1. अव्यक्त-स्नेह -
नीमी फिर खिलखिला उठी.
महरी को इसमें हँसने .योग्य कोई बात दिखाई नहीं दी.उसने नीमी की ओर देखा,तभी वह उसकी ओर देख कर हँस रही थी.महरी को लगा जैसे नीमी उसी को देख कर हँस रही है.मन ही मन चिढ़ उठी वह.
नीमी को हँसी आती बात-बात पर और रुकने का नाम ही न लेती.महरी रही उस वातावरण में जहाँ लड़कियों को बचपन से ही प्रत्येक बात में दबा कर रखना अच्छा समझा जाता .जब इस घर में नई-नई लगी थी महरी, नीमी को हँसते हुये कौतुक से देखा करती ,पर धीरे-धीरे उसे लगने लगा कि वह उसे देख कर हँसती है और मन -ही-मन वह उसकी हँसी पर झल्ला जाती
कभी-कभी वह टोक भी देती,'जे इत्ती हँसी काहो को आवत है .'
महरी आँगन में नाली के पास बैठ कर बर्तन माँजती ,तभी उधर
से नीमी आ जाती, ज़रा सा काम होता , लोटा भर पानी उँडेलती और सब वहीं छोड़ चल देती.पानी बहता हुआ जाता था जिधर महरी बैठती थी.ऊपर उधर ही थोड़ी दूर पानी की घड़ौंचीवाला खाना बना था.नीमी पानी लेने आती पहले काफ़ी-सा पानी डाल कर बर्तन खँगारती फिर घड़े से पानी उँडेलती, भरे हुए घड़े से वेग से पानी निकलता और बह जाता .नीमी का ध्यान ही उधर नहीं जाता.
पानी बह कर जाता जिधर महरी बैठती और उधर भीगा रहने के कारण कुछ काई जमी होती .पानी पड़ने से फिसलन हो जाती.
तीव्र स्वर में महरी कहती,'हियां पानी न फेंको करो .'
कभी सुन कर कभी अनसुनी कर नीमी अपना काम कर चल देती.तब महरी बड़-बड़ करती बैठ कर.
एकाध बार अम्माँ ने भी टोका,'नीमी ,पानी वहाँ न फेंका करो .सब भीग जाता है .'
नीमी ने कह दिया - अच्छा .पर स्वभाव की लापरवाही कहाँ जाती !
अगली बार फिर वही.और इतना ही नहीं ,अंदर कोई कुछ कह रहा और बाहर बैठी नीमी रानी खिलखिला रहीं हैं.
बात यह हुई कि भाभी थाली लिये कमरे में दाल निकालने जा रहीं थीं ,
सामने से एक चुहिया भागती हुई चली आ रही थी .उस पर पड़ गया उनका पैर.उन्हें लगा कोई गुलगुला जीव उनके पैर तले आ गया.
जैसे ही नीचे झुकीं देखा छोटी-सी चुहिया. फिर तो दोनो हाथों से आँखें ढक वे ज़ोर से चीख उठीं.
सब ने पूछा,'क्या हुआ?'
नीमी दौड़ी देखने.
बात मालूम होते ही जो हँसी शुरू हुई तो रुकने का नाम ही नहीं .फिर-फिर याद आये और फिर-फिर हँसे.सब पूछने लगे .' पर हुआ क्या ?'
पर उसकी हँसी रुके तब तो बताये .
महरी बैठी बर्तन माँज रही थी
बात पता चली तो सब हँस-हँसा कर चुप हो गये.
नीमी चाय का प्याला धोने आई तो पानी उँडेलते हुये भाभी और चुहिया का ध्यान आ गया ,और वह फिर खिलखिला उठी.देर तक हँसती रही.
महरी देखती रही, कुछ बोली नहीं .
भाभी ने कहा ,'ज़रा बीबी की हँसी देखो!
भैया बोले,' क्या बेकार बात पर ही-ही लगाये है.'
तभी उसके सामने फिर वही दृष्य घूम गया और फिर हँसी आ गई.
'नीमी ,जल्दी से प्याला ले आ.'अम्माँ ने आवाज़ दी .और वह बेफ़िक्री से प्याला धो कर चल दी .महरी को कुछ कहने का मौका न मिला.
वह सोचती रह गई -इस लड़की को आखिर इतनी हँसी क्यों आती है.क्या यह उसे देख-देख कर हँसा करती है.पर ऐसा भी क्या हँसना . भाड़ में जाय ऐसी हँसी ..पर वह सोचते-सोचते रुक गई .
महरी जा रही थी .नीमी पिताजी को पान दे रही थी
जाते-जाते रुक गई ,'दुलहिन से मुसरिया दबि गई जे इत्तो हँसी इत्तो हँसी...'
वे जानते थे नीमी की आदत ,मुस्करा उठे. नीमी की कल्पना में फिर वही दृष्य घूमा और महरी को देख कर वह हँस दी.महरी बाहर निकली तो उसने फिर से मुड़ कर नीमी को देख लिया..
उस दिन महरी किसी मेले में गई थी ,उसकी ननद काम पर आई .
पिताजी ने आँगन में खाट पर से आवाज़ लगाई ,' नीमी ,ज़रा पान दे जा .'
वह पान ले कर आई,' बोली तम्बाकू खतम हो गई है.'
'मेरे कुर्ते की जेब में बिखर गई थी ,उसमें से निकाल दो ,बाईं जेब में है.'
हथ डाल कर उसने जेब झाड़ी और जो तंबाकू की दो-तीन पत्तियाँ और सूत के चार-पाँच धागे हाथ में आये , बिना देखे उनके फैले हुये हाथ पर पलट दिये.
'ये कैसी तमाखू है ,उसमें है नहीं क्या ?'
'इतनी ही निकली.'
'देखूँ तो ज़रा ,लाओ कुर्ता.'
और वह कुर्ता ले आई.
'अरे यह तो उलट कर टाँग दिया किसी ने ..कौन सी बाईं जेब है इतना भी नहीं देखा तुमने?'
फिर एक चुटकी तम्बाकू ले कर बोले ,'अच्छा अब इसे किसी कागज़ पर झाड़ लो .'
अब ध्यान गया कुर्ते की ओर -सारी सिलाइयाँ ऊपर , ढेर-ढेर हँसी उमड़ी चली आ रही है.रुकती ही नहीं , बुरा हाल. और सामने पिताजी .उनके हाथ से कुर्ता लेकर वह झट से घूम गई ,अख़बार उठा कर मेज़ पर फैला लिया
जेब पलट कर झाड़ने लगी .हँसी के आवेग में हिल-हिल जा रही है .कुछ भय भी .पिताजी कहीं कहने न लगें,' पहले तो उलटे-सीधे काम करती है ,होश न जाने किस दुनियी में रहता है ,फिर हँसती है.'
कुर्ता लिये भाग आई वहाँ से.
भाभी ने पूछा ,'क्या बात हुई ,बड़ा हँसे जा रही हो ..'
वह बताने लगी .पर बता नहीं पा रही .बीच-बीच में हँसी के मारे गला रुँधा जा रहा है.
'ये क्या ?बात तो पूरी की नहीं ,बीच में खल-खिल शुरू कर दी ..'
महरी की ननद देखती रही, सुनती रही -कहती क्या !
घर जा कर अपनी भौजाई से बोली ,'जे इनकी बिटिया ,इत्तो काहे खिखियात है ,बोलऊ नाईं फूटत..?'
महरी हाथ हिला कर बोली,'का जानै दिदिया ,जब देखो खिखी-खिखी.. ,बात बेबात .का कुछू भौ हतो?'
उसने जो समझ में आया बताया ,फिर बोली .'कोऊ टोकतऊ तो नाईं है ..लरिकिनी की जात. भाड़ में जाये अइस हँसी...'
महरी को अच्छा नहीं लगा ,कोई यों कहे नीमी के लिेए .उसने बात बदल दी ,'आज सुक्खी की अजिया मिली रहैं ..'
दोनों चर्चा में लग गईँ .
**
दूसरे दिन महरी आई .
उसे रोज की तरह नीमी हँसती न दिखाई दी .चारों ओर देखा सन्नाटा-सा लगा ..याद आया मुँह से निकला था 'भाड़ में जाये..'
जीभ काट ली अपनी .
बर्तन निकाल कर बाहर रखे.कहीं गई होगी ,आती होगी .
पानी भर कर लौटी .सब अपने-अपने काम में लगे हैं .आँखे पसार कर कमरों की टोह ले ली.
ज़रा सी खटर-पटर पर आँखें उधर उठ जातीं .
बर्तन धो चुकी .लगा दिये
कहीं कोई चलता-बोलता नहीं .
चलते-चलते पूछ बैठी,' आज बिटिया नाहीं दिखात है ?'
' वह पड़ोस में गई हैं .'भाभी ने उत्तर दिया.
चैन की सांस ली महरी ने.
थोड़ी देर बाद नीमी आई तो महरी जा चुकी थी।
अरे, बड़ी जल्दी चली गई आज नीमी ने सोचा...पानी भरने गई
होगी ..पर गिलास में पानी उँडेलने गई तो देखा घड़े भरे थे.
पूछ बैठी,'महरी गई क्या ?'
'क्यों आज बड़-बड़ नहीं सुन पाईं..'
नीमी ने कई बार देखा था जब वह हँसती है तो महरी तीव्र दृष्टि से देखती है .पर कारण नहीं खोज सकी वह.
महरी के बोलने के ढंग पर उसे हँसी आती थी,पर बड़बड़ाहट न सुन पा कर कुछ अभाव सा लगता .बोली,'भाभी, मैं प्याला धो रही थी तो वो कहती है,'जे का सलर-बलर कत्त हौ..' कहने का ढंग देख कर भाभी भी हँस पड़ीं.
'पर बेबात ही-ही की आदत ज़रा कम करो ,अभी तो महरी ही कहती है फिर ..'
' बस बस रहने दो ,कोई हँसे तो किसो क्या परेशानी..,'
वे मुस्कराते हु बोलीं,'यह मैं थोड़े ही कह रही हूं परंतु जब तुम्हारे दूसरे घर ...'
'क्या किन्तु परंतु,..'उसने मुँह बिचकाया,
'ये बताओ वो चुहिया ज़िन्दा है या..?
वह घटना याद कर विरक्ति से भर आईं,मुँह बना कर बोलीं,'बतंगड़ बना डालती हो ज़रा सी बात का ..'और भन्नाई सी कमरे से बाहर हो गईं .
**
भाभी मायके गयी हुई हैं.ताऊ जी की तबियत खराब थी सो अम्माँ-पिताजी वहाँ चले गये .छोटा भाई बाहर पढ़ रहा है .घर में रह गये बड़े भइया और नीमी.
नीमी बेफ़क्री से काम करती
खूब बर्तन मँजने को निकलते ,सब अस्त-व्स्त सा हो रहता.
महरी आती टोकती ,'कित्ते बत्तन करि डरती हौ.'
नीमी सुनती ,हँसती हुई मनाती,'अच्छा महरी अम्माँ ,मैं तुम्हारे लिये चाय बना देती हूँ .'
चाय पी कर निहाल हो जाती असीसें उचरती चली जाती महरी .
'चाय में चीनी दूध और डाल दिया है तुम्हारे लिए महरी-अम्माँ .'
तृप्त दृष्टि से देखती महरी .
कभी -कभी खीजती बड़बड़ाने लगी,'.हमाई बात पे बहुतै हँसी आवत है ..'
वह रोकने की कोशिश करते और हँसती .महरी भुनभुनाती काम निपटाती .पर
पूरा आराम देने का यत्न करती .
चौका देते समय महरी ने देखा चूल्हा चटक गया है .,बोली,'कित्ती जोर
सानी कढ़ैया धत्ती हो .सुन्दर चूल्हा हतो ,मार चटकाय दौ..'
आदत के अनुसार हँसते हुये नीमी ने उत्तर दिया ,'अम्माँ आयेंगी तब बनायेंगी .'बस साध दो तुम .'
उसे याद था एक बार अम्माँ ने चूल्हा सँभालने को कहा था तो महरी ने उत्तर दिया था,'उसे चौका-बासन के लिये रखा गया है ,चूल्हा क्यों बनाये.
जब अलग से पैसे देने को अम्माँ ने कहा तो बोली,'दूसरी जगह देर हो जायेगी.' चूल्हा नहीं बनाया सो नहीं बनाया.
'तुम्हें का चउका देन में हमैं आफत पड़त है ..ऊपर से दाँत कढ़तीं ,मेहरुअन को अइस ही-ही -ठी-ठी नीक नाहीं लगत..'
उसने अच्छी तरह मिट्टी लगा कर चूल्हा मज़बूत कर दिया था.
जाते समय चेतावनी देती गई,'देखो, अब ना चटकियो,पटकियो
एक दाँव बनाय दौ,'
फिर बोली ,
'..हमें का अब टुटिहै तो हम चउका नाहीं दिहैं.'
और एक दिन जब तरकारी काटते-नीमी के हाथ में चाकू लग गया
तो महरी बोली,'काम हियन करत धियान कहाँ रहत .'और मसाला ले कर स्वयं पीसने बैठ गई.
उसने कहा भी,'तुम्हें दूसरे घर जाने में देर होगी ,रहने दो ...'
'अगुरिया में चकुआ मार लिहिन ,अब कइस होई ..
अरे हुँअन देर हुइ जैहै ,बकि लिहैं थोर चिल्लाय लिहैं अउर का ..'
और अचानक नीमी को उसके शब्दों पर हँसी आ गई.
महरी का मिजाज बिगड़ गया .बोलने लगी ,'जहै हमें नाहीं सुहात ..'
पता नहीं क्या बुडबुड़ाती रही वह .
**
पिता जी-अम्माँ ,लौट चुके थे ,भाभी भी एक मुन्ने को लेकर मायके से लौट आईं .सभी काम पूर्ववत् चलने लगे थे-नीमी की हँसी और महरी की बड़बड़ भी यथावत् .
अचानक पता लगा पिताजी का तबादला दूसरी जगह हो गया. जल्दी जाना होगा.तब तय हुआ कि ज़रूरी सामान के साथ सबको वहां पहुँचा कर पिता जी बाकी सामान किसी को भेज कर मँगवायेंगे.
और उस शाम घर-भर के लोग जाने को तैयार खड़े थे.
नीमी की आँखें खोज रहीं थीं महरी को .बहुत आराम दिया था उसने .
आज अनुभव हुआ,हँसती भले ही रही हो पर महरी के लिये मन का कोई तार स्पंदित होने लगा था.
जो हो ,अब तो जाना ही था.
सब बाहर निकल आये.घर में ताला लग गया
तभी जाने कहाँ से वहाँ आ कर खड़ी हो गई महरी .
अम्माँ ने उसे कुछ दिया कहा,'अच्छी तरह रहना ,तुम्हें याद करेंगे हम..'
वह बोली.'जाओ,भइया,इत्ते दिनन को तुम्हार अन्जल हतो.हम कहाँ जइबे .हियनई रहिबे..'
फिर चारों ओर देख कर बोली,'बिटिया कहाँ ?'
पीठे अनमनी सी नीमी खड़ी थी ,आगे आ गई,'महरी अम्माँ ,हमसे नाराज हो क्या - हँसना छोड़ दूँ .?'
'नाराज काहे हुइहैं ,बिटिया,..हँसो-खेलो खुस रहो,
हमारी का कही .बुढ़ापा है सो बडबड़ान की आदत परि गई.नाहीं तो ..'
उसकी आवाज़ की वह तुर्शी कहाँ गायब है आज ,कंठ आर्द्र हो उठा है .
नीमी बोली,'
'महरी अम्माँ ,बहुत परेशान किया तुम्हें ,अब जाती हूँ ..'
बीच में रोक कर वह बोल पड़ी,'जौ का बिटेवा,
हमार तो आदत परी है .जलम बीतिगा इहै बातन में .
तुम नीक रहौ इहै मनावत हैं ..'
ताँगा आ गया चढ़ गये वे लोग ,घोड़े की पीठ पर चाबुक बजा.
महरी खड़ी रही . देखते हुए आँखें छलक उठीं .
आगे का दृष्य-पट धुँधला गया था.
*
2.
बहलावा.
घर में घुसते ही मैने किताबें रोज़ की तरह अल्मारी में फेंकीं और खिड़की के दोनो पल्ले पूरे खोल दिये.तीसरे पहर की उतरती हुई ढेर-की-ढेर सुनहरी धूप कमरे में भर गई.छोटे कमरे में फैला हुआ प्रकाश तीव्र हो उठा और मुझे लगा मेरे थके हुये मन में भी रोशनी भर गई .
आज का सारा दिन बेकार ही बीत गया.शैल का पत्र इतने दिनों से आय़ा हुआ पड़ा है .उत्तर देना है लेकिन समझ में नहीं आता उन छः-छ- पन्नों के उत्तर में आखिर लिखूँ तो क्या लिखूँ .कहीं लिखने का मन ही नहीं होता .मन करता है सबसे पत्र-व्यवहार बंद कर दूँ .
पर शैल ..वह कितनी उत्सुकता से मेरा उत्तर पाने की प्रतीक्षा कर रहा होगा.
कैसे कहूँ उससे कि मैं तुम्हें पहले के समान मस्ती से भरे लंब-लंबे पत्र न सिख सकूंगा
मुझे औऱ भब अनेकों ढेर से काम हैं
स्कूल में कितनी कक्षाओँ के लड़के हैं उनसे सिर खपाना पड़ता है फिर जाँचने के लिये ढेर-ढेर कापियाँ ,जिनमें गलतियों की कोई गिनती नहीं .द्रौपदी के चीर की भाँति उन कापियों का कभी अंत नहीं आता.
घर पर शीला अपनी बातों में मेरा साथ चाहती है ,मंटू पापा की गोद में चढ़ना और खेलना चाहता है.
कभी मित्र चौराहे की पान की दूकान तक खींच ले जाते हैं और एक-डेढ घंटा कहाँ गया पता ही नहीं चलता .
अब मैं तुम्हें लिखने बैठूँ तो अपना रोना रोऊँ या तुम्हें मज़ेदार किस्से सुनाऊं?
कैसे लिखूँ शैल कि कि अब तुम्हें या अपने आप को ही बहलाने के लिए लिख चाहे कुछ भी डालूँ लेकिन मुझे तुम्हारी याद नहीं आती.-तम्हें याद करने को मेरे पास समय नहीं है ,न वह मनस्थिति ,
शीला मंटू को ले कर पड़ोस में गई हुई है,नहीं तो उसकी इधर-उधऱ की बातों पर हँसना पड़ता .
कभी-कभी लगता है कि एक मिनट चुप बैठ लूँ इतनी भी स्वतंत्रता नहीं है.घर में और बाहर जबरन हँसना-बोलना पड़ता है ,मन हो चाहे न हो .
बेमन से कापियाँ देखता हूँ .गलतियाँ छूट जायें तो उसके लिये मुझे सुनना पड़ेगा .लगता है सारा जीवन एक गले पड़ी ज़बरदस्ती की चीज़ एक दिखावा ,एक मजबूरी है.
कहीं पड़ोस से ढोलक की ढमक के साथ गाने की आवाज़ें आ रही हैं.नारी कंठों के स्वर कभी ऊँचे हो जाते हैं कभी कानों तक पहुँच कर जैसे खो से जाते हैं.
लगता है कल की ही बात हो .शैल से बिना मिले एकदिन चैन नहीं पड़ता था. कैसा था वह ,बात-बात पर हँसना और बात-बात पर रूठना.किसी को गंभीरता से लेना ही नहीं जानता.जैसे हर बात को हँस कर उड़ा देगा.जिन बातों पर मेरा मूड घंटों खराब रहता है वहाँ उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती.क्या पता वह हँसी सिर्फ़ एक आवरण है या जीवन की असली मस्ती.उससे कुछ पूछा भी क्या जाय जो कभी गंभीर हो कर बात करना जानता ही न हो .हरेक बात हँसी में उड़ जाती हो.
लोग शायद ऐसों को बेकार का आदमी समझते हों ,और भारी बोझ लादे रहनेवालों को किसी काम का.पर ये लोग ऐसा क्या साध लेते हैं जो वे लोग नहीं कर पाते .
बोझ लाद कर जीना कोई अच्छी बात है !
वह बहुत हँसता है कहता है ,'बहुत काम के हो कर तुमने क्या पाया ,और बे कार का हो कर मैंने क्या गँवाया?
उसका कहना हा 'यार, ये सब फ़ालतू बातें है सब ऊपरी जमा-खर्च है .मन खुश तो सब कितना आसान !"
और भी ,'हमेशा परेशान रह कर क्या मिलता है किसी को ,गंभीरता ओढ़कर मेरा तो मन भारी हो जाता है .अपना सिद्धान्त है 'चाहे कोई मुस्कराये,गालियां हज़ार दे .मस्तराम बनके ज़िन्दगी के दिन गुज़ार दे .''
हाज़िर की हुज्जत नहीं ग़ायब की न तलाश शैल ऐसा वर्तमान में रहने वाला
यही उसका स्वभाव है.
'कितनी देर हुई तुम्हें आये हुए .' शीला आ गई ,
'बस थोड़ी-सी.'
आगे कुछ पूछती नहीं .उसे लगता है थके आये है ,इस समय रहने दो अपने हिसाब से .मंटू गोद में आना चाहता है
मैंने चुटकी बजा दी उसके सामने ,वह तो लपक कर गोद में चढ़ गया .
चल बेटा चल . अपनी औलाद से ही हारता है आदमी .
शीला जाने क्या सोच कर मुस्करा रही है .वह चली जाती है चाय बनाने .
मैं मेज़ के पास बैठना चाहता हूँ .पर मंटू किताबें खींचेगा ,कापियाँ घसीटेगा .उसे ले कर बलकनी में चला आया हूँ .
पेड़ पर बैठी चिड़िया पर उसकी दृष्टि है,खुश हो रहा है ,मुझे दिख रहा है.
बच्चे भी कितने निश्चिंत होते हैं .हर जगह कुछ-न-कुछ मन लगाने को अपनी रुचि का ढूँढ लेते हैं .
और हम -एकदम मैने सोचा हम क्या करते हैं ?ये तो अपनी हर बात के लिये बिलकुल दूसरों पर निर्भर हैं और फिर भी मस्त!
मन होना चाहिये खुश होने के लिए .ज़रा-ज़रा सी ,फ़ालतू की बातों में मज़ा ढूँढ लेते हैं ये लोग .उसी में खुश हो लेते हैं ....और हम ?
हम ?हर समय परेशानियां ही सिर पर उठाये घूमते हैं.क्यों नहीं झाड़-फटक देते ? .
पर कैसे ..कैसे?
कैसे ?- जैसे शैल !
हाँ शैल, सारे यही काम वह भी करता है .मुझसे कोई खास भिन्न नहीं है उसका भी रुटीन .
पर मस्त रहता है हमेशा.
गुनगुनाता जाता है .हँसता जाता है .
एक बार बेतकल्लुफ़ी में कह गया था ,' यों मरा-मरा सा रहने में अपनी इंपार्टेंस ज्यादा हो जाती है क्या ?'
कुछ कह नहीं पाया मैं ,पर अंदर ही अंदर तमक गया था.
वह समझ गया ,बात पर लीपा-पोती कर दी.
करें क्या हम दोनों बचपन से एक ही जगह रहे ,लड़ते-झगड़ते बड़े होते रहे .अब तो कभी-कभी मिलना होता है .
मुझे टोक देता है ' क्या मोहर्रमी सूरत बनाए बैठे हो ?'
और मैं सबसे कटा-कटा रहनेवाला .अपने अंदर बंद !
अब सोचने लगा हूँ.समझ में आने लगा है कि तभी तो शीला घर से छुटकारा खोजने बाहर भागती है .उसे अच्छा लगता है घूमना-फिरना, सिनेमा जाना ,लोगों से मिलना-जुलना ,गप्पें लगाना ,. और मैं हर जगह कटा-कटा सा अकेलापन अनुभव करता हूँ .
हर दिन घर में बैठ कर काट दो ,यह भी कोई ज़िन्दगी है -उसका कहना है.
याद आया साथ के लोग इतवार को सपरिवार पिकनिक का प्रोग्राम बना रहे हैं ,मुझसे पूछा था.कोई उत्सुकता नहीं दिखाई मैंने .
*
खाना खाते खाते मैंने पूछ दिया, 'शीला,पिकनिक पर चलना है ?'
वह एकदम खिल उठी ,'?कब? कौन-कौन जा रहा है ?'
'इतवार को .नरेश और विनायक ,परिवार सहित, शर्मा भी साथ है ,यही दस-बारह लोग हो जायेंगे .पर तुम तो कहती हो इतवार को बहुत काम रहता है .'
'अरे, काम तो हमेशा रहता है ...इसका मतलब और कुछ करें ही नहीं .'
मैं चकित-सा उसका मुँह देख रहा हूँ .उसका उत्साह अच्छा लग रहा है.
'पर सुबह-सुबह इतने लोगों के लिए कुछ बना कर ले चलना पड़ेगा कैसे करोगी .वे सब तो आठ बजे निकल जायेंगे.?'
' तो क्या हम नहीं निकल सकते? क्या है रात से तैयारी कर लेंगे सुबह चटापट हो जायेगा .'
'तो नरेश की बीवी से बात कर लेना.कल का ही दिन तो है ,परसों सुबह ही तो .तुम क्या बनाओगी ..'
'वह सब मैं देख लूँगी .तुम तो हो न राजी?.'
'अरे, मैंने मना किया क्या.'
'हाँ ,कुछ सामान भी साथ रखना पड़ेगा न ! देखना है, मंटू का दूध का डिब्बा ..कितना है ..'
वही खाना ,वही लोग ,पर भंगिमायें बदल गई हैं .अंगों की गति में उत्साह समा गया .सारा काम आसान हो गया हो जैसे .
बंद से वातावरण में नई खिड़की खुल गई है.
मेरे मुँह से किसी गाने की गुनगुनाहट फूट पड़ी .शीला आश्चर्य से देख रही है .
मन -ही मन - झेंप कर बिना उसकी ओर देखे चल देता हूँ वहाँ से .
कापियाँ ले कर बैठ गया हूँ ,आवाज़ लगाता हूँ ,'शीला ,कुछ सामान बाज़ार से चाहिये हो तो बता देना .'
'अभी कल का सारा दिन पड़ा है,तुम्हारी तो आदत ही बन गई है परेशान रहने की .'
मन-ही-मन मुस्करा देता हूँ मैं .
*
3.
बहुत नहीं तो थोड़म-थोड़ा.
*
'अरे कितना सरल तो सवाल है ,कर लो जल्दी से,'
ऊँऊँ.बड़ा-सा है.'
तुम तो इतने बड़े हो ,तुमसे भी बड़ा है क्या..'
फिर वह समझाने लगी ,'देखो सिर्फ़ चार सवाल और,फिर आराम से खेलना.कोई भी मना नहीं करेगा,'
मिन्नी समझाती रही,
'यह तो आता ही नहीं , ' उसने फिर कह दिया.
'तुमने कोशिश भी की ?उसे देखो ,पढ़ो ,कोशिश करो .तुमने पहले किये हैं ऐसे सवास ,'
कुन्नू कुछ बोला ही नहीं. दूसरी ओर देखता चुप बैठा रहा .
फिर मिन्नी ने कहा,'करो न.
पढ़ो तो क्या लिखा है .'
कुन्नू से गणित के सवाल करवाना कोई आसान काम है क्या!
.
उस की बड़ी बुरी आदत ,जब अड़ कर बैठता तो किसी की सुनता ही नहीं .
कुछ भी कहते रहो टस से मस नहीं होता.
कमरे के बाहर बरामदे में प्रभात कुर्सी पर बैठा नॉवेल पढ़ रहा था.
पड़ते-पढ़ते मन उचाट हो गया ,मिन्नी और कुन्नू की बातें सुन-सुन कर खीझ रहा था.
मिन्नी फिर बोली ,'कुन्नू सवाल पढ़ो तो ..'
कुन्नू उधर देख ही नहीं रहा ,चुप बैठा है.
ज़ोर से मिन्नी ने कहा,'चलो पढ़ो.'
उस पर कोई असर नहीं.
मिन्नी ने फिर समझाना शुरू किया,'कुन्नू ,जल्दी से सवाल कर लो .मन लगाओगे तो तुरंत आ जायेगा.फिर मै तुम्हें रंगीन चाक भी दूँगी. बोलो लाल लोगे कि पीली ,..'
'लाल नहीं पीलीवाली .'
तो फिर सवाल करो ,'
'वह तो हमें आता नहीं .'
'तुम तो यही रट लगाये हो .पढ़ो तो पहले उसे .देखोगे नहीं तो समझोगे कैसे ?'
बह फिर चुप .मिन्नी परेशान हो उठी.
ज़ोर से हाथ दिखा कर बोली,'अच्छा सवाल पढ़ो..पढ़ते हो कि नहीं ..'
उस पर कोई असर नहीं .
इधऱ मिन्नी की कोशिशे जारी थीं ,उधर प्रभात सुन-सुन कर झल्ला रहा था.
मिन्नी का धीरज भी जवाब देने लगा.
कुन्नू जस के तस बैठे .
मिन्नी ने फिर तीखे स्वर में कहा .उसने जैसे सुना ही नहीं .
अब प्रभात उठा .कुन्नू के पास आकर खड़े हो गये ,'तब से सुन रहा हूँ .करता है या नहीं .'
कुन्नू जड़-सा बैठा रहा.
प्रभात और ज़ोर से दहाड़े , 'करेगा या नहीं ?'
वह बोला ही नहीं ,न कोई उपक्रम किया.मिन्नी आशंकित हो उठी पर कुन्नू पर कोई असर नहीं.
'मैं चीख रहा हूँ और वह चुप बैठा है..जवाब देता है या नहीं?'
उस पर किसी का असर नहीं.
अंतिम प्रयत्न कर के हार गया अब प्रभात की सहन-शक्ति जवाब दे गई.
उधर कुन्नू बैठा जड़-सा मूक .
'कैसा अड़ियल है बोला भी नहीं जाता.
'और तड़ाक् से एक चाँटा कुन्नू के गाल पर धर दिया.
कापी तो झटकीर कर फेंक दी उसने और चिल्लाकर रोना शुरू कर दिया
'ले रो 'प्रभात ने दो धमाके और उसकी पीठ पर जमाये और क्रोध के आवेश में कमरे के बाहर निकल गये.
..जैसे मैं बेकार चीख रहा हूं ,उसके मुँह से बोल नहीं फूटता ,कैसा राढ़ा है ,किसी की सुनता नहीं ..'
मिन्नी अजीब दृष्टि से देखे जा रही है .
प्रभात को लगा उसने कुछ अधिक कर दिया .
फिर अपने मन को तर्क दिया-
मुझे ऐसी ज़िद पसंद नहीं .'
बाहर जाकर फिर अपनी कुरसी पर बैठ गया .अब किताब पढ़ने में मन नहीं लग रहा .
ज़िद की बात पर उस् बचपन की एक घटना याद आ गई .कैसा ज़िद्दी और उद्दंड था तब मैं ,एक दम अड़ियल .
कुन्नू के बराबर होगा वह या एकाध बरस इधर-उधर ,एक मौलवी साहब उसे पढ़ाने आते थे.एक दिन उसने मौलवी साहब से कहा,'आज हम पढ़ेंगे नहीं .'
क्यों?'
'आज पढ़ने का मन नहीं है.'
उन्होंने पूछा ,'मन कैसा होता है ..'
प्रभात ने हठ पकड़ ली अड़ कर बैठ गया ,'हमें नहीं पढ़ना आज.'
'देखे कैसे नहीं पढ़ते है ?'
मौलवी साहब के पास डंडे का ज़ोर जो था.
उधर प्रभात भी तय किये बैठा था
उसकी दृष्टि मौलवी साहब की लंबे फुँदनेवाली टोपी पर लगी थी जो ुन्होंने उतार कर वहीं पास में रख ली थी.
उन्होंने ज़ोर से आज्ञा दी ,'किताब निकालो.'
प्रभात बैठा रहा और ज्यों ही उन्होंने मारने को हाथ उठाया उसने बड़ी फ़ुर्ती से उनकी टोपी उठाली और बाहर भागा.
मौलवी साहब अचानक हुए इस काण्ड के लिये तैयार नहीं थे
हड़बड़ा कर हिलते-डुलते उसके पीठे दौड़े.
वह बाहर निकलचुका था.,उन्होंने आकर देका-टोपी उसके हाथ से नदारद.
सशंक दृष्टि से चारं ओर देखा ,शायद कहीं पड़ी हो .
पर कहीं दिखाई नहीं दी.
साम-दाम-दंड-भेद सब नीतियां लगा कर प्रभात से पूछा गया .
सवाल कर कर के हार गए सब ,प्रभात टस से मस नहीं हुआ .
आखिरकार सब हार कर चुप हो रहे . रहस्य तब तक नहीं खुला था जब तक दूसरे दिन कुएँ पानी भरते पर दीनू की बाल्टी के साथ वह निकल नहीं आई .
मौलवी साहब की टोपी का फुँदना बाल्टी की कुंडी में अटक गया था और पानी भरी
टोपी ऊपर खिंच आई थी.सब हैरानी से देख रहे थे .
*
4.
चित्र.
*
बड़ी एकाग्रता के साथ पप्पो कोरे कागज़ पर पेंसिल चलाये जा रही ती.
अहाहा,कितना सुन्दर चित्र है .सोहन देखेगा तो देखता रह जायेगा.
कुछ क्षण देकती रही फिर बड़ी गंभीर हो गई .पर अभी तो इसमें रंग भरना है.
उसने बड़ी सतर्कता से चारों ओर देखा -कहीं जीजी न आ जायें .नहीं तो डाँट पड़ जायेगी.
उसे बड़ी कोफ़्त होने लगी यह सोच कर कि वे झट से डाँट देती हैं .कहती हैं -पप्पो तू मेरी चीज़ें मत छुआ कर .सब गड़बड़ कर देती है.वे देखती तक नहीं कि मैंने कितना सुन्दर काम किया है.
वह रंग भरने बैठ गई .एक बार फिर चारों ओर देख कर निश्चिंत हो गई कि जीजी अभी बाज़ार से लौटी नहीं है. की ड्राइंग के रंगजीजी के हैं न !
रंग रगड़ रही है किसी तरह जल्दी पूरा हो .
वाह,अब खाली लड़की की फ़्राक में भरना रहा है.
बड़ी सफ़ाई से स्टिक चला रही है पप्पो.
बस अब पूरा होनेवाला है.
चित्र में पेंसिल की लाइनों से एक लड़की बनाई गई थी
चुपके से जीजी का कलरबाक्स उठा लाई थी.मन में डर यह था कि कहीं बीच में ही आ न जायें1.
लाओ, अब इसके हाथ में एक फूल दे दूँ चमेली का .नहीं सफ़ेद रंग तो दिखेगा ही नहीं ,गेंदे का .पीला खूब जँचेगा.दो-चार हरी-हरी पत्तियाँ भी.और लड़की के बिन्दी ,जैसी जीजी लगाती हैं .
अचानक ही उसे ध्यान आया -रंग तो सूखे है .कहीं मोहन का हाथ पड़ गया तो ?
बालिका सोच में पड़ गई.
अच्छा इसे ऊँचे पर टाँग दूंगी. हरा स्टिक उठाकर सावधानी से पत्तियाँ बनाने लगी.
इतने में पप्पो,पप्पो चिल्लाता हुआ मोहन आ गया .वह एकाग्रता से रंग भरती रही जैसे सुना ही न हो.'सोच रही थी, कह दूँगी दूर से देखो .दूर से ज्यादा समझ में आता है .और छूना बिलकुल मत ,रंग छुटने लगेंगे.
वह पाल आ कर चित्र पर झुक गया ,'बोलती क्यों नहीं ,गूंगी हो गई क्या ?'
वह कैसे बोले ,नन्हीं-नन्हीं पत्तियाँ बनाने में हिल गया, ज़रा भी तो ..
और यह मोहन कैसा बेसब्रा है
देखता नहीं काम कर रही हूँ .देखेगा तो बस देखता ही रह जायेगा.समझता है पप्पो बस खेलने भर की है .
उसने घूम कर पीछे भी नहीं देखा ,सिर ज़रा और आगे झुका लिया.वह पास आकर चिल्लाया,'पप्पो ,ओ बहरी !'
उसने जैसे सुना ही नहीं ,मनोयोग से अपने काम में जुटी रही.
अपने को लाट साहब समझता है जाने कहाँ का.मुझे भी अपने जैसा फ़ालतू समझता है.मास्टर साहब के पीछे जाकर कैसा बंदर जैसा मुँह चिढ़ाता है !
मुँह चिढ़ाने की बात सोच उसके चेहरे पर हँसी खेल गई.
मोहन को गुस्सा आया ,मैं चीख रहा हूँ और वह बैठी हँस रही है.घूम कर देखती भी नहीं.
उसे हिला कर ज़ोर से बोला ,'हँसती क्यों है ?
''अरे यह क्या किया ?'
वह ज़ोर से चीख उठी.
एक हरी लकीर लड़की आँखों पर होती हुई दूर तक खिंच गई थी
पप्पो की आँखों में आँसू आ गये.
उसकी चीख सुन कर वह चौंका ,आँसू देख कर अवाक्1
कोई नया व्यवहार तो किया नहीं था. अब उसकी दृष्टि चित्र पर पड़ी-अच्छा तो यह किया जा रहा था तभी नहीं बोली.
पप्पो मुँह फेर कर खड़ी थी
एक बार उसकी ओर देखा फिर चित्र की ओर ,'कह देती हिलाना मत. पर हँसी क्यों थी?'पहले ही कह देती मुझसे ..'अनुनय के स्वर में बोल रहा था.
इस समय वह मास्टर से छुट्टी पाकर खेलने आय़ा था.
चित्र उसने हाथ में उठा लिया सोचा अभी छीनेगी .पर उर से कोई प्रयत्न नहीं .
'वाह,यह तो बड़ा सुन्दर है 'देख कर बनाया या अपने आप?''
पप्पो की इच्छा हुई कह दे ,मुझे क्या आता नहीं जो देख कर बनाऊँगी.
साथ ही उसकी आधी ग्लानि बह गई.परंतु बोली वह फिर भी नहीं.
मोहन को लगा कैसी रूठी खड़ी है ,मुँह से बोल नहीं फूटता जैसे बड़ा सुन्दर बनाया हो.जरा सी तारीफ़ कर दी तो और फूल गई.
पर बोला,' लो हम यह लाइन मिटाये दोते हैं ..'
और सफ़ेद रंग ले कर फेरने लगा ...,
वह खड़ी देखती रही ,थोड़ी सफ़ेदी फेर कर चारों ओर मिलाया उसने .
देखो अब वह लाइन ठीक कर दी..पप्पो ने मुँह फेरे रखा.'अच्छा हम इसे और सुन्दर कर देंगे..'
वह अपनी कारीगरी दिखाने को रंग लगाने लगा .
उसे लगा यह मेरा चित्र बिगाड़े डाल रहा है.
गई और चुपचाप जा कर उसके हाथ से ले लिया .,'मत खराब करो हमारा.'
मोहन चकित हुआ .
फिर सोचा ,चलो आई तो सही .वह थोड़ी खुशामद चाहती थी और मोहन ठहरा उजड्ड.
उसने कहना शुरू किया ,
अभी नीचे से आ रहा हूँ .जीजी की खूब डाँट पड़ रही है. अम्माँ कह रही थीं -अपनी चीज़ें बिखेर कर रखती हैं ,खोया बहाया करती हैं .
पप्पो के खलबली मची-कहीं कलरबाक्स वाली बात तो नहीं!
पर एकदम से कैसे पूछे!
उत्सुकता दबा कर बोली,'तुम हमसे लड़ाई क्यों कर रहे हो ?'
'हम कहाँ लड़े पप्पो,तुम पहले ही बता देतीं तो हम क्यों हिलाते?तुम तो मुँह से बोल ही नहीं रहीं थीं.'
'हमारा मन .काम करते पर बोलना अच्छा नहीं ,सब गड़बड़ हो जाता है..तुमने बिना देखे हिलाया क्यों ?'
"अच्छा अब ध्यान रखेंगे ,पप्पो को संतोष हुआ
'ये रंग किसके हैं?
'वह घबराई, 'जीजी के .'
'तभी ,जीजी ढ़ूंढ रही थीं .अम्माँ ने डाँटा तुम्हीं इधर -उधर डालती रहती हो
अब तुम फँसोगी .'
वह सोच में पड़ गई
'खेलने चलोगी ?'
रुआँसी आवाज़ में ,'जीजी डाँटेंगी .'
मोहन तैयार था
'चलो हम कह देंगे .वहाँ पड़े थे तो हम यहाँ उठा लाये थे.अरे जीजी ,एकाध हाथ ही तो लगा देंगी .कौन सी नई बात ? .
'तुम बड़े अच्छे हो, मोहन ' पप्पो ने कहा, 'अब हम हमेशा तुम्हारी बात का जवाब दिया करेंगे .'
अच्छा चले बाहर वहाँ पेड़ के नीचे ..'
और हाथ पकड़ कर दोनों उल्लसित भाव से निकल गये .
सारे झगड़े की जड़ चित्र वहीं पड़ा रह गया .
*
फेर दिया पानी -
उसके बारे में मैंने कभी सोचा भी नहीं था ।ऐसी कोई बात भी उसमें नहीं थी जो ध्यान आकर्षित करती ।हाँ, दिन भर में दो-चार बार उससे सामना जरूर हो जाता था ,पर नमस्कार - चमत्कार और रोज़मर्रा की चलती हुई बातों से आगे कुछ हुआ हो ऐसा याद नहीं पड़ता ।उसके घर जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। लोगों को उसे 'सुखवीरा' कह कर आवाज़ लगाते सुना था ,पर मैं हमेशा सुखवीर ही कहता था ।किसी का नाम बिगाड़ना उचित नहीं लगता था मुझे। मौज में आकर सामनेवाले को 'यार ' कह बैठना मेरी पुरानी आदत है ,चाहे सामनेवाला बच्चा ही क्यों न हो ।उससे भी अनायास कह देता हूँ 'यार सुखवीर ,चाय नहीं पिलवाओगे ?'
हो सकता है कभी कोई बात निकली हो और मैंने कुछ कह दिया हो ।पर ऐसी कोई बात नहीं थी जो याद रखने योग्य हो ।वैसी कोई बात वह मन में रखे है ,यह भी मुझे बाद में ही पता लगा ।उसी ने कहा कि वह एक दिन मुझे अपने घर चाय पीने बुलानेवाला है ।।इसमें भी मुझे कोई विशेष बात नहीं लगी ।सच तो यह है कि एक बार सुनने के बाद मैंने दुबारा उस बारे में सोचा भी नहीं ।
लेकिन अपने साथ के और लोगों से उसमें थोड़ी भिन्नता जरूर थी ।और लोग जहाँ पैजामा पहने चले आते थे ,वह हमेशा बुश्शर्ट - पैंट पहनता था ।बोलने की भी उसकी आदत कम थी ,चेहरे से ही कुछ गंभीर -सा लगता था ।इसीलिये उससे बात-चीत करना मेरे लिये कभी प्रयासपूर्ण नहीं रहा।हां, बाद में कभी-कभी मुझे लगता था वह अधिक सभ्य दिखाई देने का प्रयत्न करता है । कपड़े भी क़लफ़-क्रीज़ से दुरुस्त रहने लगे थे - कभी एकाध बालों का छल्ला भी माथे पर आ जाता था ।किन्तु इस सब पर मेरा ध्यान कभी टिका नहीं ।एकाध बार सुनने में आया कि वह अपने साथियों में मेरी मित्रता का दम भरता है तो भी मैंने इस विषय पर कुछ ध्यान नहीं दिया । लोगों की तो कुछ भी कह देने की आदत होती है। न मेरे व्यवहार में कोई परिवर्तन आया,न उसके ।
अप्रत्याशित ही एक दिन जब उसने कहा कि आनेवाले इतवार को मैं उसके घर चाय पर आऊँ तो मैंने पूछ लिया ,'क्या कोई ख़ास बात है ?'
' नहीं आपको बुलाने की बहुत दिनों से इच्छा थी ।'
व्यर्थ में दीनता प्रदर्शित करते मैंने उसे कभी देखा नहीं था और एसा करना मुझे अच्छा भी नहीं लगता।
'कोई और भी आयेगा ?'
'आप कहें उसे और बुला लूँ ?'
'नहीं,नहीं उसकी कोई ज़रूरत नहीं ।म नैं तो यों ही पूछ लिया ।'और चार बजे उसके घर पहुँचने की स्वीकृति मैंने दे दी ।
'घर तो वहीं मल्लूपुरे में है ?'
'हाँ ।मेरा नाम ले देंगे तो कोई भी बता देगा ।चौराहे से आगे बढ कर जहाँ पीपल का पेड़ है ...नहीं,नहीं मैं आपको लेने आ जाऊँगा ।आप कहाँ ढूढते फिरेंगे ।'
'कोई ज़रूरत नहीं। मैं ढूँढ लूंगा ।आ जाऊँगा ।'
'मुझे साढ़े तीन बजे इधर काम भी है ,लौटते पर आपको साथ लेता चलूँगा ।'
चलो ,यह भी तय हो गया ,सोच कर मैं निश्चिंत हो गया ।आगे सोच-विचार करने को कुछ था भी नहीं ।
शनिवार को छुट्टी के समय उसने मुझे फिर याद दिलाया ,वैसे भूला मैं भी नहीं था ।पौने चार पर मैं तैयार मिलूँ -बात हो गई ।
**
इतवार को सुबह से ही एक पुराने मित्र अपने घर खींच ले गये - खाने-पीने और ताश का स्पेशल प्रोग्राम था ।वहाँ लेट खाना हुआ ,फिर खेल ऐसा जमा कि समय का ध्यान ही नहीं रहा ।शाम की चाय की बात हुई तो एकदम ध्यान आया ।घड़ी पर निगाह गई -पौने चार बजने में कुल पाँच मिनट !
फ़ौरन मैंने बिदा माँगी और चल पड़ा ।
रास्ते में सोचा घर पहुँचने में दस-पन्द्रह मिनट लग जायेंगे , चार बज चुके हैं ।वह घर पहुँचे और मैं नहीं मिलूँ तो वह क्या सोचेगा !सीधा उसी के घर क्यों न चला चलूं ,इधर से रास्ता भी पास पड़ेगा ।
मकान का पता लगा ही लूँगा -पीपल के पेड़वाले रास्ते का उसका कथन मेरे ध्यान में था ही ।
स्कूटर मोड़ लिया। दो-तीन ऊबड़-खाबड़ गलियों को पार कर सड़क पर आ गया ।चौराहे के आगे पीपल का पेड़ दिखाई दिया तो लगा सही जगह आ गया ।यहीं से उसका नाम ले कर पता लग जायेगा।किसी साधारण-से मकान की खोज में मैं आगे बढ़ आया ।
बीस-पच्चीस कदम पर म्युनिसिपालिटी का नल था जिसके चारों ओर कीचड़ फैली थी ।नल का पानी जिस ओर बह कर जाता था उस ओर एक गली-सी थी जहाँ आमने-सामने के मकानों की दो स्त्रियां दरवाज़ों पर खड़ी वाक्युद्ध में लीन थीं ।उन्हें डिस्टर्ब करना मैंने उचित न समझा ।उसी स्थिर पानी वाले नाले के मोड़ के पास एक खोंचेवाला था जो अपने हाथ से बार-बार अपने सामान पर आ बैठनेवाली मक्खियों के झुण्डों को उड़ा देता था ।मक्खियां भन्-भन् करती वहीं मँडरातीं और फिर यथास्थान बैठ जातीं ।खोंचेवाले की सुस्ती के फलस्वरूप वे काफ़ी ढीठ हो गई लगती थीं ।उसी के पास दसेक बरस का लड़का खड़ा हुआ ,चाट-चाट कर कुछ खा रहा था और सी-सी करता हुआ कमीज़ की बांह में नाक पोंछता जा रहा था ।
'ए, लड़ के ,'मैंने तर्जनी उठा कर आवाज़ दी ।
लड़का आगे बढ़ आया ।
'यहाँ कोई सुखवीर सिंग रहते है ?'
पत्ता फेंक कर लड़के ने खीसें निपोरीं ,बोला ,'मैंने यहां के सब लोगों को जान्ने का ठेका ले रखा है क्या ?'
सिटपिटाया-सा मै चलने ही वाला था कि खोंचेवाले ने आवाज़ लगाई ,'
' बाऊ जी ,ऐ बाऊ जी ,किसे पूछते हो ?'
डूबते को जैसे तिनके का सहारा मिला 'सुखवीर सिंग' का मकान ?उनने इधर ही बताया था ।'
'कौन से सुखवीर सिंग ?'
'वही जो आबकारी के दफ़्तर में काम करते हैं ।
''अच्छा , वो सुखवीर !'
उसके कहने के ढंग से मैं कुछ हतप्रभ हो गया ।
अपने आप को कोस रहा था कहाँ आ फँसा ! अपराधी सा फिर बोला ,' हाँ,हाँ ,वही।कहाँ रहते हैं ?'
'कुछ खास काम होगा ।'कहते हुये उसने वाक्युद्ध-रत स्त्रियों की ओर हाथ उठाया और मेरी ओर देख कर मुस्करा दिया ।
'नहीं ,कुछ खास काम नहीं ,यों ही च्च्च्चला आया था ,'मैं बोलते-बोलते हकला गया ।
अब तो उन्हीं वीरंगनाओं का आसरा था ।
नाली के इस पार जो दरवाज़ा था उस पर खड़ी हुई युवती है या अधेड़ एकदम से पता नहीं लगता था । उसकी साथिन -प्रतिद्वंद्विनी -अवश्य अधेड़ थी ।फ़ैशन के अनुसार खुले सिर के अस्त-व्यस्त बालों को बार-बार खुजलाती हुई ,मुसी हुई धोती के बेढंग से पड़े पल्ले को और ज़ोर से खींचती हुई चीख रही थी ,' तेरे अपने तो दूधपीते बच्चे हैं ।जब देखो कभी छुन्नू को मार भागते हैं ,कभी लच्छू को ,तो वो नईँ मारेंगे ?''अरे मैं तो अब तक लिहाज करे थी .पर अब तू बढ़ती चली आ रही है ।मेरे पिरेमू को मारे उसकी खाल उधेड़ दूँगी ।'
'बड़ी आई खाल उधेड़नेवाली !पीटेगा छुन्नू जो इसने बदमासी की ...।'
'चल आ जा पिरेमू ,' देह से फिसलता धोती का पल्ला सम्हालती दूसरी ने आवाज लगाई ।
पत्ता चाटता लड़का पीछे घूमा ,'अब्भी आया !'
अब तक मेरी समझ मे आ चुका था सुखवीर का घर उसने क्यों नहीं बताया था ।
किस प्रकार से किस वीरांगना को अपनी ओर उन्मुख करूँ ,सोच ही रहा था कि खोंचेवाले ने आवाज़ लगाई ,'अरी ,झगड़ा पीछू कर लियो ,पेले देखो कि कोई भला आदमी दरवज्जे पे आया खड़ा है ।'
' ठीक है अब मैं चला जाऊँगा ,' खोंचेवाले से कह कर मैं गली की ओर मुड़ गया ।
पर आवाज़ देते-देते रह गया ।दूसरी ओर से सुखवीर साइकिल से आ रहा था ।
एक दम सामना न हो जाये ,कुछ समय निकालने के लिये मैं मुड़ कर सड़क की ओर वाले पनवाड़ी से पान खरीदने लगा ।पान लेकर रुपया दिया तो टूटे पैसे लेने में देर लग गई ।फिर सुस्त चाल से आगे बढ़ कर गली में पहुँचा ।
दरवाज़ा आधा खुला था । दूसरीवाली स्त्री अब साफ़-सुथरी धोती पहने थी और बड़े ताव में कह रही थी ,'मरे कमबखत यों ही किया करें !फेर दिया पानी पच्चीस रुपैये पे ! इसमें कुछ और डाल कर तो छुन्नू का सूटर बन जाता ।'
सुखवीर सड़क की तरफ़ पीठ किये था ,'मुझे क्या पता था ,पहले तो उसी ने कहा था तुम्हारे घर आयेंगे ।अब नईं आया तो क्या करूँ ।'
इतने में पीछे से मैंने आवाज़ लगाई ,'सुखवीर सिंग।'
मुड़ते-मुड़ते वह बोला ,'ले, वो आ गया । अब बंद कर बक बक ।'
स्त्री फ़ौरन अन्दर हो ली ।
सुखवीर मेरी ओर घूम गया , 'अरे आप ! मैं ते लेने गया था ।'
'हाँ ,इधर कसी काम से आया था ।देर हो गई तो सोचा इधर से ही निकल चलूँ ।'
'कोई परेशानी तो नहीं हुई ?'
'परेशानी काहे की ?पता तो मालूम था न ।'
मुझे लेकर वह कमरे के साइड के गलियारे से होकर भीतर दाखिल हुआ ।
एक छोटे कमरे में एक मेज़ के दोनो ओर कुर्सियाँ पड़ी थीं,मेज़ पर बड़े-बड़े फूलोंवाला मेज़पोश ,एक तरफ़ बेडकवर युक्त चारपाई ।कमरे में मुझे छोड़ते हुये सुखवीर ने कहा ,'आप बैठिये ,मैं अभी आय़ा ।'
पर मुड़ते-मुड़ते उसकी नज़र मेरी नज़र के साथ ही अन्दर जा पड़ी ।
'अरे नालायक ,सब जूठा कर डाला ..' कहता हुआ वह सारा शील-संकोच छोड़ तेज़ी से बढ़ा और साफ़-सुथरे कपड़े पहने ,केले के गूदे से सने हाथ और दालमोठ लगे मुँहवाले छुन्नू के कान ज़ोर से पकड़ लिये ।
लड़का चीख रहा था ,'तो अम्माँ ने ई तो कहा था कि वो अब नईं आयेंगे..।'
पर सुखवीर सब कुछ भूल कर उसके गालों पर चाँटे लगाये जा रहा था इस ओर हतबुद्ध अवाक् खड़े मुझे लग रहा था कि वे छुन्नू के नहीं मेरे गालों पर तड़ातड़ पड़ रहे हैं ।
- प्रतिभा सक्सेना
शेष कहानियाँ फिर ...