल जाते हैं .खाना निपट जाता है .ये जाते हैं साढ़े नौ पर लंचबाक्स लेकर . रवि-छवि दस-सवा दस तक और मन्टू का तो स्कूल पास है. एक बजे तक लौट भी आता है .खाना खा कर सोता है तो चार बजे तक की छुट्टी .ग्यारह बजे भी आये तो चौका खाली हो जाता है .शाम तक जूठे बर्तन फौले रह़ें, कितना बुरा लगता है !गंदी रसोई और जूठे बर्तनों में चूहे दौड़ लगाते रहते हैं . उधर निगाह डालने की इच्छा नहीं होती .
वैसे तो महरी रसोई धो कर कपड़े पोंछ कर सुखा देती है .पर मुझे तो ये शिकायत है कि यह जल्दी आती क्यों नहीं !
जब इससे तय किया था, तो पहली बात मैंने यही कहा थी कि काम दुपहर ग्यारह-बारह कर कर लेना है.इसी बात पर मैंने मुँह माँगे पैसे दिये थे - साठ रुपये महीना !मैंने तो ये भी कह दिया था कि फिर पाँच बजे तक कोई घर में नहीं मिलेगा .
लेकिन वह तो जानती है न कि चौका-बर्तन कराये बिना मैं जाऊंगी कहाँ ! वह अपने उसी समय पर आती है और मैं इन्तज़ार करती मिलती हूँ ,जैसे उसकी नौकर होऊं .मैं तो बल्कुल बँध गई हूं -कहीं जा भी तो नहीं सकती .जानती हूँ वह चार बजे से पहले नहीं आयेगी पिर भी बैठी-बैठी बाट जोहती हूँ . बीच में निश्चिनत होकर सो भी नहीं सकती .ज़रा झपकी आई और कुंडी खटकी तो फ़ौरन उठना पड़ेगा.नींद तो हिरन हो जायेगी और सिर दर्द करता रहेगा शाम तक .ऐसा कई बार हो चुका है .
बार-बार घड़ी देखती हूं -इतने बज गये अभी तक नहीं आई -सोच-सोच कर झींकती हूँ उसके नाम को .
उस दिन तो हद हो गई !
मैने सुबह ही कह दिया था का कि ग्यारहृ-बारह बजे तक आ जाना .पर नहीं आई .पप्पू आया -पौने चार बजे .पूछा तो बोला,' अम्माँ ने कहा ही नहीं .'
'तुम्हारी अम्माँ के बस का काम नहीं है पप्पू ,तुम अपनी दुल्हन को क्यों नहीं बुला लेते ?'
'हम अपने मुँह से कैसे कहें बहू जी ?घरवालों की मर्जी होगी तब वही बुलायेंगे .'
घरवाले भी अजीब हैं .पप्पू की बहू का मायका यहीं धरा है क्या ? इतनी दूर गोंडा से बुलाने में किराया खर्च होता है .पप्पू का ससुर भी बड़ा जबर आदमी है 'कहता है नौकरी करके पेट भर सको तब बिदा करा ले जाना .'
**

'क्यों तुम इतनी लंबी और तुम्हारा आदमी बालिश्त भर छोटा ! तुम्हारे पिता ने नहीं देखा था पहले ?'
'अर् बहू ,अब ऊ सब मत पूछो .का बताई ...बाप का सराब की लत रही और हमार बियाह की अइस जल्दी पड़ी रही कि महीना भऱ माँ जइस मिला तस कर दिहन .'
'इतनी जल्दी क्यों पड़ी थी ,क्या उमर थी तुम्हारी ?'
'उमिर ?उमिर हम का जानी बहू .सुरू से डील अच्छा रहा हमार .महतारी करत रही तेरह बरिस की उमिरमें पूरी जवाल लगत रहीं .'
बाद में कई बार धीरे-धारे करके उससे पता चला था ---
तब वह महरी नहीं फुलमतिया थी .ऊँची-पूरी ,जीवन भरा तन और सपनों भरा मन .एक दिन किसना ने उसके बाप से कहा था - 'फुलमतिया से बयाह करूँगा .'
बचपन का साथी था वह फुलमतिया का .दूसरे टोले में रहता था बचपन के खेल बंद हो गये आपस की बोल-चाल बंद नहीं हुई .चुपके-चुपके कचौरियाँ लाता था वह ,उसके लिये इमली की चटनी के साथ .
एक बार फूलमती के बाप ने देख लिया ,किसना को पकड़ लाया घर के अन्दर .
किसना जरा नहीं डरा .उसने तन कर कहा ,''विवाह करूंगा फुलमतिया से .'
फूलमती की ऊपर की साँस ऊपर नीचे की नीचे .
बाप ताव खा गये .लौंडे की इतनी हिम्मत !
बोले ,'फुलमतिया से बियाह करन को गज भर का कलेजा चाही ....फिर तुम हो का ?न हमारी जात के न बिरादरी के ! हम कहार हैं तुम काछी ,हमारा तुम्हारा क्या जोड़ा .'
बस यहीं मात खा गया था वह !
फिर भी मन का मोह नहीं टूटता था .रास्ते में मिल जाता तो चाव भरी आँकों से देखता कहता हुआ निकल जाता था ,'कब तक तड़पायेगी फुलमतिया ?'
'मैंने उत्सुकता से पूछा था ,'कैसा था किसना ?'
'अब पूछि के का होई बहू ,हमार तो जलम इनहिन के हाथ बिकिगा .'
फूलमती रोती रह गई पर अपने मन का नहीं कर सकी.बाप तो वैसे ही माँ को पीटता था.कहता था ,'तू ही लड़की को बेकाबू छोड़ रही है . कुछ आगा-पीछा हो गया तो न माँ को छोड़ूँगा न बेटी को ,और न उस हरामी की औलाद किसना को . फिर चाहे फाँसी ही काहे न लग जाय .'
एक बार फूलमती के भाई लाठियाँ लेकर खड़े हो गये थे .बात कुछ नहीं थी .रास्ते में किसना मिल गया और फूलमती जरा-सा रुक गई थी -दो मिनट बात करने में ऐसा क्या बिगड़ जाता ? पर भाइयों को लगा उनकी इज़्ज़त का सवाल है .
फूलमती आड़े आ गई थी ,'तुम्हार सिर नीचा न होई भइया ,हम अइस कबहूँ न करी .मला किसना को जाये देओ .'
'अब कहाँ है वह ",मैं पूछती हूँ वह कुछ जवाब नहीं देती गहरी साँस छोड़ कर बर्तन माँजने चल देती है .
***

कितनी तेज़ धूप है !अचार मर्तबान छत पर रखने गई इतनी देर में ही सिर चटक गया .ढाई बज भी तो गया है .मिन्टू कब का सो गया .पर मुझे नींद कहां ?दिन में ज़रा-सी सो जाऊं तो कोई-न -कोई आकर दरवाज़ा भड़भड़ाने लगेगा .सबसे बड़ा झंझट है महरी का . जिस समय झपकी लगेगी उसी समय ये ज़रूर दुपहरी में आकर जगायेगी .
वैसे तो चार से पहले रवि-छवि आते नहीं और इनका लौटने का तो ठिकाना ही नहीं साढ़े पाँच से पहले तो सोचना ही बेकार है ,कभी-कभी छः-सात भी बज जाते हैं .मैं तो ऊब जाती हूं . दिन भर घर में करूँ भी क्या ? थोड़ी-बहुत सिलाई या इधर उधर का काम कर लिया बस . गर्मी में कुछ करने की इच्छा नहीं करती .कढ़ाई करने का शौक है पर रोज़-रोज़ उससे भी जी ऊबता है .
सिर अभी तक गरम है .पाँच मिनट और धूप में खड़ी रहती तो चक्कर आ जाता .
अरे , महरी अभी तक नहीं आई .आँगन में छाता लगा कर उपलों की धुयेंदार आँच में रोटी सेंक रही होगी .उपलों की आग फूँकते-फूँकते राख उसके बालों में भर जाती है आँखें लाल हो जाती हैं .ढाई तीन तक खा-खिला कर सफ़ाई करती है बर्तन माँजती है ,फिर गोड़ सीधे करते-करते चार बज जाते हैं, रोज़ .
लेकिन मैंने जब पहले ही तय किया था तो 'हाँ-हाँ' क्यों कर लिया था इसने ? एक-दो दिन तीन बजे आई भी पर आकर कमरे में पंखे के नीचे पसर गई .काम करने उठी वही चार बजे .
लकड़ी का सहारा लेकर तेज़ धूप में धीरे-धीरे चल कर आती है .कहती है ,'मूड़ तचि गवा .'
मैं क्या करूँ ?बहू को क्यों नहीं बुला लेती ?लड़के भी तो घऱ का कुछ काम नहीं करते .सुबह खुद दूध लाकर चाय बनाती है और हरेक को उसकी जगह पर जाकर पकड़ाती फिरती है .लड़के भी मजे के हैं .एक तो बीस का होगा -श्यामू ,दुकान पर काम करता है .दूसरा पप्पू उससे दो साल छोटा -ठेला लगाता है पर आलू उबालना छीलना समलना गोलियाँ बनाना .बेसन घोलना चटनी पीसना -सब काम मां से करवाता है .फिर टाइम से खाना चाहिये .बुढ़या झींकती जाती है और सब काम करती जाती है .
ऊँह , मुझे क्या ?मुझे तो रोज़ झिंकाती है -चौका जूठा पड़ा रहता है शाम के पाँच बजे तक . जितना मैं देती हूँ कहीं से नहीं मिलता होगा !होली-दिवाली पर -नकद दस-दस रुपये ,खाना अलग .कपड़े भी पा ही जाती है दो-चार जोड़े . काफ़ी मज़बूत होते हैं ,मेरी साड़ियाँ वैसे भी घिसी हुई नहीं होतीं .ब्लाउज़ उसके नहीं आते इतनी लंबी जो है .
दो-चार,दो-चार रोटियाँ रोज़ ही बचती हैं और कभी-कभी आठ-दस भी .सब उसी को मिलता है .सुबह बासी दाल या तरकारी के साथ एकाध रोटी खा लेती है बाकी बाँध लेती है -पप्पू नास्ता कर लेई .
एक बार दाल कुछ महक गई थी .मैंने उससे कह दिया था ,'दाल खराब हो गई है ,फेंक आना .'
जब नहा कर मैं आँगन में निकली तो देखा जल्दी-जल्दी दाल सड़ोप रही थी वह .मुझे देख कर सकुचा गई .
मुझे जाने कैसा लगा .
'दाल खराब थी इसलिये मैंने सब्ज़ी रख दी थी ,वह क्यों नहीं खाई ?'
'तुम्हार घर की तरकारी बुञऊ का बहुत परसंद है .घर लै जाइबे .'
'और तुम सड़ी दाल खाकर बीमार पड़ोगी ?'
'सबाद खराब नहीं रहा बहू ,जरा-सी महक गई रहे .नुसकान ना करी .'
अब तो ऐसी चीज़ मैं खुद फिंकवा देती हूँ -खायेगी तो बेकार बीमार पड़ेगी .
महीने में दो-एक बार तो पड़ ही जाती है .कभी पेट-दर्द कभी पेचिस .दो-तीन दिन में बुढ़िया का चेहरा बिल्कुल उतर जाता है .
मैं भी कहाँ बुढ़िया पुराण ले कर बैठ गई !सवा चार बज गये हैं अभी तक आई नहीं है .
***
''बहू,चक्करदार ऊँचावाला झूला लगा है उधर का पारीक में . झूल आओ बाबू केर साथे .'
'मुझ से झूले पर झूला नहीं जाता है . जब नीचे आता है तो लगता है दिल डूबा जा रहा है .'
वह छेड़ती है ,'बाबू केर साथ बैठिहो ,उन केर कंधा का सहारा लै लिहो . दिखियो कइस साध लेत हैं तुमका .'
मुझे हँसी आ गई .मैं उसके चेहरे को पढ रही हूँ -क्या अपना अतीत देहरा रही है !
'आज अपने दिन याद आ गये हैं तुम्हें ?'
वह चौंक गई .
'कहाँ ? दुई बार बैठे रहे . सामू केर बप्पा को केऊ को सौख नाहीं .'
'कहाँ झूला था ,वहाँ या यहाँ ?'
' हियाँ कउन बैठाईन हमका ?'
रंग में आने पर गाँव के गीत और मेले के किस्से फुलमतिया खूब सुनाती है .रंग-बिरंगी चूड़ियाँ ,फुँदनेदार चुटीले ,बालों की क्लिपें और जाने क्या-क्या मिलता था .मेले में ऐसी भीड़ होती थी कि कई बार फुलमतिया माँ-बाप से अगल हो गई .
उसका बताया गाँव के मेले का दृष्य मेरी कल्पना में साकार हो उठता है . रंग-बिरंगी चुनरियों से सजी ग्रामीणाओं की भीड़ - दुकानों पर खरीदारी की होड़ लगी है .चाट के , जलेबी के ठेलों पर लोग जमा है . झुंड-केझुंड लुगाइयां, पगड़ी बाँधे मनई, मचलते बच्चे ,उड़ती धूल ,बैलों के गले में घंटियाँ और गाड़ियों की चरमर ध्वनि के बीच उठती ग्राम्य गीतों की ताने !
फुलमतिया ने पहले ही तय कर लिया है -- माँ-बाप सोचेंगे मेले में हिराय गई .कहीं रो रही होगी अकेली !
देवी के थान के पीछे खड़ा किसना बाट देख रहा है . फुलमतिया पहुँच जाती है . दोनों चाट खाने पहुँचे .खाती जा रही है ,सी-सी करती जा रही है और ही-ही करके हँस रही है .आँखों में पानी भरा आ रहा है .किसना सब-कुछ भूल कर उसकी ओर देख रहा है .मगन हैं दोनों !
माँ सोच रही है -बिटिया किसी दुकान पर होगी या सहेलियों से बातें कर रही होगी .बाप को अभी कुछ पता नहीं है . काफ़ी देर बाद जब पता चलेगा कि वह हेराय गई ,तब खोज-बीन होने से पहले वह पहुँच जायेगी .
पर एक बार सचमुच ही ढूँढ पड़ गई -- बड़ी देर कर दी फूलमती ने .
'हियाँ सहर में मेला नहीं लागत है ?"
गाँव के मेले की बात करते-करते वह वर्तमान को भूल जाती है --- आँखों में सपने छलक उठते हैं .चेहरा माधुर्य से दीप्त हो उठता है .
उस दिन वह झूला झूलने में समय का भान भूल बैठी थी .जहाँ झूला नीचे आता वह घबरा कर किसना का बलिष्ठ कंधा पकजड़ लेती .वह मुस्करा कर उसे साध लेता .फूलमती को लगता यह समय कभी समाप्त न हो .
किसना ने उसे रुपहले सितारों वाला रेशम का चुटीला और चमकीली बिन्दी दिलाई थी . जलेबी और कचौड़ी खिलाई थी बातों-बातों में यह सब उसने कबूला है .
गाँव उसे बहुत याद आता है -झूला ,मेला चटपटी चाट और जाने क्या-क्या . सब वहीं रह गया .
इधर फूलमती की ढूँढ पड़ गई थी
तभी वह किसना के साथ आती दिखाई दी .भागती -सी आई और माँ से लिपट गई ,'अम्माँ ,तुम कहाँ चली गई रहीं .हम चुटीलावाली दुकान देखित रहेन और तुम हमका छोड़ दिहन ...हम सारे मेला माँ खोजत फिरेन .'
'ई हुआँ इकल्ली रोय रही रहे ,तौन हम कही डरो ना ,चलो हम ढुँढवाय दें ,' किसना ने आगे बढ़ कर बताया .
माँ उसे असीसें दे रही है ,'तुम नाहीं रहत तो हमार फुलमतिया हेराय जाती ...जुग-जुग जियो बिटवा .'
बाप चुप है गंभीर .
फूलमती के चेहरे पर खोनेवाली क्लाति नहीं -- दमक है पानेवाली .
ओफ़्फ़ोह , इस बुढ़िया के मारे चैन नहीं .एक तो इतना इन्तज़ार करवाती है और जब तक आ नहीं जाती ,मेरा ध्यान उसी के चारों ओर घूमता . नहीं तो मुझे क्या करना ,वह जाने उसका काम जाने !

***
' बहू, बाबू का कोई पुरान-धुरान सूटर होय तो हमका मिल जाय .'
'उनका स्वेटर तुम्हारे कहाँ आयेगा ? कार्डिगन दया तो था .'
'हमका नाहीं ऊ हरामजादा बुढ़ऊ ठंड माँ कँपकँपात रहत है .कहत रे साली अपने लिये माँग लाई और किसउ का धेयान नहीं .'
मुझे ताव आ गया ,'तुम तो हमारा काम करती हो ,बुढ़ऊ क्या करते हैं ?'
'करत तो कुच्छो नाहीं बहू,पर ऊ हरामजादा हमार मनई है . हमका गरियात है .दु इ दिन हुइ गये मुला खाँसी के मारे रोटी नहीं खाय पाइत है .हमार ऊपर दया हुइ जाय बहू .'उसने हाथ जोड़ दिये हैं .
मन नहीं करता पर उसकी बहुत विनती पर इनका एक पुराना, पूरी बाहों का स्वेटर निकाल देती हूँ आखिर को मेरा काम तो वही करेगी
-- बेकार कपड़ों का करूँगी भी क्या ?
***
ठंड में सिकुड़ती रहे पर मेरा दिया कार्डिगन सहेज कर रख देती है बर्तन माँजते समय . इसे क्या ?बीमार पड़ेगी तो परेशानी तो मुझे होगी .
'क्यों कार्डिगन क्यों नहीं पहनतीं ?'
' ऊ लंबा अहै नीचे लटक आवत है . पल्ला कइस घुरसी ?'
'अरे, ऊपर से पहनो ,धोती के ऊपर से .जैसे मैं पहनती हूँ .पल्ला भी सधा रहेगा .'
'अब का फैसन करी बहू ! जवान-जहान रहे तबहूँ कोई सौख पूरा नाहीं कियेन.अब का ....'
'बुढऊ खुश हो जायेंगे देख कर ,कहेंगे -आज बड़ी अच्छी लग रही हो .' मैं हँसती हूँ .
'खुस नाहीं ,जल मरिहैं . कबहूँ कुछू लाय के नहीं दिहेन .माँग-जाँच के रंगीन कपरा पहिर लेय हम तो खौखियाय के दौरत हैं हमार ऊपर .चिल्लाइत हैं ,कहतहैं ,दुनिया को दिखाने जाती है साली ,यारी जोड़ती फिरती है इधर -उधऱ .'
'अरे ! मैं विस्मित रह जाती हूँ ,' सुन्दर पत्नी के हज़ार नखरे आदमी सह लेता है ,यहाँ ये कैसी उल्टी बात .
महरी का आदमी ?बालिश्त भर छोटा तो है ही ,शक्ल-सूरत भी अजीब.गहरा काला रंग ,मुँह कुछ आगे को निकला-सा ,सींकिया शरीर .शुरू-शुरू में लोग छींटाकशी करते थे -मेहरिया अइस जइस गुलाब क फूल और मगद जइस काँटा !'
आसके आदमी को हमेशा यही खटकता है कि मेहरिया उससे कहीं बढ़कर है .खुद को घटिया अनुभव कर अपनी भड़ास निकालता रहता है .
यह भी जानता है कि किसना इससे ब्याह रचाना चाहता था ,और खुद को उसके पासंग भी नहीं पाता .पर यह तो शादी के पहले सोचना था .
मनुष्य का स्वभाव विषेश रूप से इन स्त्रियों का, चक्कर में डाल देता है .कुछ-कुछ समझ रही हूँ - पर अनसमझा बहुत कुछ छूटा रह जाता है .
ब्याह कर यहाँ आई, तो फूलमती को लोग अपनी ओर आकृष्ट करना चाहते थे . एकाध ने अकेले में कहा भी ,'तेरे जोड़ का मरद नहीं है रे फुलमतिया , हमारी चूड़ियाँ पहन ले फिर हम सब निपट लेंगे ...उस आदमी में दम कितना !'
'अच्छा !' मैं थोड़ा आश्चर्य व्यक्त करती हूँ .
हमारे इहाँ ई सब चलता है बहू,पर धन्न है हमार छाती किसउ पर मन नहीं डोला .रूखा-सूखा खाय के जलम बिताय दिहिन .अब का बहू,बुढ़ापा है .फिर भी मरद चैन नाहीं लेन देइत .सक के मारे मरा जात है हरामजादा .हमसे कहित है -आदतें सुरू से बिगड़ी हैं मरदों से आँख लड़ाती फिरती है .
' हम बियाह के बाद किसउ को गलत आँखिन से देखा होय तो हमार आँखी फूट जाय, बहू .'
वह रोटी हाथ में पकड़े है .कह रही है ,'अन्न देवता हाथ में हैं बहू,कबहूँ जौन मरद से छल किया होय तो ई साच्छी हैं.मुला उहका हमार बिसबास नाहीं .
'हमार किस्मत फूटी अउर का . हमसे कहित है तू तो किसना के फेर में पड़ी रहै . ओहि का भागै का तैयार रही . तेरे बाप ने जबरन तेरा बियाह हमसे कर दिया .'
'तुम ?...क्या ऐसी कोई बात थी ?'
शायद बताना नहीं चाह रही थी ,पर मुँह से निकल गया था उसके .
संकुचित हो कर बोली ,'ऊ कहत रहा ,पर उससे का होत है .'
'कौन ?किसना ?'
वह अपनी सफ़ाई देने लगी ,'हम तो नाहीं भागेन .ऊ कहत रहा -चल फुलमतिया ,कहूं दूर भाग चली .मेहनत-मजूरी करके गुजर कर लेंगे .पर हम नाहीं गयेन .
'ऊ करत रहा -हमारे साथ नेपाल चल ,ऊ मुलुक अइसा नहीं है .पर हम जवाब दै दिहिन -हमका माफ करो किसना .ई हमसे ना होई .'
इच्छा हो रही है उससे पूछूँ ,'न जाकर तुमने कौन-सा कमाल कर दिखाया ,फूलमती ?तुम किसना के साथ भाग जातीं तो कौन सा इतिहास बिगड़ जाता ,और नहीं भागीं तो कौन सा बन गया है ?'
पर वह यह सब समझेगी नहीं .उस दिन वह गोल कर गई थी, पर आज मझे उत्तर मिल गया है -कि उसके ब्याह की इतनी जल्दी उसके बाप को क्यों पड़ गई थी .'
यह जो इसका आदमी है इससे ब्याह की बात फूलमती के बाप ने की थी ..यह कुछ दिन को देस गया था .उसके बाप के साथ उठना-बैठना हुआ ,बात-चीत हुई .एक बिरादरी थी ,दोनों ने आपस में तय कर लिया .
बाप ने पहले तो रौब से बताया ,' लड़का सहर में रहता है ,मिल में नौकरी करता है .राज करेगी लड़की .'
माँ ने विरोध किया था ,' ई मरद हमार बिटिया के जोड़ का नहीं .ऊ से नाहीं करिबे .'
बाप दहाड़ा था ,'ऊ काछी से कर दे हरामजादी .'
'हमने सादी पक्की कर दी है,उहीं होयगी .'
वह तो माँ को पीटने को तैयार हो गया था .
किसना को जब इस सब का पता चला तो वह उसके सामने खड़ा हो गया था ,'साले ,तू इसके लायक है ?'
'तू कौन होता है कमीने, दूसरन के मामले में बोलनवाला ?'
उसने आगे बढ कर इसकी गर्दन पकड़ ली .यह गिड़गिड़ाने लगा ,'ओही का बाप कह रहा है बियाह करने को .हम थोड़े ही कहन गये रहे .
किसना भैया, तुम बेफालतू में बिगड़ रहे हो .'
' हमार बाप उइसेइ सराब पी के महतारी को मारत रहा .हम भाग जाइत तो हत्या हुइ जाती .अम्माँ से कहत रहा ,तूने ही लौंडया को मूड़े पे चढ़ाया है .मैं तो इह के लच्छन देख के गर्दन काट के फेंक देता .फिर चाहे फाँसी हुइ जाती .'
मां ने फूलमती से पूछा था ,'तू का कहती है फुलमतिया ,ई मरद तो हमका जरा नाहीं सुहात है .'
फुलमतिया क्या कहती ,उसे तो डर था बाप और भाई मिल कर किसना की हत्या न कर दें .
बाप ने ज़िद पकड़ ली थी .महीने भर के अन्दर लड़का ढूँढने से लेकर शादी के फेरे तकसब निपटा दिया .
माँ ने रोते-रोते कहा था 'भगवान मेहरारू का जलम काहे दिहिन जौन सपनेहुँ मां सुख नाहीं .कबहूँ चैन नहीं - चाहे बाप होय चाहे खसम ,जिनगी भर मरद की ताबेदारी करो .'
बिदा होती पूलमती ने समझाया ,'हमका हमार कस्मत पे छोड़ देओ अम्माँ .हमरे लिलार जौन सुख-दुख बदा होई तौन जहाँ जाइब तहाँ पाइब .तुम सबुर करौ .'
'अब तो हमार आँखिन तरे कोऊ नहीं आवत है बहू .'
छीक कहती हो .अब तुम्हारी आँख तले कोई आयेगा भी नहीं .
' किस्मत है बहू,भाग तो ई मरद से जुड़ा रहा ....'
मुझे हँसी आ रही है .'जो हो गया वही किस्मत .भाग गई होतीं तो किस्मत वैसी होती.'
'काहे मजाक करतिउ बहू ?'
उसे कैसे समझाऊं कि मैं मज़ाक नहीं कर रही हूँ .लेकिन वह इन सब बातों को नहीं समझती .उसे लगता है सब उस पर हँसेंगे ,उसका मज़ाक उड़ायेंगे .उसका चेहरा बड़ा दयनीय, बड़ा निरीह हो उठा है .
**
आज मेरा जन्मदिन है.मनाती तो नहीं पर इन लोगों ने पिक्चर का प्रोग्राम बनाया है .इन्होंने मुझे पिंक कलर की साड़ी गिफ़्ट की है .
तैयार होकर आँगन में निकलती हूँ .महरी चाह-भरी निगाहों से मेरी साड़ी की ओर देख रही है .
'बड़ा नीक रंग है .'
अच्छा लगा तुम्हें ?'
'हाँ बहुत नीक है .हमार लै भी आई रहे ऐसई रंग की चुनरी .'
'कौन लाया था पप्पू के बप्पा ?'
वह बिगड़ उठी ,'ऊ हरामजादा का लाई ?कबहूँ एक नई धोती लाय के पहिराई है ?हम तो चउका-बरतन करि के आप लोगन से माँग-जाँच के तन ढाकित हैं .'
'फिर कौन लाया तुम्हारी पसन्द की चुनरी ?'
'हमार परसंद ते का होत है ?हमार बप्पा चिंदी-चिंदी करि के मुँह पे फेंक मारिन .हम का एकौ बार तन से छुआय पायेन ?'
कौन लाया होगा मैं सोच रही हूँ - भाई अपनी बहिन के लिये लाता तो बाप क्यों फाड़ के फेंक देता ?माँ भी नहीं लाई होगी ,बाप के लाने का सवाल ही नहीं उठता .
जो लाया उसे बाप पसंद नहीं करता था .
तब से फूलमती ने शादी के अलावा नये कपड़े ही कहाँ पहने ,गुलाबी रंग की तो बात ही दूर की है .
फूलमती की आँखों का मोह भरा सपना टूट गया है - हमेशा के लिये .उसके बाप ने गुलाबी चूनर की धज्जियाँ उड़ा दी हैं .पर जाने क्यों मुझे लगता है उसकी भटकती दृष्टि अब भी वही रंग खोज रही है .
मुझे याद आ रहा है कुछ दिन पहले पड़ोस के घर में शादी हुई थी .हमलोग बाहर बारात देख रहे थे .महरी पहले तो रोशनी और बाजे-गाजे देख खुश होती रही पर जब दूल्हा देखा तो चुप हो गई .फिर अन्दर जाकर बड़बड़ाने लगी थी ,'अईस सोने की मूरत अस लौंडिया और दुलहा जइस बबूर !गालन पे चकत्ता अउर माता के दाग .'
'तो क्या हुआ पैसा तो खूब है उनके पास ,लड़की का बाप भी नहीं है भाई लोग कर रहे हैं .'
'जोड़ ना मिली तो जिनगी भर लरकिनी के मन माँ काँटा अस चुभत रही .ऊ कहे चाहे न कहे .'
मैं अवाक् उसका चेहरा देखती रह जाती हूँ !'
**
रामू की दुलहिन अपने मैके में बीमार पड़ी है .उसकी अम्माँ कहती हैं ,'समधिन देखन नहीं आईं .'
हमका कहाँ फुरसत है बहू,जौन घंटा भर हुअन जाय के बैठी .'
'क्या बीमार पड़ गई ?'
'दुद्दुइ घरन के बियाह मां रात दिन बत्त्तन माँजिन है , फिन अढ़ाई सेर आटा की रोटी इह जून पोई ,अढ़ाई की उह जून -छोटी-छोटी पतरी-पतरी .तौन बीमार हुइ गई .उनहिन का पीछे तो ...हम का करी?जेह केर अम्माँ ने पइसा वसूल किहिन ओही दवा करी .
कउन आपुन कमाई हमाये हाथ में धर दिहिन .
'हमार हियन रही तौन ऊ खाली रोटी सेंकि लेत रही ,बत्तन हम कबहूँ मँजवावा नाहीं रहे .नई बहुरिया रहे तौन ....'
'ये तो बुरी बात है ,बहू तुम्हारी और काम का पैसा लें वे लोग .'
उसने बताया ,'रामू की सास कहती है ,' उन केर बिटिया होय तौन बिटिया की कदर जानें .हम नाहीं भिजिबे .
महरी के कोई लड़की नहीं है न !
' ऊ आवा चाहित है पन ऊ लरकिनी केर मन नाहीं देखित हैं .'
वह बताती है -
दुइ बिटियाँ मर गईं तब रामू भे .बड़ी मुसकिल उठाई रही .जब ई भवा तो सनकै ना ,सब मार घबराय गये बहू .फिर दाई इह केर हिलावा-डुलावा ,पीठ पे थप्पड़ मारेन ,तब ई रोवा . फिन हम कान छिदाय दहिन .'
नहीं भेजेगी रामू की सास अपनी लड़की को तो महरी क्या कर लेगी ?पप्पू के ससुर ने अपनी सड़की डेढ़ साल से नहीं भेजी तो क्या कर लिया इसने ?वे पैसेवाले हैं तभी इतना गुमान है . पर पप्पू को कुछ नहीं देते ,सीधे मुँह बात भी नहीं करते .लड़की काली है और खूब तंदुरुस्त .वे तो कहते हैं नहीं जायगी ससुराल ,न होगा दूसरा व्याह कर देंगे ..बड़े जबर हैं लड़कियों के बाप !
ऊँह, होते रहे अपन को क्या ?अपना ते बस काम चलता रहे .पर फिर तरस आ जाता है .कोई ढंग की मिलती भी तो नहीं . यह ईमानदार भी बहुत है .
चो-तीन बार आटा गूंदते पर अँगूठी चौके में रख कर भूल गई ,उठा ले जाती तो क्या कर लेती मैं उसका ?आटा सनी अँगूठी . चूहे खींच कर ले गये होंगे यही लगता !चौके में कोई देखनेवाला था भी नहीं .
पर उसने छुई तक नहीं आवाज़ लगा कर बोली ,'ई आटा सनी तोहार अँगूठी धरी है का ?मूस उठाय लै जाई तौन हमार नाम आई .'
हाथ जोड़ कर सिर तक ले जाती है वह ,कहती है ,'माँग के लै लेई बहू ,चोरी करि के पाप न चढ़ावे .ऊ जलम का भुगतान तौन ई जलम में करित हैं ,और अवगुन करी तौ आगिल जलम नसाय जाई .'
औगुन-गुन की परिभाषा उसकी अपनी है .मेरा दखल तो वहाँ भी नहीं चलेगा .
पिछली महरी तो बड़ी चोर थी .हमेशा कुछ-न-कुछ माँगती रहती थी -कभी रोटी दे दो पानी पीना है ,कभी मिर्चें देदो कभी प्याज.चाय पीने तो रोज ही बैठी रहती थी .बच्चों के कपड़े भी हमेशा चाहियें.ऐसी महरी थी कि दो नये पेटीकोट आँगन से गायब कर दिये और अफनी लड़की को दे आई .एक तो मैंने पहचान भी लिया -वही लेस लगी थी जो मैंने जोड़ कर सिली थी .पर उसकी ब्याही लड़की से रहती भी क्या ?और लट्ठे के पेटीकोट में कोई पहचान मानेगा ही क्यों ?
जब से ये आई है ,सुई तक गायब नहीं हुई . अपने काम से काम .हाँ, मुँह से बड़बड़ करती रहती है .मन हुआ तो हाँ हूँ कर देती हूँ नहीं तो चुपचाप किताब पढ़ती रहती हूँ . इसके साथ बच्चों का झंझट नहीं और लालच बिल्कुल नहीं है इसमें .तभी तो निभाये जा रही हूँ .
और वह कहती क्या है ?
'बहू,तुम्हार आँखिन से अइस लागत है के मन की बात पढ़ि लेत हौ .तुम से हम कुछू छिपाय नाहीं सकित हैं .'
कसम भी दिला जाती है 'तुम्हार सामुहै हमका जाने का हुइ जात है जौन सब बकि देत हैं .मुला तुमका कसम भगवान की जौन किसउ के आगे कह्यो .'
एक बार यों ही मैंने पूछा ,'किसना तुम्हारे लिये क्या-क्या लाता था ?'
बुढ़िया मुस्करा दी .चेहरे पर अपूर्व माधुर्य छलक उठा .
'का फायदा बहू ,ई जलम तोन गवा ,ऊ जलम काहे बिगारी ?'
बेवकूफट हो तुम !पहुँच में आये हुये से हाथ खींच कर अपना यह जन्म तुमने खुद बिगाडा .अब अगला नहीं बिगड़ेगा ,इसकी गारंटी दी है क्या किसी ने ?
लेकिन उससे ऐसा कुछ कहना बेकार है . वह समझेगी नहीं .
शादी के बाद उसका आदमी इसे लेकर यहाँ चला आया . फिर इसे मायके नहीं जाने दिया .चार बच्चे हो गये तब गई थी बाप के मरे पर. दस साल में कितना बदल गये था गाँव ,गाँव के लोग !
वह कहती है ,'अब हुआँ जाय के का करी ? न बाप रहे ,न संग-साथ को लोग .हमारे लै तो गाँव उजड़िगा .'
आदमी ने कसम धरा दी थी कभी किसना से बात भी करे तो बाप-भाई ,आदमी सबका मरा मुँह देखै क मिलै !'
छःबरस बाद जब दो बच्चों की माँ बन गई तब गाँव जाने का हठ पकड़ा था इसने .पर नहीं जाने दिया ,माँ मर गई तब भी नहीं .
गई तब जब बाप भी मर गया तब भी आदमी के शब्द थे ,'जौन किसना की सकल भी देखी तौन चारों लरिकन और हमती लहास तोहरे सामने एक ही दिन में उठ जाये !'
जाने क्या-क्या कसमें दिलाईं थीं उसने फुलमतिया को .वह लाचार हो गई थी -गाँव गई और वह मिल गया तो ?...एकदम सामने ही पड़ गया तो !
'फिर मिला था कभी ?'
नहीं फिर कभी नहीं मिला ,फुलमतिया की शादी के बाद कहीं चला गया था वह .
'नेपाल गवा होई ' इसका अन्दाज है ,' हुअन जान की हमेस कहचत रहा .अच्छा भवा जौन नहीं मिला ....'
क्या सात फेरे घुमा देने से और कसमें धरा देने से मन भी बस में हो जाता है ?
इसने कुछ सुख दिया होता ,कुछ मन पूरा किया होता तो शायद उसे भूल गई होती .पर यहाँ मिलते हैं हमेशा किसना के नाम के ताने --भूले भी कैसे उसे ?
**
कभी-कभी मैंने देखा है,कही हुई बात सुनाई नहीं दे रही उसे , ऐसी गुम-सुम बैठी रहती है .
पूछती हूँ ,'क्या आज बुढ़ऊ से झगड़ा हो गया ?'
' इत्ती-इत्ती-सी बात पर हरामजादा ताना मारत है --कहत है जौन किसना होत तौन तन-मन से सेव करती .हमका कऊन पूछित है ?'
हम कबहूँ छिपाव नाहीं कियेन बहू,किसना कहाँ होई कइस होई हमारा ऊ से कौनो मतबल नाहीं .मुला ई दईमारा विसवास न करी .'
'बाबू लोगन से आँखी लड़ाये बिना चैन नहीं पड़ता सुसरी को ,'उसका आदमी उससे कहता है .
जब वह जवान थी उसका घर से निकलना आदमी को अच्छा नहीं लगता था .पर उसकी यह बात फूलमती ने नहीं मानी .
'घर माँ घुसे-घुसे तो हमार जी घबरात है ,थोरा बाह-भीतर तो होय का चही .'
गाँव की उन्मुक्त हवा में पली लड़की शहर के कमरे मे बंद होकर जियेगी कैसे ?
तभी वह कहती है ,'थोरा तुम पंचै से बतियाय लेइत है जी और हुई जात है .पइसा-कौड़ी का सहारा हुइ जात है .घर माँ बंद हुइ के मर जाई का ?'
'हम कमाइत हैं तौन आपुन ऊपर तो खरिच नाहीं लेइत ,उनहिन का पूरा करत है .पर ऊ दईमारा कबहूँ ना समझी .'
हज़ार विरोध के बाद भी वह उसे काम करने से नहीं रोक सका
वह चिल्ला-चिल्ला कर कहती थी ' कौनो ऐब करा होय तो सबका सामने बताय देओ .हम काम काहे न करी ?'

पहले कभी-कभी उसके काम वाले घरों में चक्कर भी लगा आता था .अब बंद कर दिया है . सोचता होगा बूढी हो गई है . पर उलाहना देने से फिर भी नहीं चूकता .
कभी-कभी उसकी आप बीती सुनी नहीं जाती तो उठ कर चली जाती हूँ .
कुछ देर पहले तुलसी के चौरे में जो दिया जलाया था उसका घी चुक गया है .एक धुँधुआती हुई बाती सुलग रही है ..जरा देर में यह रुई में चमकती चिंगारी धुय़ें की गहरी लकीर छोड़ कर विलीन हो जायगी .
**


ये अच्छी रही ! हारी-बीमारी में काम करने तो कोई न आये ,कपड़े सबको चाहियें .सब के सब कमाते हैं पर सब खा-उड़ा डालते हैं - कभी माँस ,कभी मछली कभी और कुछ .और फिर जैसे के तस !
अब फिर मुझसे कमीज़ माँग रही है ,बुढऊ के लिये .मैं जानती हूँ ,उसी ने कहा होगा ,'साली अपने लिये माँग लाती है ,और किसउ की चिन्ता नहीं .'
वैसे तो दे भी दूँ पर यह सब सुन कर देने की इच्छा खतम हो जाती है .
उस दिन कह रही ती ,'बहू,दस रुपैया चाही .'
मैं कुछ नहीं बोली .कठोर मुद्रा देख कर चुप हो गई.
कुछ देर में बोली ,'दस नाहीं तो पाँचै मिल जाय.'
'काहे के लिये ?'
'बुढ़ऊ बीमार पड़े हैं .तवा अइस तचि रहे हैं बहू . दवा-दारू कइस करी ?'
श्यामू ,पप्पू ,और खुद बुढ़ऊ ,सब कहीं न कहीं काम करते हैं ,पर उधार देने के लिये हूँ सिर्फ़ मैं ! कोई महीना ऐसा नहीं जाता जब उधार न माँगती हो ,और फिर भी दो - चार दिन काम पर नहीं आती .
'क्यों ? सभी तो कमा रहे हैं ,तुम्हीं क्यों उधार माँगती हो ?'
वह बताती है ,' बुढ़ऊ तो हफ्ते भर से काम पर नहीं गये .पप्पू ने कमीज़ का कपड़ा खरीद लिया और श्यामू घर में रोज़ दो रुपये देता है बस !'
मैं खिसिया उठती हूँ .ये तो बेवकूफ़ है ही और मुझे भी उल्लू बना रखा है .'
वह गिड़गिड़ाने लगी 'बहुत कमजोर हुई गये हैं .तीन दिन हुइ गवा अन्न का दाना मुँह में नहीं डालेन बहू ,.चहा पी-पी के चेहरा उतरि गवा है .रुपैया मिल जाय तो डबलरोटी मुसम्मी के साथ खबइबे .मुला ताकत न होय तो मिल में काम कइस करी ?'
हार कर मैं दस रुपये लाकर पटक देती हूँ
'और किसी को फ़िकर नहीं तो तुम्ही क्यों मरी जाती हो ?'
'हमार मन नहीं मानत है, का करी !'
'जब कोई हारी-बीमारी में भी तुम्हारी नहीं सोचता ,तो तुम्हें भी क्या करना ?'
'नहीं बहू ,सब हमार है .हमार मनई ,हमार लरिका .हम मर जाई तौन हमारी मिट्टी कउन ठिकाने लगाई .'
मरने के बाद ठिकाने लगने के लिये ही जिन्दगी के सरंजाम किये हैं तुमने ! सिर्फ़ उसी दिन की प्रतीक्षा में संबंधों को निभाया है .यही इनकी सार्थकता है तो इतने लंबे जीवन का तात्पर्य क्या ? लेकिन उसका दिमाग इन उलझनों से परे है .
मैं चुप हूँ .चुपचाप चाय बनाती हूँ ,उसे भी देती हूँ .हम दोनों चाय पी रही हैं.वह चौके में पट्टे पर मैं कमरे में पलँग पर .
उदास-सी चुप्पी हमलोगों के बीच पसर गई है .
*






माश्टन्नी.


*
कभी -कभी दिनों ,नहीं हफ़्तों लगता है जैसे सिनेमा की रील चल रही हो -मैं मात्र एक दर्शक रह जाती हूँ .रोज़ के काम उसी तरह चलते हैं झाड़ू-बुहारी करती हूँ ,दूध गरम करती हूँ ठण्दा करती हूँ बच्चों के हाथ में गिलास पकड़ा देती हूँ .समय से खाना बनाती हूँ ,स्कूल जाती हूँ कक्षाओं में जा-जा कर पढाती हूँ ,शाम को फिर वही रोज़मर्रा के काम - सबकुछ उसी तरह . सबके साथ हँसती हूँ पर मन वैसा ही अवसन्न-सा रहता है .सब ऊपर-ऊपर से बीतता चला जाता है .इस स्वप्न जैसी स्थिति से जागती हूँ जब कोई बात मन की सतह तक पहुँचती है .
बिट्टू-टिक्की लड़ रहे हैं . दोनों में मार-पीट हो रही है . चीख-पुकार आवाज़ मेरे कानों में आती है .
' बिट्टू ... ' मैं आवाज़ देती हूँ .
कोई जवाब नहीं आता.हाथ का काम छोड़ कर उधर जाती हूँ - उसने टिक्की के बाल मुट्ठी में पकड़ रखे हैं,वह चीख रही है.मैं यंत्रवत् बढ़ती हूँ .
' चटाक् ' एक चाँटा पड़ता है बिट्टू के गाल पर .
वह बिलबिला उठता है .टिक्की स्तम्भित -सी खड़ी है .गाल सहलाता बिट्टू मेरी ओर ताक रहा है ,रोना तक भूल गया है . गाल पर उभर आये मेरी उँगलियों के निशान !
सात साल का बच्चा सिसकी भर -भर कर रोने लगा है .
अरे ,मैने यह क्या किया ?
मैं आगे बढ़ कर उसे अपने से चिपटा लेती हूँ .भयभीत टिक्की मेरे पास सिमट आई है .
यह क्या कर डाला मैंने , मेरी आँखों में आँसू भर आते हैं .बच्चे को थपक रही हूँ मैं , वह चुप गया है
वह मेरी ओर देखता है -
' मम्मी लोओ मत मेरे जोल छे नई लगा .'
मेरे रुके हुय़े आँसू टपकने लगते हैं - यह चाँटा तो मेरे ही गाल पर पड़ा है बेटा !
आखिर कब तक झेलती रहूँ ये विडंबनायें !मन बहुत उद्विग्न है .मैं अकेली हूँ सभी मोर्चों पर लड़ने के लिये .
एक है स्कूल का मोर्चा !वह मोटी-सी असंतुलित मस्तिष्कवाली हेडमास्टरनी हमेशा धौंस जमाती रहती है .जो उसके पीछे-पीछे घूम कर जी-हुजूरी नहीं करता ,उसी के पीछे पड़ जाती है . मेरे पास कहाँ है इतना समय ?स्कूल से घर भागती हूँ ,और घर से स्कूल .शायद ही कोई मास्टरनी किसी दिन समय से लौट पाती हो .विवाहित और बच्चेवालियों से तो जैसे दुश्मनी हो उसकी .कोई न कोई काम निकाल कर रोज़ एक- डेढ घंटा छुट्टी के बाद रोक लेती है . लौटते समय साथ होता है जाँचने के लिये कापियों का गट्ठर .
दूसरा मोर्चा है घर .हम दोनों नौकरी करते हैं ,सब को बड़ी-बड़ी आशायें हैं ,बड़ी-बड़ी फ़रमाइशें हैं .सभी को मुझसे शिकायत है .मुझे छुट्टियों में सब को घर बुलाना चाहिये ,तीज-त्योहार करवाने चाहियें ,उनके छोटे-मोटे शौक पूरे करने चाहियें .सब कहते हैं मैं हर बात में पीछे हटने लगती हूँ - ' ये'भी यही कहते हैं .शिकायतों का दस्तावेज सुनने के लिये मैं अकेली हूँ .'ये' यहाँ भी मेरे साथ नहीं हैं .
और एक है मन का मोर्चा . यहाँ अपने विगत और वर्तमान का लेखा-जोखा मुझे अकेले ही करना है .वहाँ किसी कोई दखल नहीं - इनका तो बिल्कुल ही नहीं .अच्छा ही है . होता तो हमलोगों के बीच की दूरी और बढ़ जाती .
टिक्की छोटी थी तो सास जी साथ ही थीं .जितना मुझे लौटने में देर होती ,उतना ही उनका पारा चढ़ता जाता .मर्दों को देर हो तो ,क्या हुआ उन्हें तो हजार काम रहते हैं .मुझे तो समय से घर आना ही चाहिये .
घर में पाँव रखते ही सुनने को मिलता ,इतनी देर से लड़की रो-रो कर हलकान हो रही है .तुम्हारे लौटने का कोई टाइम ही नहीं .....
दूध की शीशी अभी-अभी उन्होंने उसके मुँह में लगाई है .मैं आगे बढ़ कर उसे लेने को हाथ फैलाती हूँ .
वे झटक देती हैं , 'जाओ ,दही जमा लो अफने दूध का .नहीं आयेगी वह .'
मुझे बहुत भारीपन लग रहा है . ब्लाउज़ दूध से तर हो जाता है .जाने कितनी बार साबुन से धो-धो कर मुझे ही साफ़ करने पड़ते हैं .
टिक्की दूध पीते-पीते सो गई है .सास जी भी उसी के पास लेट गई हैं .वह गाना गाने लगती हैं ,गाते-गाते आँखें मूँद लेती हैं .मैं चुपचाप रो रही हूँ .
ढेरों कपड़े जो मेरी अनुपस्थिति में बच्ची ने गंदे किये हैं ,खाट के नीचे से मुझे मुँह चिढ़ा रहे हैं .
**
उस दिन स्कूल से लौटते में फिर बहुत देर हो
रेणुका भी थी साथ मैं ,बोली ,'घर पर सब लोग कुड़कुड़ा रहे होंगे .
' हाँ ,आज फिर इतनी देर हो गई .'
' सच बात है ..'.उसने गहरी साँस ली , 'कौन सोचेगा -- ये भी थक जाती होंगी .'
सब यही सोचेंगे कुर्सी पर बैय़ कर आ रही हूँ ,रोज़ साड़ियाँ बदल-बदल कर मौज मारने जाती हूँ .घर में घुसते ही सबकी शिकायत भरी दृष्टियाँ और दिन भर की परेशानियों का चिट्ठा सुनना - बिट्टू लड़ता है ,टिक्की रोती है .आज चार बार कपड़े गंदे किये .प्याला फोड़ दिया. .बिल्ली दूध पी गई .
फिर वही निष्कर्ष 'और घरों में भी तो बच्चे हैं ,मेरे बच्चे सबसे अधिक बिगड़े हुये हैं .,सबसे ज्यादा नालायक हैं .
बच्चों की ओर देखती हूँ ,उनकी आँखों में वही सहमापन .
जब 'ये' आते हैं वही रिपोर्ट फिर सुनाई जाती है .'
ये' तो थके हुये होते हैं ,डाँटना-फटकारना शुरू करते है .मुझ पर झल्लाते हैं- 'बच्चों को समझाती -सुधारती नहीं .'
माँजी का वही रोना-धोना - उनसे बच्चे नहीं सम्हाले जाते . उनका अब जाने का मन है .
मैं काम जाती हूँ ,सुनती जाती हूँ . बिट्टू के बाद साल भर की छुट्टी ले ली थी तो बड़ी संतुष्ट रहती थीं .खाना खा कर पड़ोस में बैठने ,मंदिर में कथा-वार्ता सुनने निकल जाती थीं .
कभी-कभी ये टोकते भी थे - ये रोज़-रोज़ क्यों निकल जाती हैं ?घर पर टिकती ही नही .
मैं जवाब देती ,'चलो अभी तो मैं घर में हूँ ,बाद में इन्हें ही सम्हालना है .'
अगर मैं फिर घर पर रह कर उनकी सेवा करने लगूँ तो वे खुश रहेंगी ..फिर कहीं और जाने को तैयार नहीं होंगी .लेकिन फिर ..घरृखर्च कैसे चलेगा ?
मैंने तो इनसे एक दिन कहा था ,तो फिर विदाउट पे छुट्टी ही ले लूँ ?
'उससे क्या होगा ?बच्चे सुधर जायेंगे ?हर दूसरे साल विदाउट पे ,तो नौकरी की जरूरत ही क्या है !
'ठीक है तो छोड़ दूँगी .'
तो नाराज होने लगे ,'तो पहले की ही क्यों थी ?बेकार मैंने इतनी दौड़-धूप करके लगवाया .और लोग तो नौकरी के लिये सालों भटकते हैं .बी.ए. ,एम.ए. पास को तो कोई पूछता नहीं तुम इन्टर पास को मिल गई तो छोड़ देने पर उतारू ! मुझे क्या फिर बाद में पछताओगी .यह तो नहीं कि बी.ए. कर लो ,ग्रेड भी बढ़ सकता है '
हाँ ,नौकरी के लिये मैंने स्वयं कहा था .मैंने सोचा था पैसे से सब-कुछ खरीदा जा सकता है - सुख शान्ति ,संतोष ,अच्छा रहन-सहन,मनोरंजन,मान -सम्मान .पर तब यह नहीं सोचा था कि छोटी-सी नौकरी पर जितनी आशायें बाँद रही हूँ वे मृगतृष्णा ही सिद्ध होंगी . सब की फ़र्माइशे बढ गई हैं घर के खर्चे बढ गये हैं .मिली है मुझे तन-मन की क्लान्ति ,ऊब, अशान्ति और शिकायतें .परिवार में कोई भी काम होने पर सब हमीं से आशा लगाते हैं .
हर जगह सुनने को मिलता है ,'तुम तो दोनों लोग कमाते हो !' 'तुम्हारी तो दोहरी कमाई है .'
जहाँ जरा हाथ समेटा सबके मुँह फूल जाते हैं .कहीं भी जाने पर किसी-न-किसी की फ़र्माइश आ जाती है .
अक्सर ही लोगों के पैसे खतम हो जाते हैं या उन्हें खास ज़रूरत पड़ जाती है .
'ये' आकर कहते हैं उन्हें चाहिये दे दो .वे जाकर एम.ओ. से वापस कर देंगे .अब यहाँ वे और किससे कहें .डेढ सौ रुपये की तो बात है .'
वापस ? अब तक तो कभी मिले नहीं .लेनेवाला सोचता है ,चलो ,भागते भूत की लँगोटी ही भली !
'ये' सब की फ़र्माइशों को पूरा करना,सब को संतुष्ट रखना चाहते हैं .मेरी ज़रूरतें तो और सिमट गई हैं - एक-एक क्रीम की शीशी के लिये हफ़्तों टालती रहती हूँ .
माँ जी रोज़-रोज़ सुना देती हैं ,'अब मैं चली जाऊंगी .'
आखिर कहाँ तक रोकूँगी उन्हें सम्हालना तो मुझे ही है .
वहाँ उनके जीवन में उत्सव हैं-त्योहार हैं,शादी-ब्याह हैं गाना-बजाना है सखी-साथिनें हैं ,रस और उल्लास से छलकता जीवन !यहाँ क्या है -व्यस्तता ,भाग-दौड़ और खीज .वे क्यों रहेंगी मेरे पास ?
सुबह उठते ही दौड़-दौड़ कर काम निवटाना ,फिर जल्दी-जल्दी स्कूल भागना -रास्ते में नाखूनों और चूड़ियों में लगा आटा छुड़ाते रहना .जल्दी इतनी होती है क नहाने के बाद दुबारा हाथ-पाँव भी नहीं धो पाती .जल्दी-जल्दी जूड़ा लपेट कर बिन्दी लगाई और उल्टे-सीधे कपड़े पहन कर भागी .चलते-चलते याद दिलाती जाती हूँ -बिट्टू का डब्बा तैयार रखा है .कल की सब्जी अलग कटोरी से ढकी है ...आदि आदि .
मेरा खाना ? भागते-दौड़तो खा ही लेती हूँ -भूखा कहाँ तक रह सकता है कोई !
बिट्टू से पहले दो बच्चे होते-होते बीच में ही गड़बड़ हो गये .फिर ये दोनो .न तो ठीक से भूख लगती है ,न खाली पेट रहा जाता है .जी घबराने लगता है .सब कहते हैं - तुम्हारी तो शकल ही बदल गई .
पड़ोस के लोग अपने बच्चों को मेरा परिचय देते हैं ,'देखो ये बहेन्जी हैं .स्कूल के बच्चों को पढाती हैं .तुम गड़बड़ करोगे तो तुम्हें भी मारेंगी .'
बच्चा भयभीत-सा मेरी ओग देखता है .पडसिने आपस में बात करती हैं तो मेरे लिये - वो मास्टरनी कहती हैं .
क्यों ? क्या मैं किसी की माँ नहीं ,किसी की पत्नी नहीं ,किसी की बहू नहीं ,मेरा कोई नाम नहीं ? दूसरी पड़ोसने ऑंटी हैं , चाची हैं ,वर्माइन हैं ,शर्माइन हैं ,ऊपरवाली हैं .मैं सिर्फ़ बेहन्जी हूँ ,माश्टन्नी !
मुझे इस शब्द से नफरत हो गई है .
**
बाहर के कमरे से इन्होंने आवाज़ लगाई ,'अरे सुनती हो !'
रुक जाओ , दूध उबलने ही वाला है .'
वे खुद ही चौके के दरवाज़े पर आ गये , 'नरेश आ रहा है ,हमलोगों के साथ रहने के लिये .अब बच्चों को अकेला नहीं रहना पड़ेगा .'
'क्यों ? काहे के लिये ?जब मैं बीमार थी और आने के लिये लिखा था तब तो कोई नहीं आया ,अब कैसे याद आ गई .'
' उँह, तुम्हें तो वही सब याद रहता है .अब आ रहा है तो क्या मना कर दें !'
' कुछ काम है क्या ?'
इन्होने पत्र मेरी ओर बढ़ा दिया .अच्छा,तो यह बात है .टाइपंग और शार्टहैंड का कोर्स करना है .और भी कोई ट्रेनिंग है वह भी ज्वाइन करना चाहता है . लिखा है - पिताजी नहीं मान रहे हैं वे अभी से नौकरी कराना चाहते हैं .दादा ,आप चाहें तो करा सकते हैं .डेढ़-दो साल की बात है .फिर अच्छी नौकरी लग जायेगी तो मैं भी कुछ समझूँगा ही .अम्माँ कहती हैं आप दोनों नौकरी करते हैं भाभी को मुझसे कुछ सहारा ही मिलेगा ....
अच्छा, तो जुम्मेदारी मेरी और एहसान भी मेरे ही सिर !
जब बच्चे छोटे थे तब तो कोई आया नहीं ,अम्माँ भी रो-रो कर चली गईं .उन दिनों नरेश भी आये दस-पन्द्रह दिन रहे .सारी सुविधायें मैंने दीं, फिर भी बच्चों से अनखाते रहे ..जो चाहते थे, करते थे खाना अपने मन का चाहिये .जब चाहा बाहर लिकल गये .अब तो उनकी फ़र्माइशे मुझसे पूरी नही होंगी -कभी पिक्चर ,कभी आइसक्रीम ,कभी दोस्तों का चाय-पानी !
बच्चों की कीमत पर अब नहीं करूंगी यह सब .बिट्टू और टिक्की अब समझदार हो रहे हैं .दूसरा कोई उन्हें रोके-टोके , डाँटे-फटकारे ,दबाये-धमकाये, अब सहन नहीं करूँगी .
**
ये अभी तक चौके के दरवाज़े पर खड़े हैं .
'यह कैसे हो पायेगा ,' मैं हरती हूँ .
'क्यों ?अब तक भी तो बीच-बीच में कोई रहता ही रहा है .'
'कैसे रहा है ,यह मैं जानती हूँ ,तुम तो सुबह लिकल जाते हो शाम को लौटते हो .अब वह सब मेरे बस का नहीं है .'
'तुमसे कौन करने को कहता है ?वह कोई बच्चा है जो तुम्हें सम्हालना पड़ेगा ?'
'पर मेरी इतनी समर्थ्य नहीं है .अकेले में चाहे बच्चों को रोटी नाश्ते में दूँ ,या डबल रोटी .उसके लिये मुझे ताजा तैयार करना पड़ेगा ,खाना भी विधिपूर्वक बनाना पड़ेगा .नहीं तो वे मुँह बचकाते हैं और सबके सामने चार बातें मुझे ही सुननी पड़ती हैं .'
'मना कर देना तुम ! मत बनाना चाय-नाश्ता .और रोटी भी न बना सको तो अपनी उसकी मं बना लूँगा .'
बस अपनी उसकी ?
'अब तक तो मुझे कभी बीमारी में भी बना-बनाया खाने को नहीं मिला .अब अपनी उसकी खुद बनाओगे ?'
'मुझसे तो मना नहीं किया जायेगा . 'इन्होंने निर्णय ले लिया .
चार दिन से यही झगड़ा चल रहा है .अब तक बच्चे छोटे-छोटे थे ,तब सबको परेशानी होती थी .जब वह सब मैंने सम्हाल लिया तो अब किसी की क्या जरूरत ?'मेरी दी हुई सुविधाओं को तो वे अपना अधिकार समझते हैं .अब निश्चय कर लिया है कि किसी से कुछ आशा नहीं रखूँगी .किसी और के रहने पर बच्चे भी कैसे दबे-दबो रहते हैं .उन लोगों के आलोचनापूर्ण वाक्य दोनों को कैसा कुण्ठित कर देते हैं ..
इधर कुछ सालों से घर में शान्ति थी .मैंने भी कुछ अच्छे कपड़े बनवा लिये ,घर में आराम और सुविधा के कुछ सामान भी आ गये .पर नरेश की इस चिट्ठी ने फिर वही वातावरण बना दया .
जब आयेंगे हर चीज़ दंख-देख कर चौंकेगे- 'अरे यह कब खरीदी ?'
ये फ़र्नीचर कब लिया ?सब एक साथ ही लिया ?कैश लिया या किश्तों पर ?ठाठ तो आपलोगों के हैं .'
एक बार टिक्की बीमार थी .दवा लाने के लिये कहने पर यही नरेश कहते थे ,'भाभी ,रिक्शे के पैसे दे दो तो ला दूँ .इतनी धूप में हमसे तो पैदल नहीं चला जायेगा .'
बचे हुये पैसे कभी वापस नहीं मिलते थे .याद दिलाने पर जवाब मिलता ,'इत्ती देर हो गई थी वहाँ लस्सी पी ली .' या ऐसे ही कुछ और .
इन्जेर्शन लगवाने भी साइकल पर बच्चे को बिठाल कर नहीं ले जा सकते थे ..
तब तो कभी-कभी ये भी झींक जाते थे ,कहते थे,'जब कुछ सहारा ही नहीं ,तब इनके रहने से फ़ायदा ही क्या !'
अब फिर उधर ढल गये .
नरेश तो बाहर से आते ही कहते हैं ,'भाभी ,चाय पिलवाओ .'
'अरे, चाय के साथ कुछ है या नहीं ...?'
मैं चाय-नाश्ते में लगी रहती ,बच्चे दौड़-ददौड़ कर पहुँचाते रहते .फिर आकर धीरे-से मुझसे पूछते ,'मम्मी ,हम भी खा लें ?'
;क्यों पापा और चाचा ने तुमसे नहीं कहा खाने को ?'
'------------- '
अपने पास पटरा डाल कर मैं उन्हें बिठाल लेती हूँ .प्लेट में रख कर नाश्ता पकड़ाती हूँ .छोटे-छोटे हाथ मुँह की ओर जा रहे हैं ,इतने में आवाज़ आती है ,'बिट्टू ,एक गिलास पानी .'
वह हाथ का कौर प्लेट में डाल कर दौड़ जाता है .मैं आहत सी देखती रह जाती हूँ .
कुछ कहूँगी तो सुनने को मिलेगा - 'बच्चों को बिगाड़ रही हो .'
ऐसे कई दृष्य स्मृति-पटल पर उभर आते हैं .
मैं अब बिल्कुल नहीं चाहती कि कोई आकर रहे .'ये' मुझे तैयार करने की हर कोशिश करते हैं .समझाना-बुझाना ,लड़ाई-झगड़ा सब आज़मा चुके हैं .अंत में कहते हैं ,अच्छा मैं उसे लेकर अलग रह जाऊँगा .'
यह इनका सबसे बड़ा और अंतिम हथियार है ,मैं बच्चों को लेकर अकेली नहीं रह पाऊंगी यब 'ये'जानते हैं .
सब तरह से हार गई हूँ मैं !
**
आज सुबह जल्दी ही घर से निकल आई हूँ -अब लौटकर नहीं जाऊंगी .रोज़-रोज़ की अशान्ति अब नहीं सही जाती .
बच्चों से कह आई हूँ ,'बीना दीदी बीमार हं ,उन्हं देखने जा रही हूँ .कुछ दिन वहीं रहूँगी .'
सवा दस की जगह नौ बजे ही निकल पड़ी हूँ .खाना बना कर रख दिया है ,खाने का मन नहीं हुआ .वैसे मैं भूखी नहीं रह पाती ,पेट खाली होता है तो सिर दर्द करता है ,बार-बार रोना आता है .
घर से जा रही हूँ ,यह बोध मन को तोड़े दे रहा है .कपड़े और कुछ जरूरी सामान कण्दी में रख लिया है .दो सौ रुपये मेरे पास हैं ही .स्कूल से सीधे बस स्टैंड जाकर सीतापुर चली जाऊँगी .वापस आऊँ तो बच्चों का मोह कहीं खींच न ले !

एक सप्ताह हो गया घर में अशान्ति मची है .'ये बार बार धमकी दे रहे हैं ,'घर छोड़ कर अलग रहूँगा जाकर .'
और बच्चे,''मुझसे कोई मतलब नहीं .'
' मुझसे मतलब नहीं ,बच्चों से मतलब नहीं तो मतलब किससे है ?'सिर्फ़ उन्हीं सब से ?'
' हाँ... यही सुनना चाहती हो तो सुन लो ...पैसा क्या कमाती हो ,हमेशा मनमानी करना चाहती हो .'
'क्या मनमानी की मैंने अब तक ?'
'क्या नहीं की ?
इसी बात में देख लो कौन अपने घर वालों को नहीं करता !'
' मुझे कोई अपना समझता ही नहीं ,न कोई इसे अपना घर समझता है .'
तुम्हारा स्वभाव ही ऐसा है ,मुझसे किसी को शिकायत क्यों नहीं है ?'
'हाँ तुम क्यों नहीं भले बनोगे !बुरी तो मैं ही हूं .'
इनके मुँह से अपने स्वभाव की बात मुझे बुरा तरह खटक रही है .सारी दुनिया कह ले तो ठीक पर 'ये' भी ...!
बहुत हो गया .अब तो मैं समझौता नहीं कर सकूँगी .
मैंने साफ़ कह दिया ,'मेरी मर्ज़ी के खिलाफ़ इस घर में किसी का दखल नहीं चलेगा .'
'ये कुछ नही बोले. तमतमाते हुये बिना खाये ऑफ़िस चले गये .
शाम को फिर बोल-चाल हुई तो बोले ,'तुमने उसी वक्त क्यों नहीं मना कर दिया था ?'
मुझसे किसी ने कुछ पूछा भी था ?और बात तो हमेशा सिर्फ़ तुमसे होती है .'
'तुम कह तो सकती थीं .'
'सबसे बुरी बनने के लिये मैं ही रह गई हूँ !'
'मुझे तो वह कुछ समझती ही नहीं .मैं क्यों तुमलोगों के बीच बोलूँ !'
'तो अब क्यों बोल रही हो ?'
'घर में जो कुछ करना है मुझे ही करना है इसलिये ....'
बात तबसे शुरू हुई जब पिछले दिनों बड़ी ननद आई थीं .सास जी से पहले ही सलाह-मशविरा हो चुका था .अब तो उस निर्णय को हम पर थोपने आईं थीं ..पहले तो इन्हें वहीं बुलाया था पर ये जा नहीं पाये . नहीं तो इन्हीं के साथ पुत्तन को भेज दिया जाता .
ये लोग इधर बात कर रहे थे चौके में मुझे सब सुनाई दे रहा था .
'भइया ,हम तो पुत्तन के मारे परेशान हैं .'
'क्यों ,क्या हुआ ?'
'अरे, दुइ साल हुइ गये बराबर फ़ेल हो रहे हैं .'
'अच्छा !'
'इस्कूल के लिये घर से निकलता हैगा और दोस्तों के साथ घूमता फिरता है . कभी सनीमा ,कभी नदी किनारे ,जाने कहाँ-कहाँ निकल जाता हैगा .'
'जीजा नहीं कहते कुछ ?'
'वो तो मार-मार के बुरा हाल कर देते हैंगे ..पर दुइ दिन बाद फिर जैसे के तैसे .हम कुछ कहें तो कहेंगे ,परेशान करोगी तो घर छोड़ के चले जाय़ँगे .'
'बड़ी अजीब बात है .'
'तुम्हारे पास रह कर पढ़ जाये तो एहसान माने, भैया .'
'यहाँ हमारी सुनेगा ?'

'काहे नहीं !दुल्हन तो खुद मास्टरानी हैं. .घर पे डाँट के पढ़ाती भी रहेंगी .फिर एक बार स्कूल में चल जाये तो पढ़ने लगेगा .यहाँ तो यार-दोस्त भी नहीं हैं .'....भइया हम तो इतना पढ़ी हैं नहीं .मास्टर लगाया तो उसकी सुनता नहीं ..'
'अरे सुनती हो ,' इनने आवाज़ लगाई , जिज्जी कुछ कह रही हैं .'
जिज्जी ने मुझे नहीं बुलाया था ,मुझे मालूम है .पर मैं जाती हूँ .
बड़ी दयनीय बन कर जिज्जी समस्या प्रस्तुत करती हैं .मैं झिझकती हूँ .वह फिर कहती हैं ,'खर्च की फिकर न करो ,जो पचास पछत्तर पड़ेंगे हम भेजते रहेंगे .'
मैं उनकी असलियत समझने लगी हूँ .एक नरेश ने बच्चों को सम्हाला था ,एक ये खर्चा भेज कर उसे मेरे सिर पर चढ़ायेंगी .हमेशा सुनने को मिलेगा सो अलग .
'पर मेरे करने से कैसे होगा ?'
'अब जिज्जी ने अपना असली हथयार निकाला ,मैं अम्माँ से पहले ही बात कर आई हूँ .कह रहीं थीं -काहे नहीं रक्खेंगी !मामियाँ क्या भांजे के लै इत्ता भी नहीं करतीं ! फिर तुम्हें तो और सहारा ही रहेगा .'
सहारा !पुत्तन जैसे बिगड़े हुये लड़के से !
चीज़ उसे समय पर हाथ में चाहिये ,नहीं तो मास्टरनी मास्टरनी कह कर शोर मचायेगा .बच्चों को चिढायेगा ,रुलायेगा .माँ जी और जिज्जी यही चाहती हैं कि उसकी खातिरदारी में लगी रहूँ .ना,ना उसके साथ तो मेरे बच्चे बिगड़ जायेंगे .
'सहारे की मुझे अब जरूरत नहीं जिज्जी .और न पढ़नेवाले को कौन पढ़ा सकता है ?...फिर मुझे तो इत्ता टाइम भी नहीं मिलता .'
इनके चेहरे पर तनाव आ गया था .ननद को अपने भाई की शह मिल गई थी ,सो कहती रहीं ,'तुम न चाहो तो दूसरी बात है दुल्हन .वैसे वह ऐसा तो नहीं कि किसी की माने नहीं .'
तभी तो गाली के बिना बात नहीं करता - मैंने सोचा
'हम लोग तय करके फिर बता देंगे ,तुम फ़िकर न करो जिज्जी .' 'इन्होंने सांत्वना दी .
मैं चौके मे लौट गई .
मैं लौट तो गई पर मेरी जान को एख झंझट लग गई ..
ये कहते हैं इनने जिज्जी के सामने खुद को अपमानित अनुभव किया है .
'जिज्जी ने बचपन में मेरे लिये कितना-कितना किया है,तुम क्या जानो .पहली बार उनने एक काम के लिये कहा और तुमने इस तरह जवाब दे दिया ...मेरी कोई इज़्ज़त नहीं ...'
माँ-बाप लड़कियों का करते हैं ,लड़कियाँ भाई-भतीजों का करती हैं इसमें कौन सी नई बात है -मैंने सोचा .
'तुम्हारे साथ किसी ने किया तो बदला चुकाने की जम्मेदारी मेरी है ?'..मेरे लिये भी बहुतों बहुत कुछ किया है ,उनके लिये तुम करोगे ?'
'उनके लिये करने का ठेका मैंने नहीं लिया है .'
इनके लिये मेरे मन में गहरी वितृष्णा भर उठी है .
ओह, सारा जीवन मुझे इसी आदमी के साथ बिताना होगा !
न जाने क्यों मुझे अनिमेष का ध्यान आ जाता है .अनिमेष से मेरा कभी कोई संबंध नहीं रहा ,एकाध बार स्कूलों के गेम्स में मेरा उसका साथ हो गया था .सामान्य सा परिचय भर .पर वह चाय और नाश्ते के समय कैसी सहज मुस्कराहट से आग्रह करता है .कुछ बातों में मेरा और उसका मन बहुत मिलता है .खेल-समारोह के कुछ प्रहर उसके साथ मैंने बड़ी सहज उन्मुक्त मनस्थिति में बिताये हैं .उन तीन दिनों में चार-चार,पाँच-पाँच बार मुक्त मन से खिलखिला कर हँसी हूँ मैं .वैसे उल्लासमय क्षण मेरे जीवन में गिने-चुने ही हैं ,इसलिये बहुत सहेज कर गाँठ में बाँधे हुये हूँ .
इन्होंने सोचा होगा हर बार की तरह पुत्तन आ जायगा तो झख मार कर सम्हालूँगी ही .
अबकी बार इन्होंने कहा था ,'इससे तो अच्छा है छोड़ दो नौकरी . मुझ पर अपनी धौंस तो नहीं दिखा पाओगी .'
'जब मैं तैयार थी तब हाँ नहीं की .अब तुम्हार निर्णय मान लूँ यह जरूरी नहीं है ..फर शादी के बाद पंद्रह सालों में तुमने मुझे दिया ही क्या है ?अब न तन्दुरुस्ती है ,न वह मन ही रहा है .जो दो जीवित हैं उन्हें उन सुविधाओं से वंचित नहीं करना चाहती जो मेरी नौकरी से उन्हें मिल सकती हैं ...अच्छा हुआ जो दो मर गये .उनकी परवरिश भी कहाँ होती ठीक से !अच्छा हुआ ऑपरेशन करा लया ,नहीं तो ....'
भीतर से शायद ये भी यही चाहते थे ,'तुम करो ,या न करो मुझे क्या फ़रक पड़ता है !मैं तो अपने पर कुछ फ़ालतू खर्च करता नहीं हूँ .'
**
सुबह जब सामान लेकर निकली थी ,तब वहीं बौठे शेव कर रहे थे .मुझे सुनाई दिया था बिट्टू से पूछ रहे थे ,'कहाँ जा रही हैं तुम्हारी मम्मी ?'
स्कूल में मन बड़ा उखड़ा-उखड़ा सा रहा .किसी तरह खुद को सम्हाल कर बच्चों को पढ़ाती रही .सौभाग्य से आज हेडमास्टरनी नहीं आई थी .छुट्टी के बाद सामान उठा कर चलने को हुई तो रेणुका पास आ गई .बोली ,कहाँ जा रही हो ?'
'सीतापुर .'
'यहीं से चली जाओगी ...'उसने किंचित आश्चर्य से पूछा .मेरी स्थितियों से बहुत अवगत है .
'हाँ ,लौट कर जाने से क्या फ़ायदा ?'मेरा गला भर्रा गया
वह एक ओर खींच ले गई .
'रेणू ,मुझसे कुछ मत पूछो अभी ...'मेरी आँखों में आँसू भर आये थे , 'फिर कभी बता दूँगी सब.'
'कित्ते दिन की छुट्टी ली है ?'
' चार दिन की ..अच्छा अब सबके सामने तमाशा न बनाओ ..जाने दो मुझे .'
अपनी रोई आँखों को छिपाने के लिये धूप का चश्मा लगा लेती हूँ .'और कुछ सामान नहीं ले जा रही हो ?'
नहीं और कुछ चाहिये भी नहीं .रुपये काफ़ी हैं मेरे पास .'
वह गेट तक मेरे साथ आई .चलते-चलते कह गई ,कोई खास बात हो तो चिट्ठी लिखना ..जरूर .'
'अच्छा, बाय !'
मैं हाथ उठा देती हूँ .
बाहर कई रिक्शे खड़े हैं .
'बस स्टेशन !'
रिक्शेवाले एक दूसरे का मुँह देखते हैं -वे जानते हैं मैं रोज कहाँ जाती हूँ ..
'चलेंगे ,साब .डेढ रुपया .'
मैं बैठ जाती हूँ .अधिक बोलना मेरे लिये संभव नहीं है .
**
पन्द्रह सालों में यही पाया है क्या मैंने ?सोचते-सोचते आँखें भर आती हैं .चश्मा उतार कर आँखें पोंछती हूँ .
मुझे लग रहा है मेरा चेहरा बड़ा बुझा-बुझा-सा है .
'काले तश्मे के कंट्रास्ट में कुछ पता नहीं चलेगा ,'मैं स्वयं को समझाती हूँ .
होंठ बार-बार सूख रहे हैं ,पपड़ी-सी जम जाती है बार-बार .गला खुश्क हो रहा है .खाली पेट तो पानी भी नहीं पिया जाता .पेट में जाकर लगता है .सुबहसे एक प्याली चायके सिवा कुछ भी जो पेट में गया हो !
जी हल्का रहा है .रोयेंखड़े् हो गये हैं ,ठण्ड-सी लग रही है .लगता है गिर जाउँगी .
नहीं,गरूँगी नहीं मैं ! बड़ी कड़ी जान है मेरी सब सहजाऊँगी .आज तो सुबह से ही नहीं खाया .मैं तो तीन-तीन दिन भूखी रह कर काम करती रही हूँ ,और किसी को कुछ पता नहीं चला .
सौतेली माँ थी मेरी .मैं गुस्सा किस पर उतारती ?बस खाना बन्द कर देती थी .कोई कुछ कहता भी नहीं था .अपने आप फर खाने लगती थी .अब क्या एक दिन की भी भूख नहीं सह पाऊँगी ? तब भी कभी-कभी अन्दर से बड़ा अजीब लगने लगता था ,सिर में चक्कर-सा आता था ,आँखों के आगे एकदम अँधेरा छा जाता ,पर दूसरे क्षण ठीक होकर फिर काम में लग जाती थी .
कभी चौके में काम करते-रहा नहीं जाता तो बासी पराठे में नमक चुपड़ कर चुपके-से खा लेती . एक बार सौतेली बहन ने देख लिया ,जा कर माँ से जड़ दिया .
तब कैसी झिड़की मिली थी .सबने समझा था - सामने-सामने ढोंग करती हूँ .चुरा कर खाने की आदत है .सौतेली माँ उपेक्षा से हँस दी थी .मुझे कैसी ग्लानि का अनुभव हुआ था .मेरी सहेलियों के सामने कहने से भी नहीं चूकी थीं वे .कहीं सिर उठाने की जगह नहीं रही थी .तब तो स्कूल भी नहीं जाती थी ,जो मन कुछ बदल जाता .रो-रो कर लाल हुई आँखों से रात में जाग कर इम्तहान की तैयारी करती थी .वे दिन भी काट लिये ...!
अरे ,कितनी देर हो गई रिक्शे पर बैठे !ये कौन सा रास्ता है .कभी-कभी ऐसा मतिभ्रम हो जाता है कि अनेक बार चले हुये रास्ते भी अपरिचित से लगने लगते हैं .ठीक ही ले जा रहा होगा रिक्शेवाला .अक्सर ही ले जाता है. जानता है - स्कूल की मास्टरनी है .
'बाहर जा रही हैं बेहन्जी ?' रिक्शेवाले ने पूछा .
मुझे लगा वह पीछे मुड़ कर देख रहा है .मैं मुँह फैला कर मुस्कराने की मुद्रा बनाती हूँ .गले से ' हाँ ' की आवाज़ नहीं निकलती ,सिर हिलाती हूँ .काले चश्मे के पीछे से आँसुओं ने बाँध तोड़ दिया है ,गाल पर बह आये हैं . चश्मा उतार कर आँखें पोंछती हूँ .
कोई देख ले तो क्या कहे - स्कूल की मास्टरनी रिक्शे पर रोती चली जा रही है !
पर देखेगा ही कौन ?
कोई चुपायेगा नहीं मुझे .खुद चुप जाऊँगी ,फिर बोलने लगूँगी ,फिर हँसने लगूँगी .
अनिमेष ने एक बार कहा था ,'आप गंभीरता क्यों ओढे रहती हैं ?ऐसे खिलखिला कर हँसती हुई ज्यादा अच्छी लगती हैं .'
'मैं अच्छी लगती हूँ !' ,ये तो कोई नहीं कहता.
रेणू ने एक बार छेड़ने के लिये कहा था ,'अनिमेष. अच्छा लगता है ?'
मैं गंभीर हो गई थी,' मन को मुक्त हँसी देनेवाला कोई भी हो ,अच्छा ही लगता है .
**
बस चलनेवाली है .
पाँवों के अँगूठों में नाखूनो के दोनो ओर बिवाइयाँ फट गई हैं . आज बहुत दुख रही हैं .आँखों के आगे बार-बार तारे नाच रहे हैं .
टिकट बड़ी आसानी से मिल गया -कंडक्टर बस पर ही चिल्ला-चिल्ला कर दे रहा था .सीट भी दो जनोवाली है .
अरे यह क्या ?चप्पल पर खून के छींटे !
अँगूठे की बिवाई से निकल रहा है .बस में पाँव पड़ा होगा कसी का .तभी इतना दर्द हो रहा था !
मन के दुख के आगे शरीर के बोध कितने क्षीण हो जाते हैं !
सब को महत्व देकर अपने को नगण्य समझ लिया था .और अब नगण्य हो भी गई हूँ .
बस में कोलाहल बढ गया है .अचानक झटका लगता है .बस चल पड़ी है .आगे कुछ झगड़ा हो रहा है .लोग धीरे-धीरे व्यवस्थित हकर बैठने लगे हैं ,कुछ खड़े हैं .बारह-चौदह वरस का एक लड़का मुँह बना-बना करखट्टा संतरा खा रहा है .
'काहे को खाय रहे हो ,जब मुँह खट्टा हुइ रहा है ?' एक बूढ़े ने टोका .
लड़का उलट पड़ा ,'हमारी इच्छा !हम खायेंगे .'
' मुँह भी बिगारत जैहो और चबाउत भी जैहो ?'
'तो तुम्हें क्या ?हमने पैसे दिये हैं खा रहे हैं .तुमसे कुछ कह तो नहीं रहे .'
' खाओ ,भइये खाओ .हमें का !'
हम तो खायेंगे ,तुम क्या रोक लोगे हमे !'
मुझे हँसी आ रही है .
लड़के की शक्ल मुझे अपने बिट्टू जैसी लग रही है -वैसा ही मुलायम दुबला-दुबला चेहरा .
लड़का कहे जा रहा है ,'हमें खट्टा लग रहा है ,हम मुँह बना रहे हैं ,किसी को क्यी ?ये कौन हैं हमें मना करनेवाले ?वाह ,..हमने पैसे दिये संतरे खरीदे ,अब हम फेंक दें क्या ?इन्हें पता नहीं क्या परेशानी है !'
बस के लोग मुस्करा रहे हैं .
लड़का तैश में है ,दरवाजे के पास खड़ा लगातार बोल रहा है ,' क्या कर लोगे तुम हमारा ?हम खट्टा संतरा भी खायेंगे मुँह भी बनायेंगे .तुम्हें बुरा लगे तो मीठे से बदल दो .है तुम्हारे पास मीठा सन्तरा ?'
वह खट्टा संतरा बूढ़े की ओग बढाता है .कंडक्टर आता है ,'अच्छा भइये ,बैठ तो जाओ .पीछे सीट खाली है .'
लड़का बढता है .मेरे पास की सीट खाली है .मैं इशारा करती हूँ ,वह मेरे पास बैठ जाता है .
खट्टा संतरा खाना अब उसने बंद कर दिया है ,बैठ कर अपने हाथों से ताल सी देने लगा है .
'क्यों भाई ,बड़े जोर से गुस्सा आ गया? ' मैंपूछती हूँ .
'हाँ, देखिये न .हमने संतरा खरीदा ,हम खा रहे हैं .किसी को क्या ?वो कहने लगा मत खाओ .हम क्यों न खायें .हम तो जरूर खायेंगे .हमें खट्टा लग रहा है मुँह बना कर खा रहे हैं .जिसे बुरा लगे न देखे हमारी तरफ़ .
मैं मुस्कराती हूँ .मेरा लड़का भी तो ऐसा ही है .
'कहाँ जा रहे हो ?'
'सीतापुर और आप ?'
'मुझे भी वहीं जाना है .'
लड़का निश्चिंत बैठा है .
बस स्टाप पर संतरे खरीद लिये थे . कुछ तो सहारा रहेगा .
कुछ फाँकें लड़के को देकर खाने लगती हूँ .
घर छोड़ कर आई हूँ ,मन स्वस्थ नहीं है . कल फिर इन्होंने आँखों में आँसू भर कर कहना शुरू कया था ,'अम्माँ अब कितने दिन की और हैं ,पर तुम्हारे कारण उन्हें नहीं रख पाता .'
मेरे कारण !यह क्यों नहीं कहते कि सामर्थ्य खुद में नहीं है .जितनी आमदनी है उसमें किसे-किसे संतुष्ट कर लोगे ?.सब को मेरे बलपर न्योत कर खुद निश्चिन्त रहना चाहते हैं .
सास जी कभी स्नेह-सन्तोष से मेरे पास नहीं रहीं .उन्हें अपने इन पोते-पोती से भी लगाव नहीं था ,मुझे तो खैर ,वह स्नेह देतीं ही क्या ! उनकी और बहुओं के समान मैं रुच-रुच कर व्रत पूजा नहीं कर पाती थी .!ज़िन्दगी भाग-दौड़ में ही बीती जा रही थी . इत्मीनान से सजने-धजने और कथा-कहानियाँ कहने-सुनने का अवकाश कहाँ था मुझे .उनके सामने तो लिहाज़ के मारे कुछ कर भी लेती थी ,अब तो सब छोड़ती जा रही हूँ .
उनके पुराने संबंध उन्हें वहीं खींचते थे .मेरे क्या वे किसी के पास अधिक दिन नहीं टिकती थीं .पुरानी सब चीज़ों से अलग रह कर उन्हें शून्यता का अनुभव होता था - ऊब लगती थी ,और हम लोगों पर खीज निकालती थीं. आनन्द और रस से रहित यह मशीनी जीवनउ नके बस की बात नहीं थी ,इसलिये वे लौट जाती थीं .पर 'ये'बराबर मुझे दोषी ठहराते हैं .
अब मेरी सहन शक्ति जवाब देने लगी है .मैं भी जवाब देने लगी हूँ ,इन्हें और बुरा लगता है .पुराने शिकवे-सिकायतें होने लगती हैं .
'मुझे ही तुमसे क्या मिला ?मुझे भी कोई शिकायत हो सकती है ,तुने कभी सोचा ?
'किसी पैसेवाले से ब्याह करतीं !'
पैसे तो मं खुद कमा रही हूँ .'
'तभी न जूते लगा रही हो .'
'जूते तो तुम लगाते हो और अपनो से भी लगवाते हो .इसीलिये किसी-न-किसी को लाकर रखते हो ,जिससे तुम मनमानी करो और मैं बोल भी न पाऊँ .उनके सामने तो घर में मुझसे जरा भी सहयोग करते तुम्हारी हेठी होती है .'
ठीक है मै कहीं अलग जाकर रह जाऊँगा .'
'बच्चों का ठेका मेरा है ?'
'तुम जानो ,तुम्हारा काम जाने .मेरा किसी से कुछ मतलब नहीं .अपना क्या है कहीं कमरा लेकर रह जाऊँगा .'
कितनी बड़ी धौंस है .आदमी औरत को जब कुछ और नहीं दे पाता ,तब धौंस दिखा कर , धमका कर अपना बड़प्पन जताता है .उसे छूट है जब चाहे गृहस्थी की जम्मेदीरी छोड़कर चल दे .
क्यों न मैं ही कहीं चली जाऊँ ?-मैने बार-बार यही सोचा है .अब मैं भयंकर रूप से ऊब गई हूँ .धमकियाँ कहाँ तक सुनूं !.
....और आज मैं चली आई .
किसी ने पूछा भी नहीं -कहाँ जा रही हो अकेली ?
वासना के क्षणों में आदमी कितना अपनापन दिखाता है कितना प्रेम जताता है- जैसे पत्नी को छोड़ कर उसका सगा और कोई नहीं .ज्वार उतर जाने पर रह जाती है वही सूखी रे ,वही रूखा व्यवहार और शासन की भावना .
मैंने अपने आप कभी झगड़े की शुरुआत नहीं की .शुरुआत तब होती है जब 'ये' फिर उन्हीं सब के लिये कोई नई फंर्माइश ले कर आते हैं .पहले ,मुझे बिना बताये ही ये लोग आपस में तय कर लेते थे और मैं खुशी-खुशी सब करती थी .अब मैं दखल देने लगी हूँ ,विरोध भी करती हूँ -इन्हें यही सबसे बड़ी शिकायत है .
मैं भी अगर शिकायतें करने बैठूँ तो मेरे पास भी कमी नहीं है .पर सिर्फ़ शिकायतों से जिन्दगी नहीं चलती .
**
यहाँ बच्चों की बड़ी याद आ रही है .रात में नींद भी उचटी-उचटी सी रही .
जीजी कह रहीं थीं ,'बच्चों को क्यों नहीं लेती आई ?'
बच्चों को तो मैं जान-बूझ कर नहीं लाई .उन्हें जुम्मेदारियों से बिल्कुल मुक्त कैसे कर दूं !
पर मेरे सिवा कौन उनकी भूख-प्यास का ध्यान रखेगा ?भूखे रहेंगे ,खिसियायेंगे ,लड़ेंगे और ये दो-चार थप्पड़ रसीद कर अपने कर्तव्य की इति-श्री कर देंगे .
बिट्टू और टिक्की की एक सी आदत है -एक बार खाते से उठ जायें फिर खाना नहीं खा पाते .और 'ये' बिना देखे आवाज़ लगाते रहते हैं बिट्टू ,जरा दियासलाई उठा लाओ या टिक्की ,एक गिलास पानी .बिना कुछ कहे वे दौड़ते रहते हैं. इन्हें तो सब जीज़े वहीं बैठे-बैठे चाहियें .मैं खीजती रहती हूं ,कुछ कह नहीं सकती .बच्चों से कहती हूँ खाना खा लें पेटभर कर . पर उनसे खाया नहीं जाता .
टिक्की छोटी है ,कभी-कभी कह उठती है ,'पापा तो पढने भी नहीं देते .'
अब कौन देखता होगा मेरे बच्चों को ?
बच्चों भी तो मेरी याद आती होगी .उनके रोने पर जब वे मार-मार कर चुप कराते होंगे . सोचते होंगे 'अब तो मम्मी भी हमें छोड़ कर चली इनकी किसी बात के बीच में बोल दें तो तड़ाक् से मारते हैं .वे चीखते हैं तो चटाचट् चाँटे लगाते हैे 'चोप ,चुपेगा कि नहीं ?'
और रोना बिल्कुल बंद हो जाता है .
सो जाते होंगे दोनों ऐसे ही .
तीन दिन बीत गये ,पता नहीं एक दिन भी भऱपेट खाया होगा या नहीं .बार-बार बर्तन माँजते होंगे ,चाय बनाते होंगे .इन्हे क्या बच्चों की भी ममता नहीं ?
और मैं भी तो छोड़ आई हूँ !
माँ ही नहीं करेगी तो कौन करेगा उनका ?मैं तो खुद ही उन्हें उस घर में झोंक आई हूँ .
घऱ ?कसका घर ?
घर तो मेरा ही है .'ये' क्या करते हैं घऱ के लिये .सिर्फ़ रुपये कमा कर लाते हैं .घर क्या उतने रुपयों से ही चल जाता है ?
नहीं अपनेपन से ,ममता , प्यार से ,विश्वास से बनता है .घर तो मैंने बनाया है तनका-तिनका चुन कर, कन-कन जोड़ कर. रात-रात भर अपनी नींद हराम कर बच्चों को पाला है !अपनी थकान न देख कर सबकी जरूरतें देखी हैं .
मुझे अपने बच्चों से प्यार है ,बच्चों को भी मुझसे है .
फिर मैं क्यों चली आई?
इन्हें भुगताने ! पर भुगत तो वे निरीह बच्चे रहे होंगे .
घर मेरा था . ऐसा क्यों हुआ ?यह छूट मैने ही दी .क्यों करने दी सबको मनमानी ?अपना अधिकार अपने हाथ में रखना चाहिये था मुझे.मैं क्या किसी की दया पर निर्भर हूँ ?नौकरी न करूं तो भी घर मेरा है -मैं अपने ढंग से चलाऊंगी .
ठीक है .अब से यही होगा .
**
दीदी ने टोका था,कैसी शकल बना रखी है ?मुझसे छोटी है तू .'
'टाइम नहीं मिलता क्या करूँ !'
'इस सब के लिये टाइम निकाला जाता है .'
रात को सोते समय वे पानी गरम करती हैं .
'ले ,हाथ-मुँह धो और ये लगा .'
कोल्ड-क्रीम की शीशी मेरे हाथ में पकड़ा देती हैं .वे भी लगा रही हैं .
तीन दिनों में मेरी शकल बदल गई है .हाथ-पाँव स्निग्ध हो उठे हैं ,शीशे में चेहरा देखना अच्छा लग रहा है .
मुझे अनिमेष का ध्यान आता है .उसने कहा था आप हँसती हुई ज्यादा अच्छी लगती हैं .'
अब तो मैं पहले से अच्छी लगने लगी हूँ .क्या कहेगा वह ?
मैं अपने विचार पर स्वयं लज्जित हो उठती हूँ .पैंतीस साल की हो रही हूँ .अनिमेष का ध्यान मेरे मन की किसी कुंठा परिणाम है -मैं स्वयं को समझा लेती हूँ .
साड़ियों की मैचिंग के ब्लाउज़ नहीं हैं मेरे पास .एक जोड़ी सैंडिल भी खरीदना है .खरीदूँगी .अपनी कमाई पर क्या इतना भी अधिकार
नहीं .घर के खर्च चलाने का ठेका क्या सिर्फ़ मैने ले रखा है ?
कह दूँगी ,'पहले घऱ के खर्चे पूरे करो ,उससे बचे तो चाहे जसके लिये करो .हाँ अगर किसी को बुलाओ तो एक नौकरानी जरूर लगा लेना ,क्योंकि मैं भी बाहर काम करके थक जाती हूँ .'
नौकरी करती हूँ दुनिया भऱ के लिये नहीं, अपने घर के लिये अपने बच्चों के लिये .जो लोग अच्छे-खासे रह रहे हैं उन्हें कोई अधिकार नहीं कि अपने खर्चे मेरे ऊपर लाद दें .जीवन में जो सुविधायें मुझे नहीं मिलीं उनसे मेरे बच्चे वंचित न रहें .
यहाँ तीन दिन से तटस्थ होकर सोच रही
अब समझ में आ रहा है सब .अपना ही नुक्सान करती रही अब तक .अब सब कुछ अपनी मुट्ठी मे रखना है ,जैसे और दस औरतें रखती हैं .
अब तक भीगी बिल्ली क्यों बनी रही इन लोगों के सामने -मुझे आश्चर्य हो रहा है ..वहाँ से दूर आकर निर्णय लेना कितना आसान हो गया है .
मैं भी क्यों नहीं ढंग से पहनू-ओढूँ ,मैं भी क्यों न ठाठ से रहूँ ?
लेकिन घर वापस कैसे
वे' हँसेंगे 'नहीं रहा गया न ?'लौट आईं... मैं तो बुलाने गया नहीं था ....'
मेरे पास भी जवाब है 'मुझे तुमसे आशा ही कब रही कि बुलाने आओगे !मेरा मान रखोगे .मैं तो अपने घर आई हूँ ,जब तक चाहूँगी रहूँगी ,जब चाहूँगी जाऊंगी .अपना सोचो ,चार बार घर छोड़ जाने की धमकी देकर अपना मुँह लेकर लौट आये. वह भूल गये ?'
मुझे अच्छी तरह याद है हमेशा की तरह मुझे धमकी' दी घर छोड़ कर चला जाऊंगा' .मैं आजिज़ आगई थी कुछ बोली नहीं .कहने -सुनने का मुझ पर कोई असर होते न दे, ताव ही ताव में बाहर निकल गये .मझे भी जाने क्या हुआ, कुछ नहीं लगा ,इत्मीनान से बैठी रही . चार बार निकल चुके हैं और कुछ घंटों बाद मुँह लटकाये चले आते हैं बंद दरवाज़े खुलवाने .
अब हर बात के लिये मुझे इन पर निर्भर नहीं रहना है .ठाठ से बच्चों को रखना है ,जम कर मुझे रहना है ..इस बार जाकर घर के लिये एक महरी भी रखनी है सारा काम मेरे बस का नहीं.और इन्होंने मना कया तो ? खुद करवायेंगे कुछ ?नहीं तो वे कौन होते हैं मना करनेवाले !अपनी कमाई से अपने आराम पर खर्च करने का अधिकार भी मुझे नहीं है क्या ?
जब इन्हें चिन्ता नहीं तो मुझे ही देखना होगा .
कुछ कहा तो उत्तर भी मेरे पास है -'घर में कैसे क्या होगा यह मुझे देखना है .तुम अपने ढंग का चाहते हो तो जो मैं करती हूँ खुद कर लो .'
छः महीने हो गये पिक्चर देखे .सब साथिनें जाती हैं अपनी पसन्द की खरीदारी खुद करती हैं .मैं ही क्यों हर बात में इनकी ओर देखती हूँ !रेणुका तो हमेशा रटती रहती है ,'चलो पिक्चर ,चलो नुमायश .'
वे लोग मिल कर सब जगह हो आती हैं .मैं क्यों जीती हूँ निरानन्द ,नीरस जीवन . इनकी तो इस सब में रुचि नहीं है.ऐसे ही रहा तो कैसे चलेगा !
माँजी नरेश बगैरा ने तो हम लोगों में भेद डाले रखा .मुझे जगानी होगी इनके मन की ममता . उन लोगों के प्रभाव के कारण ही तो 'ये'शुरू-शुरू में हर काम में उछल-कूद करते हैं ,फिर जब मैं नहीं मानती तो धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है .ननद को छूछक देने में यही तो हुआ था .
अरे यह सब ठीक करना तो बायें हाथ का खेल है .शुरू में कुछ दिन जरूर तनाव रहेगा .वैसे 'ये' अब समझ गये होंगे कि पुत्तन यहाँ नहीं आयेगा ..मैं कल्पना करती हूँ -'ये' कह रहे है ,मैं उसके साथ जाकर कहीं अलग रह जाऊँगा .'
'और बच्चे ?' मैं पूछूँगी .
'मुझे किसी से कोई मतलब नहीं .
'तो ठीक है !जाओ ढूँढ लो अलग मकान .बस, मुझे बख़्शो तुम . तुम्हारी सामर्थ्य नहीं है तो मैं बच्चों को भी रख लूँगी .अपने लोगों को बुला लाओ आज ही .रोज़-रोज़ धमकाते क्या हो ?'
इनके खिसियाये चेहरे की कल्पना करती हूँ .'ये' तमक कर उठते हैं .
बोलना ही किया है अभी.

मैं फ़ौरन टोकूँगी ,'बस खबरदार जो मुझसे अब कभी कुछ कहा ! घर का जो-जो सामान तुम अपना समझते हो अलग कर लो ,और आज ही अपनी व्यवस्था कर लो . मेरी जान छोड़ो .वैसे तुम्हारी कमाई तो खाने-कपड़े में ही खर्च हो जाती थी ऊपर के खर्च तो मेरे ही रुपयों से चलते थे .फिर भी तुम जो चाहो ले जाओ ...मैं ट्यूशन करके और खरीद लूँगी ...बस मुझे चैन से रहने दो .'
और भी कहूँगी 'तुम्हारे साथ मेरी ज़िन्दगी बर्बाद हो गई .अरे ,जिनके आदमी छोड़ तेते हैं,वे औरतें तो और ठाठ से रहती हैं .हाँ, जो रुपये तुमने मुझसे लोगों को कई बार उधार दिलवाये हैं ,उन्हें चुका देना . वे वापस करें तो तुम रख लेना .हिसाब मेरे पास लिखा है .असल में कुछ सामान तो मुझे फ़ौरन ही खरीदना पड़ेगा न....तुम ले जाओ ,जो चाहो ...रोज़-रोज़ मुझे सुनाते क्या हो !'
समय पर खाना परस कर बैठ जाऊँगी ,'हम लोग खाना खाने जा रहे हैं ,तुम्हारी इच्छा हो तो आ जाओ .'
मैं बड़ा हल्कापन अनुभव करती हूँ .
मेरा कब से एक मिक्सी खरीदने का मन है .'ये' बराबर रोकते रहे - अभी जिज्जी को सावन देना है .या नरेश को इन्टर-व्यू के लिये अच्छे कपड़े बनवाने पड़ेंगे .और भी जाने क्या-क्या .'
'जीजी ,एक मिक्सी मुझे भी खरीदना है .'
'हाँ,हाँ ,खरीद ले .बड़ा आराम रहता है .मैंने तो पिछली बार भी तुझसे कहा था ....अब दाम भी कुछ बढ़ गये हैं .'
'ऊँह, दाम की चिन्ता आखिर कहाँ तक करूँ ....
पहली बार मैं अकेली जाकर कुछ खरीद रही हूँ .अपनी विजय की उद्घोषणा स्वरूप बड़ा-सा पैकेट लेकर घर में प्रवेश करूँगी .
मेरा मन नये आत्म-विश्वास से भर उठा है .
*


शर्त

'भाभी,हमें भी बताओ ना !'
' अभी अम्मांजी डाँटेंगी ।कहेंगी क्या खी-खी लगा रखी है ।'
'अम्माँ तो अभी बड़ी देर तक पूजा करेंगी ।सुना दो ना भाभी !'
गीता सोच-सोच कर मुस्कराती रही ,किरन की उत्सुक आँखें उसके मुँह पर टिकी रहीं ।
'बोलो ना !'
' नहीं मानती तो सुनो ,पर अम्माँ से मत कह देना । ....तब मैं बहुत छोटी थी ,शायद छठी सा सातवीं कक्षा में ।मेरी एक सहेली थी कान्ता !मुझसे दो या तीन साल बड़ी रही होगी ।उसके आँगन में एक पपीते का पेड़ था ।जब भी मैं उसके घर जाती कच्चे पपीतों को ललचाई दृष्टि से देखा करती थी ।चुरा कर खाने में हमें कोई हिचक नहीं लगती थी बल्कि लगता था किला फ़तह कर लया ।'
इन कामों में कान्ता मेरा पूरा साथ देती थी ।उसका एक छोटा भाई था -बसन्ता ,वह अपनी आँखें गटपार्चे के बबुए की तरह गोल-गोल नचाता था ।मुझे बड़ा विस्मय होता था उसे देख कर ।'
हाथों पर गाल टिकाये किरन सुने जा रही थी ।
.'एक बार माँ ने कहा ,'जाओ कान्ता के घर से स्वेटर का नमूना ले आओ ,उन्होंने देने को कहा था ।'
मैं खुशी-खुशी चल दी ,उसका घर बहुत दूर नहीं था ।कान्ता की माँ घर पर नहीं थीं ।हम दोनों आँगन में खड़ी थीं ।मेरी दृष्टि पपीतों पर लगी थी ।कान्ता को भी कच्चा पपीता नमक से खाने में बड़ा मज़ा आता था ।पर उसकी माँ कच्चा तोड़ने पर डाँटती रहती थीं ।'
'तुम लोगों ने जरूर पपीता चुराया होगा... !'
'अब तुम चुप तो रहो ,पहले पूरी बात सुनो .....हम दोनों ने अर्थपूर्ण दृष्टि से एक दूसरी को देखा ।कान्ता जाकर लग्गी उठा लाई ।एक खूब बड़ा-सा पपीता तोड़ा गया ।वहीं आँगन में बैठ कर ,हम दोनों उसे काट-काट कर नमक-मिर्च लगाकर खाने लगीं ।दो-दो फाँकें ही खाई होंगी कि बाहर से आवाज़ आई ,'कान्ता !ओ कान्ता !
'हमारा दम खुश्क हो गया ।कान्ता ने एक टोकरी उठा कर फ़ौरन पपीते पर औंधा दी ।पर छिलके-बीज चारों ओर बिखरे पड़े रहे। इतने में उसकी माँ धड़धड़ाती हुई आँगन में आ पहुँचीं । उन्हें आते देख हम दोनों हड़बड़ा कर खड़ी हो गईं थीं । मैंने आव देखा न ताव फ़ौरन वहाँ से भाग निकली ।बाहर का खुला दरवाज़ा पार कर मैंने जो दौड़ लगाई तो घर आकर ही दम लिया ।'
उमड़ती हँसी बार-बार गीता के गले में रुकावट डाल रही थी । किरन भी खिलखिला कर हँस रही थी ,बोली ,''फिर तुम्हारी कान्ता का क्या हुआ ?'
'मुझे नहीं मालूम ।मैं तो फिर बहुत दिनों कर उधर जाने से कतराती रही ।
''और स्वेटर का नमूना ?'
'माँ से कह दिया कान्ता की माँ घर पर नहीं थीं ।'
'बड़ी झूठी हो भाभी ,तुम !'
'अच्छा अब जाओ तैयार होओ, नहीं तो अम्माँ बिगड़ेंगी ।'
किरन चली गई ,गीता फिर अपने में डूब गई ।
हर मौसम के साथ जीवन के पृष्ठ जुड़े हैं ।वे हरे-भरे लान ,जिनके चारों ओर अशोक के पेड़ थे ,हँसती-खिलखलाती सहेलियों के झुंड,शिक्षकाओं की नकलें .वे मौज-मस्ती भरे दिन बड़ी जल्दी बीत गये ।रास्ते में पड़नेवाले इमली के पेड़ पर कितने पत्थर चलाते थे हमलोग !क्लास में मुँह छिपा कर इमली खाना ,दूसरे की कॉपी से जल्दी -जल्दी सवाल नकल करना ,सावन के झूले ,होली का हुल्लड़ ,बहन की डाँट खाना - सबकुछ पीछे छूट गया ।
यह संसार कितना सुन्दर है - चहल-पहल से भरा ,आनन्द से परिपूर्ण !
अचानक दाल जलने की तीखी महक आई ,साथ ही सास की ऊँची आवाज़ भी,'कुछ जले-फुँके किसी को क्यों फिकर होगी !'
वह जल्दी से चौके की ओर भागी । सास दाल का उफान उतार रहीं थीं ।चलो, दाल नहीं जली ,उसने संतोछ की साँस ली । पता नहीं क्यों उन बीते दिनों में घूमते-घूमते सब-कुछ भूल जाती है, गीता !
शादी हुये यह तीसरा ही तो साल है -इतने में क्या दुनिया बदल गई ? बाहर तो सब-कुछ वैसा ही है । उसे लगता है वही बदली जा रही है ।
शुरू-शुरू के दिनों में बड़ी प्रतीक्षा रहती थी ।आँखें घड़ी की ओर लगी रहती थीं। साढे पाँच बजे 'ये' लौटेंगे ,कमरे में आयेंगे ।मैं चौके में होऊँगी तो चाव भरी नज़रों से देखेंगे ,आने का इशारा करेंगे ।...या क्या ठीक कमरे के बाहर जाकर चिल्लाने लगें 'नेरा पैजामा कहाँ रख दिया ?'
गीता सोचती ,'घर के बड़े लड़के हैं ,कमाऊ पूत ! इन पर क्या किसी की रोक-टोक है !दिन के काम उत्साह से निपटाती वह इन्तज़ार करती रहती ।समीर के आने की आहट से ही दिल की धड़कन बढ़ जाती ।
पर समीर आता तो बाहर के कमरे में चला जाता ।वहीं नाश्ता-पानी पहुँच जाता ।घर के सब लोग उसी कमरे में इकट्ठे होते ।वहीं गप-शप होती ।एक वही चौके में बैठी रहती ।अपने आप वहाँ जाने की हिम्मत नहीं ,ससुर भी तो वहीं बैठे होंगे ।बुलाता कौन उसे ?अकेली बैठी सब्जी काटती ,मसाला पीसती ,आटा गूँदती -सारा उत्साह समाप्त हो जाता । फिर भी आशा बनी रहती - रात को तो आयेंगे ,तब कहाँ जायेंगे ?
पर तब भी समीर बड़ा उखड़ा-उखड़ा सा रहता ।
कई बार पूछने पर बोला 'हम लोगों को किरन की बड़ी चिन्ता है ,किरन की शादी कैसे होगी !अम्माँ तो बड़ी नाराज़ हैं ।'
'किससे ?'
'तुम्हारे पिता जी ने नकद नहीं दिया ।हम लोगों को पूरी उम्मीद थी बीस-पच्चीस हजार तो नकद देंगे ही ! उसे लगा कर किरन के हाथ पीले कर देते ।हम लोगों के पास है वह तो लगाते ही ।'
गीता चुप रही ।
'क्यों तुम्हारे पिता जी की आमदनी तो अच्छी है ,बड़ा भाई भी कमाता है ।अब तो ...।'
'खर्चा भी तो है ।हम दो बहनों की शादी की एक बहन अभी क्वाँरी बैठी है ।दोनो भाइयों की पढाई भी हुई ।राजन का इंजीनियरंग का खर्चा भी कम नहीं ।...।'
'हूँ...।'
कपड़े बदल कर समीर ने दो तीन चक्कर कमरे के लगाये फिर रेडियो आन कर दिया ।
'भइया ,बाबू बुला रहे हैं ,' छोटी ननद की आवाज आई ।
समीर फिर चला गया ।
गीता चुपचाप बैठी रही ।रेडियो में क्या रहा है ,कुछ समझ में नहीं आ रहा ।हाथ बढ़ कर स्विच ऑफ़ कर दिया उसने ।
**
सास कहती हैं चिन्ता के मारे उन्हें रात-रात भर नींद नहीं आती ।किरन तो ब्याह के लायक है ही ,कंचन भी कौन छोटी है -कैसे निपटेंगी दोनों !
बड़ी ननद तो शादी में मेहमानों के सामने कहने से भी नहीं चूकीं ,'बाबू ,तुमसे पहले ही कहा था ,सब तय कर लो ।नहीं माने । अब देख लिया न ?
ससुर ने गहरी साँस छोड़ी ,जवाब कुछ नहीं दिया ।उनका विचार था बड़ी लड़की शादी में चालीस-पचास हजार खर्च किये हैं ,और अब तो लड़का भी कमा रहा है ।नकदी तो देंगे ही ।
गीता के पिता ने पूछा था ,'आपकी मांग क्या है ?'
'हम क्या बतायें आपके भी क्वारी लड़कियाँ मेरे भी ।मुझे भी अपनी लड़कियाँ ब्याहनी हैं ।वैसे तो लड़कीवाला समर्थ्यभर देता है।मैंने भी बड़ी के ब्याह में सामान तो दिया ही बीस हजार नकद गिनवा लिये उनने।अब आप खुद ही समझ लीजिये ।मैं मुँह खोल कर क्या कहूँ !सामान के रूप में हमारी कोई माँग नहीं है ।'
पिता ने समझ लिया इनकी कोई मांग नहीं है और इनने सोचा पच्चीस हज़ार तो कह ही दिया है इससे कम की शादी क्या करेंगे !
पिता ने घर आकर माँ को बताया ,'उन लोगों को कोई लोभ नहीं है ।बड़े सज्जन आदमी हैं ।खुद लड़कियों के बाप हैं ,दूसरों की हालत समझते हैं।
सबसे अधिक खुश हुई थी गीता -कितनी भाग्यशाली हूँ मैं जो इतना अच्छा घर मिल रहा है ।दो क्वाँरी ननदें एख देवर ,खूब प्यार से हिल-मिल कर रहेंगे ।बड़ी बहू तो मैं होऊँगी ।ननदों के ब्याह ख़ूब अच्छे-अच्छे करूँगी,चाहे मेरा सारा जेवर ही चला जाय।सब कहेंगे ,'बहू हो तो ऐसी !'
पिता ने जतना कुछ हो सकाकिया था । नकद भी दिया था पर सिर्फ, दस हजार इन लोगों की आशा से बहुत कम ।
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लेटे-लेट गीता को चैन नहीं पड़ रहा ।नींद जैसे आँखों से उड़ गई है ।समीर अभी तक नहीं आया साढ़े दस बज चुके हैं ।पता नहीं क्या बातें हो रही हैं ।ऊँह.. मुझे क्या ..मुझ पर तो सबके मुंह चढं रहते हैं ।
बड़ी ननद ने माँ से भी शिकायत की थी ,'मेरी मौसिया की भांजी के लिये कितना कहा था उन लोगोंने ..अम्माँ, तुमने नहीं माना ।घर भर जाता दस हजार नकद तो टीके में आते ।...कहीं बाबू मुँह खोल कर माँग लेते तो और भी मिलता ।किरन की शादी करके कंचन के लिये बचा रहता ।अरे, लड़की जरा साँवली ही तो थी ,इनने बड़ा उजाला कर दिया !
''क्या करें बिटिया ,किस्मत ही फूटी थी हमारी ।'
छोटी ननदों को भी भर गईं थीं वे ।इसी की वजह से उनकी शादी नहीं हो पा रही ..उन्हें अच्छे दूल्हे नहीं मिलेंगे ।बाबू को नीचा देखना पड़ेगा ।और भी जाने क्या-क्या ।पहले तो दोनों ने बहुत बेरुखी दिखाई थी ।देवर तो छोटा है ।
समीर कमरे में आया और अपने बिस्तर पर लेट गया ।गीता की हम्मत नहीं पड़ती कुछ भी पूछने की ।कहीं झिड़क दिया तो ! बताना होगा तो ख़ुद ही बतायेंगे ।
उसने उठ कर पानी पिया और लाइट ऑफ़ कर दी ।समीर को बड़ी जल्दी नींद आ जाती है ।गीता आँखें खोले अँधेरे को घूरती रही ।
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सुबह का चाय-नाश्ता चल रहा था ।
गीता ने परांठे में घी चुपड़ कर चमचा कटोरी में रखा ही था कि सास पूजा के लिये चावल लेने आईं । सिर का पल्ला आगे खींचने की जल्दी में कटोरी टेढी हो गई ।घी छलक गया ।
'माँ ने ऐसे ही सिखाया है?'
'वाह, क्या हथरसिया स्टाइल है !'छोटे देवर की आवाज़ थी ।
ननदें खिलखिला कर हँसीं ।कभी किसी बात पर समीर ने हँसी की थी 'हथरसिया स्टाइल'
तब से यह विशेषण उसके हर काम के साथ जोड़ दिया जाता है ।
इन लोगों को मेरे सब काम अजीब लगते हैं ,गीता सोचती , आटा गूँधना ,रोटी बेलना ,यहाँ तक कि साड़ी पहनने और बिन्दी लगाने तक की आलोचना होती है ।बोलने के ढंग की तो .ये लोग हर समय नकल उतारते हैं ।
सास जी इन लोगों से कुछ नहीं कहतीं ,मैं जरा सा कुछ कह दूँ तो फ़ौरन टोक देती हैं ।हर बात में नीचा दिखाने की कोशिश !
पता नहीं मेरे करने से ही हर काम अजीब हो जाता है ।
उसे लगता है इस वातावरण में रहते-रहते वह भी असामान्य हो उठेगी ।
एक बार उसने हथरसिया की जोड़ का शब्द तौल दिया था ।किरन ने अपनी चुन्नी के किनारों पर तुरपन की थी ।एक तरफ़ सीधी ओर दूसरी ओर उलटी ओर ।गीता ने हँस कर कहा ,'ये क्या 'रायबरेलिया स्टाइल ' है ?
कंचन ताली बजा कर हँसी ,'अरे वाह ,भाभी ने क्या नया शब्द गढा ।'
किरन का मुंह चढ गया ,हाँ ,हम तो फूहड़ हैं ,अपने को जाने क्या समझती हैं !...से लेकर रोना -धोना तक हुआ ।
गीता मनाती रही पर अम्माँ से शिकायत किये बिना काम कैसे चलता !
'ननदों से बराबरी न करेंगी तो छोटी न हो जायेंगी ।एक बात भी उधार नहीं रखेंगी वो ।तमीज सिखा कर तो भेजा ही नहीं गया ।' और अंत में ,'जब तुम लोग जानती हो तुम्हें फूटी आँखों नहीं सहन कर सकतीं तो बोलने क्यों जाती हो ?'
गीता का मन विद्रोह से भर उठता - जवाब मुँह तक आता पर चुप रह जाती ।परिणाम जानती है वह ।शाम को बाहरवाले कमरे में सारी शिकायतें और उस पर टीका-टिप्पणी ।ससुर तो बहू से बोलते नहीं ,पर समीर डाँटता डपटता और चार-पाँच दिनों के लिये तनाव की स्थिति !
अगर गीता कभी अपनी बात कहे तो जवाब मिलेगा ,काहे को ध्यान देती हो ?इस कान सुनो उस कान निकाल दो ' वह अम्माँ को क्या समझाये ,वह तो वैसे ही खुश नीं रहतीं ।'
अम्माँ खुश नहीं रहतीं पर तुम भी तो असंतुष्ट हो ।वह कहना चाह भी कर नहीं कह पाती ।
कोई कुछ कहता है तो मुझ पर तो असर होता है ,गीता सोचती ,कहीं कोई छुटकारा है मेरे लिये ?कहाँ भाग जाऊँ निकल कर ?मायके जाने नहीं देंगे ।बाप-भाई आयेंगे तो उनका मुँह तक नहीं देखने देंगे ।अपमानित कर बाहर का बाहर वापस कर देंगे ।तीन बार भाई आये ,इन लोगों ने बैठाया तक नहीं ।खूब कहा-सुनी की और वे उल्टे पैरों लौट गये ।दो बार पिता आये उन्हें सास जी ने खूब जली-कटी सुनाईं ,अपनी लड़की तो ब्याह दी समधी जी ,अब अपना जी जुड़ाने आये हो हमारा तो जी जल रहा है ..जवान लड़कियाँ क्वारी बैठी हं ,कैसे पार होगा ?जाने कैसे फँस गये तुम्हारे यहाँ ।पच्चीस हजार तो नकद मिल रहे थे ,सामान अलग से ।..पर क्या करें किस्मत को ..।'
पिता सिर झुकाये खड़े रहते हैं ।वे कहती जाती हैं 'जैसा हमारे साथ किया भगवान खूब वदला देगा !हमें तो लूट लिया ऐसी कुलच्छनी टिका दी ।घर की हँसी-खुशी छीन ली ।अब अपनी बेटी देख जी ठण्डाने आया हैं ।हम तुम्हें भी नहीं देखने देंगे ,समधी जी ।'
साथ में लाया सामान वहीं रख ,पिता लौट गये ।उनके लाये सामान पर भी टीका-टिप्पणी होती रही 'ये देखो लाये हैं मरे कँगले कहीं के ...ये सूखी मिठाई ।अरे किसी कँगले को ही ब्याह देते अपनी बेटी ,हमारा लड़का ही रह गया था ।'
पड़ोसन ने कहा ,मिठाई में तो कोई खामी नहीं है जिज्जी , किनारे तो लाते-लाते भी हवा लग कर सूख जाते हैं ।'
'इस मिठाई को क्या सिर पर मारूं अपने ? मेरा तो जी जलता है ।मेरी बेटी का ब्याह कैसे होगा ?ऐसे ही ममता उमड़ती है तो ले जायें ।हमेशा को रख लें अपनी बिटया ।'
भेज क्यों नहीं देते मुझे मेरे मैके ?पर पर नहीं भेजंगे ये लोग ।दिन-रात काम करनेवाली ,बासी बचा खाना खाकर चुपचाप पड़ी रहनेवाली नौकरानी कहाँ मिलेगी इन्हें ? कहीं जाने नहीं देंगे ।..एक बार भेज दें तो मै कभी लौटकर न आऊँ ।
गीता के मन में तूफ़ान-सा उठने लगता -जब से आई हूँ एक बार भी मायके नहीं जाने दिया ।
गीता को बहुत याद आती है उन सब की ।दो सावन बीत गये ,यह तीसरा भी यों ही निकल जायेगा ।मेरी याद करते होंगे वे लोग भी ,नहीं तो बार-बार क्यों आते यहाँ ?मेरा ही मोह तो है जो अपमानित होने के बाद भी खीच लाता है ।
ताऊ जी का घर याद है गीता को ।रात के बारह-बारह बजे तक हम लोग खेला करते थे ।दो बहनें हम,एक ताऊ जी की ,और तीन पड़ोस की ।पता नहीं चलता था दिन-रात कैसे बीत जाते थे । होली पर नई भाभी की क्या गत बनाई थी !
कितनी जल्दी बीत गये वे दिन !
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ससुरजी सुबह छः बजते-बजते मिल चले जाते हैं .उनके लिये सुबह उठकर पराँठा-सब्जी बनाना जरूरी है । बर्तन रात से ही माँज कर रख देती है गीता । कभी-कभी सुबह ऐसा बदन टूटता है कि उठने की बिल्कुल इच्छा ही नहं होती ,मन करता है फिर से मुँह ढक कर सो जाये पर कैसे ?अब तो वे भी खाना लेकर जाते हैं ।उसके बाद चाय-नाश्ते के कई राउंड चलते हैं । समीर ब्रश करके चाय पीता है ,ननदों को नाश्ते के साथ चाहिये ,सासको नहाने बाद फौरन देनी होती है ।समीर नौ बजे खाना खा कर निकल जाता है ,स्कूल जानेवालों को दस बजे चाहिये ,और सास तो एक डेढ के पहले खाती ही नहीं ।तभी गीता का भी खाना होता है ।फिर चार बजे से चाय का चक्कर शुरू ।
उस दिन पड़ोसिन चाची मैदा की चलनी मांगने आई थीं ।सास पूजा पर थीं सो गीता के पास खड़ी हो गईं।दो-चार इधर-उधर की बातें करके बोलीं ,'कैसी कुम्हला गई बहू ,यहाँ तुम्हारी कोई कदर नहीं ।ननदें साथ काम करवाती हैं या अकेली ही खटती हो ?'
सहानुभूति के बोल सुकर मन पिघल उठा ,'काम करना बुरा नही लगता चाची जी ,मुझे तो प्यार के दो बोल चाहियें ।'
'सोतो कोई ढंग सं नहीं बोलता ।मै तो दिन-रात सुनती हूँ ।बाप-भाई से भी तो मिलने नहीं दिया ....।'
गीता की आखों से आँसू टपकने लगे । इतने में किरन आ गई -रोते देख लिया ,जाकर अम्माँ से जड़ आई ।वे पूजा छोड़ कर आ गईं ।उस समय तो चुप रहीं ,पर बाद में जो कोहराम मचा ,तो शाम तक बकती-झकती रहीं ।शाम को पेशी हुई -बाहर के कमरे वाले न्ययालय में । आरोप लगते रहे गीता और उसके मां-बाप को कोसा जाता रहा ।धमकी भी मिली ऐसी बहू किसी और घर में होती तो मार-मूर कर ठिकाने लगा दी जाता ।
सभी कुछ एक तरफ़ा रहा ,पर ससुर के सामने बोल नहीं सकती ।तभी से किसी आने-जाने वाले से बोलना बन्द कर दिया गया ।मायके से चिट्ठी आती है ,उसे कोई नहीं बतलाता । जवाब कोई क्या देता होगा ,जब आने पर ही सीधे मुँह बात नहीं करते ।
शुरू-शुरू मे एकाध बार चट्ठी लिखने बैठी तो ननद झाँकने लगी ,'क्या लिख रही हो ,हम भी देखें जरा ।'
सास ने कहा ,'अपने बाप को लिख देना पच्चीस हजार से जो रकम बचायी ,वो चुका दें तब आगे की सोचें ।'
अपने आप लिखें यह हम्मत नहीं इन लोगों की ।
अभी शाम की चाय की तैयारी करनी है ।कौन बार-बार स्टोव का झंझट करे -मिट्टी के तेल का धुआं आँखों में और जलन पैदा कर देता है ।एक बार अँगीठी सुलगा लेती है गीता वह आराम से नौ-दस बजे तक काम देती है ।चाय के बाद उसी पर शाम के खाने का प्रबन्ध होने लगता है ।
चौके में कितनी घुटन है ।उठाऊ अँगीठी थी तब आराम था


सुलगा कर दरवाज़े पर रख आती थी ,अपने आप आग सुलग जाती थी ।अब तो वहीं चौके में बैठ कर धौंकना होता है ।बुरी तरह धुआँ भरता है ।आँखें घंटे भर करकराती रहती हैं ।कुछ महीनों से आँखों में करकराहट रहती है ,लगता है रोहे हो गये हैं ।किससे कहे गीता कि मुझे डाक्टर को दिखा दो ?
सोच रही थी कमरे में जाकर पसीना सुखा लूँगी ।पर वहाँ ननद और देवर रेडियो सुन रहे हैं ,कंचन का मेज़पोश कढ रहा है ।उन लोगों के सामने पल्ला खोल कर पसीना भी नहीं सुखा सकती ।दिन तो दिन गर्मी की रातें बल्कुल नही कटतीं ।उस छोटे-से कमरे में ही पड़े रहना होता है ।आंगन है ही कतना बड़ा ,फिर वहाँ ससुर सोते हैं ।छत बिल्कुल खुली है सास को पसंद नही ,अड़ोस-पड़ोस में सब कहेंगे बहू छत पर पसरी है।
घुर्र-घुर्र करती पंखे की हवा शीतलता के स्थान पर तपन फूँकती है ।परेशान होकर फ़ुल पर करो तो भाय़ं-भायँ के मारे बैठा नहीं जाता ।और बंद करने पर पसीने से बुरा हाल हो जाता है ।
पीठ,गर्दन ,कमर सब जगह अम्हौरियाँ ही अम्हौरियाँ ।लगता है बदन पका जा रहा है ।चौके में काम करते समय सुइयाँ-सी चुभती रहती हैं ।
पाउडर का डब्बा कब का खाली हो गया ।हफ़्ते भर पहले लाने को कहा था ,अभी तक नहीं आया ।समीर ले भी आये तो फ़ौरन सुनने को मिलेगा ,'भाभी के लिये कैसा चट् से ले आये !'
शुरू से तो लिहाज़ और दबाव के मारे कुछ किया नहीं अब मेरे लिये कुछ करने की इनकी हिम्मत नहीं है । गीता को लगता वैसे इनकी इच्छा भी नहीं होती ।नहीं तो क्या कभी कह नहीं सकते ,'हमलोग ज़रा घूमने जा रहे हैं ।'
वे क्या रोक सकती हैं इन्हें और कौनसा पैसा खर्च होता है इसमें , पर चाव भी तो हो किसी को !
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कभी स्वप्न देखा करती थी - पूर्णिमा की चाँदनी से आलोकित दिग्दिगन्त !हरसंगार के फूल झर रहे हैं।गीता समीर के साथ घूम रही है ।सफ़ेद अमेरिकन जार्जेट की रुपहले तारोंवाली साड़ी ,सफ़ेद ब्लाउज़,और जूड़े में मोगरे का गजरा ।जैसे तैरती चली जा रही है ।
समीर कह रहा है ,'यह चाँदनी ऊपर से नीचे आ रही है या नीचे से ऊपर जा रही है ।'
इठला कर गीता बोलती है ,'वो देखो चाँद ऊपर है ।'
'साक्षात् पूर्णिमा तो मेरे साथ चल रही है ।'
पर रुपहले तारोंवाली साड़ी की तह कभी नहीं
हवा के एक-एक झोंके के लिये तरसना पड़ता है ।ये टेरेलीन -नायलोन की साड़ियाँ तो और मारे डालती हैं ।न पसीना सूखने दें न हवा लगले दें ।गर्दन और पीठ जरा खुल जाय तो सास के बोल सुनो ,'हमें क्या करना तुम चाहे नंगी होकर नाचो ।'
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'भाभी तुम मेरा स्कूल का सेट पूरा करवा दोगी ?'
''साथ-साथ तो मैं करवा दूँगी ।अकेली कैसे करूँगी ?मुझे समय ही कितना मिलता है ,ऊपर से आँखों में रोहे खटकते हैं ।''
'तुम तो बहाना कर देती हो ।'
ननदों का कहना है - औरों की भाभियाँ तो उनका खूब काम करवा देती हैं ,और वह...।
दोनों की सहेलियाँ आती हैं तो कहती हैं ,'भाभी जी आईये न !'

वे चाहती हं भाभी उके साथ बैठे-बोले ।उसकी हिम्मत नहीं पड़ती ।सहज रूप से कुछ भी कहे और किसी को नागवार गुज़रे तो उसका तो जीना मुश्किल हो जायगा ।वे घर आने का निमंत्रण देती हैं तो न हाँ रहते बनता है न ना ।इसलिये कोई बहाना बना कर टल जाती है वहाँ से ।मन मचलता रहता है उनके स्कूल की बातें सुनने को ,अपनी कहने को ।
ऐसी ही नालायक हूँ मैं तो तलाक क्यों नहीं दे देते ? कर लें दूसरी शादी ,मुझे कसी तरह जीने तो दें ।
ये लोग क्या चाहते हैं मेरी मौत ?
एक बार सास भुनभुना रहीं थीं 'मर भी तो नहीं जाती ,छुट्टी हो ।'
मुझे मारना क्यों चाहते हं गीता समझ नहीं पाती ।वैसे ही निकाल दें घर से मायके भेज दें ।कह दें वह भाग गई ,हम नहीं रखेंगे ।
पर कुछ होता कहाँ है ।
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आज किरन को देखने लोग आ रहे हैं ।।
सुबह से दम मारने की भी फ़ुर्सत नहीं मिली ।तीसरे पहर सास जी ने कहा ,'क्या मनहूस शकल बना रखी है ।ज़रा ढंग के कपड़े-अपड़े बदल लो ।चार लोग आयेंगे तो क्या कहेंगे ?'
गीता अपने कमरे में चली गई ।
उफ़ , कितने बाल टूटते हैं !कैसी मोटी-मोटी दो चोटी बनाती थीं ।अब कितने हल्के रह गये हैं ।
गीता को याद आया वह दूसरों की पतली-पतली चुटिया देक हँसा करती थी ।एक बार पड़ोस की बिन्दो को देख उसने कहा था ,'कैसा चेहरा बनाया है ।धँसी-धँसी आँखें ,पीले-पीले गाल दाँत भी निकले-निकले लगते हैं ।कैसी हो गई है बिन्दो दीदी ।'
जवाब दिया था अम्माँ ने ,'ससुराल में बड़ी दुखी है बेचारी !दो सौतेली लड़कयाँहैं ,ऊपर से बुढ़िया सास ।जीना मुश्किल कर रखा है ।आदमी कहीं निकलने नहीं देता ।मुझे तो तरस आता है देख कर ।'
आदमी अधेड़ था बिन्दो दीदी का ।शक के मारे किसी से बात तक नहीं करने देता था ।लड़कियाँ बात-बेबात शिकायत करती रहती थीं और वह इसे पीटता था ।उसने यह फैला रखा था मायके में किसी से आशनाई है ,सो यहाँ रहना नहीं चाहती ।'
फिर साल बीतते-बीतते ख़बर आ गई - खाना बनाते सिन्थेटिक साड़ी ने आग पकड़ ली ,बिन्दो जल कर मर गई ।
कैसी विकृत हो गई थी उनकी वह सुन्दर युवा देह !फफोलों से भरा अधजला मुँह ,नाक- आँख किसी का आकार स्पष्ट नहीं रह गया था ।अम्माँ देख कर आईं थीं औऱ दो दिन ठीक से खाना भी नहीं खा पाईं थीं ।
उनका ध्यान आते ही मन जाने कैसा हो उठा ।
रोज़ ही अख़बारों में आता है - किसी ने मिट्टी का तेल उँडेल कर आग लगा ली ,कोई कुएं में डूब मरी ,किसी ने ज़हर खा लिया ,कोई फाँसी लगा कर मर गई ।पता नहीं आज कल इन्हीं ख़बरों पर मेरा ध्यान इतना क्यों जाता है !गीता सोचती -मैं भी क्या ...नहीं ,नहीं ।मैं मरना नहीं चाहती ।मुझे मौत से डर लगता है ।
मरने की कल्पना गीता को दहला देती है - इतनी बड़ी दुनिया में क्या मेरे लिये कहीं जगह नहीं है !
अचानक शीशे में उसे अपने चेहरे की जगह बिन्दो दीदी का अधजला चेहरा नज़र आने लगता है ।वह भयभीत हो उठती है ,नहीं मैं आत्मृहत्या नहीं करूँगी ।मुझे तो ज़िन्दा रहना है ।मुझे यह संसार अच्छा लगता है - बहुत सुन्दर ,रमणीय !'
खूब सँवार-सँवार कर जूड़ा बनाया गीता ने ।क्रीम ,पाउडर ,बिन्दी ,शादी में सब मिला था । फिर शृंगार का मौका ही कितनी बार मिला !
मन लगा कर शृंगार किया उसने ।किरन को भी बुला कर तैयार किया ।
किरन खूब अच्छी लग रही है ।गीता ने अपनी लाल बार्डरवाली बनारसी साड़ी पहनाई है,माथे पर छोटी-सी बिन्दी ,कान में झाले ।सास सराहना से देख रही हैं ।आगन्तुकों की आँखें में किरन के लिये प्रशंसा स्पष्च दिखाई दे रही है ।
सबको लगा अब स्वीकृति मिलने में देर नहीं है ।पर बाद में -गोबर हो गया ।
लड़के के बाप ने कहा ,'यों तो और भी अच्छे-अच् रिश्ते आये थे ,पर हमें आपकी लड़की पसंद है ।वैसे एक बात बता दूँ -एक और रिश्ता आया है और वे बीस हजार देने को तैयार हैं -अब आप जैसा कहें ।'
बीस हजार नकद ?माने पैंतीस -चालीस हजार की शादी ! इतना कहाँ है हमारे पास !
बात वहीं खत्म हो गई ।किरन का दमकता चेहरा बुझ गया ,गीता उदास हो गई ,घर में फिर मनहूसियत छा गई ।
उस रात समीर ने कहा था ,'तुम्हारे पिताजी किसा तरह दस हजार का इन्तज़ाम कर दें ,तो सब ठीक हो जाये ।दस हजार पहलेवाले बीस हजार । हम लोग और बाकी का इन्ताम कर लेंगे । '
मायके की हालत जानती है गीता ।पिताजी अब तक इस शादी का उधार चुका नहीं पाये होंगे ,फिर छोटी बहन की भी तो होनी है ।
'मुझे तलाक दे दो ।मैं कुछ नहीं कहूँगी ।दूसरी शादी कर लो वहाँ से मिल जायेगा ।'
' कैसी बेवकूफ़ हो तुम ! अपने बाप से माँगना इतना बुरा लगता है ?'
'मैं जानती हूँ वह नहीं दे पायंगे ,तब मैं क्यों कहूँ ?और उनसे माँगने का अधिकार ही क्या है किसी को ?'
'उन्होंने ही तो दुभांत की ।तुम्हारी बड़ी बहन की शादी में तो पच्चीस हजार नकद दिये थे ...।'
'..तो जेवर और सोना बिल्कुल नहीं दिया था ।उनसे पहले ही तय हो गया था ।उनने कहा था हमारा लड़का एम.एस सी .है,अच्छी नौकरी मैं है ।बीस हजार दे दो और कुछ करो चाहे न करो ।और तभी साझे का मकान बिका था उसके रुपये भी मिले थे ..।'
' साझे के मकान में बड़ी का हिस्सा था ,मँझली का नहीं ?जीजाजी तुम्हारे एम.एस सी. अच्छी नौकरी में हैं ,तो मैं नालायक हूं ?मैं बी.एस .सी हूँ तो काहे को आये थे नाक रगड़ने ?...हाँ मैं ते गँवार हूँ नकारा हूँ ...!'
'मैं यह कब रही हूँ ?'
'और क्या कह रही हो ?ज़बान तो ऐसी चलती है क काट कर फेंक दे ...।'
समार की ऊँची आवाज़ सुन कर जाने कब सास और ननदें दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गई थीं ।
सास कहे जा रहीं थीं ,'हमारा लड़का नालायक है ।मरी जाने कहाँ की तोहमत हमारे सिर डाल दी ।कीड़े पड़ेंगे सुसरों के ..।'
'ऐसे मत कहो !'गीता चीख उठी ।
'चीख रही है औरों को सुनाने के लिये कि हम मार रहे हैं ।हाँ हाँ, मैं तो कहूँगी ।क्या कर लेगी तू मेरा ?कोढ फूटेगा उनके गल-गल कर मरेंगे अभागे ...।'
गीता सब कुछ भूल गई ,मुँह से अपने आप निकलने लगा ,'मुझे मार लो ,मेरे माँ-बाप को मत कहो ।तुम भी तो माँ-बाप हो ,तुम्हें कोई ऐसे कहे तो ...।'
' हमें ऐसे कहेगी ,सुसरी !सूअर की औलाद !'
दोनों एक साथ चिल्ला रहे हैं ,ये तो हाथ चलाने पर उतारू है !'
गीता का दिमाग गर्मा हो उठा,' ...वो खड़ी उकसा रही हैं बेटे को अपने ...'बहुत दिनों से बँधा हुआ बाँध टूट पड़ा ,'मैं सूअर की औलाद हूँ और तुम ?उस सूअर से भी गये-गुजरे हो ,जिसकी जूठन के बिना अपनी औलाद को नहीं ब्याह सकते ।'
एक झन्नाटदार थप्पड़ !
गीता का संतुलन बिगड़ गया ।वह गिर पड़ी ।सिर से कुछ टकराया ऊँची-ऊँची ,मिली जुली आवाज़ें वातावरण में तैरती रहीं ।गीता फिर नहीं बोली निश्चेश्ट पड़ी रहा ।
किरन आगे बडी ।
'सुसरी मक्कर साधे पड़ी है ,चल किरन इधर ..।'
सब लोग कमरे में चले गये हैं ।
**
हमारी तरफ़ एक वैद्य जी दौरों की बड़ी अच्छी दवा देते हैं ,जिज्जी !'
पड़ोसन बोलते-बोलते आँगन में आ गई है -
'बहू को दिखा दो हफ्ते में चंगी हो जायगी ।'
गीता आँगन में नल पर दाल धो रही थी ।
'क्यों बहू , तुम्हें कबसे दौरे पड़ते हैं ,मायके से ?'
'मुझे ?,मुझे तो कभी दौरे नहीं पड़ते ।'
विस्मित -सी गीता ने सास की तरफ़ देखा ।उन्होंने कुछ जवाब नहीं दिया ,मुँह फेर कर कमरे में घुस गईं ।
'अरे कल रात ही तो दौरा पड़ा था ।चीख की आवाज़ सुन के हमने झाँका ,तो देखा तुम गिरी पड़ी थीं ।'पड़ोसन माथे के गूमड़ की ओर इशारा करती है ,'ये सिर में पलँग के पाये से चोट लगी है ।सब लोग यहीं थे तब जिज्जी ने बताया ,बहू को दौरा पड़ा है ।'
'मुझे नहीं मालूम !'
गीता दाल लेकर चौके में चली गई ।
पड़ोसन संदेह भरी दृष्टि से देखती रही ।
पट्टा बिछा कर गीता धप्प से बैठ गई - घूमते हुये सिर को दोनों हाथों से पकड़ लिया ।भूल गई चौके मे क्या करने आई थी ...जलती हुई अँगीठी को लगातार घूरे जा रही है ।
दरवाज़े पर कोई आया ।गीता को किसी का ध्यान नहीं ।
'भाभी...'
उत्तर देने की सुध किसे है !
'भाभी ,तुम्हें क्या हो गया है ?तुम जाओ दाल मैं चढ़ा दूँगी 'किरन की आवाज़ है ।
'मुझे कुछ नहीं होगा ।मैं मरूंगी नहीं ।तुम लोग चाहे जो करो ।'
किरन बहुत उदास है ।अनुनयपूर्ण दृष्टि से गीता की ओर देख रही है ।
'मेरी वजह से ये सब हो रहा है ।मैं मर जाऊं तो छुट्टी हो ।' किरन की आँखों में आँसू हैं ।
गीता ध्यान से उसे देख रही है ।किरन का सारा दर्प समाप्त हो गया है ।गीता को वह बड़ी अपनी-सी लगी ।
किरन गीता को ज़बर्दस्ती उसके कमरे में छोड़ आई ।वह सोचती रही -पड़ोसिन चाची मुझसे यह सब कहने क्यों आईं ?शादी में भी इन्हीं ने उकसा-उकसा कर खूब मज़ा लिया था ।हँस कर बोली थीं ,'काहे जिज्जी ,वो संदूक कहाँ है जिसमें रुपैया भरा है ?हमारा हस्सा निकालो ।'
जल-भुन कर सास बोली थीं ,'हाँ,हाँ खूब आया है ।हमने गाड़ के रखा है ।...सब छाती पे रख के ले जायेंगे सुसरे ।कुछ भी तो नहीं दिया मरों ने ।बातें तो खूब बड़ी-बड़ी करते थे ।पूछते थे -क्या माँग है आपकी ?माँग सुन ली तभी साफ़ कह देते ...ऐसा धोखा खाया है हमने ...।'
सास बकती-झकती रही थीं ।बड़ी ननद और पड़ोसन आग में घी डालती रहीं ।गीता चुपचाप रोती रही ।
किरन ने तो अपने लिये कहा था 'मर जाऊँ तो छुट्टी हो' पर गीता को लग रहा है यह भी कोई ज़िन्दगी है !
ससुराल ऐसी होती है ?मैने कभी सोचा भी न था ।माँ तो बात-बात पर कहती थीं --और थोड़े दिन सबर करो ,ब्याह हो जाये तो सारे शौक पूरे करना ।
तब 'ससुराल' शब्द मन में शक्कर-सी घोल देता था ।जाने क्या-क्या आकर जुड़ जाताथा इस एक शब्द के साथ ।
देखा भी तो था उसने ऐसा ही ।सजी-सजाई दुल्हनें ! एक दूसरी को छेड़ना ,खिलखलाना ,पति के नाम से पुलक उठना भेद भरी हँसी से प्रकाशित चेहरे ..और एक दो वर्ष बाद मातृत्व की गरिमा से मंडित हो पूर्णता पा लेना ।
बड़े भाई का ब्याह नहीं हुआ था तो क्या ताऊ जी के घर महीनों रही थी वह ।टिल्लू दादा की शादी की अच्छी तरह याद है ।
नई बहू को ऊपर के कमरे में ठहराया गया था ।लड़कियाँ उसे बराबर घेरे रहती थीं ।छोटी बुआ ने कई बार टोका -रात भर की जगी है वह ,सुबह से भी सफ़र के बाद बैठी की बैठी है ,थोड़ी देर उसे आराम करने दो ।तुम लोग दरवाज़ उडका के चली आओ ।
बड़ बेमन से वे लोग नीचे आई थीं पर कहाँ चैन पड़ता ।घंटे भर बाद से ही फिर चक्कर लगने लगे ।उन बहनों ने तय किया टिल्लू दादा की भाभी से पहचान करायें ।
दादा सो कर उठे थे ।बहुत कहने-सुनने पर किसी तरह ऊपर आये ।
बिनी ने जाकर दरवाज़ा पूरा-का-पूरा खोल दिया ।एक पूरा दृष्य सामने आ गया --
फ़र्श की दरी पर अपनी बाँह का तकिया लगाये नई दुल्हन निश्चिन्त सोई थी ।मुँदी हुई पलकें ,माथे का पल्ला खिसका हुआ ,सिन्दूर से खूब भरी दमकती माँग के दोनों ओर कुछ लटें माथे पर बिखरी हुई ,ज़रा टेढ़ी हो आई बिन्दी ,कान का झाला गाल पर झिलमिलाता हुआ !
गोरे-गोरे मेंहदी रचे ,कंगन चूड़ियों से भरे हाथ और महावर लगे पायल बिछुओं से सजे टखनों तक खुले एक दूसरे पर रखे सुन्दर पाँव !
अभिभूत-से सभी कुछ क्षण खड़े रह गये ।
बिनी आगे बढ़ी ,'आभी जगाती हूँ ।'
दादा ने हाथ बढ़ा कर रोक दिया - 'नहीं,नहीं मत जगाओ !सोने दो उसे ।'
और लौट कर सीढियाँ उतर गये ।
चाय के समय गीता ने कहा ,'भाभी टिल्लू दादा आपसे मिलने आये थे ।'
'अच्छा कब ?'वे विस्मय से बोलीं ,'मुझे पता ही नहीं लगा ।'
'आप तो बेखबर सो रही थीं ।'

'मायके में चार-पाँच दिनों से बिल्कुल नींद नहीं आई थी ।भीतर ही भीतर जाने कैसी घबराहट-सी लगती रहती थी ।यहाँ आप लोगों को पा लगा जैसे बड़ा पुराना संबंध हो ।फिर तो ऐसी गहरी नींद आई कि बस!
टिल्लू दादा के आने का मुझे पता ही न चला ।पर आपने जगा क्यों नहीं दिया ?' वे बड़े भोलेपन से बोलीं ।
हम लोग मुस्कराईं ,'वे कहने लगे मत जगाओ ,थकी है सोने दो ।'
दूसरे दिन हमलोगों ने शैतानी से पूछा था ,'फिर टल्वू दादा मिले ?'
भाभी झेंप गईँ बोलीं ,' आप लोग सोचती होंगी ,यह कैसी बेशरम है ।सच बीबी जी ,मुझे पता ही नहीं था किसका घर का क्या नाम है ।तभी तो ..।'
'हम समझ गईँ थीं तभी तो किसी से कहा नहीं ।'
'ऐसी प्यारी ननदें भगवान सब को दे ।और कहीं कोई होती तो सारे घर में पूर आती ।।हल्ला मच जाता -बहू कितनी बेहया है ।मैं तो पाँव धो-धो कर पिऊँ ..।'
नई भाभी अन्हें अपनी प्यारी सहेली-सी लगी थी ।थी भी बराबरी की ही बहुत होगा दो-एक साल बड़ी होगी ।साथ काम करना ,साथ रहना ,खूब मज़ा आता था ।ताई जी का मिजाज़ जरा तेज था पर हम लोग भाभी को बराबर बचा ले जातीं ।
जाने कितनी बार भाभी की अनभ्यस्त उँगलियों से गिरे बिछुये उन्हें चुपके से ले जाकर दिये थे ।बिस्तर पर छूटी हुई उनकी ढीली पायल दादा बहनों को पकड़ा जाते यथास्थान पहुँचाने के लिये ।बाद में तो ताई जी भी हर बात में कहने लगीं थीं 'अब तुम ननद भौजाई जानो मुझे क्या !'
मोगरे का गजरा भाभी को पसंद है ।दादा से फ़रमाइश की जाती ।वे सब के लिये लाते ।चाँदनी रातों में वेणी में गजरे सजते .छत पर महफ़िल जमती और आधी-आधी रात तक गाने होते ।
ताई टोकतीं 'नई बहू को छत पर देख कर लोग क्या कहते होंगे !'
उन्हीं की लड़की जवाब देती ,'जैसे सारी दुनिया तुम्हारी बहू को ही देखती रहती है 1अरे इत्ती सारी हम लोगों में ,क्या पता उन्हें नई बहू कौन सी है !'
और भाभी को सिर खोल कर बिठाया जाता -खुली हवा उन्हें भी तो चाहिये ।कल तक मैके में सिर खोले घूमती होंगी ।'
उन्हें आश्वस्त कर दिया जाता -
'तुम आराम से बैठो भाभी ,कोई बड़ा आयेगा तो हम बता देंगी ,तुम घूँघट कर लेना ।'
जाने कितनी बातें ,जो अम्माँ से नहीं कहीं ,पूरे मन से भाभी को बताई हैं ।
ससुराल की यही कल्पना गीता ने सँजोई थी ।
पर यहाँ सबने अकेला छोड़ दिया है ।कोई अपना नही लगता सब विरोधी है ।'
'ये 'भी तो कुछ मीठी स्मृतियों की सौगात नहीं दे पाये जो दोनों के हृदयों को जोड़ पाती ।गीता सोचती है -कैसे इन्हें अपना कहूँ !
मुझे कुछ नहीं चाहिये ।बस इनका प्यार और सबका सहज व्यवहार ।इसमें किसी का कुछ खर्च नहीं होगा और मेरा मन सुख-शान्ति से भऱ जायेगा ।मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं रहेगी ।पर गीता के सोचने से क्या होता है !
ये चाँद से सजी रातें मुझे अच्छी लगती हैं ।पूरे आसमान की चाँदनी मेरी न सही ,खिड़की से झांकनेवाली थोड़ी-सी किरणों से ही संतोष कर लूँगी ।मायके जैसा ये नीम का पेड़ मुझे सावन का संदेश दे देगा ,और सकोयल की कूक सुन कर मैं समझ लूँगी वसन्त आ गया है ।।पतझर के सूखे पत्ते तो खिड़की से ही आ-आ कर कमरे में बिखर जाते हैं ।।
पर इन सबके लिये जो मनस्थित चाहिये बस वही नहीं मिलती ।हँसी-खुशी भरे कुछ प्रहर इस झोली में डाल दो ,तो जीवन की कटुताओं पर शीतल प्रलेप हो जाये ।
कभी-कभी मन ऐसी कड़वाहट से भर जाता है कि जीवन असह्य लगने लगता है ।फिर भी उसकी मरने की इच्छा नहीं होती ।यह संसार अच्छा लगता है ।जीवन के आनन्द को भोगने की चाह है ।दुःख ,दुविधा और आतंक से रहित जीवन जीने की कामना बार-बार उसके मन में जाग उठती है ।
बालों की बिखरी लटें समेटते हुये हाथ जोर से छरछरा उठा - कल कद्दूकस से छिल गया था ।ज़रा नमक-मसाले छू जाये तो बहुत लगता है ।किसी से कुछ कहा नहीं गीता ने नहीं तो फिर कुछ सुनने को मिल जाता ।
समीर की शर्ट में बटन टाँकते सुई उसी छिले पर जा लगी ,मुँह से 'सी' निकल गया ।
'क्या हुआ ?'
'कद्दूकस से हाथ कस गया था ।'
'देखें ,' समीर ने हाथ पकड़लिया ,'कुछ लगा नहीं लिया ?"
गीता कुछ क्षण उसके चेहरे को देखती रही ,फिर अचानक पूछ बैठी ,'तुम मुझे मेरे मायके भेज सकते हो ?'
'मैं कुछ नहीं कर सकता ।'
मुझे कुछ हो जाये तो जम्मेदारी तुम्हारी है न ?
'मेरी क्यों ?और बड़े लोग हैं घर में ...मैं कैसे हर बात का जिम्मा ले सकता हूँ ।तुम भी सब देखती हो ,फिर भी कैसी अजीब बातें करती हो ।'

इनका व्यक्तित्व भी कितना दबा हुआ है ।अपने मन से कुछ नहीं कर पाते दूसरे क्या कहेंगे यही सोचकर उचित का समर्थन नहीं कर पाते ।और मैं कितना भी कुछ भी करूँ ,किसी की नज़रों में उसकी कोई कीमत नहीं -गीता ने ठंडी साँस ली ।
शरीर क्लान्त और मन संतप्त होता है तो बोलने की इच्छा नहीं होती ।मन करता है खूब खरी-खोटी सुनाऊँ और जी की जलन कुछ शान्त करूँ ।
गीता को लगता इस सब के लिये उत्तरदायी समीर को होना चाहिये ।मेरा ब्याह तो इनसे हुआ है ।बाहर से आकर जरा-सी देर को मेरे पास हो जायें फिर चाहे फौरन ही चले जायें ।ज़रा सा महत्व मुझे दे दें तो घरवालो के व्यवहार पर बहुत असर पड़े ।पर ये तो खुद ही असंतुष्ट हैं ।इनकी दृष्टि को देख कर ही घरवालों का मेरे लिये व्यवहार निर्धारित होता है ।पर वह अपनी व्यथा किससे कहे ?सुनेगा-समझेगा कौन ?

कभी-अचानक उसे लगता चारों ओर हरियाली और प्रकाश से भरा संसार नहीं ,सुनसान धूसर असीमित रेगिस्तान फैला हुआ है ।मन करता भाग जाये यहाँ से निकल कर ।पर कहाँ ? दुनिया के सारे दरवाज़े तो बंद हो गये हैं ।
ये चीं-चीं की आवाज़ कहां से आ रही है ?गीता कमरे से बाहर निकली ,देखा चिड़िया का एक बच्चा नीचे पड़ा है ।
बरामदे के ऊपरवाले रोशनदान में चिड़ियों के एक जोड़े ने अपना घोंसला बना लिया है ।अब तो उनमें नन्हें-नन्हें बच्चे भी दिखाई देने लगे हैं ।चड़िया चोंच में कुछ लेकर आती है तो पूरी की पूरी चोंच खोल कर आगे बढ़ आते हैं ।फर उनकी आवाजें जैसे छोटी-छोटी घंटियाँ लगातार टुनटुना रही हों ।उन्हीं में से एक बच्चा नीचे आ पड़ा है ।
उसने पास जाकर देखा - अभी तो पंख भी नहीं जमे हैं ।गुलाबी-गुलाबी ,मुलायम -सी नन्हीं देह सहमी-सकुड़ी बैठी है ।
ऊपर मुँडेर पर बैठी चिड़या चिचिया रही है ।
पता नहीं कब से पड़ा होगा !!वह चम्मच में पानी ले आई -शायद पी ले ।पुचकार की आवाज़ सुन कंचन बाहर निकल आई ।
'भाभी ,यह चिड़िया का बच्चा कहाँ से ले आईं ?'
पानी उसकी चोंच से लगाते हुये वह बोली ,'ऊपर घोंसले से गिर पड़ा है ।'
पकड़ने के लिये बढ़ाया हुआ कंचन का हाथ हटा कर गीता कह उठी ,'ना,ना छूना मत !फिर चिड़िया उसे लेगी नहीं ।'
चिड़िया तो उठा नहीं पायेगी उसे ।यहाँ कहीं बिल्ली खा गई तो ..?'
प्लास्टिक की जालीदार टोकरी लाकर बच्चे को ढाँक दिया गया और डबलरोटी की चूर के साथ पानी भीतर खिसका दिया गया ।
गीता जानती है बच्चा बचेगा नहीं ।
उसके भीतर कहीं कुछ चटक कर टूट गया ।
**
आज कल तबियत बहुत गिरी-गिरी-सी रहने लगी है ।दाल की महक सहन नहीं होती ,देख कर उबकाई आती है ।गीता को लगा फिर कुछ दिन चढ गये हैं ।
समीर को पता चलने पर बोला ,'डाक्टर के पास चलना इन्तज़ाम हो जायेगा ।'
वह काँप उठी ।एक बार भुगत चुकी है ।तब शादी को पांच महीने हुये थे ।उन दिनों ममिया सास आई हुई थीं ,गीता की तबियत ठीक नहीं रहती थी ।सुबह-सुबह मितली आती और कुछ खाते ही उलट जाता ।
सास अपनी भौजाई से बोलीं ,'क्या जमाना आ गया है !साल पूरा होने के पहले ही बच्चा हो जायेगा !इन लोगों को तो कुछ शरम नहीं ,मुझे तो मोहल्ले में जवाब देना मुश्किल हो जायेगा ।'
'क्या करें बीबी ,कुछ अपना बस तो है नहीं ।दोनों की उमर है ।तुम रोक लोगी क्या ?'
'एक झंझट से छुट्टी महीं मिली ,ये दूसरा सिर पे आ गया ।...कोई पूछे इनसे आगे क्या होगा !'
गीता वहीं बैठी थी उठ कर अपने कमरे मे चली गई ।
तीसरे पहर मामी जी आ कर उसके पास बैठीं और सहानुभूति दिखाते हुये अपनी सलाह दे गईं ।
और गीता समीर के साथ डाक्टर के पास हो आई ।
परिणाम कई महीने भुगतना पड़ा था ।शरीर और मन दोनो अवसन्न-से हो गये थे ।कमज़ोरी इतनी लगती कि उठ कर खाड़ी होने की हिम्मत नहीं पड़ती ।डाक्टर ने कुछ इन्जेक्शन भी बताये थे ,पर इसका ध्यान ही किसे था - खान-पान की बात तो बहुत दूर की थी ।ऊपर से सातवें दिन से रोज़मर्रा के काम शुरू ।बैठ कर पोंछा देने और आटा गूँदने में तो जैसे जान ही निकल जाती ,लगता कोई नाखूनों से भीतर ही भीतर खरोंचे डाल रहा है ।जरा झटका लगते ही ,लगता पेट की नसें खिंच कर टूट जायेंगी ।बार-बार गला सूखता ,बार-बार प्यास लगती और जल्दी-जल्दी बाथरूम जाना पड़ता ।एक-एक कदम ऐसा लगता जैसे पहाड़ लाँघ रही हो ।
दोनो ननदें स्कूल चली जातीं ,सास नहा कर पूजा पर बैठ जातीं ।काम और कौन करता ?गीता के दिमाग में एक साथ यह सब घूम गया ।
' शाम को तैयार रहना ,'समीर ने फिर कहा ।
' मैं अब डाक्टर के पास नहीं जाऊंगी ।'
' तुम समझती क्यों नहीं ?अभी सबसे बड़ा काम किरन की शादी है ।'
' ऐसा ही था तो शादी क्यों की थी तुमने ?'
वह समझाने लगा ,'हम लोग अभी इस लायक हैं क्या ?घर के खर्च और बढ़ जायेंगे ।मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा तो सब लोग क्या कहेंगे ? '
गीता ने 'हाँ' नहीं कहा ।
वह बार-बार सपने देखती है -- एक हँसता किलकता बच्चा उसके पास लेटा है ,हाथ-पाँव फेंक रहा है ।कभी देखती आँचल पकड़ कर खींच रहा है ,गोद में आने को लपकता है ,रोता है ।
जरा भी झपकी लगती यही सब दिखाई देता ।'वह मेरी गोद में आने को मचल रहा है और ये डाक्टर के पास ले जा रहे हैं ।'
पिछली बार नर्स ने कहा था ,' शुरू-शुरू में ये सब नहीं कराना चाहिये नहीं तो बाद में भी हर बार गड़बड़ हो जाता है ।'
वह तो मेरा होगा ,मेरा अपना समझेगा । रोयेगा तो मेरे लिये ,चाहेगा तो मुझे ।उसे गोद में लेकर मैं सारी दुनिया से लड़ लूँगी ।यह सूखा रेगिस्तान फिर सरस-सुन्दर हो उठेगा ।थपकी देकर सुलाऊंगी ,लोरी गाऊंगी ,आँचल से ढक कर दूध पलाऊँगी ,जैसे मंजू भाभी पिलाती हैं ।
आखिरी बार टिल्लूदादा और मंजू भाभी को अपने ब्याह में देखा उसने । इस बार भाभी की गोद में गोरा-गुदगुदा सुन्दर-सा बच्चा था -बड़ा प्यारा । भाभी का अधिकतर समय मुन्ने की साज सम्हाल में ,उसके पास ही बीतता था ।
उस दिन भाभी जयमाल की साड़ी में किरन टाँक रहीं थीं , इतने में दादा आये -- 'मंजू,मुन्ना कहाँ है ?'
दूध पीना छोड़ किलकता हुआ मुन्ना भाभी की गोद से उनकी ओर लपका ।भाभी के हाथ की सुई उन्हीं की उँगली में जा चुभी ।
' देखी अपने बेटे की करतूत ?'भाभी ने उलाहना
दादा ने मुन्ने को उठा लिया ।दूध से भीगे होंठ अपने हाथों से पोंछते बोले ' उसे लेकर ऐसा काम तुम्हें करना ही नहीं चाहिये ।'
भाभी की मानभरी और दादा की नेहभरी दृष्टियाँ मिलीं ,वे मुन्ने के लेकर बाहर चले गये ।
**
बार-बार समीर डाक्टर के पास जाने की याद दिलाता ,कहता ,'अबकी बार पूरी सम्हाल होगी ।अम्माँ से मैं खुद कहूँगा और सब करवाऊँगा ।'
हूँ !अम्माँ से कह देंगें ,और अम्माँ ने कर दिया !
इतने बड़े होकर क्या अम्माँ -अम्माँ लगाये रहते हैं ।ऐसे ही बोलने की हिम्मत पड़ती तो बार-बार एबॉर्शन की नौबत नहीं आती ।गीता झुँझला उटी है ।
वह जानती है -यह सब झूठ है ,बहकावा है -कोई कुछ नहीं करेगा ।मेरे गर्भ के जिस बच्चे से ये मुझ वंचित करना चाहते हं,उसे फिर कभी लाकर मुझे लौटा पायेंगे ?अब मुझे बिल्कुल साफ़ कह देना है 'एबॉर्शन नहीं करवाऊंगी !'
वह सोचती इन्हें काहे की कीमत चाहिये ?मेरी जिन्दगी की या बच्चे की ?अगर इस लायक नहीं थे तो शादी क्या सिर्फ़ दहेज के लिये की थी ?
यह सब अगर इनसे कहूँ तो क्या ये मुझे मारेंगे ? क्या हाथ उठाने को तैयार नहीं हुये कभी ?
मैं भी कहूँगी -मारो और क्या कर सकते हो ? मेरा यहाँ है ही कौन जो बचायेगा ? सब तुम्हारा साथ देंगे । पिछली बार फैला दिया था दौरे पड़ते हैं ,अबकी बार सब मिल के जला देना । कह देना -नायलान की साड़ी ने आग पकड़ ली ।दूसरी शादी से तुम्हें बहुत दहेज मिल जायेगा ।
बाहर से बोल-चाल की आवाज आ रही है ।
'आज रमाकान्त मिले थे ..।'
बड़े भाई का नाम सुन कर गीता चौकन्नी हो गई ।
सास ने पूछा ,'कहा?'
'हमारे रास्ते में ,' समीर ने कहा,'मुझे लगा जैसे मिलने के लिये खड़े इन्तार ही कर रहे थे ।'
'इतनी बार दुत्कार चुके फिर भी मरों की हिम्मत पड़ जाती है ।'
'कह रहे थे माँ काफ़ी बीमार हैं गीता को बहुत याद करती हैं ।...न हो बाज़ार में ही एक बार दिखा दो ।बहुत ज़िद करती हैं वो ..।'
'हाँ,हाँ !छोड़ आओ न।दूध टपक रहा होगा उनकी अम्माँ का । ऐसा ही प्यार था तो रखे रहतीं घर में ,हम तो पाँव पड़ने गये नहीं थे ।...तुमने क्या कह दिया ?'
'मैने कहा -जब अम्माँ बाबू ने कह दिया तो आप लोग बेकार परेशान होते हैं ।हम कुछ दुख तो दे नहीं रहे हैं आपकी बहन को ।और अब तो जिम्मेदारी हम लोगों की है ।'
'और क्या ?सोचते होंगे दमाद को अपनी तरफ़ फोड़ लें ।पर हमारे यहाँ के लड़के अभी तक तो ऐसे नहीं कि खुद-मुख्तार बन बैठें ..आगे की भाई, कुछ कही नहीं जा सकती ।'
गीता सुनती रही ।उसे लगता रहा माँ बीमार हं ,वे तो वैसे ही काफी कमज़ोर थीं ।मेरी चिन्ता उन्हें चैन नहीं लेने देती होगी ।
मन के भीतर कुछ बार-बार कचोटने लगता है ।-भइया रास्ते इन्तज़ार करते मिले थे ...निराश लौट गये ।माँ क्यों चिन्ता करती हैं मेरी ?छोड़ दे मुझे मेरे हाल पर ।जब ब्याह दिया तो समझो उनके लिये मैं मर गई ।
आँखों में आये आँसू उसने पोंछ लिये । रोने से आँखें और खराब होंगी ,वैसे ही काँटे-से चुभते रहते हैं ।जरा -सी रोये तो धुँधलाने-सी लगती हं सिर बिल्कुल खाली -खाली -सा लगने लगता है ।
कभी-कभी तो उठते-उठते भूल जाती किस काम से उठी थी ।अजीब सी मनस्थिति हो जाती है ।सिर चकराता-सा रहता है ।आज भी लग रहा है जैसे अन्दर से धमक रहा हो ।
चौके में बैठ कर काम करना मुश्किल लग रहा है ।
किरन चाय पीती हुई आई है ।इधर उसका व्यवहार बहुत ठीक हो गया है ।पर शुरू से एक ढर्रा बन चुका है । दोनो में अधिक बात-चीत नही हो पाती ।रीता ने किरन को इशारे से बुलाया ।
'मेरी तबियत बड़ी अजीब हो रही है तुम ज़रा,यह सब्जी देख लेना ,मैं थोड़ी देर में फिर आ जाऊँगी ।'
'अच्छा !मैं खाना बना लूँ ?'
नहीं ,अम्माँ से कुछ मत कहना ।पूछें तो मुझे आवाज दे देना ।'
किरन की मदद से किसी तरह काम खत्म होता है ।गीता कमरे में आकर गहरी नींद सो जाना चाहती है ।।पर वहाँ फ़ुल वाल्यूम पर रेडियो खुला है !
ये आवाज़ें ?...सिर में ऐसा लगता है हथौड़े से बराबर चोट कर रही हैं ।मन करता है रेडियो बंद कर दे --कह दे बाहर निकल जाओ ,मुझे चुपचाप सोने दो ।'
'तुम्हारे भैया मिले थे आज ।'
समीर के शब्द गीता के कान में गड्डृमड्ड हो कर पड़ रहे हैं ।वह सुन चुकी है ,अब कुछ सुनना बाकी नहीं है ।अब तो लड़ने की भी हिम्मत नहीं बची है उसमें ।।वह चुपचाप बिस्तर पर लेटी रही ।
रोशनी आँखों मे चुभ रही है । सिर का दर्द और तीव्र हो गया है । आँखें जल रही हैं ,जैसे अभी उफन पड़ेंगी ।
दोनो आँखों पर हथेलियाँ रख कर दबाती है ।चैन नहीं पड़ रहा किसी तरह । तकिया उठा कर सिर,आँख कान सब दबा लेती है ।
पता नहीं क्या समय है ।कोई पल्ला पकड़ रहा है अपने शरीर पर कुछ स्पर्श अनुभव होते हैं ।अधसोई अवस्था में बच्चे की किलकारी सुनाई पड़ रही है ।।गीता को लगता है नन्हा सा शिशु उसके पास लेटा हाथ-पाँव चला रहा है ।छोटा-सा बिना दाँत का मुँह ,सुनहरे बाल ।वह हाथ बढ़ाती है ।किसी ने बढा हुआ हाथ पकड़ लिया -वह चौंक कर जाग गई ।
समीर का चेहरा सामने आ गया .स्वप्न टूट चुका है ।
उफ़ !सोते पर भी चैन नहीं !
अस्वस्थ शरीर खिन्न मन और ऊपर से यह आमंत्रण ।आदमी क्या जानवर होता है ?
'मेरे सिर में बहुत दर्द है '- गीता मुँह फेर कर लेट गई है ।
***
समीर ठीक से बात नहीं करता ।हर समय झल्लाता रहता है ।गीता जानती है -ये सब क्यों है ।पर उस पर कोई असर नहीं पड़ता ।
वह सपने में मुझे देख कर मुस्कराता है ,और गोद में आने को लपकता है -उसकी पुकार कैसे अनसुनी कर दूँ ?
पर समीर तैयार नहीं होता ।गीता का कहना-सुनना सब बेकार हो गया है ।अब तो एक ही धमकी बची है -सुना है नींद की गोलियाँ खानो से गहरी नींद आ जाती है ।बहुत से लोग इकट्ठी गोलियाँ खा कर आत्महत्या कर लेते हैं ।मुझे न जलना है ,न डूबना ,न फाँसी लगानी है ।मरने का कोई इरादा नहीं है मेरा ।गीता सोचती -बस इनहें एक बार समझाना चाहती हूँ ,कि इस पर मैं कोई समझौता नहीं कर सकती ।ये समझ गये तो सब समझ जायंगे ।
नींद की गोलियों से पीड़ा नहीं होती ,शरीर विकृत और भयंकर नहीं होता और बचने की पूरी आशा रहती है ।
ये साढ़े आठ पर कमरे में आते हैं ,कपड़े बगैरह बदल कर पौने नौ की न्यूज़ सुनते हैं ।बस ठीक है नींद,की गोलियाँ खानी होंगी ।एक परचा लिख कर सेफ़्टीपिन से तकिये में लगा दूँ ।सवा आठ पर गोलियाँ खा लूँगी , साढ़े आठ पर ये आयेंगे ,परचा पढ़ेंगे ।फिर तो मुझे बचा ही लिया जायेगा ।
कंचन की कापी किताबें पेन सब यहीं पड़े हैं -पढ़ते-पढ़ते यहीं छोड़ गई है। गीता कॉपी से बीच का पन्ना फाड़ लेती है ।पेन लेकर सोच रही है-' क्या लिखूँ '।
संबोधन ?नहीं कोई संबोधन नहीं ,सीधे-से लिख देना है । लिखने लगी -
मैने नींद की पन्द्रह गोलियाँ खाई है । रोज़-रोज़ के क्लेश से अच्छा है ,मैं ही न रहूँ ।अगर तुम मुझे उचित व्यवहार और मेरे अधिकार दे सको तो बचाने की सोचना ,नहीं तो मेरे हाल पर मुझे छोड़ देना ।इस प्रकार की ज़िन्दगी से ऊब कर मैंने मौत को अधिक अच्छा समझा ।.
...बाद में क्या लिखूँ ?'तुम्हारी' ?...नहीं जिसने अपना समझा ही नहीं उसके लिये कैसे 'तुम्हारी ' !
आँखों से आँसू टपकने लगे हैं ।क्यों रो रही हूँ ?मैं कोई मरी थोड़े हा जा रही हूँ ।यह तो एक धमकी है ।बस । जिससे ये लौग सम्हल जायें ।
आँसू पोंछ कर वह फिर लिखने लगी -'सदा जिसे अपराधी समझा गया - गीता '।
****
नींद की गोलियाँ उसने खरीदी नहीं चुराई हैं।
चोरी के फ़न में तो गीता बचपन से माहिर है । किरन की एक सहेली के चाचा की दवाओं की दूकान है ।एक बार वह दवाओं के पैकेट कंडी मे भर कर दुकान के लिये ले जा रही थी ,रास्ते में किरन के पास रुक गई ।ताऊ जी के एक्सीडेन्ट के बाद गीता का दवाओं से काफ़ी वास्ता रहा था ।यों ही उलट-पलट कर देखने लगी दवाओं के पैकेट ।।कभी-कभी रात में एक-एक बजे तक नींद नहीं आती ।
पुरानी आदत ने ज़ोर मारा ।क्यों न एक पैकेट पार कर दिया जाय !और एक पैकेट उसने धीरे-से खिसका दिया ।
अल्मारी में रख कर बल्कुल ही भूल गई थी गीता । आज देखा तो फिर याद आ गई ,तभी यह प्रोग्राम बना लिया ।रोते-रोते भी वह मुस्करा पड़ी अपनी कारस्तानी पर ।
चलो,इसी काम में आये ।
वह गिलास में पानी भर लाई ।चूड़ियों से सेफ़्टीपिन निकाल कर पर्चा तकिये मे लगा कर समीर के सिरहाने रख दिया ।
जी बड़े ज़ोर से धड़कने लगा है ।
लिख तो पन्द्रह दी हैं , खाऊँ कितनी ?
इतनी खाते तो डर लग रहा है । कहीं फौरन ही न मर जाऊं ,जो कोई बचा भी न सके । नहीं... कुछ नहीं होगा । डाक्टर लोग पेट साफ़ करके बचा लेते हैं । पर बहुत देर न होगई हो तो !
बहुत देर काहे को होगी ?साढ़े आठ पर तो ये आ ही जाते हैं । न सही साढे आठ ,आठ पैंतीस सही ,चालीस सही ।
क्या बजा है ?आठ पाँच ।अभी नहीं ,आठ पन्द्रह पर ।अरे आँसू की बूँदें गिलास में गिर रही हैं ।मुझे रोना नहीं चाहिये ।
पर मन बहुत कच्चा हो रहा है ,भीतर से हृदय उमड़ा आ रहा है ।इच्छा हो रही है खूब रोऊँ ,रोती चली जाऊं ।
ये सब बेवकूफ़ी है ।मैं तो बच जाऊँगी ।ये बचा लेंगे ।ऐसे कहीं कोई किसी को मरने देता है ...!
'ये' पछतायेंगे क्या ?कहेंगे -माफ़ कर दो गीता ,मैंने अन्याय किया है ।
जब सास जी इनके कान भरतीं और ये बोलते-बोलते ताव खाते तो , मैं भी कहाँ तक सुनती ! चुभते हुये जवाब देती ।।तब उत्तर तो इनके पास होता नहीं था ,वह हाथ के ज़ोर पर चुप करना चाहते ।पहले तो सोचती रही कि बाद में मनायेंगे -मुझे माफ़ करो गीता ।पर वह कभी नहीं हुआ ।
मार क्यों खाऊं ? सोच कर एक बार मैंने इनका उठा हुआ हाथ पकड़ लिया ,और सीधे आँखों में देखती रही । तब से इनकी हिम्मत नहीं पड़ती थी इनकी कि मेरे ऊपर ...अरे क्या बज गया ?आठ बज कर बारह मिनट ।अभी नहीं, थोड़ी देर बाद ।
क्या सोच रही थी... क्रम नहीं जुड़ पा रहा ।मन उद्विग्न है ।...पता नहीं ये ऐसे क्यों हैं ?जानते हैं अम्माँ बेकार लगाती -बुझाती हैं ,फिर भी उन्हीं का समर्थन करते हैं ।
पर अब तो मैं भी जवाब देने लगी हूँ ।...न बोलूँ तो पागल हो जाऊँ ।
कभी तो ऐसा लगता है ,कि अपने पर कोई बस नहीं रहेगा ।सब कुछ फेंकना,तोड़ना-फोड़ना शुरू कर दूँगी । इच्छा होती है भाग जाऊँ यहाँ से ।कहीं भी चली जाऊं ,यहाँ नहीं रहूँ ।
कभी-कभी कमरा बंद कर बैठ जाती ।सुबह से शाम तक कोई कुछ कहने नहीं आता ।सास जी द्वारा उकसाये गये ससुरजी दरवाज़ पर आते आवाज़ देते ,'बहू,दरवाज़ा खोलो ।बहू मेरी इज्ज़त का खयाल करो ।'
और उनके स्वर के आगे मेरी ज़िद टूट जाती ।
अब क्या बज गया ?सवा आठ कबके बज चुके ,समय हो गया ।ज़रा और रुक जाऊँ ।कहीँ ये देर में आये तो ?और दो मिनट बाद सही !
इनके मन की करुणा जगाने को कितना-कितना रोई हूँ ..पर अब मैं इनके सामने बिल्कुल रोना नहीं चाहती ।कितनी राते मैंने अनसोई गुज़ारी हैं ,किसी को क्या मालूम !
और उस दिन क्या हुआ था ? ज्वर के कारण मेरी देह तप रही थी ।मैं ओढे हुये चुपचाप पड़ी थी ।
इनने आकर कहा ,'तुमने नही कहा ते न सही ।अम्माँ को ऐसा लगा होगा ।।माफी माँग लो छोटी तो नहीं हो जाओगी !'
'माफ़ी माँगने का मतलब है कि मैने यह सब कहा ?वह तो अपने आप ही अपने लिये कहती जाती हैं-हाँ मैं राक्षसी हूँ ,हत्यारी हूँ ,मैं तो डायन हूँ ।और नाम मेरा आ जाता है ।'
' वो उनकी पुरानी आदत है ।पर क्या करूँ ।घर की हर समय की किट-किट से परेशान हो गया हूँ ।अरे तुम्हीं झुक जाओ !'
पर मैंने माफी नहीं माँगी थी ।
बाहर फिर कुछ रहा-सुनी हुई थी ।ये तमतमाते हुये कमरे में आये थे ।
मुझे खींच कर ले जाना चाहते थे ।
पर हाथ पकड़ते ही इन्होंने ताप का अनुभव किया होगा ।वे ठिठके थे ।मेरी ओर अजीब-सी नज़र से देखा था ,जैसे दो अजनबी एक दूसरे को तौल रहे हों ।फिर बाहर निकल गये ।
'अम्माँ ,उसे तेज़ बुखार है ।'
गीता को सब याद आ रहा है -- मैने सोचा था तुम मेरे पास आओगे ।रात भर बेचैनी से करवटें बदली थीं मै ने ।।ज़रा-सी आहट पर आँखें खुल जाती थीं ।ज्वर के ताप से आँसू सूख गये थे ।.बार-बार सूखी हिचकियाँ गले को मरोड़े डालती थीं ।।पह तुम पानी को पूछने भी नहीं आये । तुम्हारी ऐंठ थी न ?
बाद मे पता लगा था तुम्हारी माँ ने तुम से कहा था ,' तुम थके हो आराम से बाहर सोओ ,उसे मैं देख लूँगी ।'
और आज्ञाकारी तुम बाहर सोने चले गये थे ।मैं तो जानती हूं तुम खर्राटे भर-भऱ कर निश्चिंत सो गये होगे ।।मेरा ध्यान ही कहाँ आया होगा तुम्हें ?
तुमने कहा था ,'अम्माँ क्या सोचेंगी !'
'तुमने यह नहीं सोचा ,माँ तो वह तुम्हारी थीं ,हरेक की कैसे हो सकती थीं ?वह तो हमेशा से सुनाती आई थीं -फलाँ जगह से इतना आ रहा था ,फ़ला ने इतना देने को कहा था ।शादी के बाद भी कुछ चिट्ठियाँ आ गई थीं ।मुझे नीचा दिखाने को उन्हें लेकर बैठ जातीं -हँसती जातीं और सुनाती जाती ,झींकती जाती थीं ।वह तो चाहती ही थीं -एक मरे तो दूसरी आ जाये और सामान और पैसा लेकर !
..और मैं कहाँ जाऊं?अब तो मायके में भी ठिकाना नहीं ।वहाँ का सुख-चैन नष्ट हो जायेगा ।छोटी बहन के ब्याह में बाधा पड़ेगी ।नहीं वहाँ मेरी ज़िन्दगी पार न हो सकेगी ।
अरे अब तो आठ पच्चीस हो गये जल्दी-जल्दी खा लूँ !
उसने पानी का गिलास उठाया ,एक गोली मुँह मे डाली -घुट्ट, दूसरी- घुट्ट, तीसरी घुट्ट !
यह कैसी आहट ?...कोई आ रहा है ।
हड़बड़ी में कई गोलियाँ मुँह में डालीं ...एक बार , दो बार , तीन बार !कतनी डालीं, पता नहीं डालती चली गई ।कितनी खा लीं पता नहीं ।
शीशी हाथ से छूट कर बिस्तर पर गिर गई ।पानी का गिलास रखते-रखते ज़मीन पर गिर पड़ा - टूट गया गिलास !
परचे में तो पंद्रह लिखी हैं खाईँ कितनी ?
उसने निढाल-सी हो सिर तकिये पर रख दिया । जैसे सब गोल-गोल घूम रहा है ।उसने आँखें बंद कर लीं ।
कैसा लग रहा है !मैं बचूंगी नहीं क्या ?
ये बचा लेंगे ।पर पता नहीं कितनी देर में आयें ।मुझे क्या हो रहा है !
कोई आ रहा है -आहट सुनाई दे रही है ।नहीं कोई नहीं । लौट गया जो आया था । अरे, मैं मर रही हूँ और उन्हें आज भी ...पाँच मिनट की फ़ुर्सत नहीं ।
कैसी सनसनाहट-सी लग रही है ..कहीं कोई आहट नहीं ...इधऱ उधर कहीं कुछ नहीं ...बस नींद का अँधेरा !
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उसे लगा चक्कर पर चक्कर आ रहे हैं ।सब कुछ घूम रहा है ।आँखें खोलना चाहती है पर खुलती नहीं ।कानो में कैसी-कैसी आवाज़ें आ रही हैं -साय़ँ-साय़ँ ,भाय़ँ-भाय़ँ ,विचित्र-विचित्र ध्वनियाँ ।
'क्या होश आ रहा है ?'
शायद !.पलकें हिल रही हैं जरा-जरा ।'
गीता याद करने की कोशिश करती है -कुछ याद नहीं आ रह ।कुछ समझ मे नहीं आ रहा ...।'पलकों पर तो जैसे मन-मन भर का बोझ रखा है ।भीगे पन का शीतल स्पर्श माथे और आँखों पर अनुभव हो रहा है ।।
'कल रात से ऐसे ही पड़ी है ।डाक्टर कहते हैं अब भी होश न आया तो बचने की उम्मीद विल्कुल नहीं है ।
अच्छा ..तो ये लोग बचाने आये हैं ।कमरे में चला-फिरी हो रही है ।'ये'भी जरूर होंगे !धीरे-धीरे कुछ याद आने लगा उसे ।
'बहू ,अब कैसा लग रहा है ?'-पहली बार सास का स्वाभाविक स्वर है ,गीता को विश्वास नहीं होता ।वहहल्के से आँखें खोलती है ।पैताने कौन है ?'ये'
कैसा उजाड़-सा चेहरा लिये खड़े हैं ।और ससुर जी भी हैं ।
'बहू ,लेटी रहो आराम से ,' ससुर कह रहे हैं ।
कप में पानी और चम्मच लेकर समीर आगे बढ़ा है -उसने धीरे से मुँह खोल दिया ।आज इन्हें शरम नहीं आ रही सबके सामने पानी पिलाते ?
ऊपर से कोई झुक आता है ,'गीता मुझे माफ़ कर दो ,तुम बहुत नाराज़ हो ?'
माथे पर पानी की बूँगें टपकीं ।
गीता को अन्दर-ही-अन्दर हँसी आ रही है ।आँखें पूरी तरह खुल नहीं पा रही हैं ।
मेरे आँसुओं पर दया आई थी किसी को ?तुम्हें कैसे माफ़ कर दूँ ?वह कोशिश कर के भी बोल नहीं पा रही है ।
सास-ससुर कमरे में नहीं हैं ।
समीर ने आगे बढ़ कर गीता के दोनो हाथ पकड़ लिये ,'मुझे माफ़ नहीं करोगी, गीता ?'
'बेकार की बातें !..उससे क्या होगा ..तुम क्या बदल जाओगे ?
बड़ी धीमी रुकी-रुकी आवाज़ है ।समीर निराश हो कर बाहर चला गया ।।बाद में किरन ने बताया -'भैया के गले में एक बूँद पानी भी कल रात से नहीं गया है ।अम्माँ से बहुत नारीज़ हो रहे थे ।बाबू भी अम्माँ को दोष दे रहे थे ।पड़ोस में तरह-तरह की बातें हो रही हैं ।सब कह रहे हैं बहू को ज़हर दे दिया ।' बाबू ने साफ़ कह दिया है -तुम उसे चैन से नहीं रहने दे सकतीं ,तो अलग कर दो ।'
कल सुबह अस्पताल से छुट्टी मिल जायगी ।

सब कुछ बड़ा अजीब लग रहा है।घर ले जाने की बात सुन रही है वह । अरे ,जी कैसा घबरा रहा है ।
सब लोग इतने सदय कैसे हो गये?
क्या इन लोगों ने अस्पताल लाकर अपनी मनमानी कर डाली ।वह चिल्ला उठी ,' मेरे इस बच्चे को भी मार डाला तुम लोगों ने ?'वह उठने की कोशिश कर रही है ।
'अरे उठो मत अभी।ड्रिप लगी हुई है ।' सास ने हाथ बढ़ाक पकड़ना चाहा ।गीता ने हाथ हटा दिया ,'फिर मरवा दिया ,मेरे बच्चे को ?
'अब नहीं जाऊँगी उस घर में !तुम सब हत्यारे हो !अरे मेरा बच्चा ...।'
ससुर जड़ -से होगये ।सास को देखे जा रहे हैं ।
'यह क्या कह रही है ?'
सास अपराधी -सी सफ़ाई दे रही हैं ,'नहीं अबकी से कुछ नहीं किया ... सब ठीक है ।'
ससुर उन पर नाराज़ हो रहे हैं । समीर आगे बढ़ा ,'गीता ,बच्चे को कुछ नहीं हुआ ।वह ठीक है ।'
'कभी नहीं जाऊँगी उस घर में !फिर बच्चा गिराने को मजबूर करोगे । तुम लोग मुझे जानवर समझते हो ...पापी ,मतलबी और कितना अत्याचार करोगे ?अब नहीं करने दूँगी ।'
सब स्तबध खड़े हैं ,सिर झुकाये ।
सास रो रही है ।ससुर बाहर निकल गये हैं ।
समीर आगे बढ़ा ,'अब कोई कुछ नहीं करेगा ।गलती मेरी थी ,जो सबको मनमानी करने दी ।मैं भी बहकावे में आ गया ।''
गीता ने मुँह फेर लिया ।
समीर कुछ देर खड़ा रहा फिर बाहर निकल गया
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शाम को समीर आया सूखा-सा चेहरा लिये ।पीछे-पीछे गीता की माँ और बहन आईं ।ख़ुद समीर लेने गया था उन लोगों को ।माँ को देख गीता की आँखों में चमक आ गई । तीन वर्ष से बिछुड़ी बेटी को इस हालत में देख माँ की हिचकी बँध गई ।समीर आँखें पोंछता खड़ा रहा ।

गीता ने कह दिया है मुझे अब नहीं जाना है उस नरक में ।वहाँ रहने से मौत अच्छी !
किरन नेबाहर खड़े, पिता की ओर देखा और भाभी की बात दुहरा दी ।
ससुर सीधे गीता के पास चले आये ,'बहू,अब माफ़ करो ।तुम्हारी सास भी बहुत पछताई हैं ।लोग जाने क्या-क्या कह रहे हैं ।तुम्हें अब कोई शिकायत हो तो मुझ से कहना ।'
बाबू जी ,अब उसकी जरूरत नहीं पड़ेगी ।वह नहीं रहना चाहती यहां तो न रहे ।जब से आई है एक बार भी मैके नहीं भेजा गया ।अब उसे चला जाने दीजिये ।लोगों के कहने की चिन्ता कहाँ तक की जायेगी ?जब तक उसकी इच्छा होगी और कुछ व्यवस्था कर पाऊँगा तो ले आऊँगा ।'
यह समीर की वाणी थी ।
फिर वह गीता की ओर घूम कर बोला ,'माँजी, अपनी बेटी से कह दीजिये उस पर अब कोई रोक नहीं लगायेगा ।'
','माँ ,अभी तो तुम्हारे साथ जाऊँगी ,बाकी सब फिर बाद मे देखा जयेगा ।'