रविवार, 13 जून 2010

फिर वह नहीं आई -

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मुझे लगा वह जा रही है विलक्षणा ,वही कद ,वही पीठ पर झूलती ,लम्बी-सी अधखुली चोटी ,वही साड़ी जो अक्सर उसे पहने देखा है ,वही चलने का ढंग ,निश्चय वही है !मुझे विश्वास हो गया ।मैने चाल तेज़ कर दी ,आवाज़ लगाई ,' विलक्षणा -- बिलू !'
रास्ता चलते कुछ लोगों ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा ,पर मुझे उन की ओर ध्यान देने की फ़ुर्सत नहीं थी । मै जल्दी से उसके पास पहुँच जाना चाहती थी ।
'बिलू ,-- विलक्षणा ,-- ओ बिलू !'
'बिलू' अनायास मेरे मुँह से निकला जा रहा था जैसे मै उसे युगों से 'बिलू' कहकर बुलाती होऊँ । इसके पहले यह शब्द मेरे मुँह से नहीं निकला था ,मन मे आया था पर मुँह से मैने निकलने नहां दिया था।
आगे जानेवाली युवती मेरे पीछे से आगे निकलते समय ध्यान से मुझे देख गई है -ऐसा मुझे आभास हुआ था ,उसके पग कुछ ठिठके ,कनखियों से उसने मुझे देख लिया और आगे बढ़ गई। मैने अपनी चाल और तेज़ कर दी । मै उससे मिलना चाहती थी ,अब तक जो उसे नहीं दे पाई ,वह देने को मै उतावली हो रही थी ,पर अब लेनेवाली रुक नहीं रही थी । अचानक ही उसने पीछे से आती हुई एक टैक्सी को हाथ दिया ,वह उसके पास जाकर रुकी और फिर उसे लेकर आँखों से ओझल हो गई। अब विलक्षणा नहीं मिलेगी ,देख लेगी तो भी नहीं आएगी मेरे पास ,कतरा कर चली जाएगी । क्यों ? लेकिन क्यों ?
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'कौन ?'
'दीदी , मै !'
अच्छा ,विलक्षणा है ।आओ ,आज बहुत दिनो मे दर्शन हुए ।'
'कहाँ ,दीदी, बड़ी मुश्किल से समय निकाल कर आई हूँ,जरा देर के लिये। वहाँ सारा काम पड़ा होगा !'
मुझे बड़ा सन्तोष हुआ ,चलो ,चाय-नाशते का झंझट नहीं करना पड़ेगा ! फिर मन-ही-मन इस विचार के लिए मैने स्वयं को धिक्कारा ,वह तोइतनी दूर से रिक्शा लेकर मिलने आई और मै ये सोच रही हूँ !
यह तो मुझे काफ़ी बाद मे पता लगा था कि पीठ पीछे लोग उसकी बुराई करते हैं ।अपने साथियों मे भी वह लोक-प्रियता की सीमाओं से दीर रह गई थी । सामने-सामने तो सब अच्छी तरह बोलते पर पीठ फिरते ही मुँह बिचकाने लगते थे ।
मेरी एक साथिन ने एक दिन मेरे कान मे भी फूँका ,' देखना इससे चौकन्नी रहना !सबमे घुली रहकर सबसे भली बनने की कोशिश करती है ,और साधती है अपना मतलब !'
'कौन विलक्षणा ?'
और कौन है हमारे यहाँ जो सबसे मीठा बोलता फिरे ?'
'अच्छा --!'
और दो दिन बाद ही विलक्षणा मुझसे कह रही थी ,' दीदी ,मै कल एबसेन्ट थी । आपने जो नोट्स लिखाए वह मुझे दे दीजिए ।'
'वो तो मै घर छोड़ आई हूँ ।'
' अच्छा ' उलके मुख पर निराशा छा गई ।
'क्लास की किसी लड़की से ले लो ।'
'हाँ ,अच्छा ले लूँगी ।' उसका चेहरा बुझ गयाथा ।
अपने ग्रुप की लड़की को छोड़कर कौन अपने नोट्स किसी को देता है ,और विलक्षणा किसी ग्रुप मे नहीं है ,यह भी मै जानती थी ।
'घर से चाहो तो ले लेना ।'
आश्वस्त होकर वह प्रसन्न हो गई । पर एकदम मेरे दिमाग़ मे आया -ये कहां का झंझट पाल लिया !
'पर घर पर पता नहीं मै कब पहुँचूँ ?खैर मै देखूँगी फिर !' दूसरा आश्वासन दिया मैने ।
घर पहुँचने पर अम्माँ ने कहा ,' कोई लड़की आई थी ,तुझे पूछ रही थी ।'
'लड़की । क्या नाम था ?
'विलक्षणा ।'
मैने चैन की साँस ली .चलो अच्छा हुआ जो घर पर नहीं मिली मै ! अब बार-बार कौन आता है ?
' और वो तेरा सफ़ेद कार्डिगन मैने बिनने को दे दिया है ।'
'बड़ा अच्छा किया ! मै कहाँ तक करती !'
कुल एक हफ़्ता रह गया था शादी मे जाने को । एक तो मुझे समय ही कम मिलता था फिर कार्डिगन के अलावा और भी तो बहुत काम पड़े थे मेरे लिए ! इतनी जल्दी कैसे बुन पाता ,मोल बुनवाना ही सबसे ठीक रहा !
'किसे दिया है ?'
'वोई ले गई , वो जो आई थी ।'
' ऐं ,उसे क्यों दे दिया ? तुम काहे को सबसे कहने बैठ जाती हो ?'
' मैने कहाँ कहा ?उसी ने पूछा ।तू ही तो ऊपर सब छोड़ गई थी । वो पूछने लगी तो मैने बता दिया - काम इत्ता करने को पड़ा है और तेरी दीदी के पास टाइम ही नहीं है ,तो उसने कहा लाइए मै चार दिन मे बुन दूँगी ।'
अम्मा के ऊपर बड़ी खीझ लगी । हरेक के सामने अपना दुखड़ा रोने दैठ जाती हैं ।
किसी डाक्टर ने तो कहा नहीं था कि शादी मे सफ़ेद कार्डिगन पहनो ही ,दूसरी ओर थोड़ी खुशी भी हुई कि चलो बिना मेहनत के बुन जाएगा ।
'और ला के कब देगी ? कहीं रख के बैठ गई तो और मुश्किल ?'
'ऐसा भी कहीं हो सकता है ?तेरे कालेज मे तो पढ़ती है । वो तो बड़ी सीधी लड़की थी । खूब दीदी-दीदी करके बात कर रही थी तेरे लिए। '
अम्माँ बड़ी जल्दी सबसे सगापा जोड़ लेती हैं ! अब एहसान मेरे सिर चढ़ गया ! दूसरों को बेटी बना लेना इन्हें बड़ा आसान लगता है ,मेरी पोज़ीशन का ज़रा ख़याल नहीं ! पर मेरी झुँझलाहट सुनने को अम्मां वहाँ रुकी ही कब थीं !
तीसरे दिन शाम को अचानक विलक्षणा फिर टपक पड़ी । कार्डिगन का पिछला पल्ला और बाँहें उसने बड़ी सफ़ाई से बुने थे । नोट्स मैने ख़ुध लाकर उसे पकड़ा दिये । इतना काम कर रही है किसी मतलब से ही तो ! अम्माँ ने उसे चाय-वाय पिलाई और 'बेटी-बेटी' कर बात करती रहीं । वह मगन हो खाती-पीती रही और मुझे नमस्ते करके चली गई ।
फिर एक दिन घर पर देखा विलक्षणा बैठी मेरी साड़ी के पल्ले तुरप रही है । मुझे देख कर वह सकुचा सी गई ।अम्माँ झट् से बोल दीं ,' देखा ,मेरी नई बेटी मेरा कितना ध्यान रखती है । '
'अरे ,विलक्षणा ! तुम क्यों बेकार परेशान हो रही हो ?'
'आप मेरी दीदी हैं तो ये मेरी भी तो अम्माँ हैं ,अकेली आपकी थोड़े ही हैं ।'
'क्यों नहीं ,विलक्षणा ,तुम मेरी छोटी बहन हो ' एकदम मेरे मुँह से निकल गया ।
उसने अपनी तरल हो-आई पलकें झुका लीं ।
'कभी भी कोई डिफ़ीकल्टी हो तो चली आया करो ।'
मानो मैने उसे बहनत्व का पूरा अधिकार दे दिया !

फिर तो घर मे अक्सर ही उसका नाम सुनने को मिलने लगा । अम्माँ को तो जैसे उसने मोह लिया था ।घर की जो थोड़ी-बहुत सिलाई-बुनाई कर देती थी अब मुझे नहीं करनी पड़ती थी ।छोटी बहन के बर्थ -डे पर सुबह से शाम तक जुटी रही थी वह ।बड़े उत्साह से सारा काम निपटाया था और जब उसके खाने का समय आया तो बहुत सी वस्तुएं समाप्त हो चुकीं थीं । अम्माँ के बार-बार पछताने पर उसने जवाब दिया ,' अम्माँ ,अपने हाथों से पराँठे बना कर खिला दीजिये , म्रेरे लिये तो वह मिठाई से भी बढ़ कर होंगे !'
और वह पराँठों से पेट भरकर चली गई थी।
वह जो फ़्राक का पीस प्रेज़ेन्ट मे लाई थी वह लौटाने को मैने अम्माँ से कहा तो उन्होने साफ़ मना कर दिया कि ऐसे प्यार से लाई गई चीज़ वे वापस नहीं कर सकतीं । मैने वापस करना चाहा ,मेरे बर-बार कहने पर वह कुछ रुआँसी हो आई ,' दीदी ,इतना पराया समझती हैं आप ?'
फिर आगे मैने कुछ नहीं कहा था ।
सब अपने मतलब के लिये ,सोचा था मैने । चलते समयकह दिया था ,' कोई भी किताब चाहिये हो तो मुझसे ले लेना ।'
'जी ? मेरे पास हैं सब !'
'नहीं कोई लाइब्रेरी से न मिलती हो ,या मेरी कोई चाहिये हो तो -- ' मैने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया !
अम्माँ के लिये तो विलक्षणा 'बिलू' बन गई थी ,थोड़े दिन नहीं आती तो मुझसे पूछतीं ,' बहुत दिनो से बिलू नहीं दिखी । बीमार है क्या ?'
' नहीं कालेज तो रोज़ आती है ।'
'कह देना उससे आने को । तुम्हारे बस का तो है नहीं ,वही सिल जाएगी टेरिकाटवाली फ़्राक !'
मै स्वयं उससे अपने घर आने को कहूँ इसमे मुझे अपनी हेठी लगती थी । मेरा कोई काम उसके बिना थोड़े अटकता था । फिर भी मुझे साड़ियों मे फ़ाल लगे और बार्डर टँके मिलते थे ।मै भी जानती थी कौन करता है यह सब , पर मैने कभी कुछ नहीं कहा ।
गर्मियों की छुट्टियों मे भी उसका हफ़्ते मे एक चक्कर लग ही जाता था ।उस दिन विलक्षणा आई तो अम्माँ घर पर लहीं थीं । मुझे बड़ी उलझन होने लगी । अब क्या मै इसे चाय बना कर पिलाऊं ,अम्माँ ने भी खूब तमाशा लगा रक्खा है ! नहीं पिलाऊँगी तो सोचेगी अम्माँ तो इतनी ख़ातिर करती हैं ,और मैने यों ही टरका दिया ! पर मै काहे को ख़ातिर करूँ मेरी तो स्टूडेन्ट है ?मै पसोपेस मे पड़ी थी । मुझे लगा वह भी उलझन मे है । कुछ देर बैठी किताबें पलटती रही, फिर उठकर खड़ी हो गई ।
' दीदी ,अब चलूँ ?'
'क्यों बैठो चाय पीकर जाना ।'
पर कह कर मै मन ही मन पछताने लगी । चली जाती तो कौन सा गज़ब हो जाता ! हमेशा तो खा-पी कर ही जाती है एक बार नहीं ही सही !
'अच्छा आप अपना काम कीजिय़े ।मै बना लाती हूँ चाय ।'
वह उठ कर रसोई मे चली गई ।
चलो अच्छा हुआ ।बिना बनाए चाय पीने को मिल जाएगी ।बना भी लेगी तो क्या हुआ ,स्टूडेन्ट है मेरी ! और मै भी तो हमेशा उसकी डिफ़ीकल्टी दूर करने को तैयार रहती हूँ ,और कौन करता है उसके लिये इतना भी ?
चाय पीते-पीते मुझे लगा विलक्षणा बड़ी परेशान है । होगी ,मुझे क्या करना ? पर फिर रहा भी नहीं गया ।
' क्या बात है ,विलक्षणा ?'
मेरी आँखें अपने चेहरे पर जमी देख वह कुछ अस्थिर हो उठी । मेरी इच्छा हुई प्यार से उससे कहूँ 'बिलू ' जैसे मेरी अम्मा कहती थीं ,जैसे उसके घर के लोग कहते होंगे ! पर मैने कहा नहीं ,उससे दूरी जो बनाए रखना चाहती थी ।
'मै यदि तुम्हारे कुछ काम आ सकूँ तो कहो ?'
' नहीं दीदी ,आप कुछ नहीं कर सकतीं । मेरी माँ बीमार हैं ।'
उसकी माँ सौतेली थीं अधिकतर बीमार ही रहती थीं ,एक बड़ा भाई घर छोड़ कर कहीं चला गया था ,यह भी अम्माँ ने ही बताया था । यह उन्हें भी नहीं पता कि वह चला क्यों गया। दूसरे के घर की बात ,हमे करना भी क्या था ?
एकदम से मुझे लगा विलक्षणा भी स्वस्थ नहीं है । मैने ध्यान से देखा काफ़ी दुबली लग रही थी । बड़ी दया आई मुझे उस पर, !विलक्षणा शायद समझ गई मेरी दृष्टि को ! उठ कर खड़ी हो गई। फिर वह रुकी नहीं चसी गई ।

इसके बाद भी वह कई बार आई थी पर मेरी उपस्थिति मे नहीं । मेरी साड़िय़ाँ भी संवारी उसने बहिन की फ़्राकें भी सिलीं ,अम्माँ के जाने क्या-क्या काम भी करती रही । पर उसने कभी मुझसे किताबें नहीं माँगी ,न कोई सहायता ली । फ़ाइनल की परीक्षा दे दी उसने ।
सेकिण्ड डिवीज़न पास हो गई विलक्षणा ! बी.ए. की बाईस छात्राओं मे से केवल चार की सेकिण्ड डिवीज़न आई थी ,उन्ही मे एक वह भी थी ।
बीच ने कई बार वह अम्माँ से मिल गई थी ,मेरे लिए मिठाई भी रख गई थी , पर मेरा उसका सामना फिर नहीं हुआ । मुझे लगा ,अब उसकी परीक्षा हो गई है ,वह पास हो गई है ,अब उसे मेरी ज़रूरत भी क्या है ! और वह मेरे ध्यान से उतर गई ।
*****
छुट्टियाँ समाप्त हो चुकीं थीं ,कालेज खुलने ही वाले थे । घूम-घाम कर मै वापस घर लौट आई थी ।बड़ी उत्सुकता से अपनी डाक देख रही थी ,एक पत्र विलक्षणा का भी था - कहीं सर्विस कर ली थी उसने । खोल कर पढ़ा और देखती रह गई ! उन पंक्तियों से आँखें नहीं हट रहीं थीं। उन अक्षरों से परे और जाने क्या-क्या पढ़े जा रही थी मै । उसने लिखा था --
'आपके साथ से मैने अनुभव कर लिया कि माँ और बहिन का स्नेह कैसा होता होगा ! आपकी आभारी सदैव रहूँगी , धन्यवाद देकर सहज ही उऋण होने का साहस मै नहीं कर सकूँगी । वह स्नेह तो चिर- काल मेरे जीवन मे प्रकाश और स्फूर्ति भरता रहेगा --।'
स्तब्ध रह गई थी मै ! पता नहीं उसके मन मे कितने अभाव थे जिन्हे मुझसे भरने का व्यर्थ प्रयत्न करती रही वह । मेरी कितनी साड़ियाँ उसने सँवारीं ,कार्डिगन बुने और ब्लाउज़ सिल कर रख गई ।और अब वह चली गई ।मेरे पास था भी क्या उसे देने को ?
पूरा वर्ष बीत गया ।बीच मे ही उसके पिता ने सट्टे मे हार कर आत्महत्या कर ली ,कई मुखों से कई तरह की बातें उसके लिए सुनने मे आईँ । फिर सुना सौतेली माँ और बहनों को विलक्षणा अपने साथ ले गई । मेरी उससे मुलाकात नहीं हुई । मैने कई बार मिलने की कोशिश की पर ऐसा मौका आया नहीं ।

कालेज का टूर जा रहा था ।शरद-पूनम की रात मे ताजमहल देखने का कार्यक्रम बना था । तीन दिन जी भर कर आगरा घूमे । दूसरे दिन की शाम को चचेरी बहिन बीना के पति मुझे बुलाने आगये । बीना जीजी किसी तरह लौटने नहीं दे रहीं थीं पर 'ड्यूटी पर हूँ ,लड़कियों के साथ हूँ 'आदि कह कर बड़ी मुश्किल से आने की अनुमति ली । लौ़ते सम. रास्ते मे देखा विलक्षणा जा रही है ।किसी तरह मिल जाय वह ! उसके लिये इतना व्याकुल हो जाऊँगी ,मैने स्वप्न मे भी नहीं सोचा था।सोयी स्नेह-भावना जाग उठी थी ,मन उमग रहा था देने के लिये ! पर अब वह लेगी नहीं ।पड़ा रहेगा व्यर्थ जड़ सा होकर !
मै भी कैसे धोखे मे पड़ी रही ।नारी होकर एक नारी के हृदय का सहज स्नेह न ले सकी ,न दे सकी । उलकी सरलता मे मुझे दुनियादारी की गन्ध आने लगी थी ? धिक्कार है मेरी सावधानी ! उसने मुझसे लिया ही क्या ? पर मुझे बहुत कुछ दे गई । विश्वास ,जीवन का सबसे बड़ा संबल उसके पास था ,और मै धोखे की टट्टी मे अपने को उलझाए बैठी हूँ । अमृत उसके पास था पानी मेरे पास ! पानी ,जिसकी प्यास कभी बुझती नहीं ! और अमृत पिला गई वह ,जिसे पीकर मै आकण्ठ तृप्त हो गई हूँ ।
तेरी चिर ऋणी हूँ मै ,ओ विलक्षणा ,एक बार आ जा !
पर अब वह कभी नहीं आएगी ! मुझे देखकर कतरा जाएगी । मुझसे मिलेगी नहीं वह ,कभी नहीं मिलेगी ! अपना जो अभाव मेरे अनजाने वह मुझी से भरती रही, अब जान- बूझ कर उसे भरने नहीं देगी । कैसी विषम प्रकृति है ! विलक्षणा अब देखेगी तो मुँह फेर लेगी मुझसे ।अब वह कभी नहीं आएगी मेरे पास । कभी नहीं !

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1 टिप्पणी:

  1. विलक्षणा...का पत्र सबसे खूसबूरत तहरीरें समेटे हैं प्रतिभा जी....
    अभाव भरने की कभी कभी ऐसी कोशिश सभी करते ही हैं..अनजाने में ही सही या जानबूझ कर.......
    एक दो बातें खटकीं थीं कहानी पढ़ते हुए...मगर अब पूछने का मन नहीं....कभी कभी किस्से कहानियां या बातें सतही ही ठीक रहतीं हैं...
    अच्छी लगी मुझे कहानी...हालाँकि आपकी और रचनाओं की तरह नहीं ही है...फिर भी संवेदनाएं ह्रदय को छू ही गयीं....

    बधाई !

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