गुरुवार, 16 सितंबर 2010

राजा जोगी-

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हमारे बच्चों को हर ग़लत बात बड़ी जल्दी समझ में आ जाती है और सही बात बिना बहस के गले नहीं उतरती . कही जाना हो तो सफ़र चाहे जितना छोटा हो ,उनका ख़याल है ट्रेन छूटने के बाद पूरियां खाना ज़रूरी  है.
वह कार्यक्रम पूरा होने के बाद के बाद हर पाँच मिनट पर एक पूछता है अब बीकानेर कब आएगा ?'

दूसरी फ़ौरन बोलती है ,'कितनी देर में पहुँचेंगे ?'

अब मुज़फ़्फ़र नगर से बीकानेर ,अभी तो सारी रात बितानी है,इन लोगों से कैसे निपटूँगी !

पर मैxने भी तरकीब निकाल ली है ,तुम डाल-डाल तो हम पात-पात.


बड़े प्यार से समझाती हूँ .'अगर तुम दोनों सो जाओगे तो झट्ट से आ जाएगा ,नहीं तो गाड़ी और देर लगाती .रहेगी .'

और दोनों के दोनों मज़े से सो जाते हैं .
उस दिन भी दोनों खा-पी कर सो चुके थे.

पता नहीं कब एक अंधा भिखारी डब्बे में घुस आया .

गाने लगा ,'भिक्षा दे दे मैया पिंगला ,जोगी खड़ा है द्वार ..

मइया पिंगला ...'

हरियाणा का एक जाट जिसकी कुछ देर पहले एक लड़के से तू-तू मैं-मैं हुई थी .बोल उठा ,' लोग तो बिना बूझे कहते रहवें .वो तो बात ही होर थी .'

सबकी निगाहें उसकी ओर घूम गईं .पास बैठा आदमी ने पूछ ही लिया ,'बात क्या ?वो किस्सा तो सबन को मालुम है .'

'ना जी ना .राजा भरथरी को जो कह्या के विसकी राणी मंतरी से फँसी थी ,यो बात ना थी .जिस खात्तर राजा जोगी बण्या ,वो तो मामला ही होर था .'

सामने बैठे लड़के से रहा नहीं गया ,'क्या? कुछ और बात रही थी क्या ? '

'इब जाण के क्या करोगे ?लोग तो ये ई माणते रहवें .'

'सुणा दो बाबा ,इब तो असली बात सुना ई दो .'

और दो-चार लोगं को उत्सुक देख जाट बाबा ने शुरू किया -'अच्छा सुणों . होया क्या --एक बार राणी पींगला राजा भरथरी को न्हवा री थी ..'

किसी ने विस्मय प्रकट किया -

'राणी न्हवा री थी?'

'अरे न्हवाने को तो बाँदियाँ भतेरी ,राणी तो खड़ी निगरानी करे थी . उबटन-सनान करा के जब बाँदी अंगौछा ले के राजा का बदन सुकावण लगी ,राणी पिंगला की नजर राजा के पेट पे जा पड़ी .देख्या .नजर गड़ा के देखा ,उसकी तो हँसी छूटगी .'

राजा ने पुच्छ्या् ,'राणी क्यों हँसण लग री ?'

'कुछ भी नी ,यूँ ई हँसी आग्गी .'

'नीं,तू कुछ छिपावण लग री म्हारे से .इब तो तू बताई दे .'

वो जित्ता-जित्ता टालती जावे ,राजा पिच्छो पड़ता जावे .तब विसने कही ,'एक बात म्हारा दिमाग में आग्गी तो हँसी छुट पड़ी .'

'एसी कुण सी बात के बतावण में झंझट?'

'पर राणी बोल के ना देवे .

सुसरी बताती भी ना ,राज्जा में मन में कही .फिर खुसामद करण लगा 'अरी बता भी दे भागमान .'

भौत मिन्नत करी तो बोल्ली 'राजा,तुमने कभी सुण्या कि बेटा माँ से ब्या करे ?'

'बावली होग्गी के ?एसा भी कहीँ होवे ?'

राणी फिर चुप .

'ठीक,ठीक बात कर राणी ,तू तो पहेली सी बुझावे .'

'वो बात नी राजा .ये तो मामला ही होर है .तुम तो जिद्द किए जाओ .कोई बात होवे तो बताऊं ,फालतू में..बात .

ये तो बताती भी नीं .

पर राजा कैसा जो कबुलवा न लेवे .

पीछोई पड़ गया ,'कोई बात तो जरूर से ,पर तू बतावण नीं लग री .'

हार के राणी बोली ,'इसका ज्वाब मेरी भैण देगी ,तुम उसके धोरे चले जाओ .'

**

राजा को कल ना पड़ी .वो पौंच गया उसकी भैण के धोरे .

राजघराने की छोरी ,राणी तो होनाई था जी .

खूब खात्तर की विसने अपने भैनोई की .'

सारे डब्बे कान उधऱ ही लगे हुए थे

पति महोदय की किताब एक ओर पड़ी थी.सारा ध्यान कहानी में.

इन्हें लगा मैं ऊँघ रही हूँ,बोले
'बड़ी मज़ेदार कहानी चल रही है ,'

'हाँ सुन रही हूँ .कहने का ढंग भी एकदम ओरिजिनल .'

जाट की बात चल रही है ,'...विससे भी वोई बात पुच्छी राजा नें . बोला थारी भैण ने म्हारे को न्हाते देखा और हँस पड़ी में पुच्छा बताती भी ना .इब तो तूई बता .'

भैन बोली ,'कँवर साब ,कोई बात विसके मूँ से भी ना निकल सके ,तुम समझो . राज-घराने की मरजाद भी तो हुआ करे .'

इब तो चक्कर में पड़ गया राजा, जब तक जाण न लूँगा म्हारे को कल नी पड़ेगा ,दिद्दी. ,'

वो बोल्ली ,'घोड़े चढ़े आए हो थक लिए होगे .कल बात करेंगे राजा .

आज तो न्हाओ खाओ,बिसराम कर लो .फिर तो ...'

बाँदियाँ भेज दीं राजा को न्हवाने को ,असनान होते-होते खुद राणी कोई बहाने से चक्कर लगा गी.



फेर उसणे राजा को कह्या ' सब बताऊंगी राजा सब बताऊंगी ,पर सबर से '

राजा चुप .

फेर वो बोल्ली ,'तुम छे माह बाद आइयो ,जब मेरे छोरा होवेगा , अचानक सीट के किनारे बैठी ऊँघती झटके खाती लड़की को हाथ से रोकता जाट बोला .

...ओ बिब्बी ,अभी जा,पड़ती निच्चे ,इँघे को आजा .'
'हाँ बाबा आगे ..'एक उत्सुक आवाज़ आई .
उसके छोरे की जनम की सुण के राजा फेर पोंच गया
राणी की भैण बोल्ली ,'इब मैं मर जाऊँगी और साहूकार के बेटे के जनमूँगी ,

जब सहूकार की पोत्ती बारा साल की होवे तब थारा ज्वाब मिल जावेगा .'

क्या करता राजा ,चुप लौट लिया .
फेर वो पता करवाता रह्या
,'जाटने उसाँस भरी ,'राणी की भैन का सुरगवास हुआ ,,साहूकार की
बऊ के छोरी जनमी.

 राह देखता रहा ,बारे साल बीते ,राजा फिर पोहोंच गया .

साहूकार की पोत्ती की सादी ,राजा के छोरे से होवण लग री थी .

राजा बाट देखता रह्या .

फिर वो नई बऊ के धोरे गया ,.

बऊ ने कहा ,'राजा ,मेरे मरद का पेट देखो.'

देखा राजा ने -जैसै मस्सा राजा के पेट पे वैसाई मस्सा ,वोई जगे बऊ के मरद के पेट पे .

'इब तो राजा तुम मानोगे के बेटा माँ से ब्या करें /'

उसकी समझ में सारी बात आ ग्गी .

राजा उदास हो गया ,लौट आया अपने सहेर में घर कू .

पिंगला से बात भी ना की .
वो बोल्ली ,'जो म्हारे को बताओ राजा ,क्या हो गया हे ?'

तू तो म्हारी माँ है पिंगला ,फिर भी पूछण लग री .इब तो नरक में ना धकेल .'
होर राजा राज-पाट छोड़ बैरागी हो गया .

राणी कुछ ना बोल्ली.

लोगों के तो जो दिल में उठे कहो जायँ.दुनिया है ये तो .

कुत्तों के भूकण से सज्जन आदमी रास्ता नी छोड्डा करते .'

कंपार्टमेंट में चुप्पी छा गई थी .

एक दूसरे से बोलने की इच्छा नहीं हो रही थी .अपनी-अपनी जगह बैठे रहे सब जैसे कुछ कहने को बचा ही न हो .

***

सोमवार, 13 सितंबर 2010

निर्वासिता --

(भूमिका )
महाकाल वन,जिसके क्षेत्र ने ब्रह्मा और विष्णु दोनों को निवसित किया है .साक्षात् महाकाल स्थित हैं यहाँ .इस क्षेत्र में सृष्टि का सृजन पालन और संहार समाहित हो गया है ..इसी धरती पर बहती है क्षिप्रा नदी ,दोनों ओर गहन घोर वन और बीच से बहती कल कल निनादिनी क्षिप्रा !समुद्र तल से बहुत ऊँचा समतल क्षेत्र .जिसकी मिट्टी काली है.जैसे माँ का काजल पुँछा ,नेहभरा आँचल .मालवा की धरती ,यह पुण्य क्षेत्र ,जहाँ से प्रत्येक युग में सृष्टि का पालन -परिचालन होता है .

काल और स्थान की परिकल्पना ,हमारी स्मृति के पहुँच से भी पहले यहीं से प्रारंभ हुई !

कितना सघन वन !सूर्य की किरणें ,जिसकी घन हरीतिमा की पर्तें पार करते-करते अपनी दमक खो कर सघन श्याम हो उठती हैं .इस उज्ज्वल श्यामलता से सारा वन प्रदेश उद्भासित हो उठता है .एक दूसरे होड लगा कर ऊँचे उठते पेड .लता जाल को अपने से लिपटाये आसमान टोहते खडे रहते हैं .)और हर-हर सर-सर करती हवायें..एक विचित्र सी सुगन्ध चतुर्दिक व्याप्त रहती है..ऋतुओं के साथ साथ वन गंध परिवर्तित होती रहती है .वसन्त में आम की बौराती और महुओं की मदमाती महक के साथ वन पुष्पों कीम मह-मह गंध .चैत में जाने कौन कौन सी अनाम अनगिन वनस्पतियाँ पुष्पित हो जाती हैं और मदहोश करती महक चारों ओर छा जाती है .पशु-पक्षी जोडे बाँधने लगते हैं ,धरती पर बिछे होते हैं ढेर के ढेर पत्ते ,पाँव रखते ही बालिश्त भर नीचे धँस जाते हैं ,जैसे धरती माँ ने अपनी सन्तानों की क्रीडा के लिये,सुख-सेज बिछा दी हो .

चिट्-चिट् करती गिलहरियां एक दूसरी के पीछे भागती हैं .तोतों के झुंड के झुंड वृक्षों पर टियू-टियू कर ऐसा शोर मचाते हैं जैसे पूरा वृक्ष कलरव कर उठा हो .वानरों की कूद-फाँद और हाथियों की पुकार भरी चिंघाड .शेर की दहाड गूँजती है वन में और एक सन्नाटा सा खिंच जाता है वन में .घनी अँधेरी रातें ,आकाश में झिलमिल करते सितारे और नीचे अलस वनस्पतियों में वन्य जीवों की साँसों के स्वर में स्वर मिला कर गहरी साँसें छोडता वन .रात्रि के अन्तिम प्रहर में गहरा सन्नाटा छा जाता है,सितारे ऊँघने लगते हैंऔर साँसों का संगीत भी थम जाता है,तब काल पुरुष, भी गहरी नींद सो जाता है- कुछ क्षणों के लिये .

उत्तर में है विन्ध्याटवी .यहाँ से वहाँ तक वन्य पशुओं का मुक्त आवागमन अबाध रूप से चलता है .सरपत और झाऊ के घने वन ,घासें इतनी ऊँची कि हाथी भी चलता हुआ दिखाई न दे ..बहुत ऊँचा है विन्ध्याचल .उत्तर और दक्षिण के बीच में एक ऊँची दीवीर ,कोई पार नहीं कर पाता .विंध्याटवी की कुछ भूमियाँ असूर्यंपश्या हैं .सूरज की किरणों ने भी नहीं देखा है -ऐसी कुँआरी धरती .

महुये टपाटप टपकते हैं और नशीली हवायें इस महाकाल वन में अपनी मादक गंध लिये घुस आती हैं.लगता है विन्ध्यवासिनी महाकाल का आवाहन कर रही है'आओ,आओ.चले आओ .अपनी समाधि भंग कर दो .'काल चंचल हो उठता है .कोई अट्टहास गूँजता है और वनप्रान्त चौंक जाठता है .

बारहों मास वृक्ष फलों या फूलों से लदे रहते हैं.,कभी आम तो कभी आमलक ,कैथ .बेर ,करंज काफल ,फलों की कोई गिनती है यहाँ ?कदली वन ऊँचे विशाल जात हिलाता,हरहराता डोलता अपनी महक उँडेल देता है.कौन खायेगा इतने फल ?पक्षी खाते है गिराते हैं .वानर कूद-फाँद मचाते खों-खों करते क्ीडा करते हैं .महाकाल और मुक्त प्रकृति दोनों मिल कर इस संसृति का संचालन करते हैं .

. बरसात की रातों का बीहड अँधकार धरती पर घनी वनस्पतियाँ ,आकाश में सजल मेघजाल ,और सबको घेरता सघन वन का अँधेरा .वृक्षों के पत्तों पर अविराम वर्षा की झडी ,धरती पंकिल हो गई है ,रह रह कर मेघों की गर्जना .कौंधती बिजलियों की चमक से पूरा वन क्षणांश को प्रकाशित हो उठता है .साँप-रेंग रेंग कर वृक्षों पर चढने को प्रयत्नशील,कहीं वृक्षों से लिपटे .सीत्कार करती उन्मुक्त हवा हरहराती चलती है ,लतायें वृक्षों से विच्छिन्न हो धरती पर गिरती हैं तरुओं को को झकझोरती  हवा4एं सारे अरण्य-प्रान्त को दहला देती हैं .लगता है साक्षात् महाकाल ताण्डव करने लगे हैं .
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स्वच्छ निरभ्र आकाश !पूर्ण चन्द्र अपनी पूरी द्युति से चमक रहा है .उज्ज्वल किरणें चारों ओर बिखरी पडी हैं ..कहीं कोई हलचल नहीं .उन्चासों पवन जैसे शान्त दिशाओं के आँचल में दुबके सो रहे हों .जल स्तब्ध लहरें लेना भूल गया हो जैसे .गति हीन पवन ,मेघहीन आकाश ,सितारे भी टिमटिमाना भूल गये हैं. एकदम स्तब्ध सौंदर्य.,ऊँचे-ऊँचे वृक्ष चित्रवत् खडे हैं,धरती से आकाश को मिलाते इस चाँदनी के ज्वार में डूबे .

अकेले बैठे बैठे सीता की आँखें भर आती हैं .अनसोई ,लंबी रातों की तडपन ,वह एकाकीपन जिसे बाँटनेवाला कोई नहीं.

जीवन के प्रारंभिक क्षणों में ही जननी के स्नेह से वंचित कर शायद नियति ने यह पूर्वाभास दे दिया कि जीवन में तुम्हें कुछ नहीं मिलना है .जो नव शिशु का सहज अधिकार होता है,जीवन की अनिवार्य शर्त होती है ,वह सब मेरे लिये नकार दिया गया था .प्रारंभ से पटाक्षेप तक उसी वंचना के बीच भटकना है राम तुम्हारी विश्वास ,बहुत वल देता था ,तुमने मेरे अतिरिक्त किसी नारी को स्वीकार न करने का जो वचन भरा था .उसके लिये मैं आभारी हूं तुम्हारी .नहीं ,चिर ऋणी हूँ तुम्हारी ..तुम राजा हो .सत्कुलोत्पन्न,सत् के प्रतिष्ठापक और मर्यादाओं के रक्षक कहलाते हो .

और मैं अज्ञात् कुलोत्पन्न ,जिसे दूसरों के द्वारा पाला गया ,मेरी क्या मर्यादा है ,चिर -कलंकिता हूँ मैं .बचपन से मैं सोचा करती थी ,मेरे माता-पिता कैसे होंगे जो जन्म लेते ही त्याग दियामुझे ?कौन हूँ मैं ?क्या अपराध था मेरा ?

अब तो जिस मनस्थिति में मैं जी रही हूं उसमें सच भी सपना लगने लगा है .
मैं कभी सामान्य नहीं रह सकी .दुनियाँ में सब जैसा स्वाभाविक जीवन जीते हैं ,मेरे हिस्से में वह बिल्कुल नहीं आया .मन पर यह बोझ लिये सारा जीवन बीतेगा .जानकी हूँ मैं .राजा जनक की कन्या ,कन्या नहीं पालिता कन्या !

जन साधारण का मुँह कौन बन्द कर सकता है?वह नीच धोबीपर किसी को नीच कने का मुझे क्या अधिकार .मैं रावण -मन्दोदरी की पुत्री राक्षसी हुई मैं भी .देव योनि में नहीं हूँ मैं .

पर इन्द्र की पत्नी शची भी पुलोमा दैत्य का पुत्री है ,कितनी असुर दैत्य और दनुजों की कन्यायें देवों के कुल में ब्याही हैं .

इतना पूर्ण चंद्रमा ,दूर तक फैला गहन नील आकाश .इतनी पूर्ण ,इतनी विचित्र रात्रि आज तक कभी देखने में नहीं आई .-क्या होनेवाला है?कैसा षड्यंत्र चल रहा है यह/

सीता का मन जाने कसा कैसा हो रहा है .प्रकृति शान्त ,वनस्पतियाँ शान्त,धरित्री शान्त ,आकास शान्त सारी दिशायें स्तब्ध ,मूक .पर मेरे मन में शान्ति क्यों नहीं ?

आँधियाँ और तूफान इस वन प्रदेश में आते ही रहते हैं .सीता उनसे नहीं घबराती .घनघोर गर्जन प्रचण्ड हवायें जब पेडों को उखाडती ,अंधाधुन्ध दौडती चली आती हैं ,तब सीता निर्भय कुटिया का द्वार खोल कर है. खडी हो जाती है .मन उन्मत्त आनन्द से भर उठता है .जैसा तूफान मन में समाया है ,वैसा ही बाहर भी .दोनों में ताल-मेल बैठाने की चेष्टा करती रहती है वह .इतने लम्बे वनवास में प्रकृति की ये क्रीडायें बहुत देखी हैं.अब इनमें ऐसा कुछ नहीं जो भयभीत करे .

पर आज की रात्रि!यह पूर्ण और विलक्षण शान्ति मन को विचलित किये दे रही है.ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ .

जीवन में क्या कुछ नहीं घटा ? जन्म  की सुनी भर हैं ,पर वह सुनना ,समझना मन को गहन रिक्तता से भर जाता था .,फिर वनवास ,अपहरण ,कलंक ,परित्याग और अब यह चिर एकाकी जीवन .अब क्या शेष रह गया .?कौन सी विडंबना बाकी रह गई ?

राम ,मुझमें क्या कमी रह गई थी ,,अपना मन और तन तुम्हें सौंप दिया था मैंने ,मेरा प्रेम ,विश्वास सब व्यर्थ कर दिया तुमने .

सीता चुप बैठी है ,रात का गहरा अँधेरा .आँखों से आँसू टप टप गिरते हैं और धरती की माटी सोख लेती है .....
(उपन्यासांश)क्रमशः