tag:blogger.com,1999:blog-5601339524702392220.post2901613536624516571..comments2023-03-21T06:09:30.114-07:00Comments on कहानी-कुञ्ज: काग भगोड़ाप्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-5601339524702392220.post-77502097247425524962011-03-31T11:43:14.267-07:002011-03-31T11:43:14.267-07:00बहुत ही अच्छी कहानी...जब शुरू शुरू में आपका ब्लॉग ...बहुत ही अच्छी कहानी...जब शुरू शुरू में आपका ब्लॉग पढना शुरू किया था न प्रतिभा जी...तो ये कहानी छोड़ दिया करती थी..इसकी भाषा और शीर्षक से लगता था...मेरे टाइप की कहानी नहीं ही होगी..:( आज बहुत दिनों बाद इधर आना हुआ..ये कहानी पढ़ी....बस एक ही बार पढ़ी.....मनका के पात्र को जाना समझा....आशा है...उम्मीद भी..मनका ने घर छोड़ने के बाद किसी खायी कुएं नदी की शरण नहीं ली होगी....<br />खैर..एक ये बात मनका की बहुत बहुत पसंद आई -<br /><br />''गुर दीन पड़ा था , देखती रही कुछ क्षण उसकी ओर ।नहीं, आज दया नहीं आ रही ,बिल्कुल नहीं ।''<br /><br />यहाँ तो पीठ ठोक कर शाबासी देने का मन किया था मनका को......अगर उसे दया आ जाती तो मेरा मन कहानी से उचाट हो जाता.......इस एक प्रतिक्रिया से कहानी से जुड़ गयी....और वो होता है ना...आराम से कहानी पढ़ते पढ़ते एकदम सजग होकर बैठ गयी......और अंत में भरपूर मुस्कान फैल गयी चेहरे पर....:)<br /><br />कितना अच्छा असर हुआ था मनका के दिमाग पर माँ काली के स्वरुप और उस प्रवचन का.....काश मनका की तरह और महिलाएं भी इसी दिशा में इसी तरह से सोचा करें....<br /><br />बहुत बढियां प्रस्तुतीकरण है प्रतिभा जी...विषय तो हालाँकि पढ़ चुकी हूँ बहुत बार..मगर भाषा की ऐसी खुशबू....दृश्यों की ये लज्ज़त कहीं मिली नहीं.......बहुत ही प्रभावशाली गढ़ा है मनका का पात्र आपने......वहीँ उसके सास से shiddat se नफरत हो उठती है अंत के दृश्य में.....बहुत बहुत क्रोध आता है......'नारी ही नारी की दुश्मन होती है'...यही बात अंतत: सत्य साबित होती है मगर जब जागरूकता की बात आ जाती है...तो मनका सरीखी नारियों से कोई नहीं जीत सकता..:)<br /><br />माँ को एक बार एक जेल में महिला क़ैदियों के परीक्षण के लिए जाना था ....वापस लौट कर उन्होंने एक महिला के बारे में बताया...उम्रकैद की सजा काट रही वो स्त्री ....मानों 'मनका' बनकर आपकी कहानी में सजीव हो उठी हो आज.......:) बरबस उसकी yaad आ गयी...<br />दरअसल...वो लड़की भी मनका के तबके की ही थी...एक मजदूर......उसके ससुर और पति उसे बेहद तंग किया करते थे.....एक दिन आजिज़ आकर उसने एक बड़ा सा पत्थर ससुर और पति (जो शराब में धुत्त हो उसे जान से मारने दौड़े थे) पर पटक दिया.....घटनास्थल पर ही दोनों की मौत हो गयी...और लड़की को सज़ा........................मगर जैसा माँ ने मुझे बताया...कि परीक्षण के दौरान उसने कोई गिला शिकवा पछतावा नहीं दिखाया....वो खुश थी... ..और ख़ुशी अन्याय से लड़ने की तो थी ही....साथ ही ये भी बात थी कि जेल में रहकर तमामतर लघु उद्योग का काम उसने सीख लिया था...बाहर निकल कर वो किसी पर बोझ नहीं रहेगी......<br /><br />वास्तव में उसी सकारात्मक लड़की ने मेरे बालमन पर इतना स्थायी प्रभाव डाला था...कि कभी उसको नहीं भूल सकती......उसने मुझे सिखाया....कि अन्याय के खिलाफ लड़ना ही चाहिए...और हर अंत में एक नया प्रारम्भ भी ढूंढना ही चाहिए........और जब वो कर सकती है...तो सब कर सकते हैं...<br />हाँ मगर मैं किसी को जान से मारने का समर्थन नहीं कर रही....मनका से और क्या उम्मीद कर सकती थी मैं.....:( कोई शिक्षित लड़की होती तो उसका लड़ने का तरीका दूसरा होता....बस.....मुख्य बात अन्याय को न सहना ही है..<br /> <br />उसको और आपकी 'मनका' को ''hatzz off''<br /><br />आभार..इस कहानी के लिए....इसकी सहज भाषा को भी ...जो पूरी कहानी के दौरान ज़ेहन में पहली बरसात की सौंधी महक सी महकती रही......शायद बहुत से ऐसे लोग भी इस कहानी को पढके इसका संदेश ग्रहण कर सकेंगे जिनके लिए आपने ये लिखी होगी......:) और हाँ प्रतिभा जी.....शीर्षक.......बहुत अच्छा शीर्षक दिया है.....एक दुर्बल/पौरुष से रहित पुरुष की तुलना वाक़ई काग भगोड़े से भी नहीं हो सकती.......Taruhttps://www.blogger.com/profile/08735748897257922027noreply@blogger.com