tag:blogger.com,1999:blog-5601339524702392220.post6567878019209574551..comments2023-03-21T06:09:30.114-07:00Comments on कहानी-कुञ्ज: उपन्यासांश -1.प्रतिभा सक्सेनाhttp://www.blogger.com/profile/12407536342735912225noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-5601339524702392220.post-64847157057964713702011-02-12T07:19:07.244-08:002011-02-12T07:19:07.244-08:00इतना बारीक वर्णन!!
कभी किसी बंगाली उपन्यास में पढ़ा...इतना बारीक वर्णन!!<br />कभी किसी बंगाली उपन्यास में पढ़ा था कोई ४ साल पहले।<br />जैसे प्लेटें, खाने के पकवान, बच्चों की आँखें सब जीवन हो उठीं हों, दृश्य-दर-दृश्य।<br />तरल, यह नाम बहुत अच्छा लगा। बहुत अलग। <br />अब तरल, तरु (वैसे एक ऊपर है), असित नाम कम ही आत़े हैं सुनने में, तो बहुत भले लगे।<br />ऐसे मनोभाव, ऐसा चित्रण, ऐसा साहित्यिक शिल्प नहीं मिलता पढने को आसानी से अब। <br />और प्रथम अनुच्छेद के सौंदर्य के लिए विशेष आभार!<br /><br />पहले पहला अंश पढना था, अब दूसरा पढूँगा... और की प्रतीक्षा रहेगी।Avinash Chandrahttps://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5601339524702392220.post-59230700991183505382011-01-26T22:51:27.905-08:002011-01-26T22:51:27.905-08:00''और ये महरी मालिन जो पैदा करनेऔर पालने मे...''और ये महरी मालिन जो पैदा करनेऔर पालने मे माहिर हो गई हैं ,इनके अपने आप पैदा होते हैं ,बडे हो जाते हैं जैसे उन्हें किसी चीज कीअपेक्षा नहीं ...''<br /><br />..यहाँ मेहरी और मालिन जिस स्त्री समूह का प्रतिनिधित्व कर रहीं हैं ...उनकी bebasi और ''अपने आप पैदा हो जाने वाले बच्चों की संख्या'' के पीछे की वजहें एक एक कर आँखों के आगे घूम गयीं......<br />वैसे यथार्थ यही है..कि ये भी चाहें तो इन कारणों को समूल नष्ट कर सकतीं हैं.....मगर...उसके लिए चाहना पड़ेगा...लीक से हटकर एक उदारहण बनना पड़ेगा... ....हम्म विषय से मैं भटक गयी...मुआफ कीजियेगा...लिखते लिखते क्रोधित हो उठी थी...:(<br /><br />'इस जगमगाती रोशनी मे सब साफ़ दिखायी दे रहा है ,बार-बार उनके मुँह चलने लगते हैं '<br /><br />'भूखा है अम्माँ ,हमाल कपडन पे मुँह मार रहा है ।'<br /><br />...बच्चे कितनी आसानी से इतनी बड़ी समस्या कह गए ...आज ही देखा था..घर में चाउमीन न बनाकर जगह चावल तल दिए गए थे तो मौसी के एकलौते १२ साल के बेटे को बहुत गुस्सा होते हुए...और ये कहते हुए...''मम्मी आप ऐसा क्यूँ करतीं हैं....अब मैं नहीं खा सकता कुछ...'' और घंटे भर तक इस समस्या पर बहस चलती रही माँ और बेटे में।कोई भी समस्या/या दुःख बनाने से बड़ा बन जाता है....अन्यथा आप हर तरह से जी सकते हैं बिना अपेक्षाओं के।<br /><br /><br /><br />khair...<br /><br />''इतनी आसानी से जन्मते हैं जैसे धरती की कोख से अँकुर''<br /><br />ये तो...एकदम सच है...सिर्फ बच्चों की बात करें तो जैसे जैसे बैंक में पैसे बढ़ते जाते हैं....इंसान उतना ही नाज़ुक होता जाता है......शायद प्रकृति भी जानती है...कि कहाँ किसके हौसले आज़माने हैं....जैसे ये बात मेडिकल साईंस भी मानती है...लड़कियां प्रकृति से ही मज़बूत होतीं हैं...जी ही जातीं हैं...जन्मदायिनी कि उपेक्षा के बाद भी....और बेटों को आप मेडिकल कॉलेज भी refer कर दें...वे आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं के बावजूद अंत तक साँसों के लिए संघर्ष करते ही रहते हैं।<br />बहुत देखा है के अगर आपके पास पैसा है...तो सामान्य रूप से होने वाली डिलिवरी भी आपको खटकती है..आप दस बार डॉक्टर से पूछते हैं....सब नोर्मल है ना...ऑपरेशन कि ज़रुरत तो नहीं आदि आदि।<br /><br />दूसरी बात....बहुत देर तो ख़ुशी सँभालने में ही लग गयी...:D...आपकी कहानी की नायिका का नाम तरु है...हमेशा से चाहती थी..अपना नाम भी कहीं देखूं इस तरह से...:) और उससे भी बड़ी अचरज की बात कि....उसकी भावनाएं भी एकदम मेरे जैसीं हीं हैं। <br /><br />आप सोच रहीं होंगी कि इतनी simple सी कहानी पर इतना क्यूँ लिख रही हूँ..?? :)<br />अपने नाम की वजह से,रोज़मर्रा इस तरह के cases देखने और अपने पसंदीदा विषय के कारण बहुत सीधी सादी सी आपकी कहानी मेरे लिए ख़ास बन गयी थी।<br /><br />:)<br /> <br /><br />''शुक्रिया''Taruhttps://www.blogger.com/profile/08735748897257922027noreply@blogger.com