गुरुवार, 29 जुलाई 2010

पति-भ्रम

होम करते हाथ जलें चाहे न जलें ,आँखों में धुएँ की चिरमिराहट और तन-बदन में लपटों की झार लगती ही है ।मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ ।
मेरी बहुत पक्की सहेली थी रितिका !प्राइमरी से बी.ए . तक साथ पढे।खूब पटती थी हम दोनों में -दाँत काटी रोटी थी ।एक का कोई राज दूसरी से छिपा नहीं था ।हर जगह साथ रहते थे ।लगता था एक के बिना, दूसरी अधूरी है। साथ-साथ रोये हँसे ,शरारतें कीं ,सहपाठियों से लडाई -झगडे और मेल-मिलाप भी एक साथ किये। स्कूल में हम दोनों दो शरीर एक जान समझी जाती थीं । कितनी इच्छा थी एक दूसरी को दुल्हन के रूप में निहारने की ,सजाने की ,नये-नये जीजा से चुहल करने की । पर मनचीती कहाँ हो पाती है !बी.ए. के बाद दोनों की शादियाँ भी दो दिनों के अन्तर से हुईं। इतना कम अंतर रहा कि एक दूसरी के विवाह में शामिल भी न हो सके ।उसका विवाह उसके ननिहाल से संपन्न हुआ था ,जो पास के शहर में ही था ।शादी के बाद भी पतियों की चिट्ठियाँ तक शेयर की थीं ।एक दूसरी से ससुराली नुस्खे सीखे थे आगे के प्रोग्राम बनाये थे ।मैंने तो हर तरह से उसे आदर-मान किया,हर तरह से ध्यान रखा पूरी खातिरदारी करने की कोशिश की । पर बदले में क्या मिला ? तीखी बातें और बेरुखी !और नौबत यहाँ तक आ गई कि आपस में बोल-चाल बन्द ,चिट्ठी-पत्री बन्द ,घरवालों से एक दूसरी के हाल-चाल पूछना भी बन्द ।मुझे अक्सर उसकी याद आती है ,उसे भी जरूर आती होगी ।पर बीच में जो खाई पडी है उसे पार करना न मेरे बस में रह गया है न उसके ।
होनी कुछ ऐसी हुई कि ,हम दोनो के विवाह भी छुट्टियो में तय हुये।वह अपनी ननिहाल गई हुई थी और वहीं पसन्द कर ली गई। और इधर मेरी शादी का दिन मुकर्रर हुआ ।उसके ससुरालवाले चट मँगनी पट ब्याह चाहते थे।नतीजतन दोंनो के फेरे दो दिनों के अंतर से पडने थे।
हाँ , बस दो दिनों के अन्तर ने हम लोगों को दूर कर दिया । एक दूसरी के विवाह में शामिल होने की तमन्ना मन की मन मे रह गई । नये क्रम में थोडा ए़डजस्ट होते ही दोनो को एक दूसरी की याद सताने लगी ।नये-नये अनुभव आपस में एक्सचेंज करने की आकाँक्षा जोर मारने लगी ।इधर मेरे पिता जी का ट्रान्सफर हो गया और मायके जाने पर भेंट होने की संभावना भी समाप्त हो गई ।दोनो के पति हमारी घनिष्ठता से परिचित हो गये थे।उनकी भी एक दूसरे से मिलने की इच्छा थी ,और हम दोनो तो उतावले बैठे थे कि कब मुलाकात हो ।एक दूसरी के पति को देखा तक नहीं था ।शादी के फोटोज का आदान-प्रदान हुआ था पर हमारे यहाँ तो दूल्हा-दुल्हन का ऐसा स्वाँग रचाया जाता है कि अस्लियत जानना नामुमकिन ।एक दूसरी से मिलने का मौका ही नहीं मिल रहा था। कभी मेरे घर की बाधायें, कभी उसकी मजबूरियाँ ! डेढ साल निकल गया तब कहीं जाकर साथ एक साथ होने का प्रोग्राम बना ।बना क्या ,तलवार फिर भी सिर पर लटक रही थी कि कब किसके पति के सामने कुछ और इमरजेन्सी आ जाय और मामला फिर टाँय-टाँय फिस्स ।इसी लिये कहीं दूर का नहीं,पास ही आगरे जाने का दो दिन का कार्यक्रम बनाया ।तय किया कि दोनो ट्रेन से टूण्डला पहुँचेंगे और वहाँ से टैक्सी लेकर सीधे आगरे ।
'दो कमरे, अच्छे से होटल में बुक करा लिये ,एक तेरे लिये एक अपने ,'मैंने उसे बताया ।
'लेकिन मेरेवाले तो इसी हफ्ते ,सिंगापूर जा रहे हैं ।पता नहीं शुक्रवार तक लौट पायें या नहीं ।'
'अरे मेरे तो ,मद्रास चले गये हैं पर मैने कह दिया है ,बृहस्पतिवार तक तुम्हें लौट आना है ।तू भी कह दे ।ये प्रोग्राम बिगडा तो शायद कभी न बन पाये ।'
'हाँ ,मैं भी कहूँगी ।पक्के तौर पर कहूँगी ।'
हम लोगों के साथ जो होता है एक साथ होता है ।शुरू से यही होता आया है ।इस बार हम दोनों तो मिल ही सकती हैं दोनों के पतियों के लिये कोशिश करें। एक के भी आ जायें तो आसानी रहेगी ।पूरा न सही आधा ही सही ,कुछ तो हाथ आयेगा ।मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूंगी ।'
'तू निशाखातिर रह ,मैं भी इतनी ही उतावली हूँ ।'
इनका मद्रास वाला काम दो दिन को और बढ गया ।मेरा कहना-सुनना सब बेकार गया ।
तीन दिन से फोन की लाइन नहीं मिल रही । रितिका से बात नहीं हो पा रही ।पर मुझे विश्वास है वह आयेगी जरूर ।
मैं तैयारी में लगी हूँ ।
मेरी ट्रेन आधे घन्टे पहले पहुँचती थी ,सो स्टेशन पर उसकी प्रतीक्षा कर रही थी।ट्रेन आई मैने उसे कंपार्टमेन्ट से झाँकते देखा उसने प्लेट फार्म पर डब्बे की तरफ बढते देख लिया था ।नीचे उतरते उसने हाथ की अटैची और बैग साइड में पटका और मुझसे लिपट गई । ।इतने में आवाज आई 'प्रेम-मिलन फिर कर लीजियेगा पहले अपना सामान सम्हालिये ' एक सूटेड-बूटेड आदमी उसकी अटैची किनारे मेरे सामान के पास रख रहा था ।
'आप नहीं देखते तो ,मेरी तो अटैची गई थी । धन्यवाद !'
वाह क्या बढिया मैनर्स हैं आपस में भी ,पति को धन्यवाद दे रही है ।पता नहीं सेन्स आफ ह्यूमर है इनका ,या औपचारिकता !खैर ,होगा ,मुझे क्या !
मैंने ध्यान से देखा -तो यह है इसका पति ।वह भी उस को ध्यान से देख रही थी -ये क्या हमेशा इसे ऐसे ही देखती है -मैने सोचा ।
'तो अब टैक्सी ले ली जाय ,या यहीं खडे रहेंगे हम लोग ?'उसके पति से पूछा मैंने ।
उत्तर रितिका ने दिया ,यहाँ रुकने से क्या फायदा ।आगरा हई कित्ती दूर !फ्रेश होकर इत्मीनान से नाश्ता करेंगे ।हम लोग बाहर निकल रही हैं आप आगे जाकर टैक्सी का इन्तजाम कर लीजिये ।'
उसने आश्चर्य से देखा ,बोला 'मैं?'
मैंने कहा ,'और नहीं तो क्या हम लोग जायेंगी ?आप यहाँ हैं तो आप ही को करना है ।'
वह अपना बैग लिये-लिये चला गया ।
'रितिका,बैग सामान में रखवा देती ,बेकार उठाये-उठाये घूमेंगे ?'
'तू ने क्यों नहीं कह दिया ?मेरा ध्यान ही नहीं गया ।'
'वो नहीं आ पाये! .जरूर कुछ मजबूरी होगी ,चलो एक का तो है ।हैंडसम हैं तेरे पति ।'
'तेरे भी !वैसे फोटो से कुछ समझ में नहीं आया ।उसके हिसाब से तो सामने होते भी पहचान नहीं पाती ।'
'हाँ ,मैं भी ।'
कुली से सामान उठवा कर हम दोनों बाहर निकलीं ।ब्याह के बाद पहली बार एक दूसरी को देखते जी नहीं भर रहा था ।
'हम दोनो पीछे की सीट पर बैठ गईं ',आप आगे ड्राइवर के पास ! माइंड तो नहीं करेंगे ?हमें बहुत बातें करनी हैं ।क्या करें आपका जोडी दार आ नहीं पाया ।'
'पर ,मैं आगरा नहीं जाऊँगा ।यहाँ का काम करके मुझे वापस जाना है ।'
'अरे वाह !' हम दोनों ने एक साथ कहा ,'
'क्या तमाशा है' रितिका ने कहा आप भी वैसे ही निकले। '
'काम फिर होता रहेगा ।कल शनिवार है ,परसों इतवार ।परसों सोमवार को भी छुट्टी पड रही है ।तब निपटा लीजियेगा अपना काम ।अभी तो हम लोगों के साथ रहना है ,'कहने में मैं पीछे क्यों रहती ।
'और क्या अकेली छोड देंगे यहाँ ?"
वह पसोपेश में पड गया ।रितिका ने उसका बैग उठाकर अपनी तरफ रखा और बोली ,'चलिये बैठिये ,इतनी मुश्किल से साथ रहने का मौका मिला और आप भाग रहे हैं ।कितने दिनों में मिली हैं हम दोनों ।आप साथ रहेंगे तो हम निश्चिंत हो कर साथ रह पायेंगी।सिर्फ दो ही दिन तो मिले हैं,कर लें मन की। कहाँ तो दो शरीर एक प्राण थीं ।'

‘देखिये मुझे चलने दीजिये।यों आप दोनों के बीच रहना ठीक भी नहीं।अच्छी तरह एक दूसरे को जानते भी नहीं।‘
‘जानने में क्या देर लगती है।बस जान लिया आपस में हमने।‘
'हम भागने नहीं देंगे बड़ी मुश्किल से तो मौका हाथ लगा है।‘
'अब बैठिये भी ।आगरा घूमे बिना हम आपको छोडनेवाले नहीं ।'
'ऐसा था तो फिर आप वहीं से साथ न आते ?'
'और क्या !'
दो कमरे बुक कराये थे ।एक मे मैंने अपना सामान रख लिया ।सबने चाय-वाय पी ।,उन लोगों का बैग अटैची भी इसी कमरे में आ गये थे ।
'आपका सामान साथवाले कमरे में हो जायेगा ।'
वह अपना बैग उठा कर चल दिया ।
'तू भी ले जा न अपना सामान ,'मैंने रितिका से कहा ।
'देख ,बेतुके मजाक छोड ।मैं इसी कमरे में रुकूँगी ।तू चाहे तो जा ।'
'अरे चिढती क्यों है ?चल हम दोनो साथ- साथ रहेंगे ।रात में खूब बातें होंगी ,पति के साथ तो हमेशा ही रहते हैं ।'
'और क्या ' उसने हामी भरी ।
आज का दिन ताज महल देखने में बिताया जाय ,हम दोनों ने तय किया ।टैक्सी कर लेते हैं ,खाना रास्ते में कहीं अच्छा सा होटल देख कर खा लेंगे ।
उसका पति !बडा अस्वाभाविक सा लगा ,कुछ बेवकूफ -सा भी !कभी मेरी शक्ल देखता ,कभी उसकी ,और झिझक -झिझक कर व्यवहार करता ।वह तो उससे भी फ्री ली बात नहीं कर रहा था ।कैसे मियाँ-बीवी हैं ।कभी मुझे उस पर तरस आता था ,कभी गुस्सा ।
मुझे लगा उसे भी हँसी आ रही है ।कैसा अजीब व्यवहार लग रहा था उन दोनों का ।मैं तो आग्रहपूर्वक खिला रही थी उसके पति को पर वह उससे मुझसे भी बढ कर आग्रह किये जारही थी ।जबर्दस्ती कर के परसे जा रही थी ।वह जितना मना करता हम दोनों आग्रहपूर्वक और खिलाने पर तुल जातीं ।उसके पति का व्यवहार ?मुझे बडा अटपटा लग रहा था ,बडी असुविधा सी हो रही थी ।पर अपनी प्रिय मित्र के पति की मान-मनुहार तो करनी ही थी।ताज्जुब ये हो रहा था कि वह खुद अपने पति को बढ-बढ कर पूछ रही थी ,हद्द हो गई । अरे ,जब मैं पूरी खातिर कर रही हूँ तो उसे अपनी सीमा में रहना चाहिये ।
मुझे कभी हँसी आती थी ,कभी विस्मय होता था -अच्छी खासी थी, शादी के बाद कैसी हो गई !
उलटा उसने मुझसे कहा ,'शादी के बाद ऐसी हो जायेगी तू ,मैं तो सोच भी नहीं सकती थी ।अरे जब मैं उन्हें इतने आग्रह से खिला रही हूँ ,तो तू काहे को और पीछे पडी जा रही है ?'
'तेरा ही अधिकार है ,मै पूछ भी नहीं सकती ?'
और हम दोनों ने जिद ही जिद में ढेर सा खाना उसको परस दिया ।वह ना-ना करता रहा पर ,रितिका के मुँह से एक बार भी नहीं फूटा कि अब उसे मत परस ।थोडा सा बचा था ,उसे हम दोनों ने खा लिया ।
एक बार होता तो भी ठीक है चलो ,पर हर बार बही सब !चाहे.उसकी प्लेट मे जूठा बच कर फिंक जाय और हम दोनों भूखे रह जायँ ,पर वह उसे भर -भर कर परोसती जायेगी ।।इतनी भी क्या फारमेलिटी !मैने कभी रितिका को उसका सामान निकाल कर देते नहीं देखा ।उसकी अटैची में क्या-क्या है रितिका को शायद पता भी नहीं होगा ।अपने आप अपनी सारी चीजें धरता-उठाता है ।और अजीब बात रितिका कभी उससे कुछ लाने को नहीं कहती ,खुद ले आती है ।एकाध बार उसने पेमेन्ट करने का उपक्रम किया, तो मैं आपत्ति करूँ ,इसके पहले ही रितिका ने उसे मना करते हुये खुद पेमेंट कर दिया ।कैसी हो गई है, सारे पैसे अपने चार्ज में रखती है।उसे गिन गिन कर देती होगी।
बहुत परेशान होगई तो दूसरी शाम मेरे मुँह से निकल गया ,तुम दोनो में ताल मेल तो अच्छा है न?'
'मैं तुझे कैसे समझाऊँ?मुझे तो तुम दोनों के बारे में लगता है।इनके साथ तू इन्टीमेट नहीं हो पाई ?
'तेरा खयाल है शादी के बाद मैं बिलकुल बेशरमी लाद लूँ ?'
इतने में वह आ गया हमलोग दूसरी बात करने लगीं।मुझे क्या करना मैंने सोचा ।पर वह तो मेरी पक्की दोस्त है ,खुल कर बात तो कर ही सकती हूँ ।
उसके साथ तुझे देख कर लगता है जैसे किराये का पति ले आई हो ।'
'मैं क्यों किराये का लाऊँगी ,मेरा अपना पति है ।तू क्या मँगनी का ले आई है।'
'मुझे ऐसा मज़ाक बिल्कुल पसंद नहीं।मैं तो तेरी वजह से झेले जा सही हूँ ।'
'झेल तू रही है कि मैं?ऐसा पेटू बना रखा है उसे ,फिर भी खिलाने पर तुली रहती है ।
'मैं कि तू ?मैं सोचती हूँ ये खिलारही है तो मैं क्यों पीछे रहूँ मैंरी तरफ़ से और खालें ,सारा खा डालें ?'
मुझे क्या करना । तू खुद ध्यान रख अपने पति का ।'
अपने का ध्यान मैं रख लूंगी तू,यहाँ तो तेरा है तू सँभाल ,मैं तो हैरान हो रही हूँ देख देख कर ।'
मेरा काहे को होता ?तू लाई है अपने साथ,तोहमत मत लगा।'
'झूठी कहीं की । उसका बैग रख कर तूने खींच कर बैठाल लिया ।
मैं तो तेरा समझ कर खातिर कर रही थी।चाहे जैसा हो है तो तेरा पति ।'
'ट्रेन से देखा था मैं ने ,बराबर से साथ खड़ा किये थी ,जैसे अपना खसम हो ।'
मेरा ध्यान तो तुझ पर लगा था ,बराबर में कौन खड़ा है मुझे क्या पता ।तू ही तो खींच कर जबर्दस्ती पकड़ लाई ।'
'चल हट,ऐसा लीचड ,पेटू मेरा पति ,क्यों होने लगा ?'
'तू ही उसे ठूँस-ठूस कर खिला रही थी ,मुझे तो देख देख कर कोफ्त हो रही थी ,कि इसमें तो शादी के बाद शरम -हया कुछ बची ही नहीं ।'
'मैं तो तेरा पति समझ कर हर तरह से खातिर कर रही थी ।चाहे जैसा हो, है तो तेरा पति -.यही सोचा मैने ।'
'बस बस ,जुबान सम्हाल कर बोल ।'
'तू जुबान सम्हाल अपनी ।ऐसे आदमी को मेरा पति कैसे समझा तूने ?'
'बस खबरदार !।तेरा सामान वह सहेज रहा था ,जैसे तेरा अपना पति हो और इल्जाम मुझ पर ।'
'ट्रेन से देखा था मैंने ,बराबर से साथ खडा किये थी जैसे तेरा खसम हो ।'
हम दोनो में तू-तू मैं-मैं होने लगी 1एक दूसरी को कहनी अनकहनी सब कह डालीं ।अभी यह प्रकरण चल ही रहा था ,कि वह आदमी आता दिखाई दिया -हाथ में एक पैकेट पकडे था ,ऊपर झलकती चिकनाई से लग रहा था समोसे,कचौरी कुछ ले कर आया है ।
मैंने झपट कर पूछा ,'आप कौन हैं ?'
'मैं ,मैं ।मैं तो ..'
हम दोनों तुली खड़ी थीं वह कुछ घबरा गया।
उसकी बात पूरी होने से पहले ही रितिका डपट पडी ,'आप हमारे साथ क्यों चले आये ?अपने रास्ते नहीं जा सकते थे ?'
वह सकपका गया ,'मैं कोई अपने मन से तो आया नहीं ।आप दोनों ने इतना आग्रह किया ..'
'पर आप बता तो सकते थे ..।'
'क्या बताता ?आपने कुछ पूछा भी?मैं समझा आप दोनों अकेली हैं ,इस शहर में...'
'बस,बस बहुत हो गया ।उठाइये सामान और अपना रास्ता पकडिये ।'
' ये समोसे लाया था आप लोगों के लिये ।'
'नहीं चाहियें हमे आपके समोसे न जान न पहचान !'
वह चकराया-सा खडा था,' आप लोगों को मैं बिल्कुल समझ नहीं पाया।
' समझने की जरूरत भी नहीं ,रास्ता पकडिये अपना ।'
'अजीब महिलाये हैं, ' बुदबुदाते हुये उसने अपना बैग उठाया ,एक विचित्र दृष्टि हम दोनो पर डाली और चल दिया ।
एक दूसरी को कुपित दृष्टि से देखते हम लोगों ने भी अपना-अपना रास्ता पकडा ।
******
मैने यह बात किसी को नहीं बतायी ।उसने भी नहीं बताई होगी मुझे पूरा विश्वास है ।कोई बताये भी तो किस मुँह से ?पर इसमे मेरी क्या गलती जो वह मुझसे कुपित है ? दो साल बीत गये हैं ।अब उसके पति का पत्र मेरे पति के पास आया है ,दोनो विस्मित हैं कि हम लोगों को हो क्या गया है जो चिट्ठी न पत्री .एक दूसरी की चर्चा भी नहीं ।वे लोग इसी शहर में एक विवाह में आ रहे हैं ।
हम चारों मिलेंगे जरूर ।देखो, आगे क्या होता है !

*

बुधवार, 21 जुलाई 2010

क़ीमत

रोने की धीमी-धीमी आवाज़ अब भी उसे सुनाई दे रही है ।
'क्या सोच रही हो ,डार्लिंग ?ऐसी सोई-सोई निगाहें जैसे तुम किसी दूसरी दुनिया में होओ ।'
उसका मुँह अपनी ओग घुमाकर आदमी ने उसे और निकट खींच लिया।तंबाकू और शराब की भभक से मोतिया को उबकाई आने लगी ।
रात काफ़ी बात चुकी थी । एक बजा होगा उसने सोचा ,इन आदमियों को नींद नहीं आती ? फिर स्वयं को समझाया उसने -पैसा दिया है .उसकी कीमत तो वसूल करेगा ही ।उसके दबाव से छुटकारा पाने के लिये उसने पूछा,'पानी लेंगे ..?'
'पानी ?' कीचड़ से भरी आँखें मिचमिचा कर भरभराती आवाज़ में वह बोला ,'हम पानी नहीं पीते डार्लिंग ,हमारी प्यास तो उससे बुझती है... ,' उसने बोतल की ओर इशारा किया ।
..'और तुम्हारे शबाब से ..।'अच्छा चलो एक पेग और पिला दो ।'
वह कपड़े सम्हाल कर उठी ।
और शराब .और नशा ,और वहशीपन ! होश में रहते हुये भी कौन सी कसर छोड़ देते हैं जो शराब पी-पी कर और दरिन्दे बन जाते हैं ।
गिलास पकड़ाते-पकड़ाते उसे लगा बच्चे के रोने की आवाज़ और धीमी हो गई है ।
कहाँ तक रोयेगा ! थक गया होगा ,रोते-रोते गला सूख रहा होगा ।पाँच महीने का कमज़ोर सा बीमार बच्चा ,नौ बजे से अकेला पड़ा है ।मन रो उठा मोतिया का ।
रोने की आवाज़ बार-बार रुक जाती थी, फिर धीमे-धीमे सुनाई देने लगती थी ।यह आदमी क्या बहरा है ?इसे कुछ सुनाई नहीं देता !पर इसका ध्यान जायेगा ही क्यों ?बच्चा दूसरे कमरे में है ,दरवाज़ा बंद है ।रोने की आवाज़ भी इतनी धीमी कि पूरा ध्यान दिये बिना पता ही न चले ।
इसके बच्चे होंगे या ?..होंगे घर पर बीवी बच्चे ,यहाँ हम जैसी ...।
वह धीमी आवाज़ मोतिया का कलेजा चीरे डाल रही थी ।
बच्चा तो मेरा है .मुझे तो सुनाई देगा ही ।और कौन सुनेगा ?जैसे ही आवाज़ रुकती है उसका सारा ध्यान उधर ही केन्द्रित हो जाता है ।।उसे लगा मेरे मन का भ्रम तो नहीं है ,बच्चा रो रहा हो और मुझे लग रहा हो चुप हो गया ? थक कर सो गया ।..नही । सोयेगा कैसे ?भूखा जो है ।आठ बजे दूध पिलाया था ।।जब से बीमार पड़ा है ठीक से पीता ही कहाँ है !जरा-सा पिया और मुँह झटक लिया ।और अब तो रात का डेढ बजने आया ।भीगा होगा ,हो सकता है गंदा भी पड़ा हो । गला सूख गया होगा ! कोई कम रोया है !
ठंड में पड़ा होगा भीगा-भागा ।कहाँ तक रोयेगा ?आज वैसे भी गले से आवाज़ नहीं निकल रही है ।
उसकी आँखों में आँसू आ गये ।
'ये भरी-भरी आँखें ! क्या खूबसूरती है !बस आँखों में ही सम्हाले रखना , ढुलक न जायें कहीं ।वाह ,क्या अदा है ,मेरा जान !इसी पर तो मरते हैं हम ।'
उसने अपनी ओर फिर खींच लिया ।मोतिया ने मुख घुमा कर आँसू पोंछ लिये ।
'रोओ,मत ।आई हेट टियर्ज।तुम्हारी वजह से मैंने पच्चास रुपये ज़्यादा दिये हैं ।बिल्कुल नई-नई आई हो न अभी । हाँ लगती भी हो एकदम नई ।नहीं तो सौ रुपये कुछ कम नहीं थे ।..और मेरी जान ,हमारे साथ हो ,मौज करो ।ये रोना क्यों आ रहा है ?'
'आपका प्यार देख कर घरावालों की बेइन्साफ़ी याद आ गई साहब !'
खुश होकर वह और उत्तेजित हो उठा ,मोटी-मोटी उँगलियों का दबाव असहनीय हो उठा ।पर सवा सौ रुपये बहुत होते हैं ।
पच्चीस तो होटलवाला रखेगा ।बच्चे की दवा ,उसका अपना पेट ,जिसे भरे बिना बच्चा भूखा रहेगा ।और खोली का तीन महीने का किराया ,जिसे वसूलने मालिक का आदमी हर चौथे-पाँचवें दिन आ बैठता है ।उसकी आँखें और बातें डर पैदा करती हैं ।एक महीने का किराया तो दे ही देगी ।फिर एक महीने तो पीछा छोड़ेगा ।और कहीं खोली भी कहाँ मिलेगी रहने के लिये ?
भाई को लिखा था ले जाय आकर ।पर ढाई महीना हो गया इन्तज़ार करते-करते , चिट्ठी तक नहीं आई ।पता नहीं वहीं है या कहीं और चला गया ।।ससुराल में बूढ़ी सास के अलावा जेठ हैं पर उनने कभी मतलब नहीं रखा । यहीं रहना है मोतिया को तो ।कोई काम ढूँढ लेगी । शुरू-शुरू में चार छः दिन पास-पड़ोसियों ने पूछा। पर वे भी कितना करते ?सबके अपने-अपने रोने ।खोली के बाहर नये-नये चेहरे दिखाई देने लगे हैं । उसे देख कर मुस्कराते हैं, गाते हैं । किससे कहे मोतिया ? बच्चे को ले कर चुपचाप पड़ी रहती है ।
'हमें खुशी चाहिये,पैसे दिये हैं मुँह लटकाने के लिये नहीं ।'
वह मुस्करा दी ।
शराब का भभका जैसे सिर में चढा जा रहा है ।वह मुँह घुमाती है पर मोटा-सा हाथ उसका मुँह अपनी ओर घुमा लेता है ।
साँस लेना मुश्किल हो रहा है ।दम घुटा जा रहा है वह अपना सिर एक ओर करने की कोशिश करती है ।
'दूर-दूर क्यों भागती हो मेरी जान ,बस यों लेटी रहो ।
होठों पर थूक लगा है ,गाल चिपचिपा रहे हैं ।बाँह उठा कर वह पोंछ लेती है । ठीक से साँस भी नहीं लेने देता।
लगता है सो गया है ।।उसने अलग होने की चेष्टा की तो और जकड़ लिया ।
रोने की धीमी आवाज़ रुक-रुक कर आ रही है ।
क्या बात है डार्लिंग ?'
'कुछ नहीं '
'फिर इतनी ठंडी क्यों हो ? एक पेग ले लो सब दुरुस्त हो जायेगा ।मौज करो मेरे खर्चे पर ।'
वह उसके मुँह से लगाना चाहता है ।मोतिया ने मुँह फेर लिया ,'हम नहीं पीते साहब ।कभी नहीं पी ।आदत ही नहीं है '
मोतिया का पेट भूख के मारे ऐंठ रहा है ।

'तुम्हारा आदमी तो पीता होगा ?
''उसकी बात मत करिये , साहब ।'
उसकी बात ! वह होता तो यह नौबत क्यों आती ।कैसे चाव से लाया था इस शहर में ।ढाई साल ही तो हुये थे ब्याह को ।क्या मालूम था दंगे में गोली उसी को लगेगी !उसे तो पता भी नहीं था कपड़े लेकर कहाँ-कहाँ फेरी लगाने जाता है ।मंदिर और मस्जिद के बीच की जगह थी ।एक दम झगड़े की आवाज़ें आने लगीं । भगदड़ मच गई ,फटाफट दूकाने बंद होने लगीं ।ईंट-पत्थर ,छुरेबाज़ी ,मार-काट और फिर गोलयाँ चलने लगीं ।एक गोली आकर सिंभू -मोतिया के घरवाले , को लगी ।पड़ोस के बिन्देसरी ने बताया था -सिंभू उस मोहल्ले में अक्सर फेरी लगाने जाता है ।दो दिन तो कुछ पता नहीं चला ।और पता चला तो रोती-कलपती मोतिया तीन महीने के बच्चे को लेकर पहुँची ।हाथ आई चिरी-कटी लाश ,जो पहचानी भी नहीं जा रही थी ।
पर रोने पीटने से तो आदमी जिन्दा नहीं होता ।
'साहब ,हमें तो आपके लिये लग रहा है ।घर पर किसी ने खाली पेट पीने को मना नहीं किया ?बस ,बस ।अब खाली पेट नहीं।कुछ खाने को मँगाओ खाओ, तब ...।'
'तुम भी खाओगी ' वह खुश होकर बोला ।
खाली पेट तो बस रोना आयेगा ,फिर बच्चे का पेट भी तो भरना है ।
'हाँ हाँ ,आपका साथ फिर कौन देगा ?
'लो अभी मँगाता हूँ ।'
फ़ौरन बैरे को आर्डर दिया ,दो प्लेट बढिया खाना फ़ौरन ले कर आओ ।'
वाह खाना ।खाती है ,खिलाती भी है ।वह खुश हो रहा है ।
मोतिया उसके चेहरे को देखती है लाल-लाल आँखें ,चारों ओर कालिख !देख कर मन खराब हो गया ।
चलो थोड़ी देर और सही ।अब तो पेट भरा है ,कहाँ तक नहीं सोयेगा !
आज छुट्टी मिल जाय बस ! बच्चे को सम्हाल लेगी ।बस, कल उसकी दवा और दूध की बात है ।फिर तो कहीं काम ढूँढ लेगी ।
चौका-बर्तन ,कुटना-पिसना सब करेगी ।इस होटल में कभी नहीं आयेगी ।
होटलवाला तो कबसे बुला रहा था ,वही तैयार नहीं होती थी ।पर भूख और बच्चे की बीमारी ने लाचार कर दिया ।तब मजबूर होकर खुद आई ।बच्चे को हर कीमत पर ज़िन्दा रखना है ।
'चल, अकल तो आई तुझे ,' होटलवाले ने कहा था ।बच्चे को पास के स्टोर में सुलाने की व्यवस्था भी कर दी थी ।
'आ जाया कर मोती ।किसी को पता नहीं चलेगा ।आखिर को ज़िन्दा तो रहना है ।'
अचानक मोतिया को बड़ा सन्नाटा लगने लगा ।कान लगा कर सुना ।नहीं आवाज़ नहीं आ रही ।सो गया ?थक कर चुप हो गया ? शायद रोते-रोते गला बिल्कुल बैठ गया ?आवाज़ बिल्कुल नहीं सुनाई दे रही ।
ध्यान से सुनने की कोशिश करती है ।नहीं सिसकी भी नहीं ।बिल्कुल शान्ति !
थोड़ा-थोड़ा खिसक कर वह उठ कर खड़ी हो जाती है ।
कहीं चेत न जाय, नही तो फिर टूट पड़ेगा ।जानवर भी ऐसे नहीं होते ।गिद्ध है, गिद्ध !
आदमी ने करवट बदली ।मुँह खुल गया ।लार बह चली ।घिना कर मोतिया परे हट गई ।
स्थूल शरीर विकृत चेहरा ।घृणा हो आई उसे ।
भरभराती आवाज़ आई - 'कहाँ चलीं जान ?'
बड़ा जुलम किया है साहब !अंग-अंग चटका जा रहा है ।आप तो बड़े ..अब क्या कहें शरम आती है ..।'
' हूँ ।
आदमी पर सुस्ती छाई है ।'
'तुम बहुत अच्छी हो ।चलो आज छुट्टी तुम्हारी ।'फिर कब ? '
'अरे साहब ,आप जब कहें दौड़ कर आऊँगी ।'
फिर हिम्मत कर बोली ,'तो अब आराम कीजिये ।'
'हूँ।'
उसने रुपये उठाये और दरवाज़ा खोल कर भागी ।
भड़ से स्टोर का दरवाज़ा खोलती हुई भीतर घुसी ।
अंदर धीमी रोशनी में बिल्कुल शान्ति !
झुक कर जमीन पर बिछी चौतहा चादर टटोली ।सारे कपड़े भीगे हैं ।कितना ठंडा हो गया ।एक तो सर्दी ऊपर से भीगे कपड़े ।
उसने बच्चे को उठा कर पेट से लगा लिया ।
कहीं कोई हरकत नहीं !
हिलाय-डुलाया ।कुछ अंतर नहीं पड़ा ।उसने झट से उसे चादर पर रखा । सिर एक ओर लुढ़क गया ,हाथ-पाँव अकड़े हुये ,स्पंदनहीन ,निर्जीव !
ब्लाउज़ के बटन बंद नहीं ,कंधे का स्ट्रैप खुलकर नीचे लटक आई ब्रॉ, फूल कर उभऱ आये नीले-नीले निशान दिख रहे हैं ।ढीले से पेटीकोट में घुरसा साड़ी का एक कोना ,बाकी देहरी के बाहर घिसटती पड़ी हुई ।
रुपये हाथ से गिर कर बिखर गये ।वह आँखें फाड़े बच्चे की लाश को घूरे जा रही है !
**
-- प्रतिभा सक्सेना.

सोमवार, 12 जुलाई 2010

भूखा कहीं का -

*
किंडर-गार्टन से जो पढ़ाई शुरू हुई, तो साल-दर-साल गुज़रते गये और वह द्रौपदी के चीर सी लंबाती चली गई ।बी.ए.पास करते-करते मन पढ़ाई से भर गया ।उन्हीं दिनों समझा जाने लगा था ,जिसने बी.एड. कर लिया उसने बड़ा तीर मार लिया ।मैंने भी सोचा ,जिस काम में जीवन का एक युग से भी अधिक झोंक दिया ,वहाँ एक साल और सही ।सच तो यह है कि होस्टल में रह कर पढने का आकर्षण था ,जो मैंने बी.एड. ज्वाइन कर लिया ।
खींच-तान औऱ दौड़-भाग में साल बीता । इम्तहान देकर सोचा ,चलो अब पढाई का भूत सिर से उतरा ।मुक्ति का एहसास घर पहुँचने की उत्सुकता को चौगुना किये दे रहा था ।एक और अच्छी बात थी कि घर तक की यात्रा नें मुझे अकेले रह कर बोर नहीं होना था ,होस्टल की मेरी साथिन और उदीयमान लेखिका आरती मेरे साथ थी ।उसे तो मुझसे भी आगे जाना था ।
होस्टल से बोरिया -बिस्तर समेट कर हमने घर की राह पकड़ी ।बमुश्किल दो स्टेशन निकले होंगे कि ट्रेन रुक गई ।पहले इन्तज़ार होता रहा ,अब चली ,अब चली ,फिर लोग नीचे उतरने लगे ।और फिर वहीं चहल-कदमी करने लगे ।जितनी जल्दी घर पहुँचने की थी उतनी ही देर होती जा रही थी । चलते-फिरते लोग ख़बरें लाने लगे -'आगे लाइन टूटी है ' ,'एक्सीडेन्ट हो गया है ', 'आगे पटरियों पर डब्बे उलटे पड़े हैं ' ,'ट्रेन आगे नहीं बढ़ेगी ','अगले स्टेशन से फ़ोन आया है कि इस लाइन की ट्रेनें मत छोड़ो' वगैरह,वगैरह ।जितने मुँह उतनी बातें ।
'पता नहीं घर कब पहुँचेंगे ?'
'तू तो फिर भी पहुँच जायेगी ,अभी तो हम दो जनें हैं ,' आरती की चिन्ता थी ,'मुझे तो इतनी आगे अकेले जाना है ।बड़ी मुश्किल हो जायेगी ।'
हमारा डब्बा प्लेटफ़ार्म से थोड़ा आगे था ।लोग खाने-पीने का सामान खरीदने के लिये दौड़ लगा रहे थे - पता नहीं कितनी देर पड़े रहना पड़े !छोटा-सा स्टेशन !कुछ फलों के ठेले और एकाध चायवाले !
चलते-फिरते मुसाफ़िर ख़बर लाये कि कि वहाँ प्लेटफ़ार्म पर तो इसी के पीछे छीना-झपटी मची है ,वो तो ये कहो कि अभी सिर-फुटौव्वल की नौबत नहीं आई ।
'वो देखो उधऱ गाँव की तरफ़ से कोई केलों का टोकरा लिये चला आ रहा है ।।'
'बुला लो भाई ,बेचेगा ही तो ।हमीं खरीद लें ।'
कुछ लोग जाकर उसे घेर लाये । और डिब्बों के यात्री भी दौड़ पड़े ।
'नहीं भाई ,ये तो हमारे डब्बेवालों ने चुकता कर लिया है ।'
हमारे डिब्बे में धूम मच गई ।
'अरे भई, केलेवाले ,इधऱ !'
'ओये ,इधऱ को देख !'
'केला देना भाई ?'
दनादन केले खरीदे जा रहे थे ।केलों का पूरा -का -पूरा टोकरा हमारे डिब्बे में आ गया ।दाम दुगने हैं तो क्या हुआ ,पेट में तो पड़ेगा कुछ !
सबसे पैसे इकट्ठे हुये और एक-एक केला बाँट दिया गया सबको ।।एक यात्री एक लड़के को पकड़ लाया ।उसके झोले में बिस्कुटों के छोटे-छोटे पैकेट भरे थे ।
'बाहर तो लूट मची है ।सारी ट्रेन के लोग जुटे पड़े हैं ।इसे पकड़ नहीं लाता तो हमें कुछ नहीं मिलता ।'
'दो पैकेट इधर देना ।'
'ना भाई ना । एक व्यक्ति को एक पैकेट।आखिर सभी को चाहिये ।'
'अरे ,औरों को तो इतना भी नहीं मिल पायेगा ।'
'क्यों आरती ,तुम्हारी मौसी इसी स्टेशन पर तो आईं थीं ?
'हाँ ,पर अबकी बार मैंने मना कर दिया था ।आतीं तो कहतीं -छुट्टियों में कुछ दिन रुक जाओ । मैं तो पहले जाकर अपने घर रहूँगी ,फिर सोचूँगी कहीं और का ।'
ट्रेन में बड़ी गर्मी थी ।सब लोग उतरने लगे ।
' कम से कम चार घंटे लगेंगे !आगे का मलवा साफ़ होगा तब ट्रेन बढ़ेगी यहाँ से । '
' चलो आगे ,उधऱ दुकान के पास चलकर बैठते हैं ।उधऱ वेटिंग-रूम है ,' आरती से कहा मैंने ।
'सोच रही हूँ ,मौसी के घर हो आऊँ ।'
'और मैं अकेले रहूँगी यहाँ ?'
'तुमसे कितनी आगे मुझे अकेले जाना है ,कुछ पेट-पूजा का हिसाब भी तो चाहिये ।अच्छा तू भी चल न!'
'ना बाबा ,तू ही जा ।ये सामान भी तो देखना है ' मैंने कहा 'लेकिन आरती ज़रा रुक ।मैं जरा टायलेट तक जाऊँगी ।'
मैंने साबुन तौलिया निकाला और पर्स उसे पकड़ा दिया ,'सामान का ध्यान रखना ।'
आँखों पर पानी के छींटे डाल मैंने ज़रा अपनी गत सुधारी ।बाहर आई तो मेरा माथा ठनका ।थोड़ी दूर वह एक लड़के के साथ खड़ी बतिया रही थी ।इतनी-सी देर में यह लड़का इसे कहाँ से मिल गया ?
मैंने आवाज़ लगाई ,'अरी ओ, आरती !'
'हाँ ,' पास आती हुई वह बोली ,'इससे मिल -अजीत है ,मेरा मौसेरा भाई । इसे पता लग गया ये मोटर साइकिल ले कर आया है । अब मैं जा रही हूँ ।'
'कितनी देर में लौटेगी ?'
'फ़िकर मत कर .जल्दी आ जाऊँगी ।'
'ट्रेन तो चार घंटे पहले नहीं चलने की ' अजीत बोला ।
चलते-चलते आरती ने पर्स पकड़ाया ,' 'विधु ,तेरा सारा सामान मैंने कंड़ी में सम्हाल कर रख दिया है ।देखना !'
मैंने हुँकारा भरा ,'अच्छा !'
मैं अकेली रह गई स्टेशन पर ।मेज़ पर जहाँ मैंने केले और बिस्कुय का पैकेट रखा था एक लड़का बैठ गया था आ कर ।
बैठा रहने दो ,ये तो स्टेशन है !पर बैठा कैसे ठाठ से है -कोई समझे सामने रखा सामान इसी का है !लो चाय भी आ गई उसके लिये !
तौलया -साबुन लिये ही लिये मैं उधर चली आई ,और दूसरी कुर्सी पर बैठ गई कि हाथ बढ़ा कर केला-बिस्कुट उठा सकूँ ।
कितनी देर हो गई ,अभी तक चाय नहीं लाया ,जब कि मैंने पहले ही कह दिया था । मैने छोकरे को इशारे से बुलाया ,' क्यों ,मेरी चाय कहाँ है ?'
'लाया था ,पर आप यहाँ थीं नहीं, तो मैंने सोचा ठंडी हो जायगी सो इन्हें दे दी ।'
कुर्सी पर बैठे लड़के ने हाथ बढ़ा कर केला उठाया ।
मेरा केला !
मैंने ध्यान से उसकी ओर देखा अजीब आदमी है ।अब वह केला छील रहा था ।चूक गई तो भूखी रह जाऊँगी ।
' ,सुनिये ,केला मुझे खाना है ।'
वह चौंका ।अधछिला केला मुँह के पास ले जाते -ले जाते ले जाते रुक गया ।
अजीब तरह से मेरी ओर देख कर बोला ,'हाँ ,हाँ लीजिये ।आप खा लीजिये ।'
अधछिला केला उसने मेरी तरफ़ बढा दिया ।
झपट्टा-सा मार कर केला ले लिया मैंने । यह केला तो मैं खाऊँगी ही । मैं झटपट केला खाने लगी ।
' आज स्टेशन पर नाश्ते के लिये कुछ नहीं है ,' लड़का कह रहा था ।
अब कैसी सफ़ाई दे रहा है , खाने के लिये कुछ नहीं है तो इसका यह मतलब नहीं कि दूसरे का उठा कर खा जाओ - मैंने सोचा पर कहा कुछ नहीं ।
दूसरे हाथ से मैंने बिस्कुट का पैकेट अपनी ओर खिसका लिया ।इसका क्या ठिकाना ,इसी पर हाथ साफ़ करने लगे ।
बस ,मेरे सोचने भर की देर थी ,उसने बिस्कुट का पैकेट अपनी ओर खींचा ,खोला और दो बिस्कुट निकाल कर दूसरी ओर देखते हुये खाने लगा ।
हद हो गई ।शराफ़त जैसी तो कोई चीज़ इस दुनिया में बची ही नहीं ।
छोकरा चाय का प्याला रख गया था ।कहीं मेरा कप उठा कर पीने न लग जाय !मैंने झटपट चाय उठाई और सिप करके रख दी -अब जूठी चाय तो लेने से रहा ।
फिर हाथ बढ़ा कर मैंने बिस्कुट का पैकेट उठाया और बिस्कुट निकाल कर खाने लगी । पैकेट को सावधानी से हाथ में पकड़े रही - कहीं फिर न उड़ा ले !

उसकी आँखों में बड़ा अजीब-सा भाव आया- कुछ सनक गया-सा लगता है ,मैंने सोचा । अच्छे-खासे भले घर का लगता है ।पर किसका दिमाग़ कब चल जाये क्या ठिकाना !
' इधऱ बढ़ाइये, ' उसकी दृष्ट बिस्कुटों पर थी ।मैं थोड़ा डर गई थी ।कहीं कुछ कर न बैठे , ऐसे लोगों का क्या ठिकाना !मैंने चुपचाप पैकेट उसकी ओर बढ़ा दिया ।
उसने बचे हुये में से आधे बिस्कुट निकाल लिये और बाकी का पैकेट मेरी ओर बढ़ा कर मुस्कराया । मैंने हाथ बढ़ाकर से पैकेट ले लिया -कहीं ये भी गये तो मैं तो भूखी ही रह जाऊँगी !
बिस्कुट खा कर वह खड़ा हो गया ।मैं मन-ही मन भुनभुना रही थी ।मुँह से निकला ,'कैसा भूखा है!'
उसने शायद सुन लिया ।पलट कर कुछ क्षण बड़े ताज्जुब से मेरी ओर देखा और आगे बढ़ गया ।
ऊँह, सुन लिया तो सुन ले !कोई झूठ कहा मैंने !दूसरे का सामान उठा कर कोई खाने लगे तो और क्या कहा जायेगा ?
लगता तो पढ़ा-लिखा है ।गुंडा भी नहीं लगता ।आँखों में कोई अप्रीतकर भाव भी नहीं ।फिर ? होगा !ऊपर से क्या पता लगता है कोई कैसा है ?
कैसे-कैसे लोग होते हैं ?लगता है दिमाग़ में कुछ खलल है ।फिर तो घर के लोगों को अकेला नहीं छोड़ना चाहिये ।
छोड़ो ,मुझे भी क्या ?
दो-चार बिस्कुट ले लिये ।चलो , भूखा था ,खा गया !
मैंने अपना तौलिया -साबुन उठाया और आकर अपने सामान के पास बैठ गई ।
**
आरती अभी तक नहीं आई थी ।ढाई घंटा हो रहा था ।निश्चिन्त होकर बैठी होगी ।उसे क्या पता मैं किस मुसीबत में जा फँसी थी !बैठे-बैठे ऊँघ आने लगी मुझे ।
लो तीन घंटे हो गये ! आरती का कहीं पता नहीं ।अगर ट्रेन चल दे तो !
आराम से ठूँसे जा रही होगी !मैं यहाँ भूखी बैठी हूँ ।पर्स में से इलायची निकाल कर चबा रही थी कि वह आती दिखाई दी ।
आकर बोली ,' मैं तो डट कर खा आई हूं । तूने खाया कुछ?
'हाँ खाया तो है ,पर बताऊँगी पब ।'
'देख, मौसी ने तेरे लिये भी गरम-गरम पूड़ियाँ भेजी हैं ।और यह चाय-नाश्ता भी ।'
उसने पैकेट रखने के लिये कंडी का ढक्कन उठाया ,'अरे , तूने तो कुछ खाया नहीं विधू ? ये बिस्कुट,केला सब जस के तस रखे हैं ।'[
मैं चौंकी !
'मैंने तो निकाल कर मेज़ पर रखे थे ।'
'हाँ , तू टायलेट गई थी न तो मैंने उठा कर कंडी में धर दिये थे ।तुझे बताया तो था ।यहाँ सब भूखे हैं ,कोई उटा लेता तो ?तभी न जाते-जाते कह गई थी ।'
' हाय राम !'
मैं सर पकड़ कर बैठ गई । ..तो वह चीज़ें उसी की थीं !
मेरे सिर में घुमनी-सी आ रही थी ।
'क्या हुआ विधु ?क्या हुआ तुझे ?'
'कुछ नहीं ।'
'तबीयत तो ठीक हैं न तेरी ? गर्म-गर्म पूड़ी खा ले !'
'मुझे नहीं खानी ।'

'अरे क्या बात है ?अभी तू कुछ बताने को कह रही थी ?'
'नहीं, अब कुछ नहीं रहा बताने को ।'
'कैसी अजीब लड़की है ।'
ट्रेन अभी तक रुकी खड़ी है ।
मैंने चारों ओर सिर घुमा कर देखा ।वह कहीं दखाई नहीं दिया ।
'आरती , अब झटपट चल कर ट्रेन में बैठें।'
'हाँ अब तो चलनेवाली होगी ,अजित ने पता कर लिया था ।'
अपना सामान उठा कर मैं एकदम ट्रेन की तरफ़ चल दी ।
'अरे ,अरे ,आराम से चलेंगे ।अभी दस-पन्द्रह मिनट हैं ..' ,वह चिल्लाती रह गई।
सामने से आते हुये एक व्यक्ति से टकराते-टकराते बची ।
'इत्मीनान से चलिये,अभी नहीं छूटी जा रही ट्रेन ।'
मैंने डिब्बे में अपनी सीट पर आकर ही दम लिया ।
आरती को बस खाने की पड़ी है ।सामान ठिकाने से रख कर बोली ,'अब तू भी खा ले न विधू ,बेकार अभी से गर्मी में यहाँ चली आई ।'
'कहा न ,मुझे भूख नहीं है ।'
'अरे क्या हो गया तुझे ?अकेले रहना पड़ा ,गुस्सा आ रहा है मुझ पर ?'
मैं प्लेटफ़ार्म के दूसरी तरफ़ की खिड़की से मुँह बाहर निकाले बैठी हूँ ।मन-ही-मन मना रही हूं - हे भगवान वह इस ट्रेन में न हो !अगर इस ट्रेन में हो, तो भी इस डिब्बे में न आये !फिर ध्यान आया केले और बिस्कुट तो इसी डिब्बे में .....अब अब ..?
आरती सामान के साथ खटर-पटर कर रही थी ।उसे तो बस पूड़ी की पड़ी है ।खुद का पेट भरा है तो अब मेरे पीछे क्यों पड़ी है ?बार-बार खाने को कहे जा रही है ।
'मैं नहीं खाऊँगी ।'
'देख नाराज़ मत हो बहना ,किसी के घर जाकर फिर अपना बस तो रहता नहीं ।'
'नहीं आरती ,मेरा सिर दर्द कर रहा है ।मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा ।'
ट्रेन चलनेवाली थी ।
वह साइड की सीट पर आकर बैठ गया है ।
बाकी का सारा सफ़र मैं साड़ी के पल्ले से मुँह लपेटे खिड़की से टिकी रही ।आरती से कह दिया ,'स्टेशन आने से पहले जगाना नत मुझे ।'
'अच्छा , सो जा तू ।'
हुँह ।ऐसे में नींद किसे आती है ?इतनी गर्मी और ऊपर से मुँह पर साड़ी का लपेटा !
**
घऱ आकर चैन की साँस ली ।शाम को नहा-धो कर बड़ा हल्का-फुल्का लग रहा था ।
भाभी ने कहा ,'लाओ ,आज मैं तुम्हें तैयार कर दूँ ।'
'क्यों?'
'कुछ मेहमान आनेवाले हैं ।'
तैयार होकर हमलोग छत पर खड़े थे ।
'लो,वे लोग आ गये ,'भाभी नीचे देखती हुई बोलीं ।
'कौन लोग ?'
'तुम्हारे दिखवैया ,और कौन ?लड़का और उसकी बहन दोनों आ रहे हैं ,'कहती-कहती वे फटाफट नीचे उतर गईं ।मैंने ज़रा-सा उचक कर देखा ।
अरे ,ये तो वही है -ट्रेनवाला !
मेरे तो होश गुम !
अब क्या होगा ?हाय राम !
इस घर से तो कहीं भाग कर भी नहीं जाया जा सकता ।रास्ता ड्राइँगरूम से होकर है ।और वहाँ ?.नहीं.नहीं उसके सामने बिल्कुल नहीं जाना है ।पता नहीं सबके सामने क्या कह दे !कहीं बदला निकालने को मुझे ही 'भूखी' कह दिया तो ?
मेरा सिर घूमने लगा ।
'चलो न ,अब यहाँ क्या कर रही हो, 'भाभी बुलाने आ पहुँचीं ।
' भाभी ,मेरी तो तबीयत खराब हो रही है ।'
'बेकार नर्वस हुई जा रही हो ।वैसे तो इतनी बोल्ड बनती हो !'
'पहले ज़रा मेरी बात सुन लो ।'
'अब कहना-सुनना बाद में पहले नीचे चलो ।'
'एक बार सुन लो भाभी ,साधारण बात नहीं है यह ।'
'मालूम है ,साधारण बात नहीं है ।...अरे चलो भी ।इतनी जल्दी भूल गईं ?मेरी तो आफ़त कर डाली थी तुमने ।अब भी पूछती हो -सिर झुकाये क्यों बैठी रहीं ?तुमने क्यों नहीं कुछ पूछा ?'
'भाभी ,पूरी बात सुन लो पहले ।'
'मेरे पास फ़ालतू समय नहीं है विधु ,चलो जल्दी ।'
उन्होंने आगे बढ़ कर मेरा हाथ पकड़ लिया ।
'तुम मुझे बचा लो भाभी !तुम समझ नहीं रही हो ।बात यह है ...'मैं गिड़गिड़ा रही थी ।
'अरे काहे को घबराई जा रही हो ?उसकी बहन तो वही कल्पा है ,तुमसे एक साल सीनियर ।घर तो हमलोगों का जाना-परखा है ।लड़का तुम समझ लो ।'
'मुझे कुछ नहीं पता था सच्ची भाभी ।मैंने किसी का कुछ नहीं खाया ।अच्छा तुम्हीं बताओ ,मेरी नियत खराब है ?'
'कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो ।अरे ,तुम्हारा तो चेहरा फक् पड़ा है ।'
'मुझे चक्कर पर चक्कर आ रहे हैं ।'
अच्छा चलो अपने कमरे में चलो ।'
मुझे कमरे में छोड़कर फिर वे पता नही क्या करने चली गईं !
अपने ही कमरे में अपराधी-सी बैठी हूँ मैं ।
पिता जी के पास आते शब्द कानों में पड़ रहे हैं - 'हाँ, आज ही तो आई है एक्ज़ाम देकर ।रात-रात जाग कर पढ़ाई की गर्मी ।ऊपर से ट्रेन बीच में पाँच घंटे रुकी खड़ी रही ।एक्सीडेन्ट देखा होगा उसने !रास्ते में कुछ खा भी नहीं पाई बिचारी । तबीयत तो ख़राब होगी ही ।'
आवाज़ पास आती जारही है ,कुछ और आवाज़ें भी ।
उन लोगों को यहीं मेरे कमरे में लाया जा रहा है ।
मेरे सिर में ठनाटन हथौड़े जैसे बज रहे हैं ।मालूम नहीं क्या हो रहा है यह सब ।
**
मौज में आने पर अब भी, कभी-कभी ये मुझसे पूछते हैं -' हाँ तो प्रथम भेंट के शुभ-अवसर पर आपने क्या उपाधि प्रदान की थी हमें ?'
शुरू-शरू में तो ऐसी झेंप लगती थी कि कहाँ भाग कर मुँह छिपा लूं अपना !
पर अब .. ख़ैर ..जाने दीजिये क्या फ़ायदा वह सब बताने से !
*

संशय

*
घर में घुसते ही सुदीप ने पूछा -
' क्यों रमा वह कौन था ,जो बस में तुम्हें नमस्ते कर रहा था ?'
' मुझे नहीं पता ।'
' उसने तुम्हें नमस्ते की ।ऐसे कोई किसी को नमस्ते करता है ?'
रमा को हँसी आ गई -' पता नहीं कौन है ।मुझे खुद ताज्जुब होता है ।'
' हाँ, पिछली बार भी की थी ,मैं तो वहीं खड़ा-खड़ा देख रहा था ।'
' हाँ, मुझे मालूम है ।तुम मेरे साथ ही थे ।'
' मुझे तो कभी नहीं करता ।'
' अच्छा ! हो सकता है ।मैंने ध्यान नहीं दिया ।'
कुछ दिन बाद फिर वही ।वह बस में मिला उसने रमा को देखा फ़ौरम नमस्ते की ।
' आज फिर उसने तुम्हें नमस्ते की ?'
' हाँ ।'
' और तुमने जवाब दिया ?'
' कोई नमस्ते करे,तो जवाब कैसे न दूँ ?'
' हुँह,।न जान न पहचान । फिर नमस्ते का क्या मतलब ?'
' जब कोई नमस्ते कर रहा है तो जवाब में अपने सिर हिल जाता है ।आदत ही ऐसी पड़ी है ।न करूँ तो बड़ा अजीब लगेगा ।'
' अजीब क्या ?और जब वह अकेली तुम्हें नमस्ते करता है ,मैं उल्लू सा खड़ा देखता रहता हूँ ,तब तुम्हें अजीब नहीं लगता ?'
चौथे-पाँचवें दन फिर वही ।
बस में सवार होते ही देखा वह बैठा है ।
एकदम रमा को हाथ जोड़े ।रमा के पीछे सुदीप आगे-पीछे हो रहा है ,फिर रमा के कंधे पर हाथ रख जताने की चेष्टा की कि वह भी उपस्थित है ।तब तक वह खिड़की से बाहर देखने लगा था ।
*
बस से उतरते ही सुदीप ने कहा- ' देखा ?'
सुधा ने धर-उधर देखा - ' क्या ?'
' आज फिर उसने नमस्ते की और सिर्फ़ तुम्हे । जब कि साथ में मैं भी था ।'
' अच्छा , की होगी ।तुम पीछे थे मैंने देखा नहीं ।'
' अच्छा क्या ?तुम भी तो खूब मुस्करा कर जवाब देती हो उसे। तभी तो हिम्मत बढ़ रही है उसकी ।
' कैसी बातें करते हो ।तुम तो पीछे थे ,तुमने कैसे देख लिया मैं मुस्करा रही हूँ ?'
' साइड से अन्दाज़ नहीं मिलता जैसे ।कैसे बन रही हो जैसे तुम्हें पता ही नहीं ।तुम्हें मज़ा आता है ।और मुझे वह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता ।'
'अच्छा-बुरा लगने का सवाल ही कहाँ ?न हम लोग उसे जानते हैं न उससे कोई मतलब है ।'
' कम से कम मैं तो नहीं जानता ।तुम्हारी तुम जानो ।और मतलब कैसे नहीं ?'
फिर उसने और जोड़ दिया - ' जानती नहीं तो उसकी हिम्मत कैसे बढती ?'
' हिम्मत से क्या मतलब तुम्हारा ?'
' किसी अनजान महिला को इस तरह नमस्ते करना !'
' हो सकता है वह मुझे जानता हो ,मुझे ध्यान न आ रहा हो ।'
' और सिर्फ़ तुम्हें ! हर बार .तुम्हारा ही ध्यान है उसे ?वह भी जब पति साथ में हो ?'
' उफ़्ओह ,तुम तो तिल का ताड़ बनाते हो ।
' तुम तो ऐसे कहोगी ही ।'
' बेकार बात मत करो !जानती होती तो छिपाने से मुझे क्या फ़ायदा ?जैसे और पचास लोगों को जानती हूँ ,उसे भी जानने से क्या फ़र्क पड़ता !'
' अचछा-अच्छा रहने दो ।अब इतनी भी सफ़ाई देने की क्या ज़रूरत है ?'
*
सुदीप कुछ खिंचा-खिंचा सा रहता है, और काफी गंभीर भी ।
कुछ दिन बाद सब सहज हो गया ।
पर उस दिन फिर -
सुदीप और रमा खरीदारी कर रहे थे ,कि सुदीप के कानों में रमा की आवाज़ पड़ी -' अरे, वह यहाँ है ।'
सुदीप भी उसकी ओर देखने लगा और उसने झट् से रमा की ओर हाथ जोड़ दिये -सिर्फ़ रमा को ।रमा ने सिर झुका कर प्रत्य्त्तुर दिया ।
सुदीप का चेहरा कठोर हो गया ।
*** 2
बस में जगह नहीं एक हाथ में बंडल पकड़े कोहनी में पर्स लटकाये ,दूसरे से ऊपर का रॉड थामे रमा बार-बार हिचकोले खा रही है ।
दोनो में से किसी ने देखा नहीं पाया कि उधर वह बैठा हुआ है ।
वह तुरंत अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ ,रमा से बोला ' आप यहाँ बैठ जाइये ।'
रमा ने एक क्षण सोचा नहीं बैठूँगी तो उसका अपमान होगा सबके सामने ।और ऐसे हिचकोले खाते लोगों से टकराते रहना ! यह तो औऱ भी तमाशा बनना है ।
वह बंडल सम्हाले छड का सहारा लेती हुई ,उसकी सीट पर जा कर बैठ गई - ' बहुत बबुत धन्यवाद !'
' सुदीप के चेहरे पर तनाब की रेखायें खिंच गईं ।'
भीड़ बढती जा रही है। पर रमा ने सुदीप की प्रतिक्रिया देख ली ।
सोच रही थी ऐसे तो अनजाने आदमी भी महलाओँ को सीट दे देते हैं । क्या बैठने से मना कर देती ?कोई खास बात तो है नहीं । पर सुदीप ?
मन में क्या है साफ़-साफ़ नहीं कहेगा । निगाहों से बता देगा और व्यवहार से कोंचता रहेगा ।
सीट देनेवाला जाने कहाँ उतर गया । सुदीप को भी बैठने को जगह मिल गई है ।
आगे -पीछे लोग खड़े हैं ।रमा अपने ही सोच में कि पीछे से तुर्श आवाज़ आई - ' उतरना भी भूल गईँ क्या ?'
वह चौंक कर उठ खड़ी हुई ।
चुपचाप घर पहुँचे ,चुपचाप खाना हुआ ।
अंत में सुदीप ने कहा- ' देखो रमा बात हद से आगे जा रही है ।'
' क्या मतलब है तुम्हारा ?'
' अब भी मतलब पूछ रही हो ? जैसे समझती नहीं हो ।'
' क्या कहना चाहते हो ,साफ-साफ़ कहो ।'
' ज्यादा भोली मत बनो !कैसे उठ कर उसने जगह दी ,कैसे प्यार से तुमने धन्यवाद दिया । मैं भी तो खड़ा था मेरी तरफ़ देखा भी नहीं ।'
' हिचकोले खाती महिलाओं को भले लोग अक्सर अपनी सीट दे देते हैं ।'
' तो वह भला लोग भी हो गया ।बस में भी जब मिलता है ,अकेली तुम्हें नमस्ते । बेशर्म कहीं का ! मैं साथ में हूँ पर उसके लिये तुम्ही सब कुछ । मैं तो कुछ हूँ ही नहीं जैसे । और तुम्हें इसमें मज़ा आता है ।'
' बात का बतंगड़ मत बनाओ ।उसके जगह देने पर उठने पर न बैठना तो असभ्यता होती ।बस में तमाशा करना मुझे ठीक नहीं लगा ।'
'और धन्यवाद देने के बहाने बोलना भी जरूरी था ।एक बार मना कर देतीं आगे उसकी हिम्मत नहीं पड़ती । न नमस्ते करने की न कुछ और की ।'
' मैं कोई गँवार औरत नहीं हूँ जो साधारण सी औपचारिकता भी न निभा सकूँ ।'
' गँवार नहीं हो शहर की पढ़ी-लिखी हो इसीलये तो ज्यादा कलाकार बनती हो ।'
' बस करो सुदीप ! इससे ज्यादा सुनना मेरे बस का नहीं ।'
' तो क्या करोगी ,बुला लोगी उसे ,चली जाओगी उसके पास ?'
' बात मत बढाओ ।जब तक कोई सुबूत न हो बेकार तोहमत मत लगाओ ।'
' तोहमत ?सुबूत ?सामने -सामने सब हो रहा है ।'
रमा की समझ में नहीं आता कैसे सुदीप को विश्वास दिलाये कि वह उसे जानती तक नहीं ।वह हमेशा नमस्ते ही तो करता है ।क्या करूँ मैं ?
उत्तर में अनदेखी करना उससे नहीं होता अपने आप सिर हिल जाता है ।कहीं कुछ ऐसा नहीं जो मन को खटके ।वह खाली रमा को नमस्ते करता है तो रमा क्या करे ?लौट कर कहे कि इन्हें भी नमस्ते करो ,ये मेरे पति हैं ?
और चार दिन निकल गये ।सुदीप गंभीर रहने लगा । आपस में बस जरूरी बातें ।
** 3
उस दिन काम से लौटा तो बड़ा खुश था ।सीटी बजाता घर में घुसा ।गनगुनाता रहा ।
चलो ठीक हो गये रमा ने सोचा ।
सुदीप ने ही चुप्पी तोड़ी -
' रमा, तुमने उसे कभी अपने घर में देखा था ?वही जो तुम्हें नमस्ते करता है ।'
अब यह कैसी बात ?
' पिता जी के पास कॉलेज के इतने लड़के आते हैं ।मैं किसे-किसे देखती फिरूँ ?'
' हूँ ।ठीक है ।'
' देखो , मैंने एक बार कह दिया कि मैं उसे नहीं जानती ।अब तुम नई-नई बातें मत निकालो ।'
' हाँ हाँ ,तुम कैसे जानोगी उसे ?'
' यह कैसी टेढी बात?क्या मतलब है सुदीप ?'
रमा को बड़ा अजीब लग रहा था ।
सुदीप कहने लगा ,' तुम्हारे पिता जी का स्टूडेंट रहा है वह ।दो-एक बार तुम्हारे घर गया तभी देखा था उसने तुम्हें।'
' अच्छा !'
' आज पता चल गया ।'
' क्या ?'
' कि वह कौन है ।'
' कैसे पता चला ?'
' मुझे मिल गया था । तुम्हारे भाई के साथ था ।उसने परिचय कराया ।बात-चीत होने लगी । मैने कहा बस में कई बार आपको देखा है ।कौन सी बस में यह भी बताया ।
उसने कहा उस बस से तो वह अक्सर जाता है ।
' मैंने कहा उस बस में मैं भी होता हूँ कभी-कभी अपनी पत्नी के साथ। पर आपको कभी मेरी ओर देखने की फ़ुर्सत कहाँ होती है ?
पर आप कब मिले मुझे ?
फिर मैने याद दिलाई ।बस की बात भी ,अपनी सीट दे देने की बात ।
' फिर बताया -वही है मेरी पत्नी रमा !?
तो आप उनके पति हैं ।
पता होता रमा बहन के पति हैं तब तो ..ध्यान जाता । आपको तो आज जाना है ।
अब समय आ गया है मिलने का ।उसने एकदम कहा -हाँ मैं तो आनेवाला था दीदी को निमंत्रण देने ।
' मैंने पूछा औऱ मैं? मुझे निमंत्रण भी नहीं ?
फिर उसी ने बताया मुझे । हाँ रमा ,अगले हफ़्ते उसकी शादी है ।बहन का रोल तुम्हें ही निभाना है ।'
रमा बल्कुल चुप रही ।
*** 4
रमा बड़ी चुप-सी है ।सुदीप बार-बार बात निकालता है ।
' मैने तो सोच लिया था किसी तरह पता करना है कि ये है कौन। फिर मौका भी खूब लग गया ।असल में कैंटीन में तुम्हारा भाई मिला था ।और यह उसके साथ था ।'
' तो तुमने सबसे पहले उससे क्या पूछा ?'
' मैंने कहा मैंने कई बार आपको बस में देखा है ।पहले सोचा कह दूँ मेरी बीवी से परचित हो मुझसे नहीं ,पर कहा नहीं ।और अच्छा हुआ जो नहीं कहा ।नहीं तो वह क्या सोचता !'
' हाँ ,वह क्या सोचता उसकी इतनी चिन्ता है ,और मैं क्या सोचती हूँ सका कुछ नहीं लगता तुम्हें ?नहीं तो क्या मुझसे इतना कहते रहते ? ।कभी सोचा मैं क्या समझूँगी तुम्हें ?'
' अरे ,तुम्हारे समझने से क्या फ़रक पड़ता है ?अब तुम्हारे साथ भी सोच-विचार कर बोलूँ ?सही-गलत कुछ भी कह लूँ ।पत्नी हो मेरी !पर सुनो तो ..जब विकास ने परिचय कराया ...।'
' तो तुमने क्या कहा ?'
मैंने पूछा था ,' आप मेरी मिसेज़ को जानते है ?
वह बोला , आपको ?आप कौन हैं मैं तो यह भी नहीं जानता उन्हें कैसे जानूँगा ?
' फिर मैने जब याद दिलाया - कहा मैं भी वहीं खड़ा था ।
और जानती हो उसने क्या पूछा ?पूछने लगा -आप रमा बहिन को जानते हैं ?
कैसे नहीं जानूंगा ,मुझे हँसी आ गई, मैंने कहा , अच्छी तरह जानता हूँ ।पर आप कैसे ?
' विकास ने बताया ,' हाँ क्यों नहीं जानेगा !मेरे साथ प्रोफ़ेसर सा.. के यहाँ कई बार गया है ।
वह बोला था -रमा बहन को जानता ही नहीं मानता भी हूँ ।मुझे उनमें अपनी बहन दिखाई देती है ।
वो भी आपको जानती होंगी ?
एकाध बार उनके घर गया था । कभी परिचय या बात की नौबत नहीं आई ।वे जाने चाहे न जाने, मेरे गुरु की पुत्री हैं मेरे दोस्त की बहिन ,इतना काफ़ी नहीं है क्या मेरे लिये ?समय आने पर वह भी जान लेंगी ।
' मुझे हँसी आई ,मैंने पूछ वह कैसे ? आप तो बस में ही मिलते हैं ?मैंने विकास से भी कहा था । किसी दिन हमारे घर पर आओ ।. इनको लेकर ।'
' अगर ये सफ़ाई तुम उससे नहीं माँगते तो क्या हो जाता ?' रमा की आवाज़ जाने कैसी हो गई थी ।
'अरे, तो क्या फ़र्क पड़ गया ?'
' फ़र्क तुम्हें नहीं पड़ता ,मुझे तो पड़ता है ।'
' मैं सफ़ाई काहे को माँगता । वो तो बात पे बात निकलती गई ।उसकी बहन दो साल हुये एक्साडेन्ट में मर गई ।उसे लगता है वह तुम्हारे जैसी थी ।'
' तो तुम्हारा समाधान हो गया ? अब तो तुम खुश हो ?'
' अरे, निश्चिंत हो गया मैं तो ! .खुशी- नाराज़गी की बात ही क्या !जब पता नहीं हो तो मन में कितनी तरह की बातें आती है - यह तो आदमी का दिमाग़ है ।'
' हाँ ,आदमी का दिमाग़ !शक करना बहुत आसान है ।प्रमाण पा कर विश्वास किया तो क्या किया ?'
' तुम तो बात का बतंगड़ बनाती हो । पता लगाने में क्या हर्ज ?'
तुमने मुझमें कोई दुर्बलता या उसमें कोई कुत्सा देखी जो तुम्हारे मन में तमाम बातें.... ?
' अब ये तो मन है ।दस तरह की बातें होती हैं दुनिया में ।सोचने में तो आती हैं ....?'
' तुम्हारे मन में अविश्वास था । उस पर तो था ही जिसे जानते तक नहीं , लेकिन मुझ पर भी .?'
' अब तो सब साफ़ हो गया ।'
' जासूसी पूरी कर ली ,जब कोई कारण नहीं मिला तो मजबूर हो कर ..।'
' तो क्या हुआ ?मेरा मन बहुत हल्का हो गया ।'
' पर वह बोझ मेरे मन पर आ गया ।अगर मैं कहती वह मेरा प्रेमी है तो तुम मान लेते ?विश्वास कर लेते कि वह मेरा यार है ।'
' यह मैं कब कह रहा हूँ ।पर पिछली कई बार से जो देखता रहा चुभा करता था मुझे ।'
रमा चुप है ।
' अब जब सब ठीक हो गया तो तुम बेकार तमाशा कर रही हो !'
'मैं तुमसे तो कुछ कह नहीं रही ।'
' तुम्हारे मन में गुस्सा है ,कहती नहीं तो क्या हुआ ।'
फिर वह रमा को समझाने लगा -
' अरे ,क्या फ़र्क पड़ता है वह तो वैसे भी अपने घऱ आता ।उसकी शादी होनेवाली है ,बहिन रही नहीं तुम्हें ही तो बुलायेगा ।उसने कहा है ?'
' सुदीप हँसने लगा उसने क्या कहा पता है -हम तो आपके बुलाने से पहले ही निमंत्रण-पत्र ले कर आनेवाले थे ।'
' सब कुछ जानने के बाद बुलाया था तुमने न ?'
' हाँ ,तभी तो ।पहले बुलाने की कौन सी तुक थी ?'
' संशय तुम्हें व्याकुल किये था अब तुम्हे चैन पड़ गया लेकिन मैं ....? '
' लेकिन -वेकिन क्या ?मैं खुश हूँ तो तुम भी खुश रहो ।फ़ालतू बातों से क्या फ़ायदा ?'
कैसी अजीब है रमा, बिलकुल चुप है !
*

बुधवार, 7 जुलाई 2010

रामी -

*
जाने कब सूरज डूब गया ,दूर के हरे-हरे वृक्ष काले पड़ने लगे ,आसमान के एक छोर से शुक्र - तारा झाँक उठा।सड़क के उस पार छप्परों से लहराता हुआ धुआँ आसमान की ओर उठने लगा ।
मुझे लगा रामी छप्पर के ऊपर खड़ी है - वैसा ही भूरा सा लँहगा,मटमैली ओढ़नी,वही सफ़ेद बाल झुर्रियों से भरा चेहरा ;सब कुछ वैसा ही था! ओढ़नी से दोनो हाथ ढँके काँपती-सी आकृति ! वही तो रामी है -हमारी चौका-बर्तनवाली रामी ! वह उस छप्पर से उतर कर सड़क पर जा रही है ,और बिजली के खम्बे पास कमर झुकाये खड़ी हो गई है ।धीरे-धीरे आकृति अँधेरे मे विलीन हो गई। चली गई रामी !
स्मृति की रेखाएँ उभरने लगी हैं। सेठानी ने कहा था,' ये बुड़िया बड़ी मँगती होगई है।तुम्हीं ने सिर चढ़ा रक्खा है ,मुझसे माँगने की हिम्मत नहीं है उसकी।'
रामी के मुझसे परिचय का किस्सा बहुत छोटा,बहुत साधारण है।इस कस्बे मे नई-नई आई ,तब एक बर्तनवाली की जरूरत पड़ी। किसी से जान-पहचान हुई नहीं थी।एक दिन छत पर सूखते हुए कपड़े नीचे जा गिरे और रामी उन्हे उठाकर देने के लिए ऊपर चली आई। मुझे जैसे मुँह-माँगी मुराद मिल गई-उसके बाद से ही वह हमारे यहाँ चौका-बर्तन करने लगी।
रामी ,हाथ की सच्ची थी ,सेठानी के शब्दों मे ,' बड़े डरपोक दिल की है ,कुछ उठाने की हिम्मत नहीं है उसकी!'
उसके काम करते समय जब मै चाय बनाती तो एक प्याला उसके लिये भी रख देती। वह आभार प्रकट करती जाती और चाय के प्याले से अपने ठण्डे हाथ सेंकती जाती। कभी-कभी वह खुद भी फर्माइश कर देती ,'बहूजी, हाथन की अँगुरियाँ अईस ठिठुराय गई हैं..... एक पियाली चाह मिल जाइत तो......।'
यह अच्छी ज़बरदस्ती है, मै सोचती ,अब उठकर इसके लिये चाय बनाऊँ ? मन-ही मन भुनभुनाती पर बुढिया के काँपते हाथ देख कर कुछ कह नहीं पाती और गैस जलाकर चाय का पानी रख देती।वह फिर कहना शुरू करती, 'औरन से तो कबहूँ नाही माँग सकित हैं बहू,मुला तोहार आगे आपुन हिरदै की बात कहि डारित हैं। आज सुबह ते चाय नाहीं पिये रहे ,मूड पिराय रहा है।'
कभी-कभी तो मै चिढ़ उठती कि दुनियां भर के खाँसी - ज़ुकाम के लिये मैने ही चाय बनाने का ठेका ले रखा है! रामी बर्तन समेट कर चौके की देहरी पर चाय का कप लेकर बैठ जाती और मुझे इस भारी उपकार के लिये असीसने लगती। बातें करने मे रामी कभी थकती नहीं।मोहल्ले भर की ख़बरे अपनी बातों मे लपेट कर मुझ तक पहुँचाती रहती।वह सेठानी के घर भी चौका-बर्तन करती थी।सेठ का लड़का और चारों लड़कियाँ उसी की गोद मे खेल कर बड़े हुए थे।वहअपना अधिकतर समय सेठानी के घर ही बिताती थी।एक तो सेठानी का बड़ा-सा खुला-खुला घर ,धूप मे या छाया मे वह बैठ सकती थी,दूसरे बच्चों का मोह ! सेठानी से असंतुष्ट होने पर भी वह बार-बार वहीं खिंची चली जाती थी।
उसने शुरू से थोड़े ही महरी का काम किया था।उसका बाप दर्जी था ,आदमी की अपनी दुकान थी।शादी मे चाँदी के जेवरों से लद गई थी,आठ चीज़ें तो उसके चढावे मे आईं थीं।विगत जीवन की कथा कहते-कहते उसकी आँखें चमक उठती थीं वाणी मे वेग आ जाता था। मै उसकी कल्पना करती -नव वधू का वेश ,गोरा-गोरा, छोटे कद का तन्दुरुस्त शरीर ,घेरदार गोटे-किनारी से सजा लहँगा ,सितारों जड़ी ओढ़नी और जेवरों से लदी , रामी ! वह कहती जाती ,'हमार घर मां चार गउयाँ रहीं !खूब दुकान चलत रही।'
उसके चेहरे की झुर्रियाँ तन जातीं और उस ढलती बेला में भी बीते हुए रंग अपनी झलक दिखा जाते! फिर वह कहती,'पर हमार तो करम फूटे रहे बहू न जने का हुइगा हमार मरद का! बिलकुलै चुप्पा हुइ गवा ,दुकान -मकान सब गिरवी धर दिहिन ,और ऊ जाने कहाँ चला गवा।'
उसे शक था कि किसी ने टोना-टोटका करवा दिया उसके आदमी पर ।कुछ रिश्ते के लोग जहुत जलते थे उन्हें देख-देख कर। अपने आदमी की खोज मे वह कहाँ-कहाँ नहीं भटकी ,फिर हार कर जिन्दगी से समझौता कर लिया। वह सजी-धजी युवती लुप्त हो गई ,रह गई रँग- उड़े घिसे कपड़े पहने लोगों की नजरों मे प्रश्न चिह्न बनी एक लाचार औरत ! कहाँ वह वधू और मेरे सामने बैठी, झुर्रियों भरे चेहरेवाली ,भूरा-भूरा लहँगा और मटमैली ओढ़नी ओढ़े यह वृद्धा! वास्तविक रामी तो यही है ,वह सजी-धजी युवती तो एक छलना थी जो विलीन हो गई।
फिर एक दिन हम लोगों के प्रस्थान की बेला आ गई । जिस तरह एक दिन आ पहुँचे थे उसी तरह बोरिया-बिस्तर बाँध कर चल देना था। परिचितों को छोड़ अपरिचितों के बीच जा बसना ,नये-नये परिचय बनाना और फिर आगे बढ़ जाना ,सरकारी नौकरी मे यही जीवन का क्रम बन गया था । मिलनेवालों का आवागमन चलता रहा ,कितनी बार चाय बनी और समाप्त हुई। उस हलचल -कोलाहल मे मुझे याद ही न रहा कि रामी के लिये भी एक कप चाय चाहिये होगी। सब को बिदाकर जब घर मे शान्ति हुई तो देखा ,वह आँगन मे बैठी हुई है - जाने कब से !
'अरे तुम बैठी हो ,मुझे पता ही नहीं चला ! '
'थोड़ी देर हुई ,बहूजी । तुम तो अब हियन से टिकस कटाय लिये...., हमार कहूँ मन नाहीं लगा तौन फिन इहाँ आय के बइठ गईँ ।'
'मैने तुम्हे देख नहीं पाया। तुम्हीं कह देतीं .. इतनी बार चाय बनी और तुम बैठी ही रह गईं?'
उत्तर मे उसने सिर झुका लिया। अभ्यागतों के स्वागत-सत्कार के बीच उसकी चाय की माँग कितली शोभती इसे रामी भी समझती थी।
दूध का बर्तन खाली पड़ा था। मैने अठन्नी देकर कहा,' रामी,दूध ले आओ ,मै अभी बना देती हूँ।'
उसे गये काफी देर हो गई।मैने छत पर से झाँक कर देखा ,गली उस ओर , सड़क पर सेठ के दरवाज़े के पास रामी खड़ी थी। आवाज़ देने पर आई।
'दूध नहीं लाईं तुम?'
उसके चेहरे पर क्या भाव परिवर्तन हुए,उस धुँधलके मे देख नहीं पाई। रोने के से स्वर मे उसने कहा ,' बहू ,पइसा जाने कहाँ गिर गवा। हम बहुत ढूँढत रहे....।'
'तो वहाँ क्यों खड़ी थीं?'
'हम सोचित रहे सेठ जी लौटत होंई तौन उनसे माँग लेइत, सेठानी से माँगन मे डरात रहे।'
'अरे,वाह ,' मेरे मुह से निकला।
उसे लगा मै उस पर विश्वास नहीं कर रही हूँ। कहने लगी,' हमार जी बहुत दुखी रहे ,बहू । हम आँसू पोंछित रहे ,हाथन पता नाहीं कहाँ छूट परे। ..अँधियार मे सूझ नाहीं परत है ...टटोल-टटोल के ..।'
उसने मिट्टी भरी उँगलियां सामने कर दीं।
'खो गये तो जाने दो।तुम यहाँ क्यों नहीं लौट आईं? चलो मै और दे रही हूँ।'
वह बहुत लज्जित थी और मुझे विशवास दिलाने का पूरा प्रयत्न कर रही थी ।मै समझ रही थी पर उसे समझा पाती ऐसा दिमाग़ कहाँ था मेरा?
' गिर गये तो जाने दो ।मेरे हाथ से गिर जाते तो ....।'
फिर वह कुछ नहीं बोली। चाय लेते समय कहने लगी ,' अकेल हमारे कारन?तुम बिलकुल न लिहौ?'
'अभी उन लोगों के साथ पी थी ,इसलिये नही बनाई।'
अस्फुट स्वर मे उसने कुछ कहा ,मै सुन नहीं पाई ,थकी हुई थी मैने जानने की कोशिस भी नहीं की।
चलते-टलते वह फिर बोली ,' आज हमार हाथन से तुम्हार नुसकान हुइ गा ,बहू।'
उसे आश्वस्त करने को कहा ,' चिन्ता मत करो ,यह पैसे मै तुम्हारे महीने के पैसों मेसे काट लूंगी।' कहते-कहते मुझे जरा हँसी आ गई।
कुछ देर बाद खिड़की की ओर आई तो दिखाई दिया,सड़क पर लगे बिजली के खम्बे के दूसरी ओर धुँधली आँखोवाली रामी ,अपनी झुकी हुई कमर को और झुकाये सड़क की धूल हाथों मे उठा-उठा कर कुछ ढूँढ रही थी।मुझे जाने कैसा लगा ,मै वहाँ से हट गई।
कुछ समय बीत गया।एक बार फिर उसी कस्बे मे लौटी।मकान वहीं सेठ की हवेली के पास मिल गया। पहचाने हुए लोग थे ,कोई विशेष परिवर्तन नहीं।सब उसी पुराने ढर्रे पर। नहीं मिली तो एक रामी!
दूसरी बर्तनवाली मिली ,वह बुढिया नहीं थी।काम खूब अच्छी तरह करती थी ,पर मेरा उसका वह सम्बन्ध नहीं रहा जो रामी से था।
एक दिन यों ही बात निकली तो मैने कहा ,'पहले भी हम यहाँ रहते थे ,उधरवाले मकान मे..।'
'अच्छा ,तभी आपकी ,सबसे पहचान है।'
'हाँ,पहले एक बर्तनवाली भी थी यहाँ।पता नही कहाँ है अब?तुम क्या यहाँ नई आई हो?'
' नहीं ,डेढ़-दो साल हो गये।शादी के बाद यहाँ आए न।'
तुम उसे जानती हो?रामी नाम था उसका।'
'हाँ,हाँ,थी तो एक बुढ़िया।'
'कहाँ है वह।?'
'अब यहाँ कहाँ?भगवान के गई ,'उसने ऊपर इशारा कर दिया।
' क्या हो गया था उसे?'
'अरे बीबी जी ,ऐसे लोग होते हैं पैसे के पीछे जान की परवाह लहीं करते।'
मै सबकुछ जानने को उतावली हो उठी। जो सुना उसका मतलब था -एक दिन शाम को धूल मे गिरे पैसों को उठाने के उपक्रम मे वह सामने से आती हुई बस की चपेट मे आ गई।
मुझे जाने कैसा होने लगा , कुछ हौल सा उठ रहाथा भीतर-ही- भीतर ।उसकी मृत्यु के लिये क्या वही स्थान बचा था - बिजली के खम्भे आगे,साँझ के धुँधलके मे,वैसे ही झुक कर पैसे उठाते हुए और वह भी ,मेरे जाने के एक सप्ताह के अन्दर!
उस दिन रामी के साथ चाय पी लेती तो उसे इतना अफसोस न होता!आगे नई बर्तनवाली ने क्या कहा मुझे कुछ समझ मे लहीं आया। मैने समझने ,समझाने की ज़रूरत भी नहीं समझी। जो कहा गया समझा गया वह झूठ था ।असली बात ,सही बात सिर्फ़ रामी जानती थी और मै जानती हूँ। और कोई उसे जान भी नहीं सकता!
और शाम को जब लोग गली के उस पार आग तापते हैं या गाँव से आए यात्री उपले जला कर दाल-बाटी बनाते हैं तो धुआँ लहराता हुआ आसमान की ओर उठने लगता है.। मुझे लगता है - भूरा-भूरा लहँगा और मटमैली ओढनी ओढ़े अपनी झुकी हुई कमर को और भी झुकाये , रामी की काँपती हुई आकृति धूल मे कुछ ढूँढ रही है। धीरे-धीरे गहरी कालिमा उसे ढक लेती है। मुझे पता है अठन्नी उसे अभी तक नहीं मिली ,क्योंकि मिलनेपर वह उसे अपने पास नहीं रक्खेगी !
*

रविवार, 4 जुलाई 2010

कोफ़ी अन्नान की बीवी

*
कोफ़ी अन्नान !संसार प्रसिद्ध हस्ती !कौन नहीं जानता उन्हें!कोई बिरला ही ऐसा मूढ होगा जिसने उनका नाम न सुना हो ।पर उनकी बीवी !उनके बारे में कोई कुछ नहीं जानता ।कौन हैं, कहाँ की हैं, क्या नाम है किसी को नहीं पता ।अगर उनके बारे में भी सूचनायें दी जाती रहतीं तो ऐसा अनर्थ नहीं होता ।मेरा विचार है कि सीता-राम ,राधा-कृष्ण,गौरी -शंकर आदि में पति के साथ पत्नी नाम लेने की परंपरा इसीलिये शुरू की गई होगी कि इस प्रकार के गजब न होने पायें ।पर अब पुरानी बातों को कौन मानता है !माने-जाने लोगों की पत्नियाँ अनजानी ही रह जाती हैं।वैसे प्रसिद्ध हस्तियों के साथ उनकी पत्नियों के नाम अवश्य होना चाहिये -सभी लोग तो अपने वाजपेयी जी जैसे कठ-कुँआरे नहीं होते !
पर क्या किया जाय?कौन रोक सका है होनी को !जो होना था हो गया ।मेरे सामने होता रहा ,होता क्या रहा ,मैं खुद ,परोक्ष रूप से ही सही उस होने का माध्यम बन गई: और बन गई उसकी एक मात्र साक्षी भी ।अभी तक मैं कुछ नहीं बोली थी ,पर अब बातें सहन शक्ति के बाहर जा रही हैं।अब नहीं चुप रह सकती ।किसी से रिश्ते बिगडें ,बिगड जाय़ँ ,तोहमतें लगें ,लगती रहें ,पर अब मैं अकेली सहन नहीं करूँगी ।जो कुछ हुआ ब्योरेवार सब कह डालूँगी ।
इन्टर कॉलेज में पढा रही थी तब ।प्राइमरी से लेकर डिग्री कॉलेजों तक के इन्टर व्यू दिये हैं मैने ।और बडे बोल न समझें तो लगभग हर जगह सेलेक्शन हुआ है मेरा ।बहुत अनुभव है मुझे साक्षात्कारों का।हाँ तो तब मैं इन्टर कॉलेज में पढा रही थी ।खाली समय में पुस्तकालय में जा बैठना मेरी पुरानी आदत है ।पुतकालय सहायिका रूबी से मेरी अच्छी पटरी बैठने लगी वह हर नई पुस्तक ,मेरे मतलब की ,मेरे लिये चुन कर रख देती ,और उसके कामों में मैं उसकी भरसक सहायता कर देती थी ।
तो मैं बता रही थी हम दोनों एक दूसरी की मदद करते थे ।स्कूल में खरीदी गई ,किताबों की लिस्ट अक्सर ही अँग्रेजी में आ जाती थी ,और अंग्रेजी में लिखे हिन्दी नामों मे कन्फ्यूजन होने पर वह मेरा सहारा लेती थी । शुरुआत ऐसे हुई कि एक किताब का टाइटिल 'अंग्रेजी में था टाम काका की kutia'वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे 'कुतिया' पढे या 'कुटिया' ।मैंने समाधान दिया टाम काका का कुतिया /कुटिया लिख दो ,जिसे जो समझना होगा समझ लेगा ।।उसने जब लिखा तो उसक 'ट' 'र' की तरह लग रहा था ।बाद में 'राम' और 'टाम' की समस्या और खडी हो गई ।पर वह बाद ती बात है ।कमल कमाल ,हसन हासन तमाम शब्दों में असने यही पद्धति अपनाई । 'राग दरबारी' संगीत की किताबों में देख कर मुझे ताज्जुब हुआ ।मैंने उससे कहा यह हिन्दी का प्रसिद्ध उपन्यास है ,इसे उपन्यासों के शेल्फ़ में रखो ।पर वह हमेशा संगीत की पुस्तकों में शामिल रहा ।मैं क्या करती चुप लगा गई ।

रोज नई-नई साडियाँ पहन कर लडकियों के बीच इठलाती टीचर्स ,सीमित समय, गिने हुये पीरियड् लडकियों में सम्मान ,देख- देख कर उसका मन लेक्चरर बनने को मचलने लगा ,पुस्तकालय से उसका मन उचाट होने लगा ।उन्हीं दिनों इस डिग्री कॉलेज की वांट्स् निकलीं ।मैं एप्लाई कर रही थी ।उसका मन देख कर मैंने उसे भी बता दिया ।
ंमैने उससे पहले ही पूछ लिया था ,तुमने कभी पढाया है ।उसकी स्वीकारोक्ति थी किसी लीव-वेकेंसी पर कुछ महीने पढाया था ।मुझसे कुछ नहीं छिपाती थी ,उसने यह भी बता दिया कि कुञ्जी किताब में दबा कर रख लेती थी वही पढा देती थी ।
उसने भी आवेदन कर दिया पर इन्टर व्यू के नाम से उसे घबराहट हो रही थी ।मैंने उसे आश्वस्त किया ।मैने इतने इन्टर व्यू झेले हैं कि मुझे वह तमाशा लगने लगे हैं ।जो लोग इन्टर व्यू लेने बैठते हैं विशेष कर प्राइवेट मैनेजमेन्ट वाली संस्थाओं में उनमें से अधिकाँश विषय का ए.बी.सी.डी भी नहीं जानते पर सवाल करते रहते हैं ।दो एक लोग ऐसे होते हैं जो समझते-बूझते हैं पर उनकी वहाँ शायद चलती न ही ।मैं उनकी मुद्राओं को कौतुक से देखती और उनका विश्लेषण करती रहती ।मुझे पता था वे जो पूछ रहे हैं उसके सही उत्तर खुद नहीं जानते ।पता नहीं लोग इन्टरव्यू सो क्यों घबराते हैं !यही मैं उसे समझा रही थी -हमारे यहाँ इन्टरव्यू लेने वालों के लिये योग्यता का कोई मान निर्धारित नहीं है ,विशे,कर प्राइवेट सेक्टर में ।मैनेजिंग कमेटी में संस्थापक और सदस्य चाहे अँगूठाछाप हों उम्मीदवार के आगे ऐसे रौब से बैठते हैं जैसे साक्षात् बुद्धिदाता गणेश के अवतार हों ।और पता है ?वास्तव मे होते हैं वे गोबर गणेस ।एक -दो जो ढंग के लोग होते हैं वे दुबके बैठे रहते हैं क्योंकि पैसा तो उन्हीं का लगा है -लक्ष्मीवाहनों का !लक्ष्मी का वाहन उल्लू है ,ऐसे ही एक अवसर पर मेरे गले से उतर गया ।मेरे पति ने अपना किस्सा सुनाया था ।एक बार वे एक इन्टर कॉलेज के साक्षात्कार में फँस गये थे ।एक मोटे-तोंदवाले ने उनसे पूछा ,'तो आपने एम,एस सी किया है ।?'
'जी,हाँ ।डिवीजन भी ...'
बीच में ही उन्होंने टोक दिया ,'और बी एस सी भी किया है ?'
'हाँ पहले ही ...'
'तो आपको यह पहले बताना था ।'
पढे-लिखे मेम्बर चुप बैठे रहे ।
डिग्रियाँ और सार्टिफिकेट अँग्रेजी में थे, सामने रखे थे ,बिचारा क्या देखता !
मैं पूरी रौ में उसे सुना रही थी कि उसने कहा ,'बडी अच्छी बातें हैं पर जरा रुकिये ,मैं बाथरूम कर आऊँ।'
वह चली गई ।मैं सोचती रह गई ये 'बाथरूम करना ' क्या होता है।अगर सभी लोग यों बाथरूम करने लगें तो एक दिन सारी धरती पर बाथरूम ही बाथरूम दिखाई देंगे ।इससे अच्छा हो लोग किचन और ड्राइँगरूम किया करें ।
उसका मनोबल काफी बढ गया ,उसने भी एप्लाई कर दिया ।
इस बीच नई आई हुई किताबों की बौछार कर दी उसने मुझ पर ।सबसे बचा कर ,सबकी नजर बचा कर वह मेरी पसन्द की सारी किताबें मेरे लिये रिजर्व रखती थी । मेरे और निकट हो गई वह ,और मुझसे अपनी कोई बात नहीं छिपाती थी ।उसने मुझे सब बता दिया था कि उसने गाइडें और कुंजियों से पढ-पढ कर परीक्षायें पास की थीं ।और उसके पिता के किरायेदार स्कूल के टीचर होने के कारण ,परीक्षाओं में उसे नकल करने की सुविधा दी जाती थी ।उसकी पढ़ने में रुचि नहीं थी पर उसके पिता अपनी बेटी को एम .ए .पास देखना चाहते थे।उन्होंने उसे आश्वस्त कर दिया था ,'बिटिया ,तुम डरो मत ।भर दो फार्म ।हमारे ब़े ऊँचे- लंबे सोर्स हैं ।बस तुम इम्तहान दे डालो ।'और अपनी उसी पहुँच की बदौलत इस कॉलेज में नौकरी भी दिलवा दी थी ।
कुछ समय बाद हम लोगों के इन्टर-व्यू लेटर्स आ गये ।और एक दिन हम उपस्थित हो गये साक्षात्कार कमेटी के सामने अपने को प्रस्तुत करने ।काफी लोग थे ।लोग क्या महिला कॉलेज की रिक्तियाँ थीं ,उम्मीदवार महिलायें ही थीं ।हम दोनों भी वहीं जम गये ।

'अपने यहाँ भी हमलोग होल में बैठते हैं ,'उसने कहा ।'
'कहाँ,अपने घर में ?'
'नहीं घर में होल कहाँ?इस्कूल में ।'
मुझे विस्मय हो रहा था -यह कोई कीडा-मकोड़ा ,चिड़िया ,चूहा ,या छछूँदर तो है नहीं जो होल में समा जाये ।
'तुम होल में घुस कैसे पाती हो ?'
'अरे, बहुत बडा कमरा होता है होल ।अभी भी तो बैठे हैं ।'
मै समझी थी होल छोटा सा होता है ,पर इसका होल तो हॉल है ।
'दीदी ,मुझे तो बडी घबराहट हो रही है ।कैसे क्या होगा !'
'घबराओ मत अपने पर विश्वास रखो ।जो पढा है मन ही मन दोहरा जाओ।'
'पढा !हमने तो कभी कोर्स की किताबें खरीदी नहीं ,गाइड से तैयारी की थी बह कबकी बेंच दी ।'
'कभी तो कुछ पढती होगी ?'
'हमें तो मनोहर कहानियाँ ,सच्ची कथायें अच्छी लगती हैं ,या फिल्मी पत्रिकायें।कुछ तो तत्व होता है ।ये प्रसाद-पंत वगैरा तो जाने कहाँ-कहाँ की हाँकते हैं कुछ पल्ले नहीं पडता ।उपन्यास भी काफी पढे हैं ,गलशन नन्दा ,आवारा ...।'
'बस बस काफी है ।'
'हाय राम ,मेरा क्या होगा ?'
भरोसा रखो ।जो होगा ठीक ही होगा ।'
'नाम के हिसाब से पहले आपका नंबर आयेगा ,मेरा तो बहोत बाद में ..'आप बताइयेगा ,उसी हिसाब से हम सोच लेंगे ।'
'देखो ,किसी तरह उन्हें अपनी लाइन पर ले आओ ,तो समझो किला फतह ।मतलब ,वे अपने हिसाब से सवाल न कर तुम्हारे हिसाब से करने लगें ।'
वह कुछ देर चुप रही ।पासवाले ग्रुप की महिलायें अपनी चर्चा में लगीं थीं ,पॉलिटिक्स पर कुछ बात हो रही थी ।
'दीदी,कोफी !वो लोग भी कोफी पीने की बात कर रही हैं ?
'नहीं ,वो कोफी अन्नान की बात कर रहे हैं ।'
' कोफ़ी अन्नान ?''ये क्या होता है ?मैं तो पूछ रही हूँ कोफी पियेंगी ?थोडा फरेश हो जायेंगे ।'
'नहीं, मेरा मन नहीं है ।'
'ये कोफी अन्नान क्या था ?'
अब इसे बताने से क्या फायदा ।फिर भी मैंने कहा,'एक नाम है बस ।'
कुछ रुक कर मैंने पूछा ,'रूबी ,तुम अखबार तो पढती होगी ?'
'अखबार ?हाँ पढते हैं न। पर पोलिटिक्स में हमें बिल्कुल रुचि नहीं ।और खबरों में भी हत्या ,लूट-पाट,वगैरा ,और क्या होता है अखबार में ।क्या फायदा उस सब को पढने से ?'अपने शहर का पेज पढ लेते हैं ,बिजली पानी का हाल ,छुट्टी बगैरा ..।'
'संयुक्त-राष्ट्र-संघ के बारे में जानती हो ?'
'पहले जरनल नोलेज में पढते थे ,अब तो सब भूलभाल गये ।जरनल नोलेज में सबसे खराबी ये है कि हर बार नई चीजें आ जाती हैं ।पहले का पढा-लिखा बेकार ।आखिर कहाँ तक पढें! ..हाँ वो क़ोफी अन्नान क्या है?'
क्या फायदा बताने से -सोचा मैने -अभी फिर दिमाग चाटेगी ,'कोफी अन्नान ,एक नाम है ,आजकल चलन में है ।'
मेरा नाम पुकारा गया था
लौट कर आई तो कई महिलाओं ने घेर लिया ।
'क्या क्या पूछा ?'
'सब इन्टरव्युओं में एक से लोग होते हैं ।दूसरे की समझते नहीं ,बस अपनी लगाये रहते हैं ।'
'पर हुआ क्या ?'
'साहित्य के बजाय भूगोल पर उतर आये ।प्रसाद के भूगोल-ज्ञान की बात कर रहे थे।मैंने इतना समझाने की कोशिश की कि वे कवि थे पर वे अपनी धुन पूरे रहे ।
'क्या?
'कहते हैं हिमालय के शिखर पर वट का वृक्ष कहाँ से आ गया ?'
'और कुछ नहीं पूछा ?'
'अरे पूछेंगे क्या वे ?जो पूछ रहे थे वे कोई खास पढ्-लिखे लगे नहीं।एकाध ठीक-ठाक लगे पर उनने कुछ पूछा नहीं ।'
'आपको देर तो इतनी लगी,और कुछ पूछा नहीं ?'
'पूछा! और क्या पूछेंगे वे ?ये पूछा पति का क्या नाम है ?कै बच्चे हैं ,वगैरा वगैरा ।'
'अच्छा !'
'हाँ पति का नाम-धाम-काम पूछ कर सेलेक्शन करते हैं ।ठीक से याद करके जाना ?'
रूबी ने पूछा ,'और क्वाँरी ..?'
'क्या फर्क पडता है !कहीं-न-कहीं तो कोई होगा ही । कोई अच्छा सा नाम ले देना ।'
'अरे वाह !'
'हाँ ,और क्या ?कोई ढंग का सवाल करें तो ढंग का जवाब दिया जाय !एक से एक ऊल-जलूल सवाल ।'
'तो आपने कैसे समझाया उन्हें ?'
'वहाँ समझनेवाला था कौन ?बस उन्हें अपनी लाइन पर लाना था ,उन्हें घेर-घार कर वहीं ले आई ,प्रसाद पर ।और दूसरे सज्जन भूगोल पर उतर आये ।
हूँ ! अपनी लाइन पर ले आओ ,तो बात बन जाये ,' रूबी विचार पूर्ण मुद्रा में थी ।
इधर मैं पसोपेश में थी कि रूबी का क्या करूँ ।इसका सेलेक्शन कैसे होगा ,पहले सवाल में ही धराशायी हो जायेगी ।कहीं ऐसा न हो कि बाहर आये और मुझसे चिपट कर रोने लगे ।मुझे तो उसके लिये रुकना ही था ।और कुछ लोगों की बुलाहट हुई ,फिर रूबी का नंबर आया ।मैं कलेजा थामे बैठी रही ,पछताती रही कि इसे लेक्चररशिप के ख्वाब दिखाकर क्यों एप्लाई करवा दिया इससे।हॉल में एकाध महिला थी बाकी सब जा चुकीं थीं ।आधे घंटे से भी अधिक समय बीत गया । मैं परेशान हो उठी ,पता नहीं क्या हो रहा है अन्दर ?थोडी देर में वह आती दिखाई दी ।आँखें कुछ लाल थीं पर बड़ी आश्वस्त थी ।
मैं दौडी ,'क्या हुआ रूबी ?'
सब ठीक हो गया ।मैं उसका मुँह तके जा रही थी ।
'चलो दीदी ,यहाँ रुक कर क्या करेंगे!रास्ते मे सब ब्योरेवार बताती हूँ ।
उसने जो बताया वह इस प्रकार था -
'आपने मुझे अच्छा आगाह कर दिया था ।अभिवादन कर ,नम्रतापूर्वक धन्यवाद देकर मैं धीमे से कुर्सी पर बैठ गई ।छः लोग थे कागज पत्तर खोले बैठे थे ..।'
'पता है आगे की बात बताओ ।'
'आपने बताया था ,कि अपनी लाइन पर ले आओ तो सब ठीक हो जाता है ।मै उन्हें अपनी लाइन पर ले आई ।'
'अच्छा !कैसे?'
'आपने कहा था पति का नाम पूछते हैं ।मैं तो क्वाँरी हूँ , सोचा पहले से पति का नाम बता दूँ तो झंझट कटे।पर बताने लगी तो 'मेरे पति का नाम' बोलते-बोलते घबराहट में सोचा हुआ नाम ही ध्यान से उतर गया ।हड़बड़हट में थोड़ी देर पहले सुना हुआ कोफ़ी अन्नान याद आया वही मुँह से निकल गया ।आपने थोडी देर पहले बताया था न ।'
विस्मय में मेरे मुँह से निकला ,'कोफ़ी अन्नान ?'
'हाँ कोफी अन्नान !सोचा था अच्छा सा कोई बताऊँगी ,पर मेरे साथ हमेशा यही होता है ।एक तो पति का दूर-दूर तक पता नहीं फिर सोचा हुआ नाम दिमाग से गायब। लेकिन क्या फरक पडता है कोई नाम बता दो ,आप ही ने तो कहा था ।'
'कोफी अन्नान !'फिर मेरे मुँह से निकला ,मेरा तो दिमाग चकरा रहा था ।
'पहले ही नाम बता दिया तो वे प्रभावित हो गये .सब मेरी ओर देखने लगे ।'
अच्छा !फिर क्या कहा उन्होने ?'
'उन्होने भी ऐसे ही दोहराया ,जैसे आप दोहरा रही हैं ।आपस मे किसी से यू.एनो. यूनो कह रहे थे ।उसने सुन नहीं पाया होगा तो यू नो कह कर बता रहे होंगे । मैंने सिर हिला कर हाँ कह दिया और चुपचाप सिर झुकाये बैठी रही ।कुछ देर तो वे लोग बिल्कुल चुप रहे जैसे साँप सूँघ गया हो ।' ...फिर एक ने पूछा ,'तो आप अकेली यहाँ रहती हैं ?'
'क्या करूं रहना पड रहा है ।'
'वे तो आते होंगे ?'
'दुनिया भर से छुट्टी मिले तब न मेरा ध्यान आये ।'
'शादी कैसे हो गई आपकी ?'
कुछ मत पूछिये ,सर !कुछ नहीं बता पाऊँगी ।मैं तो वैसे ही बहुत परेशान हूँ ।'
'तो आप नौकरी करेंगी ?'
'करनी पडेगी और कोई रास्ता नहीं ।'
'लोगों को पता है कि आप उनकी ...'
मैं किसी से कुछ नहीं कहती ।बताती भी नहीं ,झूठ बोलने की आदत नहीं पर आपसे मजबूरी में कहना पडा ।'
'बडा भारी रिस्क लिया आपने ।'
'हाँ ,बडा रिस्क है पर अब क्या करूँ !मेरी कुछ समझ मे नहीं आ रहा ..'
दूसरेवाले ने पूछा ,'लेकिन ये हुआ कैसे ?'
'कैसे हुआ, क्यों हुआ ,मैं कुछ नहीं बता पाऊँगी ,सर !आपके किसी सवाल का जवाब नहीं दे सकती ।आप चाहे नौकरी मत दीजिये पर कुछ पूछिये मत ...'मैं तो रोने-रोने को हो आई ।
'नहीं आप परेशान मत होइये ,दुखी मत होइये ,हो जाता है ऐसा ..!'
'सच्ची ,उनकी सहानुभूति पाकर मेरी आँखों में आँसू भर आये । बडे सहृदय थे वे लोग !एक ने अपना पानी का गिलास आगे बढा दिया,बोला नहीं,नहीं रोइये मत ,लीजिये पानी पी लीजिये ।दूसरे ने जेब से रूमाल निकाला पर सबके सामने देने की हिम्मत नहीं पडी होगी '
उस ने कहा ,'आप चिन्ता मत कीजिये ,हम सब सम्हाल लेंगे ।'
मोटेवाले ने पूछा , बच्चे भी हैं ?'
'पति के बिना बच्चे कैसे ..' एकदम मेरे मुँह से निकला ।
साइडवाले ने कहा,'जब वे रहते ही नहीं ..।'
' यों ही नाम बता दिया.नहीं कहना था . मैं बिलकुल अकेली हूँ ।'
'सच है ,सच है ।..चिट्ठी -पत्री तो आती होगी ?'
कुछ मत कहिए .बस अब माफ़ करिए मुझसे नहीं होगा .
कोनेवाले से रहा नहीं गया उसने पूछा ,'आप लोगों की मुलाकात कहाँ हुई ?'
'वह सब मैं नहीं बता पाऊँगी ।मुझे तो इतना कहना भी भारी पड रहा है ।क्या करूँ लाचारी में कह बैठी ।'मैंने बह आये आँसू पोंछ लिये ।
'होता है ,ऐसा भी होता है ,'उधरवाले ने ढाढस बँधाया ,'किसी के साथ भी हो सकता है ।'
'हाँ सर, मेरी ही गल्ती है ।.ऐसा कह बैठी कि आगे बढा नहीं सकती ।पर मुँह से निकल गया ,अब कुछ नहीं हो सकता ।आप को गलत लग रहा हो तो मैं चली जाती हूँ सर ।'
'मैं उठ कर खडी होने लगी उनके प्रश्नों के उत्तर देना कठिन हो रहा था ,भाग आना चाहती थी ।पर उनने रोक लिया ।कहने लगे ,'अब उस बारे में कुछ नहीं पूछेंगे ,बैठिये आप ।बस इतना बता दीजिये कि आप कभी उनके साथ गईं हैं ?'
'किनके ?उनके साथ ?नहीं ,कभी नहीं ।किसीका कोई ठिकाना नहीं ।मुझे यहीं रहना है अपने देश में ।'
उन्होंने प्रशंसाभरी दृष्टि से देखा ,'इसे कहते हैं अपनी धरती से लगाव ।जाइये ,जाइये निश्चिंत रहिये ,सब ठीक हो जायगा ।हम लोग हैं न ।
और मैं धन्यवाद देकर चली आई ।'
और वह लेक्चर के पद के लिये चुन ली गई ।उसे लगता है मेरी सलाह मानने से ही वह सेलेक्ट हुई है । कोफी अन्नान तो दूर रह गये वह मेरे पल्ले बँध गई है।मन-ही-मन झल्लाती हूँ और किसी तरह निभाये जा रही हूँ ।पता नहीं कब तक झेलना पडेगा ।
*