सोमवार, 30 अगस्त 2010

स्वीकारोक्ति

*
ट्रेन का सफ़र कभी-कभी बड़ी यादगार बन जाता है . मुझे बहुत यात्राएं करनी पड़ी हैं और अधिकतर अकेले ही .पति अधिकतर टूर पर और फिर उन्हें इतनी छुट्टी भी कहाँ .
उस दिन भी विषय-विशेषज्ञ बन कर एक मीटिंग में जा रही थी.
पहले ही पता कर लिया था जिस कूपे में मेरा रिज़र्वेशन है उसमें एक महिला और हैं .मुझे सी ऑफ़ कर ये चले गए .
वे महिला समवयस्का निकलीं
चलो ,अच्छी कट जाएगी !
बातें शुरू -
'आप कहां जा रही हैं .'
'इंदौर ,और आप?'
'हमें तो उज्जैन तक जाना है ,आप भी अकेली हैं '
'म ?हां अकेली ही ,अक्सर जाना-आना पड़ा है ,आदत-सी हो गई है .'.

'हमारी भाभी बीमार हैं सो अचानक चल दिए आप तो इन्दौर रहती हैं शायद.
'नहीं अहिल्याबाई वि.वि में एक मीटिंग है ,बस अगले दिन  लौटना है .'
'हाँ हम भी दो दिन की सी.एल ले के '.
पता लगा मेरठ में पढ़ाती हैं ,और खूब घुल-मिल कर बातें होने लगीं .
कहां -कहां के सूत्र निकल आए .
 मज़ेदार बात यह कि दोनों ने एक ही कॉलेज से बी.एड. किया ,बस भावना जी एक साल पहले कर चुकी थीं,उस कॉलेज को खुलने का पहला साल ,तब वह पूरी तरह व्यवस्थित नहीं था .
हम अगले साल वहीं दाखिल हुए .
वार्डन -लेक्चरर प्रीफ़ेक्ट  सबकी बातें.मिट्ठू,जो ऊपर के काम कर देता था -दोनों होस्टलों में उसकी पूँछ थी.
'मिट्ठू ?'
'हाँ -हाँ ,था तो .पर ब्वाएज़ हॉस्टल में ज़्यादा रहता था .हमारे यहां तो कभी वार्डन के पास या किसी काम से नोटिस वगैरा ले कर आता था . '
' आपके सामने ब्वायजट हॉस्टल कहाँ था ?'
'उधर चौबीस खंभा रोड पर जो धरमशालावाली बिल्डिंग है वही किराए पर चल रही थी ,सुनने में आ रहा था कि अगले साल होस्टल शिफ्ट हो जाएगा ..''
'हूँ .'
'ये मिट्ठू  दोनों होस्टलों में काम करता था न,और एक मज़ेदार बात ,हम मिट्ठू के लिए टियू-टियू शब्द स्तेमाल करते थे और खूब हँसते थे .पर .उसके सामने नहीं .'
'हाँ ,वो तो शुरू से ही दोनों होस्टलों  के काम देखता था ,पास में हैं न .हमारे वार्डन ने भी कह रखा ता ,झाड़ू वगैरा लगा कर उधर चले जाया करो .उन दिनों खाना तो इकट्ठा वहीं बनता था .'

'और वह सामने की दूधवाली दूध में वात्सल्य रसकी मात्रा बहुत कर देती थी .'
'हम लोगों ने तो अपना अलग इंतज़ाम कर लिया था .'
रूम मेट कैसे हमारा घी चाट कर स्वास्थ्य बनाती थी,
और फिर मिट्ठू !
'वही तो ...'
'क्या वही तो ?'
'कुछ  नहीं यों ही '.
'सब टेम्परेरी इंतज़ाम थे तब.कोई ऐसा कमरा भी नहीं जहाँ यूनियन की मीटिंग कर लें .'
' वो तो हमारे सामने तक था .कैबिनेट की मीटिंग किसी के रूम में कर लेते थे और जनरल के लिए हॉल ,बस.'
'अब तो बढ़िया होस्टल बन गया है .आप नहीं गईं कभी फिर ?'
'नहीं जा नहीं पाए .मन तो करता था पर बात कुछ ऐसी हो गई थी कि जाने की हिम्मत नहीं पड़ी .'
'ऐसा क्या हो गया ?''
वे चुप हैं
'आप मुस्करा रही हैं .'
'हाँ ,एक बात मन में है .अब तक किसी से कहते नहीं बनी .पर अब उम्र के चौथे पहर में इच्छा होती है कि सब-कुछ .कह-सुन कर हल्की हो लूं . '
'हम दोनों तो बराबरी की हैं एक दूसरे को समझने में मुश्किल नहीं होगी.'
'हां,हां इसीलिए तो .आप भी तो वहीं पढ़ चुकी है ?'
*
थोड़ी भूमिका बाँधने के बाद बताने लगीं - छात्र चुनाव में एक काफ़ी बड़ा-सा  गंभीर सा लगनेवाला  लड़का सेक्रेटरा बना .काफ़ी रिज़ोर्सफुल था .
उसने अपनी कैबिनेट में हमें  भी ले लिया .कई क्षेत्रों में सक्रिय रहे थे न हम .
मैंने अपने होस्टल की दो लड़कियों और एक लड़के को ,जिसे मेरी रूम-मेट जानती थीं बोलीं  बहुत साहित्यिक रुचि का संस्कारी लड़का है - ले लिया .
'मैं चाहती थी मीटिंग्ज़ में अनुराग जाए ,मुझे न जाना पड़े.'
'क्यों , जब इन्चार्ज आप थीं .'
'हाँ ,थी .पर ..असल में जो सेक्रेटरी था वह मिट्ठू के हाथ मुझे पर्चियाँ भेजा करता था ,अकेले में मुझे देने के लिए .'
'फिर?'
उत्तर वह माँगता था . मैंने कभी दिया नहीं ,


'हाँ तो वो लड़का क्या नाम था उसका ?
'अब असली नाम बता कर क्या होगा  समझ लो- आलोक.'
'और पर्ची में संबोधन क्या ?'
 'इस सबसे क्या .बात तो कुछ और है जो बतानी है ..'
'नहीं ,यह तो बताना ही पड़ेगा नहीं तो इमेज कैसे बनेगी ?'
'संबोधन कुछ खास नहीं डियर फ़्रेंड ,या माई चम और अपने को क्वेशचन मार्क ,या ऐसे ही कुछ .'
'क्या लिखता था?'
'छोटी-छोटी बातें -तुम ध्यान में रहती हो वगैरा '.
'और क्या लिखा होता था .'
'बस साधारण सी बातें -कि तुम मुझे अच्छी लगती हो .कभी कोई परेशानी हो तो बताना .'
'बस यही ?'
'हां. कभी-कभी यह भी कि क्लास के बाद ऑफ़िस की तरफ़ आ जाना ,कुछ छात्रसंघ के बारे में सलाह करनी है .'
'तुम लिखता था ?'
'अरे ,अंग्रेज़ी में -क्या आप और क्या तुम !'
'सही कहा  , जो हिन्दी में कहना शोभनीय नहीं लगता अंग्रेजी मे अच्छी तरह चल जाता हैं ,  कभी वे तीन शब्द लिखे थे उसने?'
'अच्छा !अब आप मज़ा ले रही हैं?नहीं ऐसा कभी कुछ नहीं ?'
'हां तो और क्या ?'
'यही कि सुबह-सुबह तुम्हें देख लेता हूं तो दिन अच्छा बीतता है .'
'सुबह-सुबह कैसे ?'
'सब लोग इकट्ठे प्रेयर करते थे सात बजे लड़कों के होस्टल में -फिर नाश्ता और फिर क्लासेज़ शुरू .'
'नाश्ते  में क्या ?'
'ज़्यादातर पोहे ,चाय कभी-कभी और कुछ भी ,जलेबी वगैरा .. '
'वाह उज्जैन के पोहे !पानी आ गया मुँह में !'
' देवास गेट पर हम हमेशा खाते हैं .ऊपर से सेव डाल कर देता है .'
और आप क्या  क्या जवाब देती थीं ?
मिट्ठू हमेशा जवाब माँगता पर हम क्या लिखें और क्यों लिखे ?
कह देती  मैं खुद बात कर लूँगी , और उसके जाते ही पर्ची फाड़ कर फेंक देती .'
'आप जाती थीं ?'
हाँ ,जिन दो को साथिनों को मैनें अपनी समिति में लिया था उन्हे भी बुला लेती ,कि अच्छी सलाह हो जाए  ,एक तो साथ में होती ही थी .उसने एकाध बार कहा भी क्या मुझसे डरती हैं ,कुछ बातें सबसे कहने की नहीं होती और ये लड़कियाँ ऐसी हैं ख़ुद मुझे रोक लेती हैं  और  सबसे कहती फिरती हैं कि मैं उन्हें बुलाता हूँ .मैंने आपके सिवा किसी को नहीं बुलाया ..'
*
मैं चुपचाप  रुचिपूर्वक सुन रही हूँ .
अचानक वे पूछ बैठीं ' अगर आपसे कोई पूछे -तुम तो खाई -खेली हो तो कैसा लगेगा ?' .
'एक चाँटा लगा दूँगी ' .
'आज नहीं ,तब जब होस्टल में रह कर बी.एड. कर रहीं थी .तब क्या कहतीं ?'
'अब इतना तो नहीं बता सकती ,आजकल की लड़कियों में समझदारी हमलोगों से ज़्यादा विकसित है .हम लोग ये सब काफ़ी बातें देर में समझा करते थे. अब अब ये टी.वी. वगैरा ..'
हाँ वही तो ! और जब इसका मतलब मुझे पता चला तभी से   . मन पर एक बोझ सा आ गया .'
'पर क्यों ?'
वे बताने लगीं -
अक्सर ही बुलावा आ जाता था आलोक की ओर से -कल्चरल सोसायटी की इन्चार्ज जो बना दिया था मुझे
कभी पत्रिका कैसी हो इसके बारे में डिस्कशन ,कभी क्या प्रगति ,चल रही है ,मीटिंगे हो रही है .शुरू-शुरू में बड़ उत्साह से पहुँच जाती रही फिर जब रंग-ढंग समझ में आने लगे ,तो वह बचने की कोशिश कर जाती .एक अजीब -सी खिसियाहट घेर लेती .फिर भी जाना तो अक्सर ही पड़ता था.
एक बार खबर आई ,मीटिंग कामना लॉज के रूम नं. 7 में है .वहाँ जल-पान का बढ़िया डौल बन जाता है.अनुराग पिछले दो दिनों से गैरहाज़िर था और मीरा -निर्मला दोनों एक साथ किसी रिश्तेदारी में पार्टी खाने .
मैं पहुँच गई टाइम से ,समय से पहुँचना आदत में शुमार है .
पहुँची तो वहाँ कोई नहीं बस आलोक कुर्सी पर जमा बैठा है.
जाते ही कहने लगा ,देख लिया ?ये हाल हैं यहाँ के ,किसी को काम की चिन्ता नहीं .सब मौज कर रहे हैं .एक मैं ही हूँ जो मरा जा रहा हूँ'जैसे मेरा अपना इन्टरेस्ट हो !
,'क्या कोई नहीं आया ?'!
'आते ?अरे ,नोटिस पर साइन ही नहीं किये .भगा दिया होगा मिट्ठू को.'

'तो फिर तो कोई आयेगा भी नहीं ...मैं बेकार ..'
'वाह बेकार क्यों ?तुम्हीं तो एक समझती हो मुझे .तुम भी नहीं आतीं तो मैं तो बिल्कुल अकेला रह जाता ..मैंने तो नाश्ते का बढ़िया  दे रखा है ।'
'मुझे नहीं करना ,कर के आई हूँ .'
अरे बैठो ,बैठो ..अब मिले हैं तो कुछ बातें करही लें',उसने आगे जोड़ा ,तुमने भी तो कुछ सोचा होगा मेगज़ीन के लिये .'
वह कुर्सी से उठा और सोफ़े पर लेट- सा गया ,'क्या बताऊं कल ,बिल्कुल सो नहीं पाया..'
'क्यों क्या कुछ परेशानी है ?'
इधर बैठो न आराम से ..'
'नहीं ,ठीक हूँ यहीं .'
'हाँ तो ,क्या-क्या कर लिया है ?'
उसकी की आँखें उसे अपने चेहरे पर चुभती लग रही थीं .लंबा-चौड़ा था ही  जब  सामने बैठ कर अपनी नज़रें  पर गड़ा देता - लगता  भीतर तक पढ़ लेना चाहता है, बड़ी उलझन होने लगती थी.
खिड़की से बाहर देखते मैंने कहा,
 'मीरा और निर्मला की  रचनाएं ले ली हैं , कई लोग देने वाले हैं  और  अनुराग जी की कवितायें
भी,  सुन्दर लिखते हैं .'
एकदम बोला
'कब से जानती हैं आनुराग को ?''
'बस यहीं आकर .पहले एकाध कविता पढ़ी थी कहीं ..'
और वह  अनुराग को बिलकुल पसंद नहीं करता , एकदम मुझे याद आया..अनुराग भी उसकी मीटिंग में आना अक्सर टाल जाता है .
उस दिन की घटना याद आते  ही अपने लिए धिक्कार उठने लगती है  . कैसी बेवकूफ़ी ,उफ़
 रोम खड़े हो जाते हैं .. '
मैं बैठी सुन रही हूँ -विस्मित सी .
उसने मुझसे पूछा था ,'तुम तो खाई खेली हो ?'
मैंने बैठने की पोज़ीशन बदली थी .
वे कहे जा रहीं थीं -
'हाँ .बिलकुल .'मैं नेउत्तर दिया था .'
उसकी कौतुक भरी दृष्टि मुझ पर टिकी थी ,
'अच्छा !'
'और क्या !घर में छोटी थी ,छूट मिलती रही ,बचपन से खूब खाती-खेलती रही '.
'वाह !'
मैं उसे देख कर हँस दी .
वह चुप हो गया .फिर अचानक बोला
'अच्छा, अब तुम जाओ.'
मैं चौंक गई .उसका विचित्र व्यवहार समझ में नहीं आया  कैसे बोल रहा है यह .
मुझे बड़ा अजीब सा लग रहा था.
'तुम फ़ौरन यहां से चली जाओ.'
मैं हकबकाई सी उठी अपना पर्स उठाया और एकदम चल दी .अपने कमरे पर आकर ही दम लिया .
रूम-मेट लेटी हुई थी पूछने लगी .'क्या हुआ ?'
'कुछ नहीं ,बस अच्छा नहीं लग रहा है .'
'घर की याद ?'
'पता नहीं क्यों आँखों में आँसू भर आए .ऐसा व्यवहार किसी ने मेरे साथ नहीं किया था .
मैं भी लेट गई चुपचाप .किसी से कुछ कहने को था ही क्या ?'
तब तो कुछ खास नहीं लगा .एक्ज़ाम हो गए सब तितर-बितर हो गए .
 बाद में जब खाई-खेली का असली मतलब पता लगा तो मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया .'
मैं क्या बोलती !बैठी रही आगे का सुनने के चाव में
 'जब भी वह घटना ध्यान में आती मन ग्लानि से भर जाता ..पता नहीं क्या सोचता होगा मेरे लिए ,पता नहीं और लोगों से उसने क्या-क्या कहा होगा .
बाद में जितने दिन होस्टल में रही लोग कैसी निगाहों से देखते होंगे मुझे ,और मैं बेखबर .लोगों को लगता होगा इसकी आँखों में शरम है ही नहीं .
इसीलिये बाद में कभी किसी से मिली नहीं .और फिर तो सब इधर-उधर हो जाते हैं .सबको भूल जाना चाहती थी मैं. '
'और फिर कोई चिट नहीं भेजी ?'
'एक्ज़ाम पास आ रहे थे ,सब बिज़ी हो गए थे .
मेरी उस स्वीकारोक्ति के बाद .उसने कभी मिट्ठू के हाथ कोई चिट नहीं भेजी और कभी जब मौका पड़ा भी  बड़ी सभ्यता से बात करता था .
शादी के बाद भी सर्विस करती रही मैं
 पर सेमिनार ,आदि के अवसर पर यही डर रहता था कि कहीं वह सामने न पड़ जाय !
बहुत डर-डर कर रही हूँ .
मैंने आज तक किसी से नहीं कहा आज अपना मन हल्का कर रही हूं ,पर अब मन पर से वह बोझ उतर चुका है ,इसीलिए कह पाई हूँ .'
'और कहीं वह मिल गया तो ?'
वह हँसीं -निश्छल हँसी .
'पता नहीं कैसी स्थिति हो !पर अब घबराहट नहीं लगती .
उम्र के इस प्रहर में अपनी बेवकूफ़ी पर तरस  आता है .
अब वह सामने आ गया तो उससे भी हँसकर बोल लूँगी .'
'पूछ लीजिएगा उसने क्या समझा था . '
वे सिर्फ़ मुस्करा दीं .

उज्जैन आ गया था ,उन्हें यहीं तो उतरना था .
***

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

तार -

*
वह बड़ा उदास था।थोड़ी देर पहले ही उसे तार मिला था,उसके भतीजे की मृत्यु हो गई थी।जवान भतीजा,खूब तन्दुरुस्त,अच्छा ऊँचा पूरा,नाक के नीचे स्याह रेखाएँ बहुत स्पष्ट दिखने लगीं थी।डूब कर मर गया।ऐसी कोई बात तो थी नहीं ,बड़ी मस्त तबियत का था।किसे मालूम था जाकर वापस नहीं लौटेगा ? लौटी उसकी निष्प्राण देह!माँ-बाप कैसे सहन कर पायें,छोटे-छोटे भाई-बहिनो को कैसा लग रहा होगा !
उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ कि हितेन मर गया है।अभी कुछ दिन पहले ही तो उसके पास आया था।एक हफ़्ते साथ-साथ रहे थे दोनो ।उम्र मे भी तो कोई खास अंतर नहीं था।घर मे कोई उसके सबसे निकट था तो बस हितेन ही।भतीजे से अधिक दोस्त था वह उसका। उसे बार-बार लगता अभी दरवाज़ा खुवेगा और बैग लिये हितेन कमरे मे घुस आयेगा,खूब जोर-जोर से हँसकर सारा कमरा गुँजा देगा। नहीं, वह अब कभी नहीं अयेगा!
वह धीरे-धीरे उठा,रोज़मर्रा के काम तो होंगे ही,देह के धर्म तो निभाने ही पड़ेंगे!बिना किसी उत्साह के उसने कपड़े बदले। चाय भी ते नहीं पी थी अभी,पर उसका मन नहीं हुअ कि चाय बनाये और पिये।उदासी और बढ़ गई।रेलवे टाइम-टेबल उठा कर देखा - पौने बारह बजे मिलेगी पहली गाड़ी,तब तक क्या किया जाय?खाना खा ले?फिर तो कहीं आधी रात को पहुँचेगा। मौत के घर मे जाते ही खाने-पीने का डौल नहीं बन पायेगा।यह सब अच्छा भी तो नहीं लगेगा।फूछनेवाला होगा भी कौन?भइया भाभी बेचारे जाने किस हाल मे होंगे!पता नहीं कौन-कौन होगा वहाँपर !
 भूख- प्यास ? शरार अपनी माँग करेगा ही।
उसने उठ कर कमरे का ताला लगा दिया।पाँव होटल की ओर बढ़ चले।रास्ते मे भी वह हितेन के बारे मे सोचता रहा।बड़ी छेड़ने की आदत थी,'चाचा,चाची के और बहने होंगी ?','यार,चाचा तुमने कुछ सूट-ऊट के कपड़े नहीं खरीदे?' वह कह देता , 'अब मै लेकर क्या करूँ,सब वहीं से आ जायेगा।' जब से शादी तय हुई थी ,कुछ-न-कुच परिहास करता ही रहता था।'हाँ,चाचा,अब तो कुछ नामा इकट्ठा कर लो।'बात बड़े पते की कहता था।बीच-बीच मे उसे भाई का ग़मगीन चेहरा और पछाड़ें खाती भाभी के चित्र दिखाई देते रहे।एक मन हुआ खाना खाने न जाय! लेकिन मेरे न खाने से क्या होगा?वहाँ जाकर पता नहीं कब क्या हो!दौड़ भाग भी तो सारी उसी को करनी पड़ेगी।पता नहीं क्या-क्या होगा !उसका मन बड़ा भारी हो आया।भूख बड़े ज़ोर की लग रही थी।खाना खा लेना ही ठीक है ,चाय भी तो नहीं पी है!इस तरह न खाने को देखेगा भी कौन?
रास्ते मे गुप्ता दिखायी दे गया।उसने कतरा कर निकल जाना चाहा,जैसे देखा ही न हो। पर गुप्ता आवाज़ दे बैठा ,'क्या मुँह लटकाये चले जा रहे हो?   शादी क्या तय हुई, दुनिया-ज़माने का भी होश खो बैठा, मेरा यार।'
उसने सोचा कह दूँ भतीजा मर गया है,वही हितेन ,जो यहाँ आया था- पर वह रुक गया।यह भी क्या सोचेगा ,सगा भतीजा मर गया और चले जा रहे हैं खाना खाने!
'आज पता नहीं माइंड बड़ा अपसेट हो रहा है,' वह गुप्ता की ओर हल्के से मुस्करा दिया।
'यह बात!पेट मे चूहे कूद रहे होंगे।चलो ,तुम्हें कुछ स्पेशल खिलायें!'
उसने होटल के नौकर से दाल और फुल्का ले आने को कहा,गुप्ता ने बीच मे टोक दिया,'कहाँ बहक रहे हो आज?ओ शंभू, कबाब और टमाटर प्याज़ की प्लेट बाबू के आगे लाकर रख।'
'लहीं यार, आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं।'.
'तो खाने से क्या दुश्मनी है?चल, बिल मेरी तरफ!तू क्यों फ़िक्र करता है? आखिर ,दोस्ती किस दिन के लिये है?'
वह इन्कार नहीं कर सका।बढ़िया खाना और चार जनो के बीच हा-हा-हू-हू मे उसके ध्यान से सब उतर गया।जितना उदास और भारी मन लेकर वह आया था ,उतना ही हल्कापन और भरा पेट लेकर बाहर निकला।उसे लगा खाली पेट मे हर दुख बहुत बड़ा लगा करता है।
मेरे अफ़्सोस करने से होगा भी क्या!जो होना था हो चुका ,उसके लिये कुछ किया भी तो नहीं जा सकता! मेरे पास आता था तो मुझे इतना भी लगा नहीं तो किसी के मरने पर किसी और को कौन सा फ़र्क पड़ता है? सुनकर चच्-चच् सभी कर देते हैं,एकाध बात खोद कर पूछ लेते हैं और अपना रास्ता लेते हैं।अपनी-अपनी व्यस्तताओं मे दूसरे के सुख-दुख का ध्यान किसे रहता है?
गुप्ता को नहीं बताया अच्छा ही किया ,उसने सोचा ,दुख तो केवल उन्हीं लोगों को होता है जिनका कुछ सम्बन्ध होता है।अन्य लोगों के लिये उसका महत्व ही क्या!और सब  ऊपरी दिखावा करते हैं।होँ भाई को तो दुख होगा ही,बहुत दुख,घर का बड़ा बेटा था,उसी पर सारी आशाएँ केन्द्रित थीं।पाले-पनासे की ममता,घर के एक बहुत खास सदस्य की दुखद हानि!और किसी ,किसी बाहरवाले को क्या फ़र्क पड़ता है उसके होने या न होने से?यों मुँह देखी सभी कह देते हैं।
गुप्ता को मेरा चुप रहना अजीब लग रहा होगा ,सोच कर उसने उसकी ओर मुस्करा दिया।दोनो ने साथ-साथ सिगरेट पी फिर वह अपने कमरे पर चला आया।अन्दर कदम रखते ही उसे वही तार दिखायी दे गया।घड़ी देखी ,गाड़ी जाने मे अभी बहुत देर है।चलो दफञ्तर चल कर ही एप्लीकेशन दे देंगे यहाँ बैठ कर भी क्या होगा।उसने तार उठा कर जेब मे डाल लिया - एप्लीकेशन के साथ नत्थी दर दूँगा  - हो सकता है,बाद मे छुट्टी बढ़ाने की ज़रूरत पड़ जाये।
उसे एकदम ध्यान आया - कल तो छुट्टी है सेकन्ड सेटर डे की,और परसों संडे!आज छुट्टी लेता हूँ तो ये दोनो बेकार जाएँगी।आज और तार न आता!फिर उसके दिमाग़ मे विचार आया,आजकल तो तार भी अक्सर साधारण डाक से भी देर मे मिलते है।मै ठहरा अकेला आदमी!कोई जरूरी नहीं तार के टाइम कमरे पर ही मिलूँ!तो ये दिन निकाल दूँ,तीन छुट्टियाँ एकदम बच जायेंगी।और आब वहाँ धरा ही क्या होगा,शुरू का सारा काम निबट चुका होगा!
उसके पाँव ऑफ़िस की ओर चल पड़े।अच्छा हुआ गुप्ता से कहा नहीं ,और छुट्टी की एप्लीकेशन भी नहीं दी।एक बड़ी बेवकूफ़ी से बच गया।उसने चैन की साँस ली।
हाँ,बेकार की भावुकता मे क्या घरा है?आज ऑफ़िस करके रात की ट्रेन से चला जाऊँगा,हद -से-हद कल सुबह!यह भी तो हो सकता था ,मै पहले ही कहीं निकल जाता और फिर तार आता! मै खाना खाने होटल जा चुका होता,फिर वहीं से दफ़्तर चला जाता,तब तो शाम को ही कमरे पर पहुँचता!वह काफ़ी निश्चिन्त हो गया।
ऑफ़िस  मे उसका मन काफ़ी हल्का रहा,खाया भी तो खूब पेट भर के था!चार जनो के साथ ही तो हँसने-बोलने की इच्छा होती है ,नहीं तो चला जा रहा होता ट्रेन मे मोहर्रमी सूरत लिये!
लेकिन हितेन था बड़ा हँसमुख!जब भी आता भाभी से काफ़ी-सा नाश्ता बनवा लाता था।मट्ठियाँ तो उसे बहुत पसन्द थीं औऱ उनके साथ आम का अचार!चचा-भतीजे वहीं कमरे मे चाय बनाते और मिल कर खाते थे।अब कौन लायेगा मट्ठियाँ!वैसे तो कभी भाभी ने भेजी नहीं,वो तो ये कहो अपने बेटे के साथ भेजती थीं,सो मै भी साथ खा लेता था!पर भाई !भाई के लिये उसके मन मे बड़ी करुणा उपजी।पिता के बाद उन्हीने गृहस्थी का भार सम्हाला था। उसे पढ़ाया-लिखाया,और अब तो शादी भी तय कर दी थी- वहीं कहीं।पर अब साल भर तो उसकी शादी होने से रही!
'कैसे ,चुपचाप बैठे हो आज यार?नींद आरही है क्या?'
वह एकदम चौंक गया,फिर चैतन्य हो गया।
'कल रात नींद ठीक से नहीं आई,' फिर उसे लगा जवाब कुछ मार्के का नहीं बन पड़ा तो उसने जोड़ दिया,'जब दिल ही टूट गया....'और बड़े नाटकीय ढंग से सीने पर हाथ रख लिया।
'छेड़ो मत उसे। अपनी होनेवाली बीवी के वियोग का मारा है बेचारा!'
सब लोग खिलखिला उठे।
अपनी प्रत्युत्पन्न मति के लिये उसने मन-ही-मन अपनी पीठ ठोंकी।
किसी को पता नही लगने देना है अभी।बताने से और दस बातें निकल आयेंगी।अजीब-अजीब बातें जिनका जवाब देने मे उसे और उलझन होगी।अभी तार ही तो मिला है कैसे क्या हो गया कुछ भी तो पता नहीं।बहुत पहले पढ़ा हुआ रहीम का एक दोहा उसे याद आ गया-'रहिमन निज मन की बिथा मन ही राखो गोय' रहिमन बिचारे भी कभी ऐसी परिस्थिति मे पड़े होंगे-क्या पते की बात कह गये हैं!
घर पर उसकी प्रतीक्षा हो रही होगी!पर उसके होने न होने सेफ़र्क क्या पड़ता है?दुख तो वास्तव मे उसी को भोगना पड़ता है,जिस पर पड़ता है बाकी सब तो देखनेवाले हैं ,तमाशबीन की तरह आते है चले जाते हैं।'हाय.,ग़जब हो गया','बहुत बुरा हुआ', ये सब तो व्यवहार की बातें हैं।ग़मी मे जाना भी तो लोगों की एक मजबूरी है।कैसे घिसे-पिटे वाक्य कहे-सुने जाते हैं।....पर भइया-भाभी बड़े दुखी होंगे।दुख तो होना ही है,इतना बड़ा जवान लड़का ,जिस पर ज़िन्दगी की आशायें टिकी हों,देखते-देखते छिन जाये!कैसा लग रहा होगा उन्हे!
'सेकिन्ड -सेटर डे'भनक उसके कानो मे पड़ी।मुँह से निकल गया ,' क्या बात है?'
'पूछकर मना मत कर देना।'
उसकी जगह उत्तर गुप्ता ने दे दिया ,'अरे ,हम लेग क्यों मना करेंगे?मना करे तुम लोग ,जो दो-दो,चार-चार बच्चों के बाप हो। ला मिला हाथ1 '
गुप्ता ने उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाया।उसने बिना सोचे-समझे अपना हाथ दे दिया।
'दो दिन की छुट्टियाँ हैं तो पिकनिक का प्रोग्राम बना रहे हैं।'
'नहीं,नहीं ,मै तो कल घर जा रहा हूँ।'
'अब धोखा मत दे यार!फिर यहाँ क्या मज़ा आयेगा,ख़ाक?' गुप्ता फिर बोल दिया।
'नहीं यार गुप्ता, मुझे ज़रूरी जाना है।ता....खत आया है..।'वह कहते-कहते सम्हल गया।
कहते-कहते उसका हाथ फिर पैन्ट की जेब मे चला गया जिसमे तार पड़ा था।उसने फ़ौरन हाथ बाहर खींच लिया। उसकी अस्वाभाविकता पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
'तो, कौन वहाँ बीवी इन्तज़ार कर रही है तेरी?'
'अरे वही तो चक्कर है',क्या बोले यह सोचने का मौका उसके पास नहीं था।
उत्सुकता मे दो-चार जने उसके पास खिसक आये।
यह क्या कह दिया उसे पछतावा होने लगा।
' तो यह कह ससुर जी ज़ेवर चढ़ाने आ रहे हैं ? '
'और हमारी मिठाई?'
उसने मन-ही मन स्वयं को धिक्कारा।कुछ उत्तर सूझ न पड़ा। मुँह से निकला ,'अब तो घपले मे पड़ गई ...साल...साल..' कहते-कहते रुक गया ।'
'जाने दे यार ! जब कह रहा है जाना जरूरी है।'
'तो एक दिन मे क्या फ़र्क पड़ जायेगा?'
' वह चुप रहा ,हाँ एक दिन मे क्या फ़र्क पड़ जायेगा -उसके भी मन मे आया। न हो कल शाम को चला जाऊँगा ,रात की गाड़ी सो! परेशान लोगों को रात मे न जगाना ही ठीक रहेगा । उसने हामी भर दी ।
अपने आप ही फिर उसका हाथ जेब मे चला गया और तर के कागज से फिर छू गया।उसका मन फिर दुविधा मे पड़ गया।पिकनिक पर जाना अच्छा नहीं लगता,क्यों न लोगों को बता दूँ? पर ये लोग क्या सोचेंगे ?गुप्ता तो सुबह से ही पीछे लगा है.सहसे कहता फिरेगा! नहीं-नहीं ,बेकार है कहना।
कोई सुनेगा तो क्या कहेगा? एक भाई ग़मी मे पड़ा है दूसरा पिकनिक पर जा रहा है। पर किसी को क्या पता कि मुझे तार मिल गया है१उसने अपने मन को संतुष्ट कर लिया ।
इतनी जल्दी उस वातावरण मे जाने मे उसे उलझन हो रही थी।भाई के बाद वही घर का बड़ा है।उस स्थिति मे वह स्वयं को बड़ा असहाय अनुभव करने लगा।उसे स्वयं पर बड़ी दया आने लगी।उस दृष्य की कल्पना कर वहफिर विचलित हो गया।
'क्यों शादी क्यों टल गई?लड़की मे कुछ...।'
'नहीं,नहीं उसकी रिश्तेदारी मे मौत हो गई है,'उसने अपना पिण्ड छुड़ाया।
' वाह मरे कोई और शादी किसी की रुके ?'
बड़ि शायराना अन्दाज़ मे रिमार्क पास किया गया था।उसे फिर उलझन होने लगी पर वह चुप रहा।
'इसीलिये ऑफ़ है मेरा यार ?' गुप्ता ने फिर टहोका
उसका मन समाधान खोज रहा था-जब कल जाना है तो आज बेकार परेशान हुआ जाय!उसने स्वयं को तर्क दिया-दुख किसी को दिखाने के लिये थोड़े ही होता है ,वह तो मन की चीज़ है ।ये ऊपरी व्यवहार तो चलते ही रहते हैं ।चलो ,बिगड़ी बत सम्हल गई!
सुबह खाने का बिल गुप्ता ने दिया था।क्यों न आज शाम को उसका उधार उतार दूँ!वह गुप्ता की ओर मुड़ा।
'ऐगुप्ता, भाग मत जाना ,साथ चलेंगे ।'
'भागूँगा कहाँ?हम दो ही तो हैं फ़िलहाल अल्लामियाँ से नाता रखनेवाले ।'
बेकार कमरे पर जा कर क्या करूँगा ,उसने सोचा,यहीं से घूमने निकल जोयेंगं,फिर खाना खाकर पिक्चर चले जायेंगे ,रात भी कट जायेगी ।
उसे फिर भूख लगने लगी थी और ग़म फिर उसके मूड पर छाने लगा था। जल्दी से जल्दी वह होटल पहुँच जाना चाहता था। खाली पेट मे उलझने और बढ जाती हैं ।
भतीजे की मृत्यु अब उसके लिये पुरानी बात हो गई थी ।घर पहुँच कर फिर रिन्यू कर लेंगे उसने सोचा ।
उसका हाथ फिर जेब मे चलागया और उस काग़ज  से टकरा गया । जैसे बिच्छू छू गया हो ,उसने झटक कर जेब से हाथ निकाल लिया और गुप्ता के साथ होटल की ओर बढ़ गया ।
***

रविवार, 8 अगस्त 2010

बखत की बात

जैसे ही मैने रमेश को आवाज लगाई ,अम्माँ जी ने आकर टोक दिया ,'देखो बहू,रमेस, को रमेस न कहा करो ।'
'क्यों अम्माँ जी?'
'इतना तो खुद समझना चाहिये । रमेस तुम्हारे छोटे जेठ का नाम हैगा ।मुँह से कैसे निकल जाता है तुम्हारे ?'
मैं एकदम से चकपका गई।पूछ बैठी,'फिर क्या कह कर आवाज दूँ उसे ?'
'गनेस कहा करो ।'
मेरी बडी इच्छा हुई जोर से हँसूँ,लेकिन खूब सिर झुकाकर बोली ,'अच्छा ।'
बडी मुश्किल है ।
देवताओं का तो हमारे यहाँ पूरा जमघट है -ससुर जी हैं कृष्णचन्द्र,तइया ससुर रामकिशन,चचिया ससुर शिवशंकर ,फूफा जी विशन स्वरूप और रही-सही कसर पूरी कर दी जेठों और ननदोइयों ने ।आखिर कौन-कौन से नाम निकाल दूँ अपनी जीभ से ?
मुँह से निकला ,'हे भगवान!फिर मैं किसी देवता नाम न लूँ ?'
'बहू देखो, भगवान-भगवान मत करो ।भगवान हमारे बडे भैया का नाम हैगा -तुम्हारे ममिया ससुर ।और देवता दीन हैं तुम्हारे मौसिया ससुर ,हमारे मँझले जीजा ।इतना मान तो हमेरे मैकेवालों का होना ही चाहिये ।'
' हाय अल्ला ,अब नहीं कहूँगी अम्माँजी ।'
'तुम हिन्दुअन के घर की बहू हो ,ये अल्ला -अल्ला काहे करती हो ?अरे ठीक से बोलो ,नहीं कोई समझेगा मुसलमानी ब्यह लाये हैंगे ।'

वैसे तो मेरी ससुरालवाले बडे उदार हैं।पर्दा तो नहीं के बराबर है ,और बहू नौकरी कर ले तो भी कोई आपत्ति नहीं।अम्माँजी जरा पुराने ढर्रे पर हैं,पुराने कायदे पसन्द हैं उन्हें। क्या किया जाय उनका भी मन रखला है ।पर अभी एक ही साल तो हुआ है शादी को, इस घर में तो और भी कम दिन! आदतें बदलते बदलते ही तो बदलेंगी ।

यह जो रागिनी है मेरी ननद, मेरी आदतों से वाकिफ़ है ।शादी के पहले से पहचान है ,चार साल साथ-साथ पढी हैं ।हम दोनों की खूब घुटती थी।ऐसे मौकों को वही सम्हाले रखती है ।साल-डेढ साल में वह भी चली जायेगी ।शादी तय हो गई है ,लडका विदेश गया है ।दोनों की चिट्ठी-पत्री चलती है,पर इसका पता सिर्फ मुझी को है।
ससुर जी बडे रोशन-खयाल हैं।पढी-लिखी बहू को देख-देख सिहाते हैं ।कहते हैं इत्ता पढा-लिखा है उसने,घर में पडे-पडे ऊबेगी ।उसकी इच्छा है तो करने दो नौकरी ।'
खुद इन्टरव्यू दिलाने ले गये थे ।लौट कर बोले ,'देखना ,हमारी बहू बडों-बडें के कान काटेगी ।'
अम्माँजी कुछ बोलीं नहीं ,मुँह बिचका कर कमरे में चली गईं थीं।
*
आजकल परीक्षायें चल रही हैं ,नंबर वगैरा चढाने का काफी काम घर लाना पडता है ।रागिनी बहुत मदद करती है मेरी।
मैं नंबर चढा रही थी ,वह बोल रही थी ।वह बोली ,'अब मैं बोलती हूँ ,तुम मिला लो ।चेकिंग भी यहीं हो जायगी ।'
मैं बोलने लगी ।इतने में नाम आया -इन्द्रेश कुमारी ।पास के कमरे से झाँकर सासजी बोलीं ,'इन्द्रेस कौन ?'
वैसे तो उन्हें कुछ ऊँचा सुनाई देता है,पर ऐसी बातें बड़ी जल्दी सुन लेती हैं ।
'भाभी की एक स्टूडेन्ट है ।और देखो तो अम्माँ ,एक जगदीश भी है।'
'तुम्हारी किलास में है?'मुझसे प्रश्न हुआ ।
'हाँ ,मेरी में ही तो ।'
'तुम रोज-रोज नाम ले के पुकारती होओगी ?'
'हाजरी तो रोज ही लेनी पडती है ।'
'सब लड़कियन का सामने दूल्हा और जेठ का नाम तुमसे कैसे बोला जाता हैगा ?'
'नाम कहाँ लेती हूँ ?'
'कुछ नहीं उनके नाम आते हैं तो शकल देखके पी लगा देती हूँ .' मैं साफ़ झूठ बोल गई ।
'अउर का ?हमसे तो सुहागनों के न्योते में भी तुम्हारे ससुर का नाम नहीं निकलता हैगा ,हम तो के सी कह देती हैंगी ।'
'के.सी. मतलब कृष्ण चन्द्र ' समझने की कोशिश में मैं बोल बैठी ।
अम्माँजी ने आँखें तरेर कर देखा ,मैने जुबान काट ली -हाय राम, ससुर जी का नाम ले बैठी ।
'माफ करो अम्माँ जी ,गलती हो गई ।आगे से कभी नहीं कहूँगी ।'
वे पैर पटकती चली गईं ,कुछ शब्द पीछे छोड गईं,'आजकल की बहुअन को जरा सरम -लिहाज नहीं--'
रागिनी मेरा मुँह ताके जा रही थी,मुस्करा कर बोली ,'सच्ची भाभी, शकल देख के हाजरी लगा देती हो ?'
'चलो हटो ! मैं काहे को शकल देख कर हाजरी लगाऊँ? कल तो इन्द्रेश को आवाज़ लगा कर वो फटकार लगाई कि बस ।'
'और ,जगदीश ।'
'वो तो जेठ जी हैं;फिर भी बुलाना तो पडता ही है ।ससरी बडी बदमाश है।इसकी तो एक चिट्ठी पकड़ी थी हम लोगों ने ..'
रागिनी खिलखिला कर हँसी ,'फिर तो खूब मजा लिया होगा तुम लोगों ने ।अच्छा क्या लिखा था ,हमें भी बताओ न।'
'अरे ,वही सब जो तुम लोगों की चिट्ठियों में होता है।बस, भाषा जरा सस्ते टाइप की और भाव भी अधकचरा ।'
'तुम्हें क्या पता हम लोग क्या लिखते हैं?मेरी चिट्ठी चुरा के पढती हो तुम ?'
'वाह,वाह !ये अच्छी तोहमत !'
'सच्ची बताओ भाभी ,तुमने हमारी चिट्ठियाँ पढी हैं ?'
'अरे बाबा ,चुरा कर क्यों पढूँगी ?तुम्हारे ढंग देख कर अंदाज तो लगा सकती हूँ ।'
वह कुछ शान्त हुई ,'भाभी तुम बड़ी खराब हो ।'
'मैं खराब हूँ !अभी अम्माँ जी को पता चले कि तुमलोगों की चिट्ठी-पत्री चलती है ,और तुम सुकान्त का नाम लेती हो तो तुम्हारी गर्दन काट के फेंक देंगी ।'
'कहीं न काट के फेंक देंगी ।अपनी बिटिया की तो सब बातें दबा दी जाती हैं, वो सब तो तुम्हें सुनाने के लिये है ।'
'हो समझदार !फोटोवाली बात याद है न?'
'अच्छी तरह?'
मेरे कमरे में ,जो इनके साथवाला मेरा साइड पोज का फोटो फ्रेम में लगा रखा है ,अम्माँजी उसे उठा कर देखने लगीं एक दिन ।घुमा-फिरा कर ध्यान से देखती रहीं ,फिर पूछने लगीं ,'ये क्या गाल पे गाल धर के खिंचाया हैगा ।
'मैं कटकर रह गई।बोली ,'थोडा आगे-पीछे खडे हैं ,साइड से तो ऐसा ही पोज़ आता है।'
'पोज-ओज तुमलोग बनाओ,हम क्या जाने !हमें तो सबके सामने ये सब देख के सरम लगती हैगी।'

बात लग गई थी मुझे ।सुकान्त ने विदेश जाने से पहले रागिनी के साथ फोटे खिंचाया था -रागिनी के बहुत पास खडे उसके कन्धे पर हाथ धरे उसकी आँखों मे देख रहे थे ।फ़ोटो मेरे हाथ पड गया ।मैंने मौके का फायदा उठाया ।एक दम अम्माँ जी के पास पहुँची ।
'अम्माँजी ,एक चीज़ दिखाऊँ?'
'क्या है ?'
'रहने दीजिये ,आप नाराज न हो जायें कहीं ' मैंने वापस होने की मुद्रा बनाई ।
'क्या है बहू, दिखाओ तो ।'
'एख मज़ेदार चीज़ है,  पर पता नहीं आपको कैसी लगे !'
'ऐसा क्या है ?लाओ तो इधर,  देखें ।'
'आप नहीं मानतीं तो लीजिये ,' मैंने फ़ोटो पकडा दिया ।
'ऐं,ये किसका फोटू है ?कैसी बेहयाई से खिंचवाया हैगा,' ठीक से पहचानने के लिये चश्मा लगाने लगीं।मैं ध्यान से उनकी शकल देखती रही ।चश्मा लगा कर उन्होने ध्यान से देखा ,पहचाना फिर एकदम सामने से हटा दिया ।मुझसे कहा ,'बेहया कहूँ की !लड़कियन के ऐसे फोटू कहूँ महतारी -बापन को दिखये जात हैंगे ?अरे, दूल्हा ने कहा होगा खिंचाओ. क्या करती बिचारी !'
मैंने रागिनी से कहा,'हाँ ,तुम्हें तो उनने बिना शादी के दूल्हा -दुल्हन बना रखा है।'
'डोन्ट करो परवाह भाभी, अम्माँओं की यह वीकनेस जग-विदित है ।अपना याद करो न ।और तुम्हें तो मैं हमेशा सपोर्ट करती हूँ ।'
'तभी तो तुम्हारी हर नालायकी पचा जाती हूँ ।'
*
'राधा शर्मा पन्द्रह,अनुपमा बीस ,हिना उन्नीस ,स्वप्ना तेरह ,टेकवती  सात ,हरभजन ..'
'अरे रे रे ,ये क्या कर दिया... ?'
'क्या हुआ ,गलत चढ गये ?'
'तुमने तो आसमान से एकदम ज़मीन पर लाकर पटक दिया ।'
'क्या मतलब ?'
'मधुरिमा ,स्वप्ना ,हिना और एकदम से टेकवती ..?तुम्हार एस्थेटिक सेंस कहाँ चला गया भाभी ? जरा नामों का सीरियल पहले ही ढंग से बना लिया करो ,ऐसा धक्का लगता है कि .. ।'
बडी देर से नंबर चढाते-चढाते ऊब रहे थे ,चाय पीने की इच्छा हुई ।इतने में रमेश दिखाई दिया ,मैंने आवाज लगाई,'गणेश ,ओ गणेश !'
उसने सुना ही नहीं ,चलता चला गया ।
'ओ रे गणेश ,सुनता नहीं है ,' मैं फिर चिल्लाई ।
पर उसका नाम गणेश हो तो वह सुने ।हार कर अम्माँ जी की शरण ली ।'
'अम्माँ जी ,चाहे जित्ती आवाज दो ,ये गणेश सुनता नहीं है।'
'क्यों रे ,बहू ने आवाज दी तू बोला क्यों नहीं ?'
'हमका नाहीं बुलावा रहे ,ई तो गनेश का गुहरावत रहीं ।'
'तो, तू बोला क्यों नहीं ?'
'हमार नाम रमेस अहै ।'
नहीं तेरा नाम गनेश हैगा ।'
यह नया नामकरण किस खुशी में हो रहा है ,वह समझ नहीं पाया ,'हम आपुन नाम ना बदली ।'
'नाम से क्या फरक पडता हैगा ?अरे रमेस न कहा गनेस कह दिया ।'
'वाह माँ जी ,बाप दादा केर दिया नाम अहै.  हम काहे बदली ?'
'अच्छा, तो घर में तुझे क्या कहते हैं ?'
'महतारी छुटकू कहत रहीं ,बाप रमेसुआ बुलावत रहे ,भइया रमेसू कहित हैं ...।'
'अच्छा तो फिर तुझसे छुटकू कहें /'
'हां ,ईमाँ कउनौ बात नाहीं।काहे से कि घर माँ छोट रहे तौन ...।'
'अच्छा तो बहू,इससे छुटकू कहा करो ।'
ननद बैठी-बैठी मुस्करा रही है।
'अम्माँ ये नाम भाभी के लिये है कि हम भी ...'
'तुम ससुर जेठों की लिस्ट मँगा कर अभी से आदत डाल लो ।दूल्हा का नाम तो ...',मैने वाक्य अधूरा छोड दिया ।रागिनी ने आँखें तरेरीं ,मुझे कहना थोडे ही  था उसे छेड़ना भर था ।
*
'तुमने इज्जतबेग ना म सुना है,भाभी ?'
'हाँ ,इज्जतबेग -अस्मतबेग दोनों सुने हैं।'
'सुनकर कैसा लगा तुम्हें?'
'लगना क्या है उसमें ?बस नाम हैं जैसे तुम्हारे सुकान्त ।'
'चुप करो भाभी ,सुकान्त को क्यों घसीटती हो ?इन दोनों नामों की बात कर रही हूँ ।तुम्हें कैसे लगते हैं ये ?'
'मतलब बोलो अपना ।'
'इज्जतबेग सुकर लगता है जैसे किसी ने अपनी इज्जत उठाकर बैग में रख दी हो और चल दिया हो ;अस्मतबेग भी....' 'खाली रहती हो ,तभी न ये खुराफातें सूझती हैं ।'
इतने में अन्दर से आवाज आई,'किसकी इज्जत ले ली ?'
हम दोनों चौंक कर एकदूसरी का मुँह देखने लगीं.
अम्माँ जी चली आ रही थीं ।
मुझसे कहने लगीं,'कैसी-कैसी बातें करती हो तुमलोग !रागिनी, तुम तो थोडी सरम करो ।...और बहू परसों साम को तुम माल रोड के ठेले पे गोलगप्पे खा रही थीं ?'
मैने खोज भरी निगाह रागिनी के चेहरे पर डाली ।
'मैं और चाट ! किसने कहा अम्माँ जी ?'
'वो मिसराइन चाची इस्टेसन से लौट रहीं थीं ;कह रहीं थीं -हमें तो बिसवास नहीं हुआ ।इत्ती कायदेवाली बहू नन्हा-सा बिलाउज पहने ,अधनंग पीठ किये पत्ते चाटती हैगी ! हमने कहा -हमारी बहू तो इसकूल के परोगराम में गई हैगी . वो कहाँ से जायगी ?तो बोलीं -नहीं ,वही पीली जरी के बूटोंवाली साडी पहने थी ।'
परसों के प्रोग्राम में तो भाभी ने बैंगनी साडी पहनी थी ,पीली साड़ी, तो कबसे मेरे पास पडी है अम्माँ ।ये तुम्हारी पडोसिने भी घर में आग लगानेवाली हैं ,झूठी लगाई-बुझाई करती रहती हैं।'
'अरे,  अब समझी ,' मैंं भी शुरू हो गई ,'मेरी वो सहेली थी न रमा ।मुझसे बहुत शकल मिलती है. सब कहते हैं।मेरी साड़ी देख के उसने भी वैसी ही खरीदी थी ।दूर से तो लोगों को अक्सर ही धोखा हो जाता है ।'
'वो तुम्हारी सहेली कैसी है?'
'पूछिये मत अम्माँजी , बडी बेशरम है ।सारी पीठखोले घूमती है ।अब तो बाल भी कटा लिये हैं... 'कहते-कहते मेरे हाथ अपने कटे बालों पर चले गये,जिन्हें अब तक अम्माँजी से छिपाये थी ।
पीठ पर पल्ला खींचती मैं हड़बड़ा कर वहाँ से हट गई ।
रागिनी मेरे पीछे-पीछे चली आई,'क्यों ,ये बाल कटाने की बात क्यों कही तुमने?'
'घबराहट में एकदम मुँह से निकल गया ,रागिनी।......ये सब तुम्हारी वजह से हुआ।तुम तो उन्हें दिखाई नहीं दीं मै पकड गई ।....और बाल भी तुम्हीं ने जिद करके कटवाये ।'
'वाह ,कित्ती अच्छी लगती हो भाभी, जरा भैया के दिल से पूछो !और हमने तो तुमसे भी छोटे कराये हैं ।अगर अम्माँ कहें तो कह देना -दूल्हा ने कहा कटाओ,मैं मना नहीं कर पाई, बिचारी ।'
*
'अम्माँजी ,वो जो मेरी सहेली है न, रमा जो मेरे जैसी लगती है ....।'
'कहती तो रहती हो हमेसा ,कभी घर पे नहीं लाईं, बहू?'
'उस बेहया को घर पर लाकर क्या करूँ ?अपने पति का तो नाम लेकर पुकारती है ।लव सेरिज की है ,आपको अच्छी नहीं लगेगी ।शादी के पहले भी कॉलिज में मिलने आता था..।'
'लडकियन के इस्कूल में ..?'
'अपनी बहन को बुलाने के बहाने से जाता था।'
'किसकी बात कर रही हो ?'
'उसी रमा की ।बडी बेशरम है।मैं तो उसका साथ ही छोडे दे रही हूँ ।'
मुझ लगा अम्माँ हल्के से मुस्कराईं ।
'बखत-बखत की बात है ।न देखो तब तक लगता है ।अब घर-घर यही हाल है ।'
मैं चौंकी ,' क्या हाल अम्माँजी?'
अरे, कुछ नहीं ,बहू।तुम उसे कहती हो ,वो तुम्हें कहती होयगी ।इन्द्रेस भी तो जाते थे रागिनी को बुलाने ।तुम दोनों का सहेलापा था ।अब क्या उसे कहें क्या तुम्हें ?'
अम्माँ जी मेरी ओर देख कर मुस्करा रहीं थीं ।

मेरे बोलने को बचा ही क्या था !
*