मंगलवार, 13 अगस्त 2013

कुछ पुरानी कहानियाँ .


1. अव्यक्त-स्नेह -

नीमी फिर खिलखिला उठी.
महरी को इसमें हँसने .योग्य कोई बात दिखाई नहीं दी.उसने नीमी की ओर देखा,तभी वह उसकी ओर देख कर हँस रही थी.महरी को लगा जैसे नीमी उसी को देख कर हँस रही है.मन ही मन चिढ़ उठी वह.
नीमी को हँसी आती बात-बात पर और रुकने का नाम ही न लेती.महरी रही उस वातावरण में जहाँ लड़कियों को बचपन से ही प्रत्येक बात में दबा कर रखना अच्छा समझा जाता .जब इस घर में नई-नई लगी थी महरी, नीमी को हँसते हुये कौतुक से देखा करती ,पर धीरे-धीरे उसे लगने लगा कि वह उसे देख कर हँसती है और मन -ही-मन वह उसकी हँसी पर झल्ला जाती
कभी-कभी वह टोक भी देती,'जे इत्ती हँसी काहो को आवत है .'
महरी आँगन में नाली के पास बैठ कर बर्तन माँजती ,तभी उधर
से नीमी आ जाती, ज़रा सा काम होता , लोटा भर पानी उँडेलती और सब वहीं छोड़ चल देती.पानी बहता हुआ जाता था जिधर महरी बैठती थी.ऊपर उधर ही थोड़ी दूर पानी की घड़ौंचीवाला खाना बना था.नीमी पानी लेने आती पहले काफ़ी-सा पानी डाल कर बर्तन खँगारती फिर घड़े से पानी उँडेलती, भरे हुए घड़े से वेग से पानी निकलता और बह जाता .नीमी का ध्यान ही उधर नहीं जाता.
पानी बह कर जाता जिधर महरी बैठती और उधर भीगा रहने के कारण कुछ काई जमी होती .पानी पड़ने से फिसलन हो जाती.
तीव्र स्वर में महरी कहती,'हियां पानी न फेंको करो .'
कभी सुन कर कभी अनसुनी कर नीमी अपना काम कर चल देती.तब महरी बड़-बड़ करती बैठ कर.
एकाध बार अम्माँ ने भी टोका,'नीमी ,पानी वहाँ न फेंका करो .सब भीग जाता है .'
नीमी ने कह दिया - अच्छा .पर स्वभाव की लापरवाही कहाँ जाती !
अगली बार फिर वही.और इतना ही नहीं ,अंदर कोई कुछ कह रहा और बाहर बैठी नीमी रानी खिलखिला रहीं हैं.
बात यह हुई कि भाभी थाली लिये कमरे में दाल निकालने जा रहीं थीं ,
सामने से एक चुहिया भागती हुई चली आ रही थी .उस पर पड़ गया उनका पैर.उन्हें लगा कोई गुलगुला जीव उनके पैर  तले आ गया.
जैसे ही नीचे झुकीं देखा छोटी-सी चुहिया. फिर तो दोनो हाथों से आँखें ढक वे ज़ोर से चीख उठीं.
सब ने पूछा,'क्या हुआ?'
नीमी दौड़ी देखने.

बात मालूम होते ही जो हँसी शुरू हुई तो रुकने का नाम ही नहीं .फिर-फिर याद आये  और फिर-फिर हँसे.सब पूछने लगे .' पर हुआ क्या ?'
पर उसकी हँसी रुके तब तो बताये .
महरी बैठी बर्तन माँज रही थी
बात पता चली तो सब हँस-हँसा कर चुप हो गये.
नीमी चाय का प्याला धोने आई तो  पानी उँडेलते हुये भाभी और चुहिया का ध्यान आ गया ,और वह फिर खिलखिला उठी.देर तक हँसती रही.
महरी देखती रही, कुछ बोली नहीं .

भाभी ने कहा ,'ज़रा बीबी की हँसी देखो!
भैया बोले,' क्या बेकार बात पर ही-ही लगाये है.'
तभी उसके सामने फिर वही दृष्य घूम गया और फिर हँसी आ गई.
'नीमी ,जल्दी से प्याला ले आ.'अम्माँ ने आवाज़ दी .और वह बेफ़िक्री से प्याला धो कर  चल दी .महरी को कुछ कहने का मौका न मिला.
वह सोचती रह गई -इस लड़की को आखिर इतनी हँसी क्यों आती है.क्या यह उसे देख-देख कर हँसा करती है.पर ऐसा भी क्या हँसना . भाड़ में जाय ऐसी हँसी ..पर वह सोचते-सोचते रुक गई .
महरी जा रही थी .नीमी पिताजी को पान दे रही थी
जाते-जाते रुक गई ,'दुलहिन से मुसरिया दबि गई जे इत्तो हँसी इत्तो हँसी...'
वे जानते थे नीमी की आदत ,मुस्करा उठे. नीमी की कल्पना में फिर वही दृष्य घूमा और महरी को देख कर वह हँस दी.महरी बाहर निकली तो उसने फिर से मुड़ कर नीमी को देख लिया..
उस दिन महरी किसी मेले में गई थी ,उसकी ननद काम पर आई .
पिताजी ने आँगन में खाट पर से आवाज़ लगाई ,' नीमी ,ज़रा पान दे जा .'
वह पान ले कर आई,' बोली तम्बाकू खतम हो गई है.'
'मेरे कुर्ते की जेब में बिखर गई थी ,उसमें से निकाल दो ,बाईं जेब में है.'
हथ डाल कर उसने जेब झाड़ी और जो तंबाकू की दो-तीन पत्तियाँ और सूत के चार-पाँच धागे हाथ में आये , बिना देखे उनके फैले हुये हाथ पर पलट दिये.
'ये कैसी तमाखू है ,उसमें है नहीं क्या ?'
'इतनी ही निकली.'
'देखूँ तो ज़रा ,लाओ कुर्ता.'
और वह कुर्ता ले आई.
'अरे यह तो उलट कर टाँग दिया किसी ने ..कौन सी बाईं जेब है इतना भी नहीं देखा तुमने?'
फिर एक चुटकी तम्बाकू ले कर बोले ,'अच्छा अब इसे किसी कागज़ पर झाड़ लो .'
अब ध्यान गया कुर्ते की ओर -सारी सिलाइयाँ ऊपर , ढेर-ढेर  हँसी उमड़ी चली आ रही है.रुकती ही नहीं , बुरा हाल. और सामने पिताजी .उनके हाथ से कुर्ता लेकर वह झट से घूम गई ,अख़बार उठा कर मेज़ पर फैला लिया
जेब पलट कर झाड़ने लगी .हँसी के आवेग में हिल-हिल जा रही है .कुछ भय भी .पिताजी कहीं कहने न लगें,' पहले तो उलटे-सीधे काम करती है ,होश न जाने किस दुनियी में रहता है ,फिर हँसती है.'

कुर्ता लिये भाग आई वहाँ से.
भाभी ने पूछा ,'क्या बात हुई  ,बड़ा हँसे जा रही हो ..'
वह बताने लगी .पर बता नहीं पा रही .बीच-बीच में हँसी के मारे गला रुँधा जा रहा है.
'ये क्या ?बात तो पूरी की नहीं ,बीच में खल-खिल शुरू कर दी ..'
महरी की ननद देखती रही, सुनती रही -कहती क्या !
घर जा कर अपनी भौजाई से बोली ,'जे इनकी बिटिया ,इत्तो काहे खिखियात है ,बोलऊ नाईं फूटत..?'
महरी हाथ हिला कर बोली,'का जानै दिदिया ,जब देखो खिखी-खिखी.. ,बात बेबात .का कुछू भौ हतो?'

उसने जो समझ में आया बताया ,फिर बोली .'कोऊ टोकतऊ तो नाईं है ..लरिकिनी की जात. भाड़ में जाये अइस हँसी...'
महरी को अच्छा नहीं लगा ,कोई यों कहे नीमी के लिेए .उसने बात बदल दी ,'आज सुक्खी की अजिया मिली रहैं ..'
दोनों चर्चा में लग गईँ .
**
दूसरे दिन महरी आई .
उसे रोज की तरह नीमी हँसती न दिखाई दी .चारों ओर देखा सन्नाटा-सा लगा ..याद आया मुँह से निकला था 'भाड़ में जाये..'
जीभ काट ली अपनी .
बर्तन निकाल कर बाहर रखे.कहीं गई होगी ,आती होगी .
पानी भर कर लौटी .सब अपने-अपने काम में लगे हैं .आँखे पसार कर कमरों की टोह ले ली.
ज़रा सी खटर-पटर पर आँखें  उधर उठ जातीं .
बर्तन धो चुकी .लगा दिये
कहीं कोई चलता-बोलता नहीं .
चलते-चलते पूछ बैठी,' आज बिटिया नाहीं दिखात है ?'
' वह पड़ोस में गई हैं .'भाभी ने उत्तर दिया.
चैन की सांस ली महरी ने.
थोड़ी देर बाद नीमी आई तो महरी जा चुकी थी।
अरे, बड़ी जल्दी चली गई आज नीमी ने सोचा...पानी भरने गई
होगी ..पर गिलास में पानी उँडेलने गई तो  देखा घड़े भरे थे.
पूछ बैठी,'महरी गई क्या ?'

'क्यों आज बड़-बड़ नहीं सुन पाईं..'
नीमी ने कई बार देखा था जब वह हँसती है तो महरी तीव्र दृष्टि से देखती है .पर कारण नहीं खोज सकी वह.
महरी के बोलने के ढंग पर उसे हँसी आती थी,पर बड़बड़ाहट न सुन पा कर कुछ अभाव सा लगता .बोली,'भाभी, मैं प्याला धो रही थी तो वो कहती है,'जे का सलर-बलर कत्त हौ..' कहने का ढंग देख कर भाभी भी हँस पड़ीं.
'पर बेबात ही-ही की आदत ज़रा कम करो ,अभी तो महरी ही कहती है  फिर ..'
' बस बस रहने दो ,कोई हँसे तो किसो क्या परेशानी..,'

वे मुस्कराते हु बोलीं,'यह मैं थोड़े ही कह रही हूं परंतु जब तुम्हारे दूसरे घर ...'
'क्या किन्तु परंतु,..'उसने मुँह बिचकाया,
'ये बताओ वो चुहिया ज़िन्दा है या..?
वह घटना याद कर विरक्ति से भर आईं,मुँह बना कर बोलीं,'बतंगड़ बना डालती हो ज़रा सी बात का ..'और भन्नाई सी कमरे से बाहर हो गईं .
**
भाभी मायके गयी हुई हैं.ताऊ जी की तबियत खराब थी सो अम्माँ-पिताजी  वहाँ चले गये .छोटा भाई बाहर पढ़ रहा है .घर में रह गये बड़े भइया और नीमी.
नीमी बेफ़क्री से काम करती
खूब बर्तन मँजने को निकलते ,सब अस्त-व्स्त सा हो रहता.
महरी आती टोकती ,'कित्ते बत्तन करि डरती हौ.'

नीमी सुनती ,हँसती हुई मनाती,'अच्छा महरी अम्माँ ,मैं तुम्हारे लिये चाय बना देती हूँ .'
चाय पी कर निहाल हो जाती असीसें उचरती चली जाती महरी .
'चाय में चीनी दूध और डाल दिया है तुम्हारे लिए महरी-अम्माँ .'
तृप्त दृष्टि से देखती महरी .
कभी -कभी खीजती बड़बड़ाने लगी,'.हमाई बात पे बहुतै हँसी आवत है ..'
वह रोकने की कोशिश करते और हँसती .महरी  भुनभुनाती काम निपटाती .पर
पूरा आराम देने का यत्न करती .
चौका देते समय महरी ने देखा चूल्हा चटक गया है .,बोली,'कित्ती जोर
सानी कढ़ैया धत्ती हो .सुन्दर चूल्हा हतो ,मार चटकाय दौ..'

आदत के अनुसार हँसते हुये नीमी ने उत्तर दिया ,'अम्माँ आयेंगी तब बनायेंगी .'बस साध दो तुम .'

उसे याद था एक बार अम्माँ ने चूल्हा सँभालने को कहा था तो महरी ने उत्तर दिया था,'उसे चौका-बासन के लिये रखा गया है ,चूल्हा क्यों बनाये.

जब अलग से पैसे देने को अम्माँ ने कहा तो बोली,'दूसरी जगह देर हो जायेगी.' चूल्हा नहीं बनाया सो नहीं बनाया.

'तुम्हें का चउका देन में हमैं आफत पड़त है ..ऊपर से दाँत कढ़तीं ,मेहरुअन को अइस ही-ही -ठी-ठी नीक नाहीं लगत..'

 उसने अच्छी तरह मिट्टी लगा कर चूल्हा मज़बूत कर दिया था.
जाते समय चेतावनी देती गई,'देखो, अब ना चटकियो,पटकियो
एक दाँव  बनाय दौ,'
फिर बोली ,
'..हमें का अब टुटिहै तो हम चउका नाहीं दिहैं.'
और एक दिन जब तरकारी काटते-नीमी के हाथ में चाकू लग गया
तो महरी बोली,'काम हियन करत धियान कहाँ रहत .'और मसाला ले कर स्वयं पीसने बैठ गई.
उसने कहा भी,'तुम्हें दूसरे घर जाने में देर होगी ,रहने दो ...'
'अगुरिया में चकुआ मार लिहिन ,अब कइस होई ..
अरे हुँअन देर हुइ जैहै ,बकि लिहैं थोर चिल्लाय लिहैं अउर का ..'
और अचानक नीमी को उसके शब्दों पर हँसी आ गई.
महरी का मिजाज बिगड़ गया .बोलने लगी ,'जहै हमें नाहीं सुहात ..'
पता नहीं क्या बुडबुड़ाती रही वह .

**
पिता जी-अम्माँ ,लौट चुके थे ,भाभी भी एक मुन्ने को लेकर मायके से लौट आईं .सभी काम पूर्ववत् चलने लगे थे-नीमी की हँसी और महरी की बड़बड़ भी यथावत् .
अचानक पता लगा पिताजी का तबादला दूसरी जगह हो गया. जल्दी जाना होगा.तब तय हुआ कि ज़रूरी सामान के साथ  सबको वहां पहुँचा कर पिता जी बाकी सामान किसी को भेज कर मँगवायेंगे.

और उस शाम घर-भर के लोग जाने को तैयार खड़े थे.
नीमी की आँखें खोज रहीं थीं महरी को .बहुत आराम दिया था उसने .
आज अनुभव हुआ,हँसती भले ही रही हो पर महरी के लिये मन का कोई तार  स्पंदित होने लगा था.
जो हो ,अब तो जाना ही था.
सब बाहर निकल आये.घर में ताला लग गया
तभी जाने कहाँ से वहाँ आ कर खड़ी हो गई महरी .
अम्माँ ने उसे कुछ दिया कहा,'अच्छी तरह रहना ,तुम्हें याद करेंगे हम..'
वह बोली.'जाओ,भइया,इत्ते दिनन को तुम्हार अन्जल हतो.हम कहाँ जइबे .हियनई रहिबे..'
फिर चारों ओर देख कर बोली,'बिटिया कहाँ ?'

पीठे अनमनी सी नीमी खड़ी थी ,आगे आ गई,'महरी अम्माँ ,हमसे नाराज हो क्या - हँसना छोड़ दूँ .?'

'नाराज काहे हुइहैं ,बिटिया,..हँसो-खेलो खुस रहो,
हमारी का कही .बुढ़ापा है सो बडबड़ान की आदत परि गई.नाहीं तो ..'
उसकी आवाज़ की वह तुर्शी कहाँ गायब है आज ,कंठ आर्द्र हो उठा है  .

नीमी बोली,'
'महरी अम्माँ ,बहुत परेशान किया तुम्हें ,अब जाती हूँ ..'
बीच में रोक कर वह बोल पड़ी,'जौ का बिटेवा,
हमार तो आदत परी है .जलम बीतिगा इहै बातन में .
तुम नीक रहौ इहै मनावत हैं ..'
 ताँगा आ गया चढ़ गये वे लोग ,घोड़े की पीठ पर  चाबुक बजा.
महरी  खड़ी रही . देखते हुए आँखें  छलक उठीं .
आगे का दृष्य-पट  धुँधला गया था.
*
2.
बहलावा.
घर में घुसते ही मैने किताबें रोज़ की तरह अल्मारी में फेंकीं और खिड़की के दोनो पल्ले पूरे खोल दिये.तीसरे पहर की उतरती हुई ढेर-की-ढेर सुनहरी धूप कमरे में भर गई.छोटे कमरे में फैला हुआ प्रकाश तीव्र हो उठा और मुझे लगा मेरे थके हुये मन में भी रोशनी भर गई .
आज का सारा दिन बेकार ही बीत गया.शैल का पत्र इतने दिनों से आय़ा हुआ पड़ा है .उत्तर देना है लेकिन समझ में नहीं आता उन छः-छ- पन्नों के उत्तर में आखिर लिखूँ तो क्या लिखूँ .कहीं लिखने का मन ही नहीं होता .मन करता है सबसे पत्र-व्यवहार बंद कर दूँ .
पर शैल ..वह कितनी उत्सुकता से मेरा उत्तर पाने की प्रतीक्षा कर रहा होगा.
कैसे कहूँ उससे कि मैं तुम्हें पहले के समान मस्ती से भरे लंब-लंबे पत्र न सिख सकूंगा
मुझे औऱ भब अनेकों ढेर से काम हैं
स्कूल में कितनी कक्षाओँ के लड़के हैं उनसे सिर खपाना पड़ता है फिर जाँचने के लिये ढेर-ढेर कापियाँ ,जिनमें गलतियों की कोई गिनती नहीं .द्रौपदी के चीर की भाँति उन कापियों का कभी अंत नहीं आता.
घर पर शीला अपनी बातों में मेरा साथ चाहती है ,मंटू पापा की गोद में चढ़ना और  खेलना चाहता है.
कभी मित्र चौराहे की पान की दूकान तक खींच ले जाते हैं और एक-डेढ घंटा कहाँ गया पता ही नहीं चलता .
अब मैं तुम्हें लिखने बैठूँ तो अपना रोना रोऊँ या तुम्हें मज़ेदार किस्से सुनाऊं?
कैसे लिखूँ शैल कि कि अब तुम्हें या अपने आप को ही बहलाने के लिए लिख चाहे कुछ भी डालूँ लेकिन मुझे तुम्हारी याद नहीं आती.-तम्हें याद करने को मेरे पास समय नहीं है ,न वह मनस्थिति ,
शीला मंटू को ले कर पड़ोस में गई हुई है,नहीं तो उसकी इधर-उधऱ की बातों पर हँसना पड़ता .
कभी-कभी लगता है कि एक मिनट चुप बैठ लूँ इतनी भी स्वतंत्रता नहीं है.घर में और बाहर जबरन हँसना-बोलना पड़ता है ,मन हो चाहे न हो .
बेमन से कापियाँ देखता हूँ .गलतियाँ छूट जायें तो उसके लिये मुझे सुनना पड़ेगा .लगता है सारा जीवन एक गले पड़ी ज़बरदस्ती की चीज़ एक दिखावा ,एक मजबूरी है.
कहीं पड़ोस से ढोलक की ढमक के साथ गाने की आवाज़ें आ रही हैं.नारी कंठों के स्वर कभी ऊँचे हो जाते हैं कभी कानों तक पहुँच कर जैसे खो से जाते हैं.
लगता है कल की ही बात हो .शैल से बिना मिले एकदिन चैन नहीं पड़ता था. कैसा था वह ,बात-बात पर हँसना और बात-बात पर रूठना.किसी को गंभीरता से लेना ही नहीं जानता.जैसे हर बात को हँस कर उड़ा देगा.जिन बातों पर मेरा मूड घंटों खराब रहता है वहाँ उसके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती.क्या पता वह हँसी सिर्फ़ एक आवरण है या जीवन की असली मस्ती.उससे कुछ पूछा भी क्या जाय जो कभी गंभीर हो कर बात करना जानता ही न हो .हरेक बात हँसी में उड़ जाती हो.
लोग शायद ऐसों को बेकार का आदमी समझते हों ,और भारी बोझ लादे रहनेवालों को  किसी काम का.पर ये लोग ऐसा क्या साध लेते हैं जो वे लोग नहीं कर पाते .
बोझ लाद कर जीना कोई अच्छी बात है !
वह बहुत हँसता है कहता है ,'बहुत काम के हो कर तुमने  क्या पाया ,और बे कार का हो कर मैंने क्या गँवाया?
 उसका कहना हा 'यार, ये सब फ़ालतू बातें है सब ऊपरी जमा-खर्च है .मन खुश तो सब कितना आसान !"
और भी ,'हमेशा परेशान रह कर क्या मिलता है किसी को  ,गंभीरता ओढ़कर मेरा तो मन  भारी हो जाता है .अपना सिद्धान्त है 'चाहे कोई मुस्कराये,गालियां हज़ार दे .मस्तराम बनके ज़िन्दगी के दिन गुज़ार दे .''
हाज़िर की हुज्जत नहीं ग़ायब की न तलाश शैल ऐसा वर्तमान में रहने वाला
यही उसका स्वभाव है.
'कितनी देर हुई तुम्हें आये हुए .' शीला आ गई ,
'बस थोड़ी-सी.'
आगे कुछ पूछती नहीं .उसे लगता है थके आये है ,इस समय रहने दो अपने हिसाब से .मंटू गोद में आना चाहता है
मैंने चुटकी बजा दी उसके सामने ,वह तो लपक कर गोद में चढ़ गया .
चल बेटा चल . अपनी औलाद से ही हारता है आदमी .
शीला जाने क्या सोच कर मुस्करा रही है .वह चली जाती है चाय बनाने .
मैं मेज़ के पास बैठना चाहता हूँ .पर मंटू किताबें खींचेगा ,कापियाँ घसीटेगा .उसे ले कर बलकनी में चला आया हूँ .
पेड़ पर बैठी चिड़िया पर उसकी दृष्टि है,खुश हो रहा है ,मुझे दिख रहा है.
बच्चे भी कितने निश्चिंत होते हैं .हर जगह कुछ-न-कुछ मन लगाने को अपनी रुचि का ढूँढ लेते हैं .
और हम -एकदम मैने सोचा हम क्या करते हैं ?ये तो अपनी हर बात के लिये बिलकुल दूसरों पर निर्भर हैं  और फिर भी मस्त!
मन होना चाहिये खुश होने के लिए .ज़रा-ज़रा सी ,फ़ालतू की बातों में मज़ा ढूँढ लेते हैं ये लोग .उसी में खुश हो लेते हैं ....और हम ?
हम ?हर समय परेशानियां ही सिर पर उठाये घूमते हैं.क्यों नहीं झाड़-फटक देते ? .
पर कैसे ..कैसे?
कैसे ?- जैसे शैल !
हाँ शैल, सारे यही काम वह भी करता है .मुझसे कोई खास भिन्न नहीं है उसका भी रुटीन .
पर मस्त रहता है हमेशा.
गुनगुनाता जाता है .हँसता जाता है .
एक बार बेतकल्लुफ़ी में कह गया था ,' यों मरा-मरा सा रहने में अपनी इंपार्टेंस ज्यादा हो जाती है क्या ?'
कुछ कह नहीं पाया मैं ,पर अंदर ही अंदर तमक गया था.
वह समझ गया ,बात पर लीपा-पोती कर दी.
करें क्या हम दोनों बचपन से एक ही जगह रहे ,लड़ते-झगड़ते बड़े होते रहे .अब तो कभी-कभी मिलना होता है .
मुझे टोक देता है ' क्या मोहर्रमी सूरत बनाए बैठे हो ?'
और मैं सबसे कटा-कटा रहनेवाला .अपने अंदर बंद !
 अब सोचने लगा हूँ.समझ में आने लगा है कि तभी तो शीला घर से छुटकारा खोजने बाहर भागती है .उसे अच्छा लगता है घूमना-फिरना, सिनेमा जाना ,लोगों से मिलना-जुलना ,गप्पें लगाना  ,. और मैं हर जगह कटा-कटा सा अकेलापन अनुभव करता हूँ .
हर दिन घर में बैठ कर काट दो ,यह भी कोई ज़िन्दगी है -उसका कहना है.
याद आया साथ के लोग इतवार को सपरिवार पिकनिक का प्रोग्राम बना रहे हैं ,मुझसे पूछा था.कोई उत्सुकता नहीं दिखाई मैंने .
*
खाना खाते खाते मैंने पूछ दिया, 'शीला,पिकनिक पर चलना है ?'
वह एकदम खिल उठी ,'?कब? कौन-कौन जा रहा है ?'
'इतवार को .नरेश और विनायक ,परिवार सहित, शर्मा भी साथ है ,यही दस-बारह लोग हो जायेंगे .पर तुम तो कहती हो इतवार को बहुत काम रहता है .'
'अरे, काम तो हमेशा रहता है ...इसका मतलब और कुछ करें ही नहीं .'
मैं चकित-सा उसका मुँह देख रहा हूँ .उसका उत्साह अच्छा लग रहा है.
'पर सुबह-सुबह इतने लोगों के लिए कुछ बना कर ले चलना पड़ेगा कैसे करोगी .वे सब तो आठ बजे निकल जायेंगे.?'
' तो क्या हम नहीं निकल सकते? क्या है रात से तैयारी कर लेंगे सुबह चटापट हो जायेगा .'
 'तो नरेश की बीवी से बात कर लेना.कल का ही दिन तो है ,परसों सुबह ही तो  .तुम क्या बनाओगी ..'
'वह सब मैं देख लूँगी .तुम तो हो न राजी?.'
'अरे, मैंने मना किया क्या.'
'हाँ ,कुछ सामान भी साथ रखना पड़ेगा न ! देखना है, मंटू का दूध का डिब्बा ..कितना है ..'
वही खाना ,वही लोग ,पर भंगिमायें बदल गई हैं .अंगों की गति में उत्साह समा गया .सारा काम आसान हो गया हो जैसे .
 बंद से वातावरण में नई खिड़की खुल गई है.

मेरे मुँह से किसी गाने की गुनगुनाहट फूट पड़ी .शीला आश्चर्य से देख रही है .

मन -ही मन - झेंप कर बिना उसकी ओर देखे चल देता हूँ वहाँ से .
कापियाँ ले कर बैठ गया हूँ ,आवाज़ लगाता हूँ ,'शीला ,कुछ सामान बाज़ार से चाहिये हो तो बता देना .'
'अभी कल का सारा दिन पड़ा है,तुम्हारी तो आदत ही बन गई है परेशान रहने की .'

मन-ही-मन मुस्करा देता हूँ मैं .
*
3.
बहुत नहीं तो थोड़म-थोड़ा.
*
'अरे कितना सरल तो सवाल है ,कर लो जल्दी से,'
ऊँऊँ.बड़ा-सा है.'
तुम तो इतने बड़े हो ,तुमसे भी बड़ा है क्या..'

फिर वह समझाने लगी ,'देखो सिर्फ़ चार सवाल और,फिर आराम से खेलना.कोई भी मना नहीं करेगा,'
मिन्नी समझाती रही,
'यह तो आता ही नहीं , ' उसने फिर कह दिया.
'तुमने कोशिश भी की ?उसे देखो ,पढ़ो ,कोशिश करो .तुमने पहले किये हैं ऐसे सवास ,'

कुन्नू कुछ बोला ही नहीं. दूसरी ओर देखता चुप बैठा रहा .
फिर मिन्नी ने कहा,'करो न.
पढ़ो तो क्या लिखा है .'
 कुन्नू से गणित के सवाल करवाना  कोई आसान काम है क्या!
.
उस की बड़ी बुरी आदत ,जब अड़ कर बैठता तो किसी की सुनता ही नहीं .
कुछ भी कहते रहो टस से मस नहीं होता.

कमरे के बाहर बरामदे में प्रभात कुर्सी पर बैठा नॉवेल पढ़ रहा था.
पड़ते-पढ़ते मन उचाट हो गया ,मिन्नी और कुन्नू की बातें सुन-सुन कर खीझ रहा था.
मिन्नी फिर बोली ,'कुन्नू सवाल पढ़ो तो ..'

कुन्नू उधर देख ही नहीं रहा ,चुप बैठा है.
ज़ोर से मिन्नी ने कहा,'चलो पढ़ो.'

उस पर कोई असर नहीं.
मिन्नी ने फिर समझाना शुरू किया,'कुन्नू ,जल्दी से सवाल कर लो .मन लगाओगे तो तुरंत आ जायेगा.फिर मै तुम्हें रंगीन चाक भी दूँगी. बोलो लाल लोगे कि पीली ,..'

'लाल नहीं पीलीवाली .'

तो फिर सवाल करो ,'
'वह तो हमें आता नहीं .'

'तुम तो यही रट लगाये हो .पढ़ो तो पहले उसे .देखोगे नहीं तो समझोगे कैसे ?'

बह फिर चुप .मिन्नी परेशान हो उठी.

ज़ोर से हाथ दिखा कर बोली,'अच्छा सवाल पढ़ो..पढ़ते हो कि नहीं ..'
उस पर कोई असर नहीं .
इधऱ मिन्नी की कोशिशे जारी थीं ,उधर प्रभात सुन-सुन कर झल्ला रहा था.
मिन्नी का धीरज भी जवाब देने लगा.
कुन्नू जस के तस बैठे .
मिन्नी ने फिर तीखे स्वर में कहा .उसने जैसे सुना ही नहीं .
अब प्रभात उठा .कुन्नू के पास आकर खड़े हो गये ,'तब से सुन रहा हूँ .करता है या नहीं .'
कुन्नू जड़-सा बैठा रहा.
प्रभात और ज़ोर से दहाड़े , 'करेगा या नहीं ?'
वह बोला ही नहीं ,न कोई उपक्रम किया.मिन्नी आशंकित हो उठी पर कुन्नू पर कोई असर नहीं.
'मैं चीख रहा हूँ और वह चुप बैठा है..जवाब देता है या नहीं?'
उस पर किसी का असर नहीं.
अंतिम प्रयत्न कर के हार गया अब प्रभात की  सहन-शक्ति जवाब दे गई.
उधर कुन्नू बैठा जड़-सा मूक .
'कैसा अड़ियल है बोला भी नहीं जाता.
'और तड़ाक् से एक चाँटा कुन्नू के गाल पर धर दिया.
कापी तो झटकीर कर फेंक दी उसने और चिल्लाकर रोना शुरू कर दिया
'ले रो 'प्रभात ने दो धमाके और उसकी पीठ पर जमाये और क्रोध के आवेश में कमरे के बाहर निकल गये.
..जैसे मैं बेकार चीख रहा हूं ,उसके मुँह से बोल नहीं फूटता ,कैसा राढ़ा है ,किसी की सुनता नहीं ..'

मिन्नी अजीब दृष्टि से  देखे जा  रही है .
प्रभात को लगा उसने कुछ अधिक कर दिया .
फिर अपने मन को तर्क दिया-
मुझे ऐसी ज़िद पसंद नहीं .'

बाहर जाकर फिर अपनी कुरसी पर बैठ गया .अब किताब पढ़ने में मन नहीं लग रहा .
ज़िद की बात पर उस् बचपन की एक घटना याद आ गई .कैसा ज़िद्दी और उद्दंड था तब मैं ,एक दम अड़ियल .
कुन्नू के बराबर होगा वह या एकाध बरस  इधर-उधर ,एक मौलवी साहब उसे पढ़ाने आते थे.एक दिन उसने मौलवी साहब से कहा,'आज हम पढ़ेंगे नहीं .'
क्यों?'
'आज पढ़ने का मन नहीं है.'
उन्होंने पूछा ,'मन कैसा होता है ..'
प्रभात ने हठ पकड़ ली अड़ कर बैठ गया ,'हमें नहीं पढ़ना आज.'
'देखे कैसे नहीं पढ़ते है ?'
मौलवी साहब के पास डंडे का ज़ोर जो था.
उधर प्रभात भी तय किये बैठा था
उसकी दृष्टि मौलवी साहब की लंबे फुँदनेवाली टोपी पर लगी थी जो ुन्होंने उतार कर वहीं पास में रख ली थी.
उन्होंने ज़ोर से आज्ञा दी ,'किताब निकालो.'
प्रभात बैठा रहा और ज्यों ही उन्होंने मारने को हाथ उठाया उसने बड़ी फ़ुर्ती से उनकी टोपी उठाली और बाहर भागा.
मौलवी साहब अचानक हुए इस काण्ड के लिये तैयार नहीं थे
हड़बड़ा कर हिलते-डुलते उसके पीठे दौड़े.
वह बाहर निकलचुका था.,उन्होंने आकर देका-टोपी उसके हाथ से नदारद.
सशंक दृष्टि से चारं ओर देखा ,शायद कहीं पड़ी हो .
पर कहीं दिखाई नहीं दी.
साम-दाम-दंड-भेद सब नीतियां लगा कर प्रभात से पूछा गया .
सवाल कर कर के हार गए सब ,प्रभात टस से मस नहीं हुआ .
  आखिरकार सब हार कर चुप हो रहे . रहस्य तब तक नहीं खुला था  जब तक दूसरे दिन कुएँ  पानी भरते पर दीनू की बाल्टी के साथ वह निकल नहीं आई .
 मौलवी साहब की टोपी का फुँदना बाल्टी की कुंडी में अटक गया था और पानी भरी
टोपी ऊपर खिंच आई  थी.सब हैरानी से देख रहे थे .
*
4.
 चित्र.
*
बड़ी एकाग्रता के साथ पप्पो कोरे कागज़ पर पेंसिल चलाये जा रही ती.
अहाहा,कितना सुन्दर चित्र है .सोहन देखेगा तो देखता रह जायेगा.

कुछ क्षण देकती रही फिर बड़ी गंभीर हो गई .पर अभी तो इसमें रंग भरना है.
उसने बड़ी सतर्कता से चारों ओर देखा -कहीं जीजी न आ जायें .नहीं तो डाँट पड़ जायेगी.
उसे बड़ी कोफ़्त होने लगी यह सोच कर कि वे झट से डाँट देती हैं .कहती हैं -पप्पो तू मेरी चीज़ें मत छुआ कर .सब गड़बड़ कर देती है.वे  देखती तक नहीं कि मैंने कितना सुन्दर काम किया है.

 वह रंग भरने बैठ गई .एक बार फिर चारों ओर देख कर निश्चिंत हो गई कि जीजी अभी बाज़ार से लौटी नहीं है. की ड्राइंग के रंगजीजी के हैं न !
रंग रगड़ रही है किसी तरह जल्दी पूरा हो .
वाह,अब खाली लड़की की फ़्राक में  भरना रहा है.
बड़ी सफ़ाई से स्टिक चला रही है पप्पो.
बस अब पूरा होनेवाला है.
चित्र में पेंसिल की लाइनों से एक लड़की बनाई गई थी
चुपके से जीजी का कलरबाक्स उठा लाई थी.मन में डर यह था कि कहीं बीच में ही आ न जायें1.
लाओ, अब इसके हाथ में एक फूल दे दूँ चमेली का .नहीं सफ़ेद रंग तो दिखेगा ही नहीं ,गेंदे का .पीला खूब जँचेगा.दो-चार हरी-हरी पत्तियाँ भी.और लड़की के बिन्दी ,जैसी जीजी लगाती हैं .

अचानक ही उसे ध्यान आया -रंग तो सूखे है .कहीं मोहन का हाथ पड़ गया तो ?
बालिका सोच में पड़ गई.
अच्छा इसे ऊँचे पर टाँग दूंगी.  हरा स्टिक उठाकर सावधानी से पत्तियाँ बनाने लगी.
इतने में पप्पो,पप्पो चिल्लाता हुआ मोहन आ गया .वह एकाग्रता से रंग भरती रही जैसे सुना ही न हो.'सोच रही थी, कह दूँगी दूर से देखो .दूर से ज्यादा समझ में आता है .और छूना बिलकुल मत ,रंग छुटने लगेंगे.
वह पाल आ कर चित्र पर झुक गया ,'बोलती क्यों नहीं ,गूंगी हो गई क्या ?'

वह कैसे बोले ,नन्हीं-नन्हीं पत्तियाँ बनाने में हिल गया, ज़रा भी तो ..
और यह मोहन कैसा बेसब्रा है
देखता नहीं काम कर रही हूँ .देखेगा तो बस देखता ही रह जायेगा.समझता है पप्पो बस खेलने भर की है .
उसने घूम कर पीछे भी नहीं देखा ,सिर ज़रा और आगे झुका लिया.वह पास आकर चिल्लाया,'पप्पो ,ओ बहरी !'
उसने जैसे सुना ही नहीं ,मनोयोग से अपने काम में जुटी रही.
अपने को लाट साहब समझता है जाने कहाँ का.मुझे भी अपने जैसा फ़ालतू समझता है.मास्टर साहब के पीछे जाकर कैसा बंदर जैसा मुँह चिढ़ाता है !
मुँह चिढ़ाने की बात सोच उसके चेहरे पर हँसी खेल गई.
मोहन को गुस्सा आया ,मैं चीख रहा हूँ और वह बैठी हँस रही है.घूम कर देखती भी नहीं.
उसे हिला कर ज़ोर से बोला ,'हँसती क्यों है ?
''अरे यह क्या किया ?'
वह ज़ोर से चीख उठी.
एक हरी लकीर लड़की आँखों पर होती हुई दूर तक खिंच गई थी
पप्पो की आँखों में आँसू आ गये.
उसकी चीख सुन कर वह चौंका ,आँसू देख कर अवाक्1
कोई नया व्यवहार तो किया नहीं था. अब उसकी दृष्टि चित्र पर पड़ी-अच्छा तो यह किया जा रहा था तभी नहीं बोली.
पप्पो मुँह फेर कर खड़ी थी
एक बार उसकी ओर देखा फिर चित्र की ओर ,'कह देती हिलाना मत. पर हँसी क्यों थी?'पहले ही कह देती मुझसे ..'अनुनय के स्वर में बोल रहा था.
इस समय वह मास्टर से छुट्टी पाकर खेलने आय़ा था.
चित्र उसने हाथ में उठा लिया सोचा अभी छीनेगी .पर उर से कोई प्रयत्न नहीं .
'वाह,यह तो बड़ा सुन्दर है 'देख कर बनाया या अपने आप?''
पप्पो की इच्छा हुई कह दे ,मुझे क्या आता नहीं जो देख कर  बनाऊँगी.
साथ ही उसकी आधी ग्लानि बह गई.परंतु बोली वह फिर भी नहीं.
मोहन को लगा कैसी रूठी खड़ी है ,मुँह से बोल नहीं फूटता जैसे बड़ा सुन्दर बनाया हो.जरा सी तारीफ़ कर दी  तो और फूल गई.
पर बोला,' लो हम यह लाइन मिटाये दोते हैं ..'
और सफ़ेद रंग ले कर फेरने लगा ...,
वह खड़ी देखती रही ,थोड़ी सफ़ेदी फेर कर चारों ओर मिलाया उसने .
देखो अब वह लाइन ठीक कर दी..पप्पो ने मुँह फेरे रखा.'अच्छा हम इसे और सुन्दर कर देंगे..'
वह अपनी कारीगरी दिखाने को रंग लगाने लगा .
उसे लगा यह मेरा चित्र बिगाड़े डाल रहा है.
गई और चुपचाप जा कर उसके हाथ से ले लिया .,'मत खराब करो हमारा.'
मोहन चकित हुआ .
फिर सोचा ,चलो आई तो सही .वह थोड़ी खुशामद चाहती थी और मोहन ठहरा उजड्ड.
उसने कहना शुरू किया ,
अभी नीचे से आ रहा हूँ .जीजी की खूब डाँट पड़ रही है. अम्माँ कह रही थीं -अपनी चीज़ें बिखेर कर रखती हैं ,खोया बहाया करती हैं .
पप्पो के खलबली मची-कहीं कलरबाक्स वाली बात तो नहीं!
पर एकदम से कैसे पूछे!
उत्सुकता दबा कर बोली,'तुम हमसे लड़ाई क्यों कर रहे हो ?'

'हम कहाँ लड़े पप्पो,तुम पहले ही बता देतीं तो हम क्यों हिलाते?तुम तो मुँह से बोल ही नहीं रहीं थीं.'
'हमारा मन .काम करते पर बोलना अच्छा नहीं ,सब गड़बड़ हो जाता है..तुमने बिना देखे हिलाया क्यों ?'

"अच्छा अब ध्यान रखेंगे ,पप्पो को संतोष हुआ
'ये रंग किसके हैं?
'वह घबराई, 'जीजी के  .'

'तभी ,जीजी ढ़ूंढ रही थीं .अम्माँ ने डाँटा  तुम्हीं इधर -उधर डालती रहती हो
अब तुम फँसोगी .'
वह सोच में पड़ गई
'खेलने चलोगी ?'
रुआँसी आवाज़ में ,'जीजी डाँटेंगी .'

मोहन तैयार था
'चलो हम कह देंगे .वहाँ पड़े थे तो हम यहाँ उठा लाये थे.अरे जीजी ,एकाध हाथ ही तो लगा देंगी .कौन सी नई बात ? .
'तुम बड़े अच्छे हो, मोहन ' पप्पो ने कहा, 'अब हम हमेशा तुम्हारी बात का जवाब दिया करेंगे .'
अच्छा चले बाहर वहाँ पेड़ के नीचे ..'
और हाथ पकड़ कर दोनों उल्लसित भाव से निकल गये .
सारे झगड़े की जड़  चित्र वहीं पड़ा रह गया .
*
फेर दिया पानी -
उसके बारे में मैंने कभी सोचा भी नहीं था ।ऐसी कोई बात भी उसमें नहीं थी जो ध्यान आकर्षित करती ।हाँ, दिन भर में दो-चार बार उससे सामना जरूर हो जाता था ,पर नमस्कार - चमत्कार और रोज़मर्रा की चलती हुई बातों से आगे कुछ हुआ हो ऐसा याद नहीं पड़ता ।उसके घर जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। लोगों को उसे 'सुखवीरा' कह कर आवाज़ लगाते सुना था ,पर मैं हमेशा सुखवीर ही कहता था ।किसी का नाम बिगाड़ना उचित नहीं लगता था मुझे। मौज में आकर सामनेवाले को 'यार ' कह बैठना मेरी पुरानी आदत है ,चाहे सामनेवाला बच्चा ही क्यों न हो ।उससे भी अनायास कह देता हूँ  'यार सुखवीर ,चाय नहीं पिलवाओगे ?'

    हो सकता है कभी कोई बात निकली हो और मैंने कुछ कह दिया हो ।पर ऐसी कोई बात नहीं थी जो याद रखने योग्य हो ।वैसी कोई बात वह मन में रखे है ,यह भी मुझे बाद में ही पता लगा ।उसी ने कहा कि वह एक दिन मुझे अपने घर चाय पीने बुलानेवाला है ।।इसमें भी मुझे कोई विशेष बात नहीं लगी ।सच तो यह है कि एक बार सुनने के बाद मैंने दुबारा उस बारे में सोचा भी नहीं ।
    लेकिन अपने साथ के और लोगों से उसमें थोड़ी भिन्नता जरूर थी ।और लोग जहाँ पैजामा पहने चले आते थे ,वह हमेशा बुश्शर्ट - पैंट पहनता था ।बोलने की भी उसकी आदत कम थी ,चेहरे से ही कुछ गंभीर -सा लगता था ।इसीलिये उससे बात-चीत करना मेरे लिये कभी प्रयासपूर्ण नहीं रहा।हां, बाद में कभी-कभी मुझे लगता था वह अधिक सभ्य दिखाई देने का प्रयत्न करता है । कपड़े भी क़लफ़-क्रीज़ से दुरुस्त रहने लगे थे - कभी एकाध बालों का छल्ला भी माथे पर आ जाता था ।किन्तु इस सब पर मेरा ध्यान कभी टिका नहीं ।एकाध बार सुनने में आया कि वह अपने साथियों में मेरी मित्रता का दम भरता है तो भी मैंने इस विषय पर कुछ ध्यान नहीं दिया । लोगों की तो कुछ भी कह देने की आदत होती है। न मेरे व्यवहार में कोई परिवर्तन आया,न उसके ।
    अप्रत्याशित ही एक दिन जब उसने कहा कि आनेवाले इतवार को मैं उसके घर चाय पर आऊँ तो मैंने पूछ लिया ,'क्या कोई ख़ास बात है ?'   
' नहीं आपको बुलाने की बहुत दिनों से इच्छा थी ।'
    व्यर्थ में दीनता प्रदर्शित करते मैंने उसे कभी देखा नहीं था और एसा करना मुझे अच्छा भी नहीं लगता।
'कोई और भी आयेगा ?'
'आप कहें उसे और बुला लूँ ?'
'नहीं,नहीं उसकी कोई ज़रूरत नहीं ।म नैं तो यों ही पूछ लिया ।'और चार बजे उसके घर पहुँचने की स्वीकृति मैंने दे दी ।
'घर तो वहीं मल्लूपुरे में है ?'
'हाँ ।मेरा नाम ले देंगे तो कोई भी बता देगा ।चौराहे से आगे बढ कर जहाँ पीपल का पेड़ है ...नहीं,नहीं मैं आपको लेने आ जाऊँगा ।आप कहाँ ढूढते फिरेंगे ।'
'कोई ज़रूरत नहीं। मैं ढूँढ लूंगा ।आ जाऊँगा ।'
'मुझे साढ़े तीन बजे इधर काम भी है ,लौटते पर आपको साथ लेता चलूँगा ।'
    चलो ,यह भी तय हो गया ,सोच कर मैं निश्चिंत हो गया ।आगे सोच-विचार करने को कुछ था भी नहीं ।
    शनिवार को छुट्टी के समय उसने मुझे फिर याद दिलाया ,वैसे भूला मैं भी नहीं था ।पौने चार पर मैं तैयार मिलूँ -बात हो गई ।
**
इतवार को सुबह से ही एक पुराने मित्र अपने घर खींच ले गये - खाने-पीने और ताश का स्पेशल प्रोग्राम था ।वहाँ लेट खाना हुआ ,फिर खेल ऐसा जमा कि समय का ध्यान ही नहीं रहा ।शाम की चाय की बात हुई तो एकदम ध्यान आया ।घड़ी पर निगाह गई -पौने चार बजने में कुल पाँच मिनट !
    फ़ौरन मैंने बिदा माँगी और चल पड़ा ।
रास्ते में सोचा घर पहुँचने में दस-पन्द्रह मिनट लग जायेंगे , चार बज चुके हैं ।वह घर पहुँचे और मैं नहीं मिलूँ तो वह क्या सोचेगा !सीधा उसी के घर क्यों न चला चलूं ,इधर से रास्ता भी पास पड़ेगा ।
मकान का पता लगा ही लूँगा -पीपल के पेड़वाले रास्ते का उसका कथन मेरे ध्यान में था ही ।
    स्कूटर मोड़ लिया। दो-तीन ऊबड़-खाबड़ गलियों को पार कर सड़क पर आ गया ।चौराहे के आगे पीपल का पेड़ दिखाई दिया तो लगा सही जगह आ गया ।यहीं से उसका नाम ले कर पता लग जायेगा।किसी साधारण-से मकान की खोज में मैं आगे बढ़ आया ।
    बीस-पच्चीस कदम पर म्युनिसिपालिटी का नल था जिसके चारों ओर कीचड़ फैली थी ।नल का पानी जिस ओर बह कर जाता था उस ओर एक गली-सी थी जहाँ आमने-सामने के मकानों की दो स्त्रियां दरवाज़ों पर खड़ी वाक्युद्ध में लीन थीं ।उन्हें डिस्टर्ब करना मैंने उचित न समझा ।उसी स्थिर पानी वाले नाले के मोड़ के पास एक खोंचेवाला था जो अपने हाथ से बार-बार अपने सामान पर आ बैठनेवाली मक्खियों के झुण्डों को उड़ा देता था ।मक्खियां भन्-भन् करती वहीं मँडरातीं और फिर यथास्थान बैठ जातीं ।खोंचेवाले की सुस्ती के फलस्वरूप वे काफ़ी ढीठ हो गई लगती थीं ।उसी के पास दसेक बरस का लड़का खड़ा हुआ ,चाट-चाट कर कुछ खा रहा था और सी-सी करता हुआ कमीज़ की बांह में नाक पोंछता जा रहा था ।
'ए, लड़ के ,'मैंने तर्जनी उठा कर आवाज़ दी ।
लड़का आगे बढ़ आया ।
'यहाँ कोई सुखवीर सिंग रहते है ?'
पत्ता फेंक कर लड़के ने खीसें निपोरीं ,बोला ,'मैंने यहां के सब लोगों को जान्ने का ठेका ले रखा है क्या ?'
सिटपिटाया-सा मै चलने ही वाला था कि खोंचेवाले ने आवाज़ लगाई ,'
' बाऊ जी ,ऐ बाऊ जी ,किसे पूछते हो ?'
डूबते को जैसे तिनके का सहारा मिला 'सुखवीर सिंग' का मकान ?उनने इधर ही बताया था ।'
'कौन से सुखवीर सिंग ?'
'वही जो आबकारी के दफ़्तर में काम करते हैं ।
''अच्छा , वो सुखवीर !'
उसके कहने के ढंग से मैं कुछ हतप्रभ हो गया ।
अपने आप को कोस रहा था कहाँ आ फँसा ! अपराधी सा फिर बोला ,' हाँ,हाँ ,वही।कहाँ रहते हैं ?'
'कुछ खास काम होगा ।'कहते हुये उसने वाक्युद्ध-रत स्त्रियों की ओर हाथ उठाया और मेरी ओर देख कर मुस्करा दिया ।
'नहीं ,कुछ खास काम नहीं ,यों ही च्च्च्चला आया था ,'मैं बोलते-बोलते हकला गया ।
    अब तो उन्हीं वीरंगनाओं का आसरा था ।
नाली के इस पार जो दरवाज़ा था उस पर खड़ी हुई युवती है या अधेड़ एकदम से पता नहीं लगता था । उसकी साथिन -प्रतिद्वंद्विनी -अवश्य अधेड़ थी ।फ़ैशन के अनुसार खुले सिर के अस्त-व्यस्त बालों को बार-बार खुजलाती हुई ,मुसी हुई धोती के बेढंग से पड़े पल्ले को और ज़ोर से खींचती हुई चीख रही थी ,' तेरे अपने तो दूधपीते बच्चे हैं ।जब देखो कभी छुन्नू को मार भागते हैं ,कभी लच्छू को ,तो वो नईँ मारेंगे ?''अरे मैं तो अब तक लिहाज करे थी .पर अब तू बढ़ती चली आ रही है ।मेरे पिरेमू को मारे उसकी खाल उधेड़ दूँगी ।'
'बड़ी आई खाल उधेड़नेवाली !पीटेगा छुन्नू जो इसने बदमासी की ...।'
'चल आ जा पिरेमू ,' देह से फिसलता धोती का पल्ला सम्हालती दूसरी ने आवाज लगाई ।
पत्ता चाटता लड़का पीछे घूमा ,'अब्भी आया !'
अब तक मेरी समझ मे आ चुका था सुखवीर का घर उसने क्यों नहीं बताया था ।
किस प्रकार से किस वीरांगना को अपनी ओर उन्मुख करूँ ,सोच ही रहा था कि खोंचेवाले ने आवाज़ लगाई ,'अरी ,झगड़ा पीछू कर लियो ,पेले देखो कि कोई भला आदमी दरवज्जे पे आया खड़ा है ।'
' ठीक है अब मैं चला जाऊँगा ,' खोंचेवाले से कह कर मैं गली की ओर मुड़ गया ।
    पर आवाज़ देते-देते रह गया ।दूसरी ओर से सुखवीर साइकिल से आ रहा था ।
एक दम सामना न हो जाये ,कुछ समय निकालने के लिये मैं मुड़ कर सड़क की ओर वाले पनवाड़ी से पान खरीदने लगा ।पान लेकर रुपया दिया तो टूटे पैसे लेने में देर लग गई ।फिर सुस्त चाल से आगे बढ़ कर गली में पहुँचा ।
    दरवाज़ा आधा खुला था । दूसरीवाली स्त्री अब साफ़-सुथरी धोती पहने थी और बड़े ताव में कह रही थी ,'मरे कमबखत यों ही किया करें !फेर दिया पानी पच्चीस रुपैये पे ! इसमें कुछ और डाल कर तो छुन्नू का सूटर बन जाता ।'
सुखवीर सड़क  की तरफ़ पीठ किये था ,'मुझे क्या पता था ,पहले तो उसी ने कहा था तुम्हारे घर आयेंगे ।अब नईं आया तो क्या करूँ ।'

इतने में पीछे से मैंने आवाज़ लगाई ,'सुखवीर सिंग।'
मुड़ते-मुड़ते वह बोला ,'ले, वो आ गया । अब बंद कर बक बक ।'
स्त्री फ़ौरन अन्दर हो ली ।
सुखवीर मेरी ओर घूम गया ,  'अरे आप ! मैं ते लेने गया था ।'
'हाँ ,इधर कसी काम से आया था ।देर हो गई तो सोचा इधर से ही निकल चलूँ ।'
'कोई परेशानी तो नहीं हुई ?'
'परेशानी काहे की ?पता तो मालूम था न ।'
मुझे लेकर वह कमरे के साइड के गलियारे से होकर भीतर दाखिल हुआ ।
    एक छोटे कमरे में एक मेज़ के दोनो ओर  कुर्सियाँ पड़ी थीं,मेज़ पर बड़े-बड़े फूलोंवाला मेज़पोश ,एक तरफ़ बेडकवर युक्त चारपाई ।कमरे में मुझे छोड़ते हुये सुखवीर ने कहा ,'आप बैठिये ,मैं अभी आय़ा ।'
पर मुड़ते-मुड़ते उसकी नज़र मेरी नज़र के साथ ही अन्दर जा पड़ी ।
'अरे नालायक ,सब जूठा कर डाला ..' कहता हुआ वह सारा शील-संकोच छोड़ तेज़ी से बढ़ा और साफ़-सुथरे कपड़े पहने ,केले के गूदे से सने हाथ और दालमोठ लगे मुँहवाले छुन्नू के कान ज़ोर से पकड़ लिये ।
लड़का चीख रहा था ,'तो अम्माँ ने ई तो कहा था कि वो अब नईं आयेंगे..।'
पर सुखवीर सब कुछ भूल कर उसके गालों पर  चाँटे लगाये जा रहा था इस ओर  हतबुद्ध अवाक् खड़े मुझे लग रहा था कि वे छुन्नू के नहीं मेरे गालों पर तड़ातड़  पड़ रहे हैं ।
    - प्रतिभा सक्सेना



शेष कहानियाँ फिर ...

बुधवार, 5 जनवरी 2011

उपन्यासांश -1.

*
प्रकृति की रचना का कितना सुन्दर दृष्य है -भाई-बहिन का जोड़ा !निर्मल हास से प्रकाशित दो अनुरूप चेहरे जिनमे कहीं कुछ आरोपित नहीं ,सहज-स्वाभाविक ।समाज ने नहीं निसर्ग ने जोडा है इन्हें।दुनिया की कुरूपताओं और विकृतियों से बेख़बर ,निश्चिन्त । माता- पिता- पुत्र,पति -पत्नी भाई-भाई सबके संबंधों पर कवियों की लेखनी चली है पर भाई-बहिन के संबंध की सहजता और सुन्दरता पर किसी कवि की उक्तियाँ याद नहीं आ रहीं तरल को ।


उस कोठी के मालिक ने पीछे की तरफ कई कोठरियाँ बनवा दी हैं ,एक मे महरी दूसरे मे माली और तीसरे मे एक रिक्शेवाला रहता है ।कोठी के मालिक और अडोस-पडोस के घरों में काम करते हैं ये लोग !नाटू रिक्शेवाला अधिकतर अकेला ही रहता है ।दिन भर रिक्शा चलाता है ,रात गये आता है तब उसकी कोठरी से खाँसने की आवाज सुनाई देती रहती है तरु को ।एकाद बार तरु को बैठा कर लाया है तब से पहचानने लगी है वह । गाँव में रह रहे अपने घर-परिवार के पास दो-तीन महीनों में चक्कर लगा आता है ।

महरी के दो बच्चे ब्रजमती और कन्हैया झिंझरीवाली ईंटों की दीवार पर चढ कर इधर ही झाँक रहे हैं ।ब्रजमती के रूखे भूरे बाल उसके साँवले-सलोने चेहरे के चारों ओर बिखरे हैं और आँखों मे काजल है-एक मे खूब गहरा ,दूसरी मे हल्का ।महरी के चारो बच्चे साँवले हैं पर सबसे अच्छी लगती है ये ब्रजमती ,खूब सुडौल नाक-नक्श और चेहरे पर भोलापन ,खूब सौम्य।तरु को देखते ही जाने क्यों काँशस हो कर झेंप जाती है और हल्के से मुस्करा देती है । पर कन्हैया उतना ही जंगली है ।चलेगा तो रास्ते के कंकडों को ठोकर मार -मार कर उछालता हुआ।साथ के लडकों से उसकी लडाई भी बहुत होती है ।अब तो किसी ठेलेवाले के साथ काम करने लगा है ,बडा चालाक हो गया है ।हमेशा कुछ-न-कुछ बोलता रहेगा । ब्रजमती तीसरे नंबर पर है ,उससे पाँच साल छोटी पर बडी शान्त। सबसे छोटी मुनिया बडी रूनी और जिद्दी है ,अक्सर ही जमीन मे लोट-लोट कर रोती रहती है ।और गोद का छोटावाला तो अभी किसी गिनती मे है ही नहीं ।

विवाह की धूमधाम ने कोठी की काया ही पलट दी है । पडोस के परिवार ने शादी के लिये उस कोठी का कुछ भाग महीने भर को किराये पर ले लिया है ।महरी यही है बिरजो की अम्माँ ।महरी की जडें भी गाँव मे ही हैं ,फसल कटने के दिनों मे महरा को छोड कर पूरा परिवार चला जाता है ।

इस कोठी की झाडियाँ रंगीन बल्बों की रोशनी मे चमक रही हैं।रंग-बिरंगी कनातें और पण्डाल ,कालीन और कुर्सियों की कतारें ,साइड मे लॉन से थोडा उधर मेजों पर खाने का प्रबंध -तीन सौ लोगों के खाने की ए-वन व्यवस्था वेज-नानवेज दोनो ।सजे सजाये बैरे ,हर मेज पर खाना गर्म रखने का पूरा इन्तजाम ।लोगों को कॉफी पहुँचाने और खाली कप बटोरने के लिये बैरे इधर उधर घूम रहे हैं ।

गेंदे और मोगरे की झालरों से मंच सजा है ,जयमाल पड चुकी है ।वधू मंच पर रखी सिंहासनाकार कुर्सी पर वर के पास बैठा दी गई है ।दोनो बहुत सज रहे हैं -सबके आकर्षण का केन्द्र।कैमरों की रोशनी बार-बार चमक उठती है ।दीवार के पार चेहरों की संख्या बढ गई है ।लोग खाने की मेजों की ओर बढ़ने लगे हैं ।मिसेज रायज़ादा ,जो मेज़बान घर की बहू हैं तरल से कह रही हैं ,'चलिये न ,खाना खा लीजिये ।"

इतने मे रायज़ादा आगे बढ आये ,' इनसे मिलिये तरल जी ,और ये हैं हमारे परम मित्र असित वर्मा ।'

दोनो के हाथ जुडते हैं ।

'आपको कहीं देखा है !'

'हाँ जरूर देखा होगा ।इसी शहर में रहती हूँ ।'तरल आगे बढ गई ।प्लेट हाथ मे उठाये किसी की पुकार सुन पीछे घूमी ,पता नहीं किसे बुलाया वह खाना परसने लगी ।

ट्रेन की घटना उसके ध्यान में फिर से आ गई ।स्लीपर मे अपनी सीट ढूँते समय अटैची किसी से टकरा गई थी । तेज सी आवाज आई -

'अभी हड्डी टूट जाती तो ..?'

'वह अचकचा कर देखने लगी ,'वेरी सॉरी !'

'हुँह, सॉरी !हमसे कुछ हो जाता तो आसमान सिर पर उठा लिया जाता ।और खुद ऐसे अंधाधुन्ध चलती हैं आगा-पीछा देखे बिना ।'

'देखिये बिगडिये मत ।ऐसा ही है आप मेरे पाँव पर अटैची पटक कर बदला ले लीजिये ,'वह रुक कर खडी हो गई ।

'जाइये,जाइये ,बस बहुत हो गया ।'

कह रहा है कहीं देखा है !देखा क्यों नहीं होगा !ट्रेन की बदमज़गी क्या इतनी जल्दी भूली जा सकती है!

'इन्तजार करेंगी तो करती ही रह जायेंगी ,आगे बढ चलिये ।'पास मे खडी एक सौम्य सी तरुणी ने तरल को आगे बढा दिया ।

'अरे असित दा ,आप यहाँ कहाँ से ?'

'सुमी तुम ?अकेली हो या वो भी हैं ?'

'आये हैं वो उधर ।'

तरु ने आगे बढ कर परसना शुरू किया ,और अपनी प्लेट लेकर साइड मे जाकर खडी हो गई ।अचानक उसकी निगाह दीवार के पार जा पडी ।एक साथ कई जोडी आँखें खाने की प्लेटों पर लगी हैं ।तरु का चम्मच पुलाव की ओर बढ रहा है ,शेरू की आँखों मे चमक आ गई है ,ब्रजमती और कन्हैया भी इधर ही देक रहे हैं । मेहमान चल फिर कर खाना खा रहे हैं बच्चों की और किसी का ध्यान नहीं है।

'अरे आप ये कोफ्ते लीजिये ,'किसी ने चमचा भर कोफ्ते उसकी प्लेट मे डाल दिये ।रसा बह-बह कह हलुये और सूखी सब्जी मे समाया जा रहा है ,घी उतराते शोरबे से सब कुछ सन गया है ।तरु को लग रहा है दीवाल पार से बच्चों की निगाहें खाने पर लगी हुई हैं ।सारी प्लेट कोफ्ते के चिकनाई भरे रसे मे डूबी है।।मुँह मे कौर रखना मुश्किल हो गया है ।

'अरे आप खाइये न।'

ढेर सा खाना सामने रखा है ,खाने की पूरी छूट है फिर बार-बार कहने की क्या जरूरत है !तरु को खीझ लग रही है पता नहीं लोग अपनी पसंद की चीजें दूसरों की प्लेटों मे क्यों भर देते हैं !

पास ही सुमी खडी है ।उसने सिर उठा कर तरु की ओर देखा ,'अपने हिसाब से अपने आप लेना अच्छा रहता है ।कोई परस न दे इसीलिये प्लेट लेकर मै दूसरी तरप खिसक गई ।"

दोनो की आँखें चार हुईं -यह कैसे मेरे मन की बात समझ गई तरल ने सोचा वह भी उसी ओर बढ गई ।

घी से तर शोरबे मे डूबी कोई चीज वह खा नहीं पायेगी ,एकाध कचौरी खाकर प्लेट को यों ही नीये रख देगी तरल ।और लोगों की प्लेटों मे भी आग्रहपूर्क जो डाला जा रहा है उसमे से भी बहुत सा वैसे ही फिंक जायेगा ,कुर्सी पर भरी प्लेटें लिये बैठे बच्चे थोडा खायेंगे और बहुत छोडेंगे ..और वे लोग दीवार के पार से देखते रहेंगे ।

'छोले मे थोडी चटनी और प्याज मिलाओ तो मजेदार लगेंगे ,दो बच्चे बातें कर रहे हैं ।दोनो उठे और अपनी-अपनी प्लेट लेकर मेज की ओर बढ गये ।दीवार के पार से आवाज आई ,'छोले हैं ,दहीबडे ,कचौडी ,पुलान...,'

'और चटनी भी ,'कन्हैया की आवाज ।

तरु को लगा उधर खडे बच्चे मुँह चला रहे हैं ।डेढ हाथ की दूरी पर दीवार के पार से शेरू ,कन्हैया ,ब्रजमती और दो और बच्चे सब देख रहे हैं ,मेज पर रखेी सामगरी ,को ,खाते हुये लोगों को ,और बर्बाद होते खाने को भी देख रहे हैं ।इस जगमगाती रोशनी मे सब साफ़ दिखायी दे रहा है ,बार-बार उनके मुँह चलने लगते हैं ।

महरी बीमार है छोटे बच्चे को लेकर कब की सो गई ।जब तरु इधर आ रही थी ,उसका छोटा बच्चा रो रहा था ब्रजमती कह रही थी ,'अम्माँ ,जे अऊर दूध माँगत है ।'

'अरे दुलाई मे दुबकाय के थपक दे ,भरक के अभै सोय जाई ।'

बडी देर तक बच्चा रिरियाता रहा था और महरी ब्रजमती को डाँट रही थी ,'धियान तो खेल मे लगा है ,नेक चुपाय नाहीं लेत है ।'



'भूखा है अम्माँ ,हमाल कपडन पे मुँह मार रहा है ।'

आग लगी है ओहिका पेट मे ।कहाँ से दूध लाई भर-भर के ?'

महरी बीमार है दूध उतरता नहीं ।बच्चा परेशान करता है तो गुस्सा उतरता है ब्रजमती पर ।

मिसेज कपूर साथ खडी महिला से कह रही हैं ,'बाबा रे बाबा ,हमारा बेटा तो मुश्किल कर देता है ।एक दिन पेपरवाला नहीं आया और ङी आसक्ड मी अ थाउजेन्ड क्वेश्चन्स ।हमें तो एक ही काफी है .वी कान्ट अफोर्ड अनदर।'

दूसरी बोली ,'बच्चे पैदा करना और पालना कोई आसान काम है ?हम तो इन दो में ही भर पाये भइया. उन्हे सम्हालते-सम्हालते रो देते हैं ।नौकर है,आया है फिर भी फुर्सत नहीं मिलती ।'

'पता नहीं लोग तीन-तीन चार-चार कैसे मैनेज कर लेते है ।'

'अरे आप ताज्जुब करेंगी ,हमारी कामवाली के छः हो चुके हैं और फिर फूली घूम रही है ,बिल्कुल तन्दुरुस्त।'

'लाइक वाइल्ड ग्रोथ ।,'मिसेज कपूर के शब्द थे ,'इन लोगों के हो भी जाते हैं पल भी जाते हैं ।नखाने को ,न पहनने को जाडे मे नंगे घूमते हैं ,फिर भी बीमार नहीं पडते ।' 'अरे कुछ पूछो मत ।हर साल एक पैदा कर के भी जस की तस धरी रहती हैं ।यहाँ तो पैदा करना मुश्किल और पालना तो और भी ..कुछ पूछो मत ।'

'यहाँ तो एक पैदा करके ही ढोलक सा पेट हो गया ,हुआ भी ऑपरेशन से ।अपनी तो अब हिम्मत नहीं ।'

मिसेज कपूर ने तीस की हो जाने के बाद शादी की है ।एक ही लडका वह भी सिजेरियन से ,बोलीं ,'हमे तो एक ही पालना मुश्किल है लोग जाने कैसे एफोर्ड कर लेते हैं ।आई वंडर ङऊ डू दे मैनेज ।'

'और बडी आसानी से इनके पैदा भी हो जाते हैं ,न तकलीफ़ ,न कोई खर्चा !बाबा रे बाबा, हमें तो देख कर ताज्जुब लगता है ।एक ही कुठरिया उसी मे बच्चे पैदा होते हैं ,,मरते हैं ,पलते हैं ।जिन्दगी के सारे काम उसी जगह मे ।ङऊ हॉरिबल!'वे सिर हिला कर काँपने का अभिनय करती हैं ।

यहाँ जितनी भी औरतें हैं उनने बच्चा पैदा करने में बडी तकलीफें उठाई हैं ।वैसे सब सुविधायें हैं उनके पास,नौकर ,वाहन ,बँगला ,फ्रिज .टीवी ।और ये महरी मालिन जो पैदा करनेऔर पालने मे माहिर हो गई हैं ,इनके अपने आप पैदा होते हैं ,बडे हो जाते हैं जैसे उन्हें किसी चीज कीअपेक्षा नहीं ।इतनी आसानी से जन्मते हैं जैसे धरती की कोख से अँकुर ।
*

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

पीला गुलाब - 3.

ससुराल में ननदें आईं उतारने .


एक ने ठिठोली की ,' वाह !चार साल पहले आनेवाली थीं ,अब आईं हैं आप ?'

दूसरी बोली ,'आना तो यहीं पड़ा न इसी घर में ?चलो अच्छा है पहले बड़ी बन कर आतीं अब छोटी बन कर आई हैं .'

एक लड़की बोली ,'क्या इनकी शादी चार साल पहले से तय थी ?''

ननद बोली ,तय क्या ?बरात तक चली गई थी इन्हें लेने ,तब.बड़के दादा के लिये .'

' बड़के दादा के साथ ?अच्छा !'

,'अरे ,बक-बक बंद करो अपनी ,और ले जाओ इन्हें अंदर ,' सामान उतरवाते बड़के दादा बोले।

*
परछन की तैयारियाँ हो रही हैं .अभी बहू को बाहर ही रोक कर रखना ,' जिठानी ने दरवाज़े पर आकर कहा .

पड़ोस के बाहरी कमरे में बहू के बैठने का इन्तज़ाम कर दिया गया.

' रातभर का सफ़र करके आई है बिचारी ।तनिक फ़्रेश होले ।चाय वगैरा वहीं पहुँचा देना .'

जिठानी ,बड़ी ठसकेदार ऊपर से कर्नल की बीवी .उनका कहा कोई टाल नहीं सकता .सारा प्रबंध उन्हीं को करना था .

बहू तैयार हो गई .

अरे ,अब छुटके दादा कहाँ ग़ायब हो गये ?

'शिब्बू ,पहले ही घर में घुस गये .नहाय रहे हैंगे .'

' अकेले घर में घुसने किसने दया उन्हें ?निकालो जल्दी बाहर .अब तो दुलहिन के साथ ही गृह-प्रवेश होगा .'

परछन के बाद मुँह-दिखाई होने लगी .किसने क्या दिया ,रुपया ज़ेवर सबका हिसाब रख रहीं थी पास बैठी बड़ी बहू .सब उठा-उठा कर चेक करती लिखती जा रही थी .बड़ा लंबी लिस्ट थी.

'पूछ तो सबका रही हैं ,आप क्या दे रही हैं बड़ी भाभी ?'

'मैने तो अपना देवर ही दे दिया .'

'हुँह ,ये भी कोई बात हुई ?'

देख लो ,लिखा है सबसे पहले .'

झाँक कर देखा - मिसेज़ अभिमन्यु के नाम पर लिखे हैं हीरे के टॉप्स ।मिसेज़ अभिमन्यु माने कर्नल साहब की पत्नी .

अगले दिन बात उठी सब रिश्तेदारों से बहू का परिचय करवा दो -पता नही कौन कब चल जाय .

परिचय अर्थात् खीर खिलाई .बहू अपने हाथों बनाई खीर परस-परस कर सबको देगी ,उनके पास जाकर जैसे ननदोई से ,'जीजा जी लीजिये .'कह कर चरण स्पर्श करती .

और वे खीर लेकर उसे कुछ भेंट देंगे .

'अरे इतनी सी खीर ?भई बड़ी मँहगी पड़ी .'

उसे भेंट या रुपये पकड़ा देते .वह सिर झुकाये झिझकते हुये ले कर साथ परिचय देती चल रही ननद को पकड़ा देती .

'ये तुम्हारे ससुर जी हैं ?क्या कहोगी पापा जी या बाबूजी ?'

'जो सब कहते हैं वही तो कहेगी ,'जिठानी बोलीं .

'बाबूजी' कह कर उसने पाँव छुये .
उन्होंने सिर पर हाथ रखा ,'आज को तुम्हारी सास होतीं तो ...'

'अरे बाबू जी ,' अम्माँ नहीं हैं तो क्या बहू बड़ी आदर्शवादी है .कुछ कहने समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी .'

उन्होंने एक जोड़ कंगन पकड़ा दिये .'तुम्हारी सास ने दोनो बहुओं के लिये एक से बनवाये थे .'

उसने झुक कर दोनों हाथों से विधिपूर्वक चरण छू कर माथे से लगाये .

ये ताऊ जी ,ये चाचा जी -ये जीजाजी , बरेलीवाले जे ,ताऊ जी के मँझले बेटे .'

अरे ,नाम बताओ ।ऐसे कैसे याद रखेगी ?'

'हाँ इनका नाम सुरेन्द्र बहादुर .क्यों लल्ला जी ,क्या बहादुरी दिखाई आपने
.'

कहाँ भौजी ,बहादुरी दिखाने का ठेका तो कर्नल साहब का है .हम तो आपके सामने कलेजा थाम कर रह जाते हैं .'

ज़ोरदार ठहाका .

लोग छँटते जा रहे हैं .

काहे भौजी , कंडैल साहब को कहाँ दुकाय दिया ?कंजूस कहीं के ..'

'काहे गँवारन की तरह कंडैल-कंडैल कहते हो .?नई बहू तुम्हें अपढ समझेगी .'

'समझन देओ .बस तुम हमे समझती रहो ,हम उसई में खुस .'

''ये तुम्हारे जेठ प्रिन्सिपल हैं ,अपढ-गँवार मत समझ लेना तुम्हें भी पढ़ा देंगे !.
।'

'चलो मनुआ हो !कहाँ खिसक लिये ?बड़े कंजूस आदमी हो भाई "' उन्होंने आवाज़ लगाई .

उसने सोचा था कर्नल साहब को अभि कहा जाता होगा पर घर उनका घर का नाम मनू है .



'हम तो आही रहे थे .'

'लल्ला जी वो खिसके नहीं थे माल लेने गये होंगे .'

' उन्हीं की ओरी लेंगी न!'

देख लो भाभी ,पहले तुम्हारी जगह यही आने वाली थीं .'

'तो हमने कौन रोक दिया था देवर जी !काहे नहीं आ गईं ?

' लिखी तो शिब्बू के नाम रहीं उन्हें कइस मिल जातीं ,' किसी बड़ी-बूझी की आवाज़ थी ,'तभी न दरवाजे से बरात लौट आई .'

'क्या बेकार की बातें लगा रखी हैं ' कर्नल साहब ने चुप कर दिया सबको .

'उन्हें ये सब बातें अच्छी नहीं लगतीं ,' जिठानी बोलीं ' क्या फ़ायदा ?जो हो गया खतम करो .'

खीर भरी कटोरी बहू के हाथ में पकड़ाती छोटी ननद बोली ,'तो भाभी ,अपने जेठ के पाँव छुओ कहो जेठ जी !'

'जेठजी कौन कहता है ?भाई साहब कहो ,नहीं तो दादा जी ...',जिठानी का सुझाव था .

सिर झुकाये ही खीर की कटोरी उसने उनके हाथ में पकड़ाई ,और झुक गई पांवों पर.कर्नल साहब ज्यों के त्यों सन्न से खड़े रह गये .

'अरे ,उसे खीर खिलाई तो दो ,'जिठानी ने टोका तो वास्तविक जगत में आये ।पत्नी ने जो हाथ में पकड़ा दिया लेकर उसकी ओर बढ़ा दिया और घूम कर चल दिये .लौटते-लौटते जेब से रूमाल निकाल कर पाँवों पर टपके दो बूँद आँसू उन्होंने धीरे से पोंछ दिये .

पीछे से आवाज़ आ रही थी ,'क्या दिया बड़के दादा ने ?

' जड़ाऊ पेन्डेन्ट.'

' वाह !'

आँसुओं से धुँधला गई आँखों से वह कुछ देख नहीं पा रही थी .

घूँघट से कितनी सुविधा हो जाती है.

*


!****

रविवार, 14 नवंबर 2010

पीला गुलाब - 2.

*
चार साल बीत गए.

उस दिन शृंगार किए बैठी रह गई थी ,आज फिर विवाह-मंडप में -किसी दूसरे के लिए .

वस्त्राभूषण का चढ़ावा सम्हालती भाभी रुचि को लिवा ले गईं.
कर्नल साहब फिर सोने नहीं गए .
वहीं साइड में पड़े काउच पर बैठ गए .किसी से कुछ बात-चीत नहीं .वैसे भी उनके  व्यक्तित्व से सब रौब खाते हैं .

दोनों पक्षों की हँसी ठिठोली चलती रही .उनके संयत गंभीर व्यक्तित्व के सामन किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि कुछ कहे .उन्होंने ने सूट की जेब से सिगरेट केस निकाल कर एक सिगरेट निकाली .छोटे बहनोई ने लाइटर से जला दी .वे चुपचाप शून्य में ताकते बैठे सिगरेट पीते रहे । ख़त्म होते ही दूसरी जला ली .

वर को लाकर बिठाया गया .रस्में पूरी की जाती रहीं . कन्या के पिता कन्या के भाई ,सबकी पुकार लगती रही ।सब आ-आ कर अपना रोल निभाते रहे .

'कन्या को बुलाइये .'

कन्या की सखियाँ उसे मंडप में ले आईं .

उन्होंने तीसरी सिगरेट जला ली थी .

'नहीं अभी कन्या वामांग में नहीं ,दाहिनी ओर बिठाइये .

फूल माला जल, अक्षत ,मधुपर्क ,खीलें ,कलावा -

सिगरेटें खत्म होती रहीं ,जलती रहीं .

पाँचवीं सिगरेट !

ट्रे घूमती रही ,कभी कोल्ड-ड्रिंक कभी चाय ,कॉफ़ी .

कर्नल साहब बिना देखे सिर हिला कर मना करते रहे .

इधर -उधर बैठे लोग शादी की मौज में रमे रहे .कन्य-पक्ष की लड़कियों को छेड़ते रहे .

छोटे -बड़े बहनोई अपने साथियों के साथ बैठे हँसी-ठिठोली करते रहे .कन्या-पक्ष की बहुयें और लड़कियाँ हँसती रहीं.

ये सातवीं सिगरेट है .
' हमारे लड़के से तो सब कहलवा लिया पंडिज्जी ,उनसे भी तो कहलवाओ .'

पंडिज्जी मुस्करा दिये -कन्या ज़ोर से कैसे बोलेगी ?'

'क्या पता उनने प्रतिज्ञा की या नहीं एक बार तो हाँ कहला दीजिये .'

'हाँ और क्या धीरे से ही कह दे हम कान लगाये हैं .'

'कह दो बिटिया - हाँ .'

आवाज़ नहीं आई .

'भई ,ये तो गलत है .एक से सब कबुलवाना ,दूसरे से कुछ नहीं ।'

'मौनं स्वीकृति लक्षणम् ',पडित जी ने व्यवस्था दी .

फिर हँसी मज़ाक हुआ .
सातवीं भी जल चुकी .
कन्यादान ,फेरे .दसवीं सिगरेट फुँक चुकी .

अभी रात के सिर्फ. दो बजे हैं .कितन सिगरेटें फूँकीं उन्होने उस रात ,गिनने की फ़ुर्सत किसे ?

*

रिश्तेदारों में वही चर्चा चल रही है .

चार साल पहले भी यही बरात आई थी इसी लड़की के लिए .

कोई कह रहा था -जा रही है उसी घर में ,पर चार साल बाद किसी दूसरे से गाँठ बाँध कर !

' अच्छा !'

'पर हो क्या गया था ?

हुआ क्या था बरात का स्वागत हो चुका था .जयमाल पड़ चुकी थी .पर बारात लौटा दी .

किसने ?

लंबी कहानी है -होता वही है जो किस्मत में लिखा होता है ।जाना उसी घर में था पर बड़े के बजाय छोटे से गाँठ जोड़ कर ।'

कहानी वही सुन्दर पढr-लिखी लड़की -ब्राह्मण परिवार की.किस्मत से संबंध तय हो गया अच्छे घर में,लरिका सेना में बड़ा आफिसर रहे -कोई माँग नहीं.काहे से कि लरिका के मन भाय गई थी.

हवाई जहाज़ से बारात आई .तब तक सब ठीक- ठाक रहै .

पर ऊ फौज के लोग ,उन्हें कहाँ खाने-पीने से परहेज़ .

बोतलें खोल लीं ,बाज़ार से नॉनवेज मँगा लिया मस्ती कर रहे थे.किसी ने जाकर घर की औरतों को फूँक दिया .बस,हल्ला मच गया ,शराबी-कबावी हैं .कैसे गुजर-होगा लड़की का .

शराब की लत में बर्बादी के जाने कितने किस्से याद किए जाने लगे .रोना-धोना मच गया.

और नतीजा ये कि कहला दिया लड़की ब्याह से मना कर रही है .

वो लोग पहले तो कहते रहे लड़की को सामने बुलाओ वो आकर कह दे .हम चुपचाप चले जायेंगे .

पर इन लोगों ने लड़की को सामने लाने से से साफ़ मना कर दिया .

क्या करते बिचारे !दो-दो पेग और चढ़ा लिए ,लौटने की तैयारी करने लगे .

*

*
पर होनी को कुछू और मंजूर रहै .
बड़ेन को   लगा बिना बहू बरात कैसे लौटे ,यहीं रिश्तेदारी में एक लड़की रही बिन माँ-बाप की,अच्छी रहै ,दहेज का भरना कौन भरे सो बियाह नाहीं होय पा रहा था . मामा के पास पली बढ़ी रहे ,उन्हई ने आगे बढके  के ब्याह दी ,उसके तो भाग खुल गए .आई है बरात में कर्नल पति के साथ

और इहका  जब एक धब्बा लगा लग गया.जहाँ जायें बात चलायें सब इहै पूछैं बरात काहे लौट गई? बस इहैं बात अटक जात रही .


चार बरस बाद एक लरिका की खबर मिली  लड़का  मामूली क्लर्क रहे ,वइसे कुल परवार सब दुरुस्त  था .सो का करते कब लौं लरकिनी बैठाए रखते .
बात चलाई ऊ तैयार हुइगे .कहे लाग हाँ,हाँ लरकिनी हमार देखी भई है .ई लरिका सराव छुअत भी नहीं .पक्का बिरहमन .
भवा का कि उहै आरमी ऑफिसर केर छोट भाई रहे .
अउर का !
' हाँ कर्नल साहब का छोटा भाई है ।'
उमर का कितना फ़रक है भाइयों में ?'
'डेढ साल का ।'
'अच्छा !पर जमीन -आसमान का फरक है दोनो में  ।'
'हाँ वो तो हई है ।'
वो थोड़े साँवले लंबे हर चीज़ के शौकीन .और ये रंग थोड़ा साफ़ है पर उनसे बित्ते भर छोटे .घर में बैठे रहेंगे कहीं आने-जाने से भी जी चुरायेंगे .
इसीलिये न खेलने में रहे न पढ़ने में ।इन्टरकॉलेज में पढ़ाने को मिल गया असमे परम संतुष्ट !
महतारी तबैं नाहीं रहीं थीं   ,कोऊ ध्यान न दिहा सो क्वाँरा रहै. उन्हका तो छप्पर फाड़ के मिला    सुन्दर लरकिनी, पढ़ी-लिखी जाने-बूझे घर की .काहे बारात लौटी रही सोऊ सब जान रहे ऊपर से कमाऊ .ई भी तो इन्टरै कालिज में पढ़ाती हैं पिछले तीन साल से .चट्ट हाँ कर दिहिन.
कहाँ कर्नल साहब और कहाँ ई किलर्कवा सब किस्मत की बात .

*

-क्रमशः

*

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

राजा जोगी-

*
हमारे बच्चों को हर ग़लत बात बड़ी जल्दी समझ में आ जाती है और सही बात बिना बहस के गले नहीं उतरती . कही जाना हो तो सफ़र चाहे जितना छोटा हो ,उनका ख़याल है ट्रेन छूटने के बाद पूरियां खाना ज़रूरी  है.
वह कार्यक्रम पूरा होने के बाद के बाद हर पाँच मिनट पर एक पूछता है अब बीकानेर कब आएगा ?'

दूसरी फ़ौरन बोलती है ,'कितनी देर में पहुँचेंगे ?'

अब मुज़फ़्फ़र नगर से बीकानेर ,अभी तो सारी रात बितानी है,इन लोगों से कैसे निपटूँगी !

पर मैxने भी तरकीब निकाल ली है ,तुम डाल-डाल तो हम पात-पात.


बड़े प्यार से समझाती हूँ .'अगर तुम दोनों सो जाओगे तो झट्ट से आ जाएगा ,नहीं तो गाड़ी और देर लगाती .रहेगी .'

और दोनों के दोनों मज़े से सो जाते हैं .
उस दिन भी दोनों खा-पी कर सो चुके थे.

पता नहीं कब एक अंधा भिखारी डब्बे में घुस आया .

गाने लगा ,'भिक्षा दे दे मैया पिंगला ,जोगी खड़ा है द्वार ..

मइया पिंगला ...'

हरियाणा का एक जाट जिसकी कुछ देर पहले एक लड़के से तू-तू मैं-मैं हुई थी .बोल उठा ,' लोग तो बिना बूझे कहते रहवें .वो तो बात ही होर थी .'

सबकी निगाहें उसकी ओर घूम गईं .पास बैठा आदमी ने पूछ ही लिया ,'बात क्या ?वो किस्सा तो सबन को मालुम है .'

'ना जी ना .राजा भरथरी को जो कह्या के विसकी राणी मंतरी से फँसी थी ,यो बात ना थी .जिस खात्तर राजा जोगी बण्या ,वो तो मामला ही होर था .'

सामने बैठे लड़के से रहा नहीं गया ,'क्या? कुछ और बात रही थी क्या ? '

'इब जाण के क्या करोगे ?लोग तो ये ई माणते रहवें .'

'सुणा दो बाबा ,इब तो असली बात सुना ई दो .'

और दो-चार लोगं को उत्सुक देख जाट बाबा ने शुरू किया -'अच्छा सुणों . होया क्या --एक बार राणी पींगला राजा भरथरी को न्हवा री थी ..'

किसी ने विस्मय प्रकट किया -

'राणी न्हवा री थी?'

'अरे न्हवाने को तो बाँदियाँ भतेरी ,राणी तो खड़ी निगरानी करे थी . उबटन-सनान करा के जब बाँदी अंगौछा ले के राजा का बदन सुकावण लगी ,राणी पिंगला की नजर राजा के पेट पे जा पड़ी .देख्या .नजर गड़ा के देखा ,उसकी तो हँसी छूटगी .'

राजा ने पुच्छ्या् ,'राणी क्यों हँसण लग री ?'

'कुछ भी नी ,यूँ ई हँसी आग्गी .'

'नीं,तू कुछ छिपावण लग री म्हारे से .इब तो तू बताई दे .'

वो जित्ता-जित्ता टालती जावे ,राजा पिच्छो पड़ता जावे .तब विसने कही ,'एक बात म्हारा दिमाग में आग्गी तो हँसी छुट पड़ी .'

'एसी कुण सी बात के बतावण में झंझट?'

'पर राणी बोल के ना देवे .

सुसरी बताती भी ना ,राज्जा में मन में कही .फिर खुसामद करण लगा 'अरी बता भी दे भागमान .'

भौत मिन्नत करी तो बोल्ली 'राजा,तुमने कभी सुण्या कि बेटा माँ से ब्या करे ?'

'बावली होग्गी के ?एसा भी कहीँ होवे ?'

राणी फिर चुप .

'ठीक,ठीक बात कर राणी ,तू तो पहेली सी बुझावे .'

'वो बात नी राजा .ये तो मामला ही होर है .तुम तो जिद्द किए जाओ .कोई बात होवे तो बताऊं ,फालतू में..बात .

ये तो बताती भी नीं .

पर राजा कैसा जो कबुलवा न लेवे .

पीछोई पड़ गया ,'कोई बात तो जरूर से ,पर तू बतावण नीं लग री .'

हार के राणी बोली ,'इसका ज्वाब मेरी भैण देगी ,तुम उसके धोरे चले जाओ .'

**

राजा को कल ना पड़ी .वो पौंच गया उसकी भैण के धोरे .

राजघराने की छोरी ,राणी तो होनाई था जी .

खूब खात्तर की विसने अपने भैनोई की .'

सारे डब्बे कान उधऱ ही लगे हुए थे

पति महोदय की किताब एक ओर पड़ी थी.सारा ध्यान कहानी में.

इन्हें लगा मैं ऊँघ रही हूँ,बोले
'बड़ी मज़ेदार कहानी चल रही है ,'

'हाँ सुन रही हूँ .कहने का ढंग भी एकदम ओरिजिनल .'

जाट की बात चल रही है ,'...विससे भी वोई बात पुच्छी राजा नें . बोला थारी भैण ने म्हारे को न्हाते देखा और हँस पड़ी में पुच्छा बताती भी ना .इब तो तूई बता .'

भैन बोली ,'कँवर साब ,कोई बात विसके मूँ से भी ना निकल सके ,तुम समझो . राज-घराने की मरजाद भी तो हुआ करे .'

इब तो चक्कर में पड़ गया राजा, जब तक जाण न लूँगा म्हारे को कल नी पड़ेगा ,दिद्दी. ,'

वो बोल्ली ,'घोड़े चढ़े आए हो थक लिए होगे .कल बात करेंगे राजा .

आज तो न्हाओ खाओ,बिसराम कर लो .फिर तो ...'

बाँदियाँ भेज दीं राजा को न्हवाने को ,असनान होते-होते खुद राणी कोई बहाने से चक्कर लगा गी.



फेर उसणे राजा को कह्या ' सब बताऊंगी राजा सब बताऊंगी ,पर सबर से '

राजा चुप .

फेर वो बोल्ली ,'तुम छे माह बाद आइयो ,जब मेरे छोरा होवेगा , अचानक सीट के किनारे बैठी ऊँघती झटके खाती लड़की को हाथ से रोकता जाट बोला .

...ओ बिब्बी ,अभी जा,पड़ती निच्चे ,इँघे को आजा .'
'हाँ बाबा आगे ..'एक उत्सुक आवाज़ आई .
उसके छोरे की जनम की सुण के राजा फेर पोंच गया
राणी की भैण बोल्ली ,'इब मैं मर जाऊँगी और साहूकार के बेटे के जनमूँगी ,

जब सहूकार की पोत्ती बारा साल की होवे तब थारा ज्वाब मिल जावेगा .'

क्या करता राजा ,चुप लौट लिया .
फेर वो पता करवाता रह्या
,'जाटने उसाँस भरी ,'राणी की भैन का सुरगवास हुआ ,,साहूकार की
बऊ के छोरी जनमी.

 राह देखता रहा ,बारे साल बीते ,राजा फिर पोहोंच गया .

साहूकार की पोत्ती की सादी ,राजा के छोरे से होवण लग री थी .

राजा बाट देखता रह्या .

फिर वो नई बऊ के धोरे गया ,.

बऊ ने कहा ,'राजा ,मेरे मरद का पेट देखो.'

देखा राजा ने -जैसै मस्सा राजा के पेट पे वैसाई मस्सा ,वोई जगे बऊ के मरद के पेट पे .

'इब तो राजा तुम मानोगे के बेटा माँ से ब्या करें /'

उसकी समझ में सारी बात आ ग्गी .

राजा उदास हो गया ,लौट आया अपने सहेर में घर कू .

पिंगला से बात भी ना की .
वो बोल्ली ,'जो म्हारे को बताओ राजा ,क्या हो गया हे ?'

तू तो म्हारी माँ है पिंगला ,फिर भी पूछण लग री .इब तो नरक में ना धकेल .'
होर राजा राज-पाट छोड़ बैरागी हो गया .

राणी कुछ ना बोल्ली.

लोगों के तो जो दिल में उठे कहो जायँ.दुनिया है ये तो .

कुत्तों के भूकण से सज्जन आदमी रास्ता नी छोड्डा करते .'

कंपार्टमेंट में चुप्पी छा गई थी .

एक दूसरे से बोलने की इच्छा नहीं हो रही थी .अपनी-अपनी जगह बैठे रहे सब जैसे कुछ कहने को बचा ही न हो .

***

सोमवार, 13 सितंबर 2010

निर्वासिता --

(भूमिका )
महाकाल वन,जिसके क्षेत्र ने ब्रह्मा और विष्णु दोनों को निवसित किया है .साक्षात् महाकाल स्थित हैं यहाँ .इस क्षेत्र में सृष्टि का सृजन पालन और संहार समाहित हो गया है ..इसी धरती पर बहती है क्षिप्रा नदी ,दोनों ओर गहन घोर वन और बीच से बहती कल कल निनादिनी क्षिप्रा !समुद्र तल से बहुत ऊँचा समतल क्षेत्र .जिसकी मिट्टी काली है.जैसे माँ का काजल पुँछा ,नेहभरा आँचल .मालवा की धरती ,यह पुण्य क्षेत्र ,जहाँ से प्रत्येक युग में सृष्टि का पालन -परिचालन होता है .

काल और स्थान की परिकल्पना ,हमारी स्मृति के पहुँच से भी पहले यहीं से प्रारंभ हुई !

कितना सघन वन !सूर्य की किरणें ,जिसकी घन हरीतिमा की पर्तें पार करते-करते अपनी दमक खो कर सघन श्याम हो उठती हैं .इस उज्ज्वल श्यामलता से सारा वन प्रदेश उद्भासित हो उठता है .एक दूसरे होड लगा कर ऊँचे उठते पेड .लता जाल को अपने से लिपटाये आसमान टोहते खडे रहते हैं .)और हर-हर सर-सर करती हवायें..एक विचित्र सी सुगन्ध चतुर्दिक व्याप्त रहती है..ऋतुओं के साथ साथ वन गंध परिवर्तित होती रहती है .वसन्त में आम की बौराती और महुओं की मदमाती महक के साथ वन पुष्पों कीम मह-मह गंध .चैत में जाने कौन कौन सी अनाम अनगिन वनस्पतियाँ पुष्पित हो जाती हैं और मदहोश करती महक चारों ओर छा जाती है .पशु-पक्षी जोडे बाँधने लगते हैं ,धरती पर बिछे होते हैं ढेर के ढेर पत्ते ,पाँव रखते ही बालिश्त भर नीचे धँस जाते हैं ,जैसे धरती माँ ने अपनी सन्तानों की क्रीडा के लिये,सुख-सेज बिछा दी हो .

चिट्-चिट् करती गिलहरियां एक दूसरी के पीछे भागती हैं .तोतों के झुंड के झुंड वृक्षों पर टियू-टियू कर ऐसा शोर मचाते हैं जैसे पूरा वृक्ष कलरव कर उठा हो .वानरों की कूद-फाँद और हाथियों की पुकार भरी चिंघाड .शेर की दहाड गूँजती है वन में और एक सन्नाटा सा खिंच जाता है वन में .घनी अँधेरी रातें ,आकाश में झिलमिल करते सितारे और नीचे अलस वनस्पतियों में वन्य जीवों की साँसों के स्वर में स्वर मिला कर गहरी साँसें छोडता वन .रात्रि के अन्तिम प्रहर में गहरा सन्नाटा छा जाता है,सितारे ऊँघने लगते हैंऔर साँसों का संगीत भी थम जाता है,तब काल पुरुष, भी गहरी नींद सो जाता है- कुछ क्षणों के लिये .

उत्तर में है विन्ध्याटवी .यहाँ से वहाँ तक वन्य पशुओं का मुक्त आवागमन अबाध रूप से चलता है .सरपत और झाऊ के घने वन ,घासें इतनी ऊँची कि हाथी भी चलता हुआ दिखाई न दे ..बहुत ऊँचा है विन्ध्याचल .उत्तर और दक्षिण के बीच में एक ऊँची दीवीर ,कोई पार नहीं कर पाता .विंध्याटवी की कुछ भूमियाँ असूर्यंपश्या हैं .सूरज की किरणों ने भी नहीं देखा है -ऐसी कुँआरी धरती .

महुये टपाटप टपकते हैं और नशीली हवायें इस महाकाल वन में अपनी मादक गंध लिये घुस आती हैं.लगता है विन्ध्यवासिनी महाकाल का आवाहन कर रही है'आओ,आओ.चले आओ .अपनी समाधि भंग कर दो .'काल चंचल हो उठता है .कोई अट्टहास गूँजता है और वनप्रान्त चौंक जाठता है .

बारहों मास वृक्ष फलों या फूलों से लदे रहते हैं.,कभी आम तो कभी आमलक ,कैथ .बेर ,करंज काफल ,फलों की कोई गिनती है यहाँ ?कदली वन ऊँचे विशाल जात हिलाता,हरहराता डोलता अपनी महक उँडेल देता है.कौन खायेगा इतने फल ?पक्षी खाते है गिराते हैं .वानर कूद-फाँद मचाते खों-खों करते क्ीडा करते हैं .महाकाल और मुक्त प्रकृति दोनों मिल कर इस संसृति का संचालन करते हैं .

. बरसात की रातों का बीहड अँधकार धरती पर घनी वनस्पतियाँ ,आकाश में सजल मेघजाल ,और सबको घेरता सघन वन का अँधेरा .वृक्षों के पत्तों पर अविराम वर्षा की झडी ,धरती पंकिल हो गई है ,रह रह कर मेघों की गर्जना .कौंधती बिजलियों की चमक से पूरा वन क्षणांश को प्रकाशित हो उठता है .साँप-रेंग रेंग कर वृक्षों पर चढने को प्रयत्नशील,कहीं वृक्षों से लिपटे .सीत्कार करती उन्मुक्त हवा हरहराती चलती है ,लतायें वृक्षों से विच्छिन्न हो धरती पर गिरती हैं तरुओं को को झकझोरती  हवा4एं सारे अरण्य-प्रान्त को दहला देती हैं .लगता है साक्षात् महाकाल ताण्डव करने लगे हैं .
**
स्वच्छ निरभ्र आकाश !पूर्ण चन्द्र अपनी पूरी द्युति से चमक रहा है .उज्ज्वल किरणें चारों ओर बिखरी पडी हैं ..कहीं कोई हलचल नहीं .उन्चासों पवन जैसे शान्त दिशाओं के आँचल में दुबके सो रहे हों .जल स्तब्ध लहरें लेना भूल गया हो जैसे .गति हीन पवन ,मेघहीन आकाश ,सितारे भी टिमटिमाना भूल गये हैं. एकदम स्तब्ध सौंदर्य.,ऊँचे-ऊँचे वृक्ष चित्रवत् खडे हैं,धरती से आकाश को मिलाते इस चाँदनी के ज्वार में डूबे .

अकेले बैठे बैठे सीता की आँखें भर आती हैं .अनसोई ,लंबी रातों की तडपन ,वह एकाकीपन जिसे बाँटनेवाला कोई नहीं.

जीवन के प्रारंभिक क्षणों में ही जननी के स्नेह से वंचित कर शायद नियति ने यह पूर्वाभास दे दिया कि जीवन में तुम्हें कुछ नहीं मिलना है .जो नव शिशु का सहज अधिकार होता है,जीवन की अनिवार्य शर्त होती है ,वह सब मेरे लिये नकार दिया गया था .प्रारंभ से पटाक्षेप तक उसी वंचना के बीच भटकना है राम तुम्हारी विश्वास ,बहुत वल देता था ,तुमने मेरे अतिरिक्त किसी नारी को स्वीकार न करने का जो वचन भरा था .उसके लिये मैं आभारी हूं तुम्हारी .नहीं ,चिर ऋणी हूँ तुम्हारी ..तुम राजा हो .सत्कुलोत्पन्न,सत् के प्रतिष्ठापक और मर्यादाओं के रक्षक कहलाते हो .

और मैं अज्ञात् कुलोत्पन्न ,जिसे दूसरों के द्वारा पाला गया ,मेरी क्या मर्यादा है ,चिर -कलंकिता हूँ मैं .बचपन से मैं सोचा करती थी ,मेरे माता-पिता कैसे होंगे जो जन्म लेते ही त्याग दियामुझे ?कौन हूँ मैं ?क्या अपराध था मेरा ?

अब तो जिस मनस्थिति में मैं जी रही हूं उसमें सच भी सपना लगने लगा है .
मैं कभी सामान्य नहीं रह सकी .दुनियाँ में सब जैसा स्वाभाविक जीवन जीते हैं ,मेरे हिस्से में वह बिल्कुल नहीं आया .मन पर यह बोझ लिये सारा जीवन बीतेगा .जानकी हूँ मैं .राजा जनक की कन्या ,कन्या नहीं पालिता कन्या !

जन साधारण का मुँह कौन बन्द कर सकता है?वह नीच धोबीपर किसी को नीच कने का मुझे क्या अधिकार .मैं रावण -मन्दोदरी की पुत्री राक्षसी हुई मैं भी .देव योनि में नहीं हूँ मैं .

पर इन्द्र की पत्नी शची भी पुलोमा दैत्य का पुत्री है ,कितनी असुर दैत्य और दनुजों की कन्यायें देवों के कुल में ब्याही हैं .

इतना पूर्ण चंद्रमा ,दूर तक फैला गहन नील आकाश .इतनी पूर्ण ,इतनी विचित्र रात्रि आज तक कभी देखने में नहीं आई .-क्या होनेवाला है?कैसा षड्यंत्र चल रहा है यह/

सीता का मन जाने कसा कैसा हो रहा है .प्रकृति शान्त ,वनस्पतियाँ शान्त,धरित्री शान्त ,आकास शान्त सारी दिशायें स्तब्ध ,मूक .पर मेरे मन में शान्ति क्यों नहीं ?

आँधियाँ और तूफान इस वन प्रदेश में आते ही रहते हैं .सीता उनसे नहीं घबराती .घनघोर गर्जन प्रचण्ड हवायें जब पेडों को उखाडती ,अंधाधुन्ध दौडती चली आती हैं ,तब सीता निर्भय कुटिया का द्वार खोल कर है. खडी हो जाती है .मन उन्मत्त आनन्द से भर उठता है .जैसा तूफान मन में समाया है ,वैसा ही बाहर भी .दोनों में ताल-मेल बैठाने की चेष्टा करती रहती है वह .इतने लम्बे वनवास में प्रकृति की ये क्रीडायें बहुत देखी हैं.अब इनमें ऐसा कुछ नहीं जो भयभीत करे .

पर आज की रात्रि!यह पूर्ण और विलक्षण शान्ति मन को विचलित किये दे रही है.ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ .

जीवन में क्या कुछ नहीं घटा ? जन्म  की सुनी भर हैं ,पर वह सुनना ,समझना मन को गहन रिक्तता से भर जाता था .,फिर वनवास ,अपहरण ,कलंक ,परित्याग और अब यह चिर एकाकी जीवन .अब क्या शेष रह गया .?कौन सी विडंबना बाकी रह गई ?

राम ,मुझमें क्या कमी रह गई थी ,,अपना मन और तन तुम्हें सौंप दिया था मैंने ,मेरा प्रेम ,विश्वास सब व्यर्थ कर दिया तुमने .

सीता चुप बैठी है ,रात का गहरा अँधेरा .आँखों से आँसू टप टप गिरते हैं और धरती की माटी सोख लेती है .....
(उपन्यासांश)क्रमशः

सोमवार, 30 अगस्त 2010

स्वीकारोक्ति

*
ट्रेन का सफ़र कभी-कभी बड़ी यादगार बन जाता है . मुझे बहुत यात्राएं करनी पड़ी हैं और अधिकतर अकेले ही .पति अधिकतर टूर पर और फिर उन्हें इतनी छुट्टी भी कहाँ .
उस दिन भी विषय-विशेषज्ञ बन कर एक मीटिंग में जा रही थी.
पहले ही पता कर लिया था जिस कूपे में मेरा रिज़र्वेशन है उसमें एक महिला और हैं .मुझे सी ऑफ़ कर ये चले गए .
वे महिला समवयस्का निकलीं
चलो ,अच्छी कट जाएगी !
बातें शुरू -
'आप कहां जा रही हैं .'
'इंदौर ,और आप?'
'हमें तो उज्जैन तक जाना है ,आप भी अकेली हैं '
'म ?हां अकेली ही ,अक्सर जाना-आना पड़ा है ,आदत-सी हो गई है .'.

'हमारी भाभी बीमार हैं सो अचानक चल दिए आप तो इन्दौर रहती हैं शायद.
'नहीं अहिल्याबाई वि.वि में एक मीटिंग है ,बस अगले दिन  लौटना है .'
'हाँ हम भी दो दिन की सी.एल ले के '.
पता लगा मेरठ में पढ़ाती हैं ,और खूब घुल-मिल कर बातें होने लगीं .
कहां -कहां के सूत्र निकल आए .
 मज़ेदार बात यह कि दोनों ने एक ही कॉलेज से बी.एड. किया ,बस भावना जी एक साल पहले कर चुकी थीं,उस कॉलेज को खुलने का पहला साल ,तब वह पूरी तरह व्यवस्थित नहीं था .
हम अगले साल वहीं दाखिल हुए .
वार्डन -लेक्चरर प्रीफ़ेक्ट  सबकी बातें.मिट्ठू,जो ऊपर के काम कर देता था -दोनों होस्टलों में उसकी पूँछ थी.
'मिट्ठू ?'
'हाँ -हाँ ,था तो .पर ब्वाएज़ हॉस्टल में ज़्यादा रहता था .हमारे यहां तो कभी वार्डन के पास या किसी काम से नोटिस वगैरा ले कर आता था . '
' आपके सामने ब्वायजट हॉस्टल कहाँ था ?'
'उधर चौबीस खंभा रोड पर जो धरमशालावाली बिल्डिंग है वही किराए पर चल रही थी ,सुनने में आ रहा था कि अगले साल होस्टल शिफ्ट हो जाएगा ..''
'हूँ .'
'ये मिट्ठू  दोनों होस्टलों में काम करता था न,और एक मज़ेदार बात ,हम मिट्ठू के लिए टियू-टियू शब्द स्तेमाल करते थे और खूब हँसते थे .पर .उसके सामने नहीं .'
'हाँ ,वो तो शुरू से ही दोनों होस्टलों  के काम देखता था ,पास में हैं न .हमारे वार्डन ने भी कह रखा ता ,झाड़ू वगैरा लगा कर उधर चले जाया करो .उन दिनों खाना तो इकट्ठा वहीं बनता था .'

'और वह सामने की दूधवाली दूध में वात्सल्य रसकी मात्रा बहुत कर देती थी .'
'हम लोगों ने तो अपना अलग इंतज़ाम कर लिया था .'
रूम मेट कैसे हमारा घी चाट कर स्वास्थ्य बनाती थी,
और फिर मिट्ठू !
'वही तो ...'
'क्या वही तो ?'
'कुछ  नहीं यों ही '.
'सब टेम्परेरी इंतज़ाम थे तब.कोई ऐसा कमरा भी नहीं जहाँ यूनियन की मीटिंग कर लें .'
' वो तो हमारे सामने तक था .कैबिनेट की मीटिंग किसी के रूम में कर लेते थे और जनरल के लिए हॉल ,बस.'
'अब तो बढ़िया होस्टल बन गया है .आप नहीं गईं कभी फिर ?'
'नहीं जा नहीं पाए .मन तो करता था पर बात कुछ ऐसी हो गई थी कि जाने की हिम्मत नहीं पड़ी .'
'ऐसा क्या हो गया ?''
वे चुप हैं
'आप मुस्करा रही हैं .'
'हाँ ,एक बात मन में है .अब तक किसी से कहते नहीं बनी .पर अब उम्र के चौथे पहर में इच्छा होती है कि सब-कुछ .कह-सुन कर हल्की हो लूं . '
'हम दोनों तो बराबरी की हैं एक दूसरे को समझने में मुश्किल नहीं होगी.'
'हां,हां इसीलिए तो .आप भी तो वहीं पढ़ चुकी है ?'
*
थोड़ी भूमिका बाँधने के बाद बताने लगीं - छात्र चुनाव में एक काफ़ी बड़ा-सा  गंभीर सा लगनेवाला  लड़का सेक्रेटरा बना .काफ़ी रिज़ोर्सफुल था .
उसने अपनी कैबिनेट में हमें  भी ले लिया .कई क्षेत्रों में सक्रिय रहे थे न हम .
मैंने अपने होस्टल की दो लड़कियों और एक लड़के को ,जिसे मेरी रूम-मेट जानती थीं बोलीं  बहुत साहित्यिक रुचि का संस्कारी लड़का है - ले लिया .
'मैं चाहती थी मीटिंग्ज़ में अनुराग जाए ,मुझे न जाना पड़े.'
'क्यों , जब इन्चार्ज आप थीं .'
'हाँ ,थी .पर ..असल में जो सेक्रेटरी था वह मिट्ठू के हाथ मुझे पर्चियाँ भेजा करता था ,अकेले में मुझे देने के लिए .'
'फिर?'
उत्तर वह माँगता था . मैंने कभी दिया नहीं ,


'हाँ तो वो लड़का क्या नाम था उसका ?
'अब असली नाम बता कर क्या होगा  समझ लो- आलोक.'
'और पर्ची में संबोधन क्या ?'
 'इस सबसे क्या .बात तो कुछ और है जो बतानी है ..'
'नहीं ,यह तो बताना ही पड़ेगा नहीं तो इमेज कैसे बनेगी ?'
'संबोधन कुछ खास नहीं डियर फ़्रेंड ,या माई चम और अपने को क्वेशचन मार्क ,या ऐसे ही कुछ .'
'क्या लिखता था?'
'छोटी-छोटी बातें -तुम ध्यान में रहती हो वगैरा '.
'और क्या लिखा होता था .'
'बस साधारण सी बातें -कि तुम मुझे अच्छी लगती हो .कभी कोई परेशानी हो तो बताना .'
'बस यही ?'
'हां. कभी-कभी यह भी कि क्लास के बाद ऑफ़िस की तरफ़ आ जाना ,कुछ छात्रसंघ के बारे में सलाह करनी है .'
'तुम लिखता था ?'
'अरे ,अंग्रेज़ी में -क्या आप और क्या तुम !'
'सही कहा  , जो हिन्दी में कहना शोभनीय नहीं लगता अंग्रेजी मे अच्छी तरह चल जाता हैं ,  कभी वे तीन शब्द लिखे थे उसने?'
'अच्छा !अब आप मज़ा ले रही हैं?नहीं ऐसा कभी कुछ नहीं ?'
'हां तो और क्या ?'
'यही कि सुबह-सुबह तुम्हें देख लेता हूं तो दिन अच्छा बीतता है .'
'सुबह-सुबह कैसे ?'
'सब लोग इकट्ठे प्रेयर करते थे सात बजे लड़कों के होस्टल में -फिर नाश्ता और फिर क्लासेज़ शुरू .'
'नाश्ते  में क्या ?'
'ज़्यादातर पोहे ,चाय कभी-कभी और कुछ भी ,जलेबी वगैरा .. '
'वाह उज्जैन के पोहे !पानी आ गया मुँह में !'
' देवास गेट पर हम हमेशा खाते हैं .ऊपर से सेव डाल कर देता है .'
और आप क्या  क्या जवाब देती थीं ?
मिट्ठू हमेशा जवाब माँगता पर हम क्या लिखें और क्यों लिखे ?
कह देती  मैं खुद बात कर लूँगी , और उसके जाते ही पर्ची फाड़ कर फेंक देती .'
'आप जाती थीं ?'
हाँ ,जिन दो को साथिनों को मैनें अपनी समिति में लिया था उन्हे भी बुला लेती ,कि अच्छी सलाह हो जाए  ,एक तो साथ में होती ही थी .उसने एकाध बार कहा भी क्या मुझसे डरती हैं ,कुछ बातें सबसे कहने की नहीं होती और ये लड़कियाँ ऐसी हैं ख़ुद मुझे रोक लेती हैं  और  सबसे कहती फिरती हैं कि मैं उन्हें बुलाता हूँ .मैंने आपके सिवा किसी को नहीं बुलाया ..'
*
मैं चुपचाप  रुचिपूर्वक सुन रही हूँ .
अचानक वे पूछ बैठीं ' अगर आपसे कोई पूछे -तुम तो खाई -खेली हो तो कैसा लगेगा ?' .
'एक चाँटा लगा दूँगी ' .
'आज नहीं ,तब जब होस्टल में रह कर बी.एड. कर रहीं थी .तब क्या कहतीं ?'
'अब इतना तो नहीं बता सकती ,आजकल की लड़कियों में समझदारी हमलोगों से ज़्यादा विकसित है .हम लोग ये सब काफ़ी बातें देर में समझा करते थे. अब अब ये टी.वी. वगैरा ..'
हाँ वही तो ! और जब इसका मतलब मुझे पता चला तभी से   . मन पर एक बोझ सा आ गया .'
'पर क्यों ?'
वे बताने लगीं -
अक्सर ही बुलावा आ जाता था आलोक की ओर से -कल्चरल सोसायटी की इन्चार्ज जो बना दिया था मुझे
कभी पत्रिका कैसी हो इसके बारे में डिस्कशन ,कभी क्या प्रगति ,चल रही है ,मीटिंगे हो रही है .शुरू-शुरू में बड़ उत्साह से पहुँच जाती रही फिर जब रंग-ढंग समझ में आने लगे ,तो वह बचने की कोशिश कर जाती .एक अजीब -सी खिसियाहट घेर लेती .फिर भी जाना तो अक्सर ही पड़ता था.
एक बार खबर आई ,मीटिंग कामना लॉज के रूम नं. 7 में है .वहाँ जल-पान का बढ़िया डौल बन जाता है.अनुराग पिछले दो दिनों से गैरहाज़िर था और मीरा -निर्मला दोनों एक साथ किसी रिश्तेदारी में पार्टी खाने .
मैं पहुँच गई टाइम से ,समय से पहुँचना आदत में शुमार है .
पहुँची तो वहाँ कोई नहीं बस आलोक कुर्सी पर जमा बैठा है.
जाते ही कहने लगा ,देख लिया ?ये हाल हैं यहाँ के ,किसी को काम की चिन्ता नहीं .सब मौज कर रहे हैं .एक मैं ही हूँ जो मरा जा रहा हूँ'जैसे मेरा अपना इन्टरेस्ट हो !
,'क्या कोई नहीं आया ?'!
'आते ?अरे ,नोटिस पर साइन ही नहीं किये .भगा दिया होगा मिट्ठू को.'

'तो फिर तो कोई आयेगा भी नहीं ...मैं बेकार ..'
'वाह बेकार क्यों ?तुम्हीं तो एक समझती हो मुझे .तुम भी नहीं आतीं तो मैं तो बिल्कुल अकेला रह जाता ..मैंने तो नाश्ते का बढ़िया  दे रखा है ।'
'मुझे नहीं करना ,कर के आई हूँ .'
अरे बैठो ,बैठो ..अब मिले हैं तो कुछ बातें करही लें',उसने आगे जोड़ा ,तुमने भी तो कुछ सोचा होगा मेगज़ीन के लिये .'
वह कुर्सी से उठा और सोफ़े पर लेट- सा गया ,'क्या बताऊं कल ,बिल्कुल सो नहीं पाया..'
'क्यों क्या कुछ परेशानी है ?'
इधर बैठो न आराम से ..'
'नहीं ,ठीक हूँ यहीं .'
'हाँ तो ,क्या-क्या कर लिया है ?'
उसकी की आँखें उसे अपने चेहरे पर चुभती लग रही थीं .लंबा-चौड़ा था ही  जब  सामने बैठ कर अपनी नज़रें  पर गड़ा देता - लगता  भीतर तक पढ़ लेना चाहता है, बड़ी उलझन होने लगती थी.
खिड़की से बाहर देखते मैंने कहा,
 'मीरा और निर्मला की  रचनाएं ले ली हैं , कई लोग देने वाले हैं  और  अनुराग जी की कवितायें
भी,  सुन्दर लिखते हैं .'
एकदम बोला
'कब से जानती हैं आनुराग को ?''
'बस यहीं आकर .पहले एकाध कविता पढ़ी थी कहीं ..'
और वह  अनुराग को बिलकुल पसंद नहीं करता , एकदम मुझे याद आया..अनुराग भी उसकी मीटिंग में आना अक्सर टाल जाता है .
उस दिन की घटना याद आते  ही अपने लिए धिक्कार उठने लगती है  . कैसी बेवकूफ़ी ,उफ़
 रोम खड़े हो जाते हैं .. '
मैं बैठी सुन रही हूँ -विस्मित सी .
उसने मुझसे पूछा था ,'तुम तो खाई खेली हो ?'
मैंने बैठने की पोज़ीशन बदली थी .
वे कहे जा रहीं थीं -
'हाँ .बिलकुल .'मैं नेउत्तर दिया था .'
उसकी कौतुक भरी दृष्टि मुझ पर टिकी थी ,
'अच्छा !'
'और क्या !घर में छोटी थी ,छूट मिलती रही ,बचपन से खूब खाती-खेलती रही '.
'वाह !'
मैं उसे देख कर हँस दी .
वह चुप हो गया .फिर अचानक बोला
'अच्छा, अब तुम जाओ.'
मैं चौंक गई .उसका विचित्र व्यवहार समझ में नहीं आया  कैसे बोल रहा है यह .
मुझे बड़ा अजीब सा लग रहा था.
'तुम फ़ौरन यहां से चली जाओ.'
मैं हकबकाई सी उठी अपना पर्स उठाया और एकदम चल दी .अपने कमरे पर आकर ही दम लिया .
रूम-मेट लेटी हुई थी पूछने लगी .'क्या हुआ ?'
'कुछ नहीं ,बस अच्छा नहीं लग रहा है .'
'घर की याद ?'
'पता नहीं क्यों आँखों में आँसू भर आए .ऐसा व्यवहार किसी ने मेरे साथ नहीं किया था .
मैं भी लेट गई चुपचाप .किसी से कुछ कहने को था ही क्या ?'
तब तो कुछ खास नहीं लगा .एक्ज़ाम हो गए सब तितर-बितर हो गए .
 बाद में जब खाई-खेली का असली मतलब पता लगा तो मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया .'
मैं क्या बोलती !बैठी रही आगे का सुनने के चाव में
 'जब भी वह घटना ध्यान में आती मन ग्लानि से भर जाता ..पता नहीं क्या सोचता होगा मेरे लिए ,पता नहीं और लोगों से उसने क्या-क्या कहा होगा .
बाद में जितने दिन होस्टल में रही लोग कैसी निगाहों से देखते होंगे मुझे ,और मैं बेखबर .लोगों को लगता होगा इसकी आँखों में शरम है ही नहीं .
इसीलिये बाद में कभी किसी से मिली नहीं .और फिर तो सब इधर-उधर हो जाते हैं .सबको भूल जाना चाहती थी मैं. '
'और फिर कोई चिट नहीं भेजी ?'
'एक्ज़ाम पास आ रहे थे ,सब बिज़ी हो गए थे .
मेरी उस स्वीकारोक्ति के बाद .उसने कभी मिट्ठू के हाथ कोई चिट नहीं भेजी और कभी जब मौका पड़ा भी  बड़ी सभ्यता से बात करता था .
शादी के बाद भी सर्विस करती रही मैं
 पर सेमिनार ,आदि के अवसर पर यही डर रहता था कि कहीं वह सामने न पड़ जाय !
बहुत डर-डर कर रही हूँ .
मैंने आज तक किसी से नहीं कहा आज अपना मन हल्का कर रही हूं ,पर अब मन पर से वह बोझ उतर चुका है ,इसीलिए कह पाई हूँ .'
'और कहीं वह मिल गया तो ?'
वह हँसीं -निश्छल हँसी .
'पता नहीं कैसी स्थिति हो !पर अब घबराहट नहीं लगती .
उम्र के इस प्रहर में अपनी बेवकूफ़ी पर तरस  आता है .
अब वह सामने आ गया तो उससे भी हँसकर बोल लूँगी .'
'पूछ लीजिएगा उसने क्या समझा था . '
वे सिर्फ़ मुस्करा दीं .

उज्जैन आ गया था ,उन्हें यहीं तो उतरना था .
***