सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

शर्त

'भाभी,हमें भी बताओ ना !'
' अभी अम्मांजी डाँटेंगी ।कहेंगी क्या खी-खी लगा रखी है ।'
'अम्माँ तो अभी बड़ी देर तक पूजा करेंगी ।सुना दो ना भाभी !'
गीता सोच-सोच कर मुस्कराती रही ,किरन की उत्सुक आँखें उसके मुँह पर टिकी रहीं ।
'बोलो ना !'
' नहीं मानती तो सुनो ,पर अम्माँ से मत कह देना । ....तब मैं बहुत छोटी थी ,शायद छठी सा सातवीं कक्षा में ।मेरी एक सहेली थी कान्ता !मुझसे दो या तीन साल बड़ी रही होगी ।उसके आँगन में एक पपीते का पेड़ था ।जब भी मैं उसके घर जाती कच्चे पपीतों को ललचाई दृष्टि से देखा करती थी ।चुरा कर खाने में हमें कोई हिचक नहीं लगती थी बल्कि लगता था किला फ़तह कर लया ।'
इन कामों में कान्ता मेरा पूरा साथ देती थी ।उसका एक छोटा भाई था -बसन्ता ,वह अपनी आँखें गटपार्चे के बबुए की तरह गोल-गोल नचाता था ।मुझे बड़ा विस्मय होता था उसे देख कर ।'
हाथों पर गाल टिकाये किरन सुने जा रही थी ।
.'एक बार माँ ने कहा ,'जाओ कान्ता के घर से स्वेटर का नमूना ले आओ ,उन्होंने देने को कहा था ।'
मैं खुशी-खुशी चल दी ,उसका घर बहुत दूर नहीं था ।कान्ता की माँ घर पर नहीं थीं ।हम दोनों आँगन में खड़ी थीं ।मेरी दृष्टि पपीतों पर लगी थी ।कान्ता को भी कच्चा पपीता नमक से खाने में बड़ा मज़ा आता था ।पर उसकी माँ कच्चा तोड़ने पर डाँटती रहती थीं ।'
'तुम लोगों ने जरूर पपीता चुराया होगा... !'
'अब तुम चुप तो रहो ,पहले पूरी बात सुनो .....हम दोनों ने अर्थपूर्ण दृष्टि से एक दूसरी को देखा ।कान्ता जाकर लग्गी उठा लाई ।एक खूब बड़ा-सा पपीता तोड़ा गया ।वहीं आँगन में बैठ कर ,हम दोनों उसे काट-काट कर नमक-मिर्च लगाकर खाने लगीं ।दो-दो फाँकें ही खाई होंगी कि बाहर से आवाज़ आई ,'कान्ता !ओ कान्ता !
'हमारा दम खुश्क हो गया ।कान्ता ने एक टोकरी उठा कर फ़ौरन पपीते पर औंधा दी ।पर छिलके-बीज चारों ओर बिखरे पड़े रहे। इतने में उसकी माँ धड़धड़ाती हुई आँगन में आ पहुँचीं । उन्हें आते देख हम दोनों हड़बड़ा कर खड़ी हो गईं थीं । मैंने आव देखा न ताव फ़ौरन वहाँ से भाग निकली ।बाहर का खुला दरवाज़ा पार कर मैंने जो दौड़ लगाई तो घर आकर ही दम लिया ।'
उमड़ती हँसी बार-बार गीता के गले में रुकावट डाल रही थी । किरन भी खिलखिला कर हँस रही थी ,बोली ,''फिर तुम्हारी कान्ता का क्या हुआ ?'
'मुझे नहीं मालूम ।मैं तो फिर बहुत दिनों कर उधर जाने से कतराती रही ।
''और स्वेटर का नमूना ?'
'माँ से कह दिया कान्ता की माँ घर पर नहीं थीं ।'
'बड़ी झूठी हो भाभी ,तुम !'
'अच्छा अब जाओ तैयार होओ, नहीं तो अम्माँ बिगड़ेंगी ।'
किरन चली गई ,गीता फिर अपने में डूब गई ।
हर मौसम के साथ जीवन के पृष्ठ जुड़े हैं ।वे हरे-भरे लान ,जिनके चारों ओर अशोक के पेड़ थे ,हँसती-खिलखलाती सहेलियों के झुंड,शिक्षकाओं की नकलें .वे मौज-मस्ती भरे दिन बड़ी जल्दी बीत गये ।रास्ते में पड़नेवाले इमली के पेड़ पर कितने पत्थर चलाते थे हमलोग !क्लास में मुँह छिपा कर इमली खाना ,दूसरे की कॉपी से जल्दी -जल्दी सवाल नकल करना ,सावन के झूले ,होली का हुल्लड़ ,बहन की डाँट खाना - सबकुछ पीछे छूट गया ।
यह संसार कितना सुन्दर है - चहल-पहल से भरा ,आनन्द से परिपूर्ण !
अचानक दाल जलने की तीखी महक आई ,साथ ही सास की ऊँची आवाज़ भी,'कुछ जले-फुँके किसी को क्यों फिकर होगी !'
वह जल्दी से चौके की ओर भागी । सास दाल का उफान उतार रहीं थीं ।चलो, दाल नहीं जली ,उसने संतोछ की साँस ली । पता नहीं क्यों उन बीते दिनों में घूमते-घूमते सब-कुछ भूल जाती है, गीता !
शादी हुये यह तीसरा ही तो साल है -इतने में क्या दुनिया बदल गई ? बाहर तो सब-कुछ वैसा ही है । उसे लगता है वही बदली जा रही है ।
शुरू-शुरू के दिनों में बड़ी प्रतीक्षा रहती थी ।आँखें घड़ी की ओर लगी रहती थीं। साढे पाँच बजे 'ये' लौटेंगे ,कमरे में आयेंगे ।मैं चौके में होऊँगी तो चाव भरी नज़रों से देखेंगे ,आने का इशारा करेंगे ।...या क्या ठीक कमरे के बाहर जाकर चिल्लाने लगें 'नेरा पैजामा कहाँ रख दिया ?'
गीता सोचती ,'घर के बड़े लड़के हैं ,कमाऊ पूत ! इन पर क्या किसी की रोक-टोक है !दिन के काम उत्साह से निपटाती वह इन्तज़ार करती रहती ।समीर के आने की आहट से ही दिल की धड़कन बढ़ जाती ।
पर समीर आता तो बाहर के कमरे में चला जाता ।वहीं नाश्ता-पानी पहुँच जाता ।घर के सब लोग उसी कमरे में इकट्ठे होते ।वहीं गप-शप होती ।एक वही चौके में बैठी रहती ।अपने आप वहाँ जाने की हिम्मत नहीं ,ससुर भी तो वहीं बैठे होंगे ।बुलाता कौन उसे ?अकेली बैठी सब्जी काटती ,मसाला पीसती ,आटा गूँदती -सारा उत्साह समाप्त हो जाता । फिर भी आशा बनी रहती - रात को तो आयेंगे ,तब कहाँ जायेंगे ?
पर तब भी समीर बड़ा उखड़ा-उखड़ा सा रहता ।
कई बार पूछने पर बोला 'हम लोगों को किरन की बड़ी चिन्ता है ,किरन की शादी कैसे होगी !अम्माँ तो बड़ी नाराज़ हैं ।'
'किससे ?'
'तुम्हारे पिता जी ने नकद नहीं दिया ।हम लोगों को पूरी उम्मीद थी बीस-पच्चीस हजार तो नकद देंगे ही ! उसे लगा कर किरन के हाथ पीले कर देते ।हम लोगों के पास है वह तो लगाते ही ।'
गीता चुप रही ।
'क्यों तुम्हारे पिता जी की आमदनी तो अच्छी है ,बड़ा भाई भी कमाता है ।अब तो ...।'
'खर्चा भी तो है ।हम दो बहनों की शादी की एक बहन अभी क्वाँरी बैठी है ।दोनो भाइयों की पढाई भी हुई ।राजन का इंजीनियरंग का खर्चा भी कम नहीं ।...।'
'हूँ...।'
कपड़े बदल कर समीर ने दो तीन चक्कर कमरे के लगाये फिर रेडियो आन कर दिया ।
'भइया ,बाबू बुला रहे हैं ,' छोटी ननद की आवाज आई ।
समीर फिर चला गया ।
गीता चुपचाप बैठी रही ।रेडियो में क्या रहा है ,कुछ समझ में नहीं आ रहा ।हाथ बढ़ कर स्विच ऑफ़ कर दिया उसने ।
**
सास कहती हैं चिन्ता के मारे उन्हें रात-रात भर नींद नहीं आती ।किरन तो ब्याह के लायक है ही ,कंचन भी कौन छोटी है -कैसे निपटेंगी दोनों !
बड़ी ननद तो शादी में मेहमानों के सामने कहने से भी नहीं चूकीं ,'बाबू ,तुमसे पहले ही कहा था ,सब तय कर लो ।नहीं माने । अब देख लिया न ?
ससुर ने गहरी साँस छोड़ी ,जवाब कुछ नहीं दिया ।उनका विचार था बड़ी लड़की शादी में चालीस-पचास हजार खर्च किये हैं ,और अब तो लड़का भी कमा रहा है ।नकदी तो देंगे ही ।
गीता के पिता ने पूछा था ,'आपकी मांग क्या है ?'
'हम क्या बतायें आपके भी क्वारी लड़कियाँ मेरे भी ।मुझे भी अपनी लड़कियाँ ब्याहनी हैं ।वैसे तो लड़कीवाला समर्थ्यभर देता है।मैंने भी बड़ी के ब्याह में सामान तो दिया ही बीस हजार नकद गिनवा लिये उनने।अब आप खुद ही समझ लीजिये ।मैं मुँह खोल कर क्या कहूँ !सामान के रूप में हमारी कोई माँग नहीं है ।'
पिता ने समझ लिया इनकी कोई मांग नहीं है और इनने सोचा पच्चीस हज़ार तो कह ही दिया है इससे कम की शादी क्या करेंगे !
पिता ने घर आकर माँ को बताया ,'उन लोगों को कोई लोभ नहीं है ।बड़े सज्जन आदमी हैं ।खुद लड़कियों के बाप हैं ,दूसरों की हालत समझते हैं।
सबसे अधिक खुश हुई थी गीता -कितनी भाग्यशाली हूँ मैं जो इतना अच्छा घर मिल रहा है ।दो क्वाँरी ननदें एख देवर ,खूब प्यार से हिल-मिल कर रहेंगे ।बड़ी बहू तो मैं होऊँगी ।ननदों के ब्याह ख़ूब अच्छे-अच्छे करूँगी,चाहे मेरा सारा जेवर ही चला जाय।सब कहेंगे ,'बहू हो तो ऐसी !'
पिता ने जतना कुछ हो सकाकिया था । नकद भी दिया था पर सिर्फ, दस हजार इन लोगों की आशा से बहुत कम ।
**
लेटे-लेट गीता को चैन नहीं पड़ रहा ।नींद जैसे आँखों से उड़ गई है ।समीर अभी तक नहीं आया साढ़े दस बज चुके हैं ।पता नहीं क्या बातें हो रही हैं ।ऊँह.. मुझे क्या ..मुझ पर तो सबके मुंह चढं रहते हैं ।
बड़ी ननद ने माँ से भी शिकायत की थी ,'मेरी मौसिया की भांजी के लिये कितना कहा था उन लोगोंने ..अम्माँ, तुमने नहीं माना ।घर भर जाता दस हजार नकद तो टीके में आते ।...कहीं बाबू मुँह खोल कर माँग लेते तो और भी मिलता ।किरन की शादी करके कंचन के लिये बचा रहता ।अरे, लड़की जरा साँवली ही तो थी ,इनने बड़ा उजाला कर दिया !
''क्या करें बिटिया ,किस्मत ही फूटी थी हमारी ।'
छोटी ननदों को भी भर गईं थीं वे ।इसी की वजह से उनकी शादी नहीं हो पा रही ..उन्हें अच्छे दूल्हे नहीं मिलेंगे ।बाबू को नीचा देखना पड़ेगा ।और भी जाने क्या-क्या ।पहले तो दोनों ने बहुत बेरुखी दिखाई थी ।देवर तो छोटा है ।
समीर कमरे में आया और अपने बिस्तर पर लेट गया ।गीता की हम्मत नहीं पड़ती कुछ भी पूछने की ।कहीं झिड़क दिया तो ! बताना होगा तो ख़ुद ही बतायेंगे ।
उसने उठ कर पानी पिया और लाइट ऑफ़ कर दी ।समीर को बड़ी जल्दी नींद आ जाती है ।गीता आँखें खोले अँधेरे को घूरती रही ।
**
सुबह का चाय-नाश्ता चल रहा था ।
गीता ने परांठे में घी चुपड़ कर चमचा कटोरी में रखा ही था कि सास पूजा के लिये चावल लेने आईं । सिर का पल्ला आगे खींचने की जल्दी में कटोरी टेढी हो गई ।घी छलक गया ।
'माँ ने ऐसे ही सिखाया है?'
'वाह, क्या हथरसिया स्टाइल है !'छोटे देवर की आवाज़ थी ।
ननदें खिलखिला कर हँसीं ।कभी किसी बात पर समीर ने हँसी की थी 'हथरसिया स्टाइल'
तब से यह विशेषण उसके हर काम के साथ जोड़ दिया जाता है ।
इन लोगों को मेरे सब काम अजीब लगते हैं ,गीता सोचती , आटा गूँधना ,रोटी बेलना ,यहाँ तक कि साड़ी पहनने और बिन्दी लगाने तक की आलोचना होती है ।बोलने के ढंग की तो .ये लोग हर समय नकल उतारते हैं ।
सास जी इन लोगों से कुछ नहीं कहतीं ,मैं जरा सा कुछ कह दूँ तो फ़ौरन टोक देती हैं ।हर बात में नीचा दिखाने की कोशिश !
पता नहीं मेरे करने से ही हर काम अजीब हो जाता है ।
उसे लगता है इस वातावरण में रहते-रहते वह भी असामान्य हो उठेगी ।
एक बार उसने हथरसिया की जोड़ का शब्द तौल दिया था ।किरन ने अपनी चुन्नी के किनारों पर तुरपन की थी ।एक तरफ़ सीधी ओर दूसरी ओर उलटी ओर ।गीता ने हँस कर कहा ,'ये क्या 'रायबरेलिया स्टाइल ' है ?
कंचन ताली बजा कर हँसी ,'अरे वाह ,भाभी ने क्या नया शब्द गढा ।'
किरन का मुंह चढ गया ,हाँ ,हम तो फूहड़ हैं ,अपने को जाने क्या समझती हैं !...से लेकर रोना -धोना तक हुआ ।
गीता मनाती रही पर अम्माँ से शिकायत किये बिना काम कैसे चलता !
'ननदों से बराबरी न करेंगी तो छोटी न हो जायेंगी ।एक बात भी उधार नहीं रखेंगी वो ।तमीज सिखा कर तो भेजा ही नहीं गया ।' और अंत में ,'जब तुम लोग जानती हो तुम्हें फूटी आँखों नहीं सहन कर सकतीं तो बोलने क्यों जाती हो ?'
गीता का मन विद्रोह से भर उठता - जवाब मुँह तक आता पर चुप रह जाती ।परिणाम जानती है वह ।शाम को बाहरवाले कमरे में सारी शिकायतें और उस पर टीका-टिप्पणी ।ससुर तो बहू से बोलते नहीं ,पर समीर डाँटता डपटता और चार-पाँच दिनों के लिये तनाव की स्थिति !
अगर गीता कभी अपनी बात कहे तो जवाब मिलेगा ,काहे को ध्यान देती हो ?इस कान सुनो उस कान निकाल दो ' वह अम्माँ को क्या समझाये ,वह तो वैसे ही खुश नीं रहतीं ।'
अम्माँ खुश नहीं रहतीं पर तुम भी तो असंतुष्ट हो ।वह कहना चाह भी कर नहीं कह पाती ।
कोई कुछ कहता है तो मुझ पर तो असर होता है ,गीता सोचती ,कहीं कोई छुटकारा है मेरे लिये ?कहाँ भाग जाऊँ निकल कर ?मायके जाने नहीं देंगे ।बाप-भाई आयेंगे तो उनका मुँह तक नहीं देखने देंगे ।अपमानित कर बाहर का बाहर वापस कर देंगे ।तीन बार भाई आये ,इन लोगों ने बैठाया तक नहीं ।खूब कहा-सुनी की और वे उल्टे पैरों लौट गये ।दो बार पिता आये उन्हें सास जी ने खूब जली-कटी सुनाईं ,अपनी लड़की तो ब्याह दी समधी जी ,अब अपना जी जुड़ाने आये हो हमारा तो जी जल रहा है ..जवान लड़कियाँ क्वारी बैठी हं ,कैसे पार होगा ?जाने कैसे फँस गये तुम्हारे यहाँ ।पच्चीस हजार तो नकद मिल रहे थे ,सामान अलग से ।..पर क्या करें किस्मत को ..।'
पिता सिर झुकाये खड़े रहते हैं ।वे कहती जाती हैं 'जैसा हमारे साथ किया भगवान खूब वदला देगा !हमें तो लूट लिया ऐसी कुलच्छनी टिका दी ।घर की हँसी-खुशी छीन ली ।अब अपनी बेटी देख जी ठण्डाने आया हैं ।हम तुम्हें भी नहीं देखने देंगे ,समधी जी ।'
साथ में लाया सामान वहीं रख ,पिता लौट गये ।उनके लाये सामान पर भी टीका-टिप्पणी होती रही 'ये देखो लाये हैं मरे कँगले कहीं के ...ये सूखी मिठाई ।अरे किसी कँगले को ही ब्याह देते अपनी बेटी ,हमारा लड़का ही रह गया था ।'
पड़ोसन ने कहा ,मिठाई में तो कोई खामी नहीं है जिज्जी , किनारे तो लाते-लाते भी हवा लग कर सूख जाते हैं ।'
'इस मिठाई को क्या सिर पर मारूं अपने ? मेरा तो जी जलता है ।मेरी बेटी का ब्याह कैसे होगा ?ऐसे ही ममता उमड़ती है तो ले जायें ।हमेशा को रख लें अपनी बिटया ।'
भेज क्यों नहीं देते मुझे मेरे मैके ?पर पर नहीं भेजंगे ये लोग ।दिन-रात काम करनेवाली ,बासी बचा खाना खाकर चुपचाप पड़ी रहनेवाली नौकरानी कहाँ मिलेगी इन्हें ? कहीं जाने नहीं देंगे ।..एक बार भेज दें तो मै कभी लौटकर न आऊँ ।
गीता के मन में तूफ़ान-सा उठने लगता -जब से आई हूँ एक बार भी मायके नहीं जाने दिया ।
गीता को बहुत याद आती है उन सब की ।दो सावन बीत गये ,यह तीसरा भी यों ही निकल जायेगा ।मेरी याद करते होंगे वे लोग भी ,नहीं तो बार-बार क्यों आते यहाँ ?मेरा ही मोह तो है जो अपमानित होने के बाद भी खीच लाता है ।
ताऊ जी का घर याद है गीता को ।रात के बारह-बारह बजे तक हम लोग खेला करते थे ।दो बहनें हम,एक ताऊ जी की ,और तीन पड़ोस की ।पता नहीं चलता था दिन-रात कैसे बीत जाते थे । होली पर नई भाभी की क्या गत बनाई थी !
कितनी जल्दी बीत गये वे दिन !
**
ससुरजी सुबह छः बजते-बजते मिल चले जाते हैं .उनके लिये सुबह उठकर पराँठा-सब्जी बनाना जरूरी है । बर्तन रात से ही माँज कर रख देती है गीता । कभी-कभी सुबह ऐसा बदन टूटता है कि उठने की बिल्कुल इच्छा ही नहं होती ,मन करता है फिर से मुँह ढक कर सो जाये पर कैसे ?अब तो वे भी खाना लेकर जाते हैं ।उसके बाद चाय-नाश्ते के कई राउंड चलते हैं । समीर ब्रश करके चाय पीता है ,ननदों को नाश्ते के साथ चाहिये ,सासको नहाने बाद फौरन देनी होती है ।समीर नौ बजे खाना खा कर निकल जाता है ,स्कूल जानेवालों को दस बजे चाहिये ,और सास तो एक डेढ के पहले खाती ही नहीं ।तभी गीता का भी खाना होता है ।फिर चार बजे से चाय का चक्कर शुरू ।
उस दिन पड़ोसिन चाची मैदा की चलनी मांगने आई थीं ।सास पूजा पर थीं सो गीता के पास खड़ी हो गईं।दो-चार इधर-उधर की बातें करके बोलीं ,'कैसी कुम्हला गई बहू ,यहाँ तुम्हारी कोई कदर नहीं ।ननदें साथ काम करवाती हैं या अकेली ही खटती हो ?'
सहानुभूति के बोल सुकर मन पिघल उठा ,'काम करना बुरा नही लगता चाची जी ,मुझे तो प्यार के दो बोल चाहियें ।'
'सोतो कोई ढंग सं नहीं बोलता ।मै तो दिन-रात सुनती हूँ ।बाप-भाई से भी तो मिलने नहीं दिया ....।'
गीता की आखों से आँसू टपकने लगे । इतने में किरन आ गई -रोते देख लिया ,जाकर अम्माँ से जड़ आई ।वे पूजा छोड़ कर आ गईं ।उस समय तो चुप रहीं ,पर बाद में जो कोहराम मचा ,तो शाम तक बकती-झकती रहीं ।शाम को पेशी हुई -बाहर के कमरे वाले न्ययालय में । आरोप लगते रहे गीता और उसके मां-बाप को कोसा जाता रहा ।धमकी भी मिली ऐसी बहू किसी और घर में होती तो मार-मूर कर ठिकाने लगा दी जाता ।
सभी कुछ एक तरफ़ा रहा ,पर ससुर के सामने बोल नहीं सकती ।तभी से किसी आने-जाने वाले से बोलना बन्द कर दिया गया ।मायके से चिट्ठी आती है ,उसे कोई नहीं बतलाता । जवाब कोई क्या देता होगा ,जब आने पर ही सीधे मुँह बात नहीं करते ।
शुरू-शुरू मे एकाध बार चट्ठी लिखने बैठी तो ननद झाँकने लगी ,'क्या लिख रही हो ,हम भी देखें जरा ।'
सास ने कहा ,'अपने बाप को लिख देना पच्चीस हजार से जो रकम बचायी ,वो चुका दें तब आगे की सोचें ।'
अपने आप लिखें यह हम्मत नहीं इन लोगों की ।
अभी शाम की चाय की तैयारी करनी है ।कौन बार-बार स्टोव का झंझट करे -मिट्टी के तेल का धुआं आँखों में और जलन पैदा कर देता है ।एक बार अँगीठी सुलगा लेती है गीता वह आराम से नौ-दस बजे तक काम देती है ।चाय के बाद उसी पर शाम के खाने का प्रबन्ध होने लगता है ।
चौके में कितनी घुटन है ।उठाऊ अँगीठी थी तब आराम था


सुलगा कर दरवाज़े पर रख आती थी ,अपने आप आग सुलग जाती थी ।अब तो वहीं चौके में बैठ कर धौंकना होता है ।बुरी तरह धुआँ भरता है ।आँखें घंटे भर करकराती रहती हैं ।कुछ महीनों से आँखों में करकराहट रहती है ,लगता है रोहे हो गये हैं ।किससे कहे गीता कि मुझे डाक्टर को दिखा दो ?
सोच रही थी कमरे में जाकर पसीना सुखा लूँगी ।पर वहाँ ननद और देवर रेडियो सुन रहे हैं ,कंचन का मेज़पोश कढ रहा है ।उन लोगों के सामने पल्ला खोल कर पसीना भी नहीं सुखा सकती ।दिन तो दिन गर्मी की रातें बल्कुल नही कटतीं ।उस छोटे-से कमरे में ही पड़े रहना होता है ।आंगन है ही कतना बड़ा ,फिर वहाँ ससुर सोते हैं ।छत बिल्कुल खुली है सास को पसंद नही ,अड़ोस-पड़ोस में सब कहेंगे बहू छत पर पसरी है।
घुर्र-घुर्र करती पंखे की हवा शीतलता के स्थान पर तपन फूँकती है ।परेशान होकर फ़ुल पर करो तो भाय़ं-भायँ के मारे बैठा नहीं जाता ।और बंद करने पर पसीने से बुरा हाल हो जाता है ।
पीठ,गर्दन ,कमर सब जगह अम्हौरियाँ ही अम्हौरियाँ ।लगता है बदन पका जा रहा है ।चौके में काम करते समय सुइयाँ-सी चुभती रहती हैं ।
पाउडर का डब्बा कब का खाली हो गया ।हफ़्ते भर पहले लाने को कहा था ,अभी तक नहीं आया ।समीर ले भी आये तो फ़ौरन सुनने को मिलेगा ,'भाभी के लिये कैसा चट् से ले आये !'
शुरू से तो लिहाज़ और दबाव के मारे कुछ किया नहीं अब मेरे लिये कुछ करने की इनकी हिम्मत नहीं है । गीता को लगता वैसे इनकी इच्छा भी नहीं होती ।नहीं तो क्या कभी कह नहीं सकते ,'हमलोग ज़रा घूमने जा रहे हैं ।'
वे क्या रोक सकती हैं इन्हें और कौनसा पैसा खर्च होता है इसमें , पर चाव भी तो हो किसी को !
**
कभी स्वप्न देखा करती थी - पूर्णिमा की चाँदनी से आलोकित दिग्दिगन्त !हरसंगार के फूल झर रहे हैं।गीता समीर के साथ घूम रही है ।सफ़ेद अमेरिकन जार्जेट की रुपहले तारोंवाली साड़ी ,सफ़ेद ब्लाउज़,और जूड़े में मोगरे का गजरा ।जैसे तैरती चली जा रही है ।
समीर कह रहा है ,'यह चाँदनी ऊपर से नीचे आ रही है या नीचे से ऊपर जा रही है ।'
इठला कर गीता बोलती है ,'वो देखो चाँद ऊपर है ।'
'साक्षात् पूर्णिमा तो मेरे साथ चल रही है ।'
पर रुपहले तारोंवाली साड़ी की तह कभी नहीं
हवा के एक-एक झोंके के लिये तरसना पड़ता है ।ये टेरेलीन -नायलोन की साड़ियाँ तो और मारे डालती हैं ।न पसीना सूखने दें न हवा लगले दें ।गर्दन और पीठ जरा खुल जाय तो सास के बोल सुनो ,'हमें क्या करना तुम चाहे नंगी होकर नाचो ।'
**
'भाभी तुम मेरा स्कूल का सेट पूरा करवा दोगी ?'
''साथ-साथ तो मैं करवा दूँगी ।अकेली कैसे करूँगी ?मुझे समय ही कितना मिलता है ,ऊपर से आँखों में रोहे खटकते हैं ।''
'तुम तो बहाना कर देती हो ।'
ननदों का कहना है - औरों की भाभियाँ तो उनका खूब काम करवा देती हैं ,और वह...।
दोनों की सहेलियाँ आती हैं तो कहती हैं ,'भाभी जी आईये न !'

वे चाहती हं भाभी उके साथ बैठे-बोले ।उसकी हिम्मत नहीं पड़ती ।सहज रूप से कुछ भी कहे और किसी को नागवार गुज़रे तो उसका तो जीना मुश्किल हो जायगा ।वे घर आने का निमंत्रण देती हैं तो न हाँ रहते बनता है न ना ।इसलिये कोई बहाना बना कर टल जाती है वहाँ से ।मन मचलता रहता है उनके स्कूल की बातें सुनने को ,अपनी कहने को ।
ऐसी ही नालायक हूँ मैं तो तलाक क्यों नहीं दे देते ? कर लें दूसरी शादी ,मुझे कसी तरह जीने तो दें ।
ये लोग क्या चाहते हैं मेरी मौत ?
एक बार सास भुनभुना रहीं थीं 'मर भी तो नहीं जाती ,छुट्टी हो ।'
मुझे मारना क्यों चाहते हं गीता समझ नहीं पाती ।वैसे ही निकाल दें घर से मायके भेज दें ।कह दें वह भाग गई ,हम नहीं रखेंगे ।
पर कुछ होता कहाँ है ।
**
आज किरन को देखने लोग आ रहे हैं ।।
सुबह से दम मारने की भी फ़ुर्सत नहीं मिली ।तीसरे पहर सास जी ने कहा ,'क्या मनहूस शकल बना रखी है ।ज़रा ढंग के कपड़े-अपड़े बदल लो ।चार लोग आयेंगे तो क्या कहेंगे ?'
गीता अपने कमरे में चली गई ।
उफ़ , कितने बाल टूटते हैं !कैसी मोटी-मोटी दो चोटी बनाती थीं ।अब कितने हल्के रह गये हैं ।
गीता को याद आया वह दूसरों की पतली-पतली चुटिया देक हँसा करती थी ।एक बार पड़ोस की बिन्दो को देख उसने कहा था ,'कैसा चेहरा बनाया है ।धँसी-धँसी आँखें ,पीले-पीले गाल दाँत भी निकले-निकले लगते हैं ।कैसी हो गई है बिन्दो दीदी ।'
जवाब दिया था अम्माँ ने ,'ससुराल में बड़ी दुखी है बेचारी !दो सौतेली लड़कयाँहैं ,ऊपर से बुढ़िया सास ।जीना मुश्किल कर रखा है ।आदमी कहीं निकलने नहीं देता ।मुझे तो तरस आता है देख कर ।'
आदमी अधेड़ था बिन्दो दीदी का ।शक के मारे किसी से बात तक नहीं करने देता था ।लड़कियाँ बात-बेबात शिकायत करती रहती थीं और वह इसे पीटता था ।उसने यह फैला रखा था मायके में किसी से आशनाई है ,सो यहाँ रहना नहीं चाहती ।'
फिर साल बीतते-बीतते ख़बर आ गई - खाना बनाते सिन्थेटिक साड़ी ने आग पकड़ ली ,बिन्दो जल कर मर गई ।
कैसी विकृत हो गई थी उनकी वह सुन्दर युवा देह !फफोलों से भरा अधजला मुँह ,नाक- आँख किसी का आकार स्पष्ट नहीं रह गया था ।अम्माँ देख कर आईं थीं औऱ दो दिन ठीक से खाना भी नहीं खा पाईं थीं ।
उनका ध्यान आते ही मन जाने कैसा हो उठा ।
रोज़ ही अख़बारों में आता है - किसी ने मिट्टी का तेल उँडेल कर आग लगा ली ,कोई कुएं में डूब मरी ,किसी ने ज़हर खा लिया ,कोई फाँसी लगा कर मर गई ।पता नहीं आज कल इन्हीं ख़बरों पर मेरा ध्यान इतना क्यों जाता है !गीता सोचती -मैं भी क्या ...नहीं ,नहीं ।मैं मरना नहीं चाहती ।मुझे मौत से डर लगता है ।
मरने की कल्पना गीता को दहला देती है - इतनी बड़ी दुनिया में क्या मेरे लिये कहीं जगह नहीं है !
अचानक शीशे में उसे अपने चेहरे की जगह बिन्दो दीदी का अधजला चेहरा नज़र आने लगता है ।वह भयभीत हो उठती है ,नहीं मैं आत्मृहत्या नहीं करूँगी ।मुझे तो ज़िन्दा रहना है ।मुझे यह संसार अच्छा लगता है - बहुत सुन्दर ,रमणीय !'
खूब सँवार-सँवार कर जूड़ा बनाया गीता ने ।क्रीम ,पाउडर ,बिन्दी ,शादी में सब मिला था । फिर शृंगार का मौका ही कितनी बार मिला !
मन लगा कर शृंगार किया उसने ।किरन को भी बुला कर तैयार किया ।
किरन खूब अच्छी लग रही है ।गीता ने अपनी लाल बार्डरवाली बनारसी साड़ी पहनाई है,माथे पर छोटी-सी बिन्दी ,कान में झाले ।सास सराहना से देख रही हैं ।आगन्तुकों की आँखें में किरन के लिये प्रशंसा स्पष्च दिखाई दे रही है ।
सबको लगा अब स्वीकृति मिलने में देर नहीं है ।पर बाद में -गोबर हो गया ।
लड़के के बाप ने कहा ,'यों तो और भी अच्छे-अच् रिश्ते आये थे ,पर हमें आपकी लड़की पसंद है ।वैसे एक बात बता दूँ -एक और रिश्ता आया है और वे बीस हजार देने को तैयार हैं -अब आप जैसा कहें ।'
बीस हजार नकद ?माने पैंतीस -चालीस हजार की शादी ! इतना कहाँ है हमारे पास !
बात वहीं खत्म हो गई ।किरन का दमकता चेहरा बुझ गया ,गीता उदास हो गई ,घर में फिर मनहूसियत छा गई ।
उस रात समीर ने कहा था ,'तुम्हारे पिताजी किसा तरह दस हजार का इन्तज़ाम कर दें ,तो सब ठीक हो जाये ।दस हजार पहलेवाले बीस हजार । हम लोग और बाकी का इन्ताम कर लेंगे । '
मायके की हालत जानती है गीता ।पिताजी अब तक इस शादी का उधार चुका नहीं पाये होंगे ,फिर छोटी बहन की भी तो होनी है ।
'मुझे तलाक दे दो ।मैं कुछ नहीं कहूँगी ।दूसरी शादी कर लो वहाँ से मिल जायेगा ।'
' कैसी बेवकूफ़ हो तुम ! अपने बाप से माँगना इतना बुरा लगता है ?'
'मैं जानती हूँ वह नहीं दे पायंगे ,तब मैं क्यों कहूँ ?और उनसे माँगने का अधिकार ही क्या है किसी को ?'
'उन्होंने ही तो दुभांत की ।तुम्हारी बड़ी बहन की शादी में तो पच्चीस हजार नकद दिये थे ...।'
'..तो जेवर और सोना बिल्कुल नहीं दिया था ।उनसे पहले ही तय हो गया था ।उनने कहा था हमारा लड़का एम.एस सी .है,अच्छी नौकरी मैं है ।बीस हजार दे दो और कुछ करो चाहे न करो ।और तभी साझे का मकान बिका था उसके रुपये भी मिले थे ..।'
' साझे के मकान में बड़ी का हिस्सा था ,मँझली का नहीं ?जीजाजी तुम्हारे एम.एस सी. अच्छी नौकरी में हैं ,तो मैं नालायक हूं ?मैं बी.एस .सी हूँ तो काहे को आये थे नाक रगड़ने ?...हाँ मैं ते गँवार हूँ नकारा हूँ ...!'
'मैं यह कब रही हूँ ?'
'और क्या कह रही हो ?ज़बान तो ऐसी चलती है क काट कर फेंक दे ...।'
समार की ऊँची आवाज़ सुन कर जाने कब सास और ननदें दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गई थीं ।
सास कहे जा रहीं थीं ,'हमारा लड़का नालायक है ।मरी जाने कहाँ की तोहमत हमारे सिर डाल दी ।कीड़े पड़ेंगे सुसरों के ..।'
'ऐसे मत कहो !'गीता चीख उठी ।
'चीख रही है औरों को सुनाने के लिये कि हम मार रहे हैं ।हाँ हाँ, मैं तो कहूँगी ।क्या कर लेगी तू मेरा ?कोढ फूटेगा उनके गल-गल कर मरेंगे अभागे ...।'
गीता सब कुछ भूल गई ,मुँह से अपने आप निकलने लगा ,'मुझे मार लो ,मेरे माँ-बाप को मत कहो ।तुम भी तो माँ-बाप हो ,तुम्हें कोई ऐसे कहे तो ...।'
' हमें ऐसे कहेगी ,सुसरी !सूअर की औलाद !'
दोनों एक साथ चिल्ला रहे हैं ,ये तो हाथ चलाने पर उतारू है !'
गीता का दिमाग गर्मा हो उठा,' ...वो खड़ी उकसा रही हैं बेटे को अपने ...'बहुत दिनों से बँधा हुआ बाँध टूट पड़ा ,'मैं सूअर की औलाद हूँ और तुम ?उस सूअर से भी गये-गुजरे हो ,जिसकी जूठन के बिना अपनी औलाद को नहीं ब्याह सकते ।'
एक झन्नाटदार थप्पड़ !
गीता का संतुलन बिगड़ गया ।वह गिर पड़ी ।सिर से कुछ टकराया ऊँची-ऊँची ,मिली जुली आवाज़ें वातावरण में तैरती रहीं ।गीता फिर नहीं बोली निश्चेश्ट पड़ी रहा ।
किरन आगे बडी ।
'सुसरी मक्कर साधे पड़ी है ,चल किरन इधर ..।'
सब लोग कमरे में चले गये हैं ।
**
हमारी तरफ़ एक वैद्य जी दौरों की बड़ी अच्छी दवा देते हैं ,जिज्जी !'
पड़ोसन बोलते-बोलते आँगन में आ गई है -
'बहू को दिखा दो हफ्ते में चंगी हो जायगी ।'
गीता आँगन में नल पर दाल धो रही थी ।
'क्यों बहू , तुम्हें कबसे दौरे पड़ते हैं ,मायके से ?'
'मुझे ?,मुझे तो कभी दौरे नहीं पड़ते ।'
विस्मित -सी गीता ने सास की तरफ़ देखा ।उन्होंने कुछ जवाब नहीं दिया ,मुँह फेर कर कमरे में घुस गईं ।
'अरे कल रात ही तो दौरा पड़ा था ।चीख की आवाज़ सुन के हमने झाँका ,तो देखा तुम गिरी पड़ी थीं ।'पड़ोसन माथे के गूमड़ की ओर इशारा करती है ,'ये सिर में पलँग के पाये से चोट लगी है ।सब लोग यहीं थे तब जिज्जी ने बताया ,बहू को दौरा पड़ा है ।'
'मुझे नहीं मालूम !'
गीता दाल लेकर चौके में चली गई ।
पड़ोसन संदेह भरी दृष्टि से देखती रही ।
पट्टा बिछा कर गीता धप्प से बैठ गई - घूमते हुये सिर को दोनों हाथों से पकड़ लिया ।भूल गई चौके मे क्या करने आई थी ...जलती हुई अँगीठी को लगातार घूरे जा रही है ।
दरवाज़े पर कोई आया ।गीता को किसी का ध्यान नहीं ।
'भाभी...'
उत्तर देने की सुध किसे है !
'भाभी ,तुम्हें क्या हो गया है ?तुम जाओ दाल मैं चढ़ा दूँगी 'किरन की आवाज़ है ।
'मुझे कुछ नहीं होगा ।मैं मरूंगी नहीं ।तुम लोग चाहे जो करो ।'
किरन बहुत उदास है ।अनुनयपूर्ण दृष्टि से गीता की ओर देख रही है ।
'मेरी वजह से ये सब हो रहा है ।मैं मर जाऊं तो छुट्टी हो ।' किरन की आँखों में आँसू हैं ।
गीता ध्यान से उसे देख रही है ।किरन का सारा दर्प समाप्त हो गया है ।गीता को वह बड़ी अपनी-सी लगी ।
किरन गीता को ज़बर्दस्ती उसके कमरे में छोड़ आई ।वह सोचती रही -पड़ोसिन चाची मुझसे यह सब कहने क्यों आईं ?शादी में भी इन्हीं ने उकसा-उकसा कर खूब मज़ा लिया था ।हँस कर बोली थीं ,'काहे जिज्जी ,वो संदूक कहाँ है जिसमें रुपैया भरा है ?हमारा हस्सा निकालो ।'
जल-भुन कर सास बोली थीं ,'हाँ,हाँ खूब आया है ।हमने गाड़ के रखा है ।...सब छाती पे रख के ले जायेंगे सुसरे ।कुछ भी तो नहीं दिया मरों ने ।बातें तो खूब बड़ी-बड़ी करते थे ।पूछते थे -क्या माँग है आपकी ?माँग सुन ली तभी साफ़ कह देते ...ऐसा धोखा खाया है हमने ...।'
सास बकती-झकती रही थीं ।बड़ी ननद और पड़ोसन आग में घी डालती रहीं ।गीता चुपचाप रोती रही ।
किरन ने तो अपने लिये कहा था 'मर जाऊँ तो छुट्टी हो' पर गीता को लग रहा है यह भी कोई ज़िन्दगी है !
ससुराल ऐसी होती है ?मैने कभी सोचा भी न था ।माँ तो बात-बात पर कहती थीं --और थोड़े दिन सबर करो ,ब्याह हो जाये तो सारे शौक पूरे करना ।
तब 'ससुराल' शब्द मन में शक्कर-सी घोल देता था ।जाने क्या-क्या आकर जुड़ जाताथा इस एक शब्द के साथ ।
देखा भी तो था उसने ऐसा ही ।सजी-सजाई दुल्हनें ! एक दूसरी को छेड़ना ,खिलखलाना ,पति के नाम से पुलक उठना भेद भरी हँसी से प्रकाशित चेहरे ..और एक दो वर्ष बाद मातृत्व की गरिमा से मंडित हो पूर्णता पा लेना ।
बड़े भाई का ब्याह नहीं हुआ था तो क्या ताऊ जी के घर महीनों रही थी वह ।टिल्लू दादा की शादी की अच्छी तरह याद है ।
नई बहू को ऊपर के कमरे में ठहराया गया था ।लड़कियाँ उसे बराबर घेरे रहती थीं ।छोटी बुआ ने कई बार टोका -रात भर की जगी है वह ,सुबह से भी सफ़र के बाद बैठी की बैठी है ,थोड़ी देर उसे आराम करने दो ।तुम लोग दरवाज़ उडका के चली आओ ।
बड़ बेमन से वे लोग नीचे आई थीं पर कहाँ चैन पड़ता ।घंटे भर बाद से ही फिर चक्कर लगने लगे ।उन बहनों ने तय किया टिल्लू दादा की भाभी से पहचान करायें ।
दादा सो कर उठे थे ।बहुत कहने-सुनने पर किसी तरह ऊपर आये ।
बिनी ने जाकर दरवाज़ा पूरा-का-पूरा खोल दिया ।एक पूरा दृष्य सामने आ गया --
फ़र्श की दरी पर अपनी बाँह का तकिया लगाये नई दुल्हन निश्चिन्त सोई थी ।मुँदी हुई पलकें ,माथे का पल्ला खिसका हुआ ,सिन्दूर से खूब भरी दमकती माँग के दोनों ओर कुछ लटें माथे पर बिखरी हुई ,ज़रा टेढ़ी हो आई बिन्दी ,कान का झाला गाल पर झिलमिलाता हुआ !
गोरे-गोरे मेंहदी रचे ,कंगन चूड़ियों से भरे हाथ और महावर लगे पायल बिछुओं से सजे टखनों तक खुले एक दूसरे पर रखे सुन्दर पाँव !
अभिभूत-से सभी कुछ क्षण खड़े रह गये ।
बिनी आगे बढ़ी ,'आभी जगाती हूँ ।'
दादा ने हाथ बढ़ा कर रोक दिया - 'नहीं,नहीं मत जगाओ !सोने दो उसे ।'
और लौट कर सीढियाँ उतर गये ।
चाय के समय गीता ने कहा ,'भाभी टिल्लू दादा आपसे मिलने आये थे ।'
'अच्छा कब ?'वे विस्मय से बोलीं ,'मुझे पता ही नहीं लगा ।'
'आप तो बेखबर सो रही थीं ।'

'मायके में चार-पाँच दिनों से बिल्कुल नींद नहीं आई थी ।भीतर ही भीतर जाने कैसी घबराहट-सी लगती रहती थी ।यहाँ आप लोगों को पा लगा जैसे बड़ा पुराना संबंध हो ।फिर तो ऐसी गहरी नींद आई कि बस!
टिल्लू दादा के आने का मुझे पता ही न चला ।पर आपने जगा क्यों नहीं दिया ?' वे बड़े भोलेपन से बोलीं ।
हम लोग मुस्कराईं ,'वे कहने लगे मत जगाओ ,थकी है सोने दो ।'
दूसरे दिन हमलोगों ने शैतानी से पूछा था ,'फिर टल्वू दादा मिले ?'
भाभी झेंप गईँ बोलीं ,' आप लोग सोचती होंगी ,यह कैसी बेशरम है ।सच बीबी जी ,मुझे पता ही नहीं था किसका घर का क्या नाम है ।तभी तो ..।'
'हम समझ गईँ थीं तभी तो किसी से कहा नहीं ।'
'ऐसी प्यारी ननदें भगवान सब को दे ।और कहीं कोई होती तो सारे घर में पूर आती ।।हल्ला मच जाता -बहू कितनी बेहया है ।मैं तो पाँव धो-धो कर पिऊँ ..।'
नई भाभी अन्हें अपनी प्यारी सहेली-सी लगी थी ।थी भी बराबरी की ही बहुत होगा दो-एक साल बड़ी होगी ।साथ काम करना ,साथ रहना ,खूब मज़ा आता था ।ताई जी का मिजाज़ जरा तेज था पर हम लोग भाभी को बराबर बचा ले जातीं ।
जाने कितनी बार भाभी की अनभ्यस्त उँगलियों से गिरे बिछुये उन्हें चुपके से ले जाकर दिये थे ।बिस्तर पर छूटी हुई उनकी ढीली पायल दादा बहनों को पकड़ा जाते यथास्थान पहुँचाने के लिये ।बाद में तो ताई जी भी हर बात में कहने लगीं थीं 'अब तुम ननद भौजाई जानो मुझे क्या !'
मोगरे का गजरा भाभी को पसंद है ।दादा से फ़रमाइश की जाती ।वे सब के लिये लाते ।चाँदनी रातों में वेणी में गजरे सजते .छत पर महफ़िल जमती और आधी-आधी रात तक गाने होते ।
ताई टोकतीं 'नई बहू को छत पर देख कर लोग क्या कहते होंगे !'
उन्हीं की लड़की जवाब देती ,'जैसे सारी दुनिया तुम्हारी बहू को ही देखती रहती है 1अरे इत्ती सारी हम लोगों में ,क्या पता उन्हें नई बहू कौन सी है !'
और भाभी को सिर खोल कर बिठाया जाता -खुली हवा उन्हें भी तो चाहिये ।कल तक मैके में सिर खोले घूमती होंगी ।'
उन्हें आश्वस्त कर दिया जाता -
'तुम आराम से बैठो भाभी ,कोई बड़ा आयेगा तो हम बता देंगी ,तुम घूँघट कर लेना ।'
जाने कितनी बातें ,जो अम्माँ से नहीं कहीं ,पूरे मन से भाभी को बताई हैं ।
ससुराल की यही कल्पना गीता ने सँजोई थी ।
पर यहाँ सबने अकेला छोड़ दिया है ।कोई अपना नही लगता सब विरोधी है ।'
'ये 'भी तो कुछ मीठी स्मृतियों की सौगात नहीं दे पाये जो दोनों के हृदयों को जोड़ पाती ।गीता सोचती है -कैसे इन्हें अपना कहूँ !
मुझे कुछ नहीं चाहिये ।बस इनका प्यार और सबका सहज व्यवहार ।इसमें किसी का कुछ खर्च नहीं होगा और मेरा मन सुख-शान्ति से भऱ जायेगा ।मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं रहेगी ।पर गीता के सोचने से क्या होता है !
ये चाँद से सजी रातें मुझे अच्छी लगती हैं ।पूरे आसमान की चाँदनी मेरी न सही ,खिड़की से झांकनेवाली थोड़ी-सी किरणों से ही संतोष कर लूँगी ।मायके जैसा ये नीम का पेड़ मुझे सावन का संदेश दे देगा ,और सकोयल की कूक सुन कर मैं समझ लूँगी वसन्त आ गया है ।।पतझर के सूखे पत्ते तो खिड़की से ही आ-आ कर कमरे में बिखर जाते हैं ।।
पर इन सबके लिये जो मनस्थित चाहिये बस वही नहीं मिलती ।हँसी-खुशी भरे कुछ प्रहर इस झोली में डाल दो ,तो जीवन की कटुताओं पर शीतल प्रलेप हो जाये ।
कभी-कभी मन ऐसी कड़वाहट से भर जाता है कि जीवन असह्य लगने लगता है ।फिर भी उसकी मरने की इच्छा नहीं होती ।यह संसार अच्छा लगता है ।जीवन के आनन्द को भोगने की चाह है ।दुःख ,दुविधा और आतंक से रहित जीवन जीने की कामना बार-बार उसके मन में जाग उठती है ।
बालों की बिखरी लटें समेटते हुये हाथ जोर से छरछरा उठा - कल कद्दूकस से छिल गया था ।ज़रा नमक-मसाले छू जाये तो बहुत लगता है ।किसी से कुछ कहा नहीं गीता ने नहीं तो फिर कुछ सुनने को मिल जाता ।
समीर की शर्ट में बटन टाँकते सुई उसी छिले पर जा लगी ,मुँह से 'सी' निकल गया ।
'क्या हुआ ?'
'कद्दूकस से हाथ कस गया था ।'
'देखें ,' समीर ने हाथ पकड़लिया ,'कुछ लगा नहीं लिया ?"
गीता कुछ क्षण उसके चेहरे को देखती रही ,फिर अचानक पूछ बैठी ,'तुम मुझे मेरे मायके भेज सकते हो ?'
'मैं कुछ नहीं कर सकता ।'
मुझे कुछ हो जाये तो जम्मेदारी तुम्हारी है न ?
'मेरी क्यों ?और बड़े लोग हैं घर में ...मैं कैसे हर बात का जिम्मा ले सकता हूँ ।तुम भी सब देखती हो ,फिर भी कैसी अजीब बातें करती हो ।'

इनका व्यक्तित्व भी कितना दबा हुआ है ।अपने मन से कुछ नहीं कर पाते दूसरे क्या कहेंगे यही सोचकर उचित का समर्थन नहीं कर पाते ।और मैं कितना भी कुछ भी करूँ ,किसी की नज़रों में उसकी कोई कीमत नहीं -गीता ने ठंडी साँस ली ।
शरीर क्लान्त और मन संतप्त होता है तो बोलने की इच्छा नहीं होती ।मन करता है खूब खरी-खोटी सुनाऊँ और जी की जलन कुछ शान्त करूँ ।
गीता को लगता इस सब के लिये उत्तरदायी समीर को होना चाहिये ।मेरा ब्याह तो इनसे हुआ है ।बाहर से आकर जरा-सी देर को मेरे पास हो जायें फिर चाहे फौरन ही चले जायें ।ज़रा सा महत्व मुझे दे दें तो घरवालो के व्यवहार पर बहुत असर पड़े ।पर ये तो खुद ही असंतुष्ट हैं ।इनकी दृष्टि को देख कर ही घरवालों का मेरे लिये व्यवहार निर्धारित होता है ।पर वह अपनी व्यथा किससे कहे ?सुनेगा-समझेगा कौन ?

कभी-अचानक उसे लगता चारों ओर हरियाली और प्रकाश से भरा संसार नहीं ,सुनसान धूसर असीमित रेगिस्तान फैला हुआ है ।मन करता भाग जाये यहाँ से निकल कर ।पर कहाँ ? दुनिया के सारे दरवाज़े तो बंद हो गये हैं ।
ये चीं-चीं की आवाज़ कहां से आ रही है ?गीता कमरे से बाहर निकली ,देखा चिड़िया का एक बच्चा नीचे पड़ा है ।
बरामदे के ऊपरवाले रोशनदान में चिड़ियों के एक जोड़े ने अपना घोंसला बना लिया है ।अब तो उनमें नन्हें-नन्हें बच्चे भी दिखाई देने लगे हैं ।चड़िया चोंच में कुछ लेकर आती है तो पूरी की पूरी चोंच खोल कर आगे बढ़ आते हैं ।फर उनकी आवाजें जैसे छोटी-छोटी घंटियाँ लगातार टुनटुना रही हों ।उन्हीं में से एक बच्चा नीचे आ पड़ा है ।
उसने पास जाकर देखा - अभी तो पंख भी नहीं जमे हैं ।गुलाबी-गुलाबी ,मुलायम -सी नन्हीं देह सहमी-सकुड़ी बैठी है ।
ऊपर मुँडेर पर बैठी चिड़या चिचिया रही है ।
पता नहीं कब से पड़ा होगा !!वह चम्मच में पानी ले आई -शायद पी ले ।पुचकार की आवाज़ सुन कंचन बाहर निकल आई ।
'भाभी ,यह चिड़िया का बच्चा कहाँ से ले आईं ?'
पानी उसकी चोंच से लगाते हुये वह बोली ,'ऊपर घोंसले से गिर पड़ा है ।'
पकड़ने के लिये बढ़ाया हुआ कंचन का हाथ हटा कर गीता कह उठी ,'ना,ना छूना मत !फिर चिड़िया उसे लेगी नहीं ।'
चिड़िया तो उठा नहीं पायेगी उसे ।यहाँ कहीं बिल्ली खा गई तो ..?'
प्लास्टिक की जालीदार टोकरी लाकर बच्चे को ढाँक दिया गया और डबलरोटी की चूर के साथ पानी भीतर खिसका दिया गया ।
गीता जानती है बच्चा बचेगा नहीं ।
उसके भीतर कहीं कुछ चटक कर टूट गया ।
**
आज कल तबियत बहुत गिरी-गिरी-सी रहने लगी है ।दाल की महक सहन नहीं होती ,देख कर उबकाई आती है ।गीता को लगा फिर कुछ दिन चढ गये हैं ।
समीर को पता चलने पर बोला ,'डाक्टर के पास चलना इन्तज़ाम हो जायेगा ।'
वह काँप उठी ।एक बार भुगत चुकी है ।तब शादी को पांच महीने हुये थे ।उन दिनों ममिया सास आई हुई थीं ,गीता की तबियत ठीक नहीं रहती थी ।सुबह-सुबह मितली आती और कुछ खाते ही उलट जाता ।
सास अपनी भौजाई से बोलीं ,'क्या जमाना आ गया है !साल पूरा होने के पहले ही बच्चा हो जायेगा !इन लोगों को तो कुछ शरम नहीं ,मुझे तो मोहल्ले में जवाब देना मुश्किल हो जायेगा ।'
'क्या करें बीबी ,कुछ अपना बस तो है नहीं ।दोनों की उमर है ।तुम रोक लोगी क्या ?'
'एक झंझट से छुट्टी महीं मिली ,ये दूसरा सिर पे आ गया ।...कोई पूछे इनसे आगे क्या होगा !'
गीता वहीं बैठी थी उठ कर अपने कमरे मे चली गई ।
तीसरे पहर मामी जी आ कर उसके पास बैठीं और सहानुभूति दिखाते हुये अपनी सलाह दे गईं ।
और गीता समीर के साथ डाक्टर के पास हो आई ।
परिणाम कई महीने भुगतना पड़ा था ।शरीर और मन दोनो अवसन्न-से हो गये थे ।कमज़ोरी इतनी लगती कि उठ कर खाड़ी होने की हिम्मत नहीं पड़ती ।डाक्टर ने कुछ इन्जेक्शन भी बताये थे ,पर इसका ध्यान ही किसे था - खान-पान की बात तो बहुत दूर की थी ।ऊपर से सातवें दिन से रोज़मर्रा के काम शुरू ।बैठ कर पोंछा देने और आटा गूँदने में तो जैसे जान ही निकल जाती ,लगता कोई नाखूनों से भीतर ही भीतर खरोंचे डाल रहा है ।जरा झटका लगते ही ,लगता पेट की नसें खिंच कर टूट जायेंगी ।बार-बार गला सूखता ,बार-बार प्यास लगती और जल्दी-जल्दी बाथरूम जाना पड़ता ।एक-एक कदम ऐसा लगता जैसे पहाड़ लाँघ रही हो ।
दोनो ननदें स्कूल चली जातीं ,सास नहा कर पूजा पर बैठ जातीं ।काम और कौन करता ?गीता के दिमाग में एक साथ यह सब घूम गया ।
' शाम को तैयार रहना ,'समीर ने फिर कहा ।
' मैं अब डाक्टर के पास नहीं जाऊंगी ।'
' तुम समझती क्यों नहीं ?अभी सबसे बड़ा काम किरन की शादी है ।'
' ऐसा ही था तो शादी क्यों की थी तुमने ?'
वह समझाने लगा ,'हम लोग अभी इस लायक हैं क्या ?घर के खर्च और बढ़ जायेंगे ।मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा तो सब लोग क्या कहेंगे ? '
गीता ने 'हाँ' नहीं कहा ।
वह बार-बार सपने देखती है -- एक हँसता किलकता बच्चा उसके पास लेटा है ,हाथ-पाँव फेंक रहा है ।कभी देखती आँचल पकड़ कर खींच रहा है ,गोद में आने को लपकता है ,रोता है ।
जरा भी झपकी लगती यही सब दिखाई देता ।'वह मेरी गोद में आने को मचल रहा है और ये डाक्टर के पास ले जा रहे हैं ।'
पिछली बार नर्स ने कहा था ,' शुरू-शुरू में ये सब नहीं कराना चाहिये नहीं तो बाद में भी हर बार गड़बड़ हो जाता है ।'
वह तो मेरा होगा ,मेरा अपना समझेगा । रोयेगा तो मेरे लिये ,चाहेगा तो मुझे ।उसे गोद में लेकर मैं सारी दुनिया से लड़ लूँगी ।यह सूखा रेगिस्तान फिर सरस-सुन्दर हो उठेगा ।थपकी देकर सुलाऊंगी ,लोरी गाऊंगी ,आँचल से ढक कर दूध पलाऊँगी ,जैसे मंजू भाभी पिलाती हैं ।
आखिरी बार टिल्लूदादा और मंजू भाभी को अपने ब्याह में देखा उसने । इस बार भाभी की गोद में गोरा-गुदगुदा सुन्दर-सा बच्चा था -बड़ा प्यारा । भाभी का अधिकतर समय मुन्ने की साज सम्हाल में ,उसके पास ही बीतता था ।
उस दिन भाभी जयमाल की साड़ी में किरन टाँक रहीं थीं , इतने में दादा आये -- 'मंजू,मुन्ना कहाँ है ?'
दूध पीना छोड़ किलकता हुआ मुन्ना भाभी की गोद से उनकी ओर लपका ।भाभी के हाथ की सुई उन्हीं की उँगली में जा चुभी ।
' देखी अपने बेटे की करतूत ?'भाभी ने उलाहना
दादा ने मुन्ने को उठा लिया ।दूध से भीगे होंठ अपने हाथों से पोंछते बोले ' उसे लेकर ऐसा काम तुम्हें करना ही नहीं चाहिये ।'
भाभी की मानभरी और दादा की नेहभरी दृष्टियाँ मिलीं ,वे मुन्ने के लेकर बाहर चले गये ।
**
बार-बार समीर डाक्टर के पास जाने की याद दिलाता ,कहता ,'अबकी बार पूरी सम्हाल होगी ।अम्माँ से मैं खुद कहूँगा और सब करवाऊँगा ।'
हूँ !अम्माँ से कह देंगें ,और अम्माँ ने कर दिया !
इतने बड़े होकर क्या अम्माँ -अम्माँ लगाये रहते हैं ।ऐसे ही बोलने की हिम्मत पड़ती तो बार-बार एबॉर्शन की नौबत नहीं आती ।गीता झुँझला उटी है ।
वह जानती है -यह सब झूठ है ,बहकावा है -कोई कुछ नहीं करेगा ।मेरे गर्भ के जिस बच्चे से ये मुझ वंचित करना चाहते हं,उसे फिर कभी लाकर मुझे लौटा पायेंगे ?अब मुझे बिल्कुल साफ़ कह देना है 'एबॉर्शन नहीं करवाऊंगी !'
वह सोचती इन्हें काहे की कीमत चाहिये ?मेरी जिन्दगी की या बच्चे की ?अगर इस लायक नहीं थे तो शादी क्या सिर्फ़ दहेज के लिये की थी ?
यह सब अगर इनसे कहूँ तो क्या ये मुझे मारेंगे ? क्या हाथ उठाने को तैयार नहीं हुये कभी ?
मैं भी कहूँगी -मारो और क्या कर सकते हो ? मेरा यहाँ है ही कौन जो बचायेगा ? सब तुम्हारा साथ देंगे । पिछली बार फैला दिया था दौरे पड़ते हैं ,अबकी बार सब मिल के जला देना । कह देना -नायलान की साड़ी ने आग पकड़ ली ।दूसरी शादी से तुम्हें बहुत दहेज मिल जायेगा ।
बाहर से बोल-चाल की आवाज आ रही है ।
'आज रमाकान्त मिले थे ..।'
बड़े भाई का नाम सुन कर गीता चौकन्नी हो गई ।
सास ने पूछा ,'कहा?'
'हमारे रास्ते में ,' समीर ने कहा,'मुझे लगा जैसे मिलने के लिये खड़े इन्तार ही कर रहे थे ।'
'इतनी बार दुत्कार चुके फिर भी मरों की हिम्मत पड़ जाती है ।'
'कह रहे थे माँ काफ़ी बीमार हैं गीता को बहुत याद करती हैं ।...न हो बाज़ार में ही एक बार दिखा दो ।बहुत ज़िद करती हैं वो ..।'
'हाँ,हाँ !छोड़ आओ न।दूध टपक रहा होगा उनकी अम्माँ का । ऐसा ही प्यार था तो रखे रहतीं घर में ,हम तो पाँव पड़ने गये नहीं थे ।...तुमने क्या कह दिया ?'
'मैने कहा -जब अम्माँ बाबू ने कह दिया तो आप लोग बेकार परेशान होते हैं ।हम कुछ दुख तो दे नहीं रहे हैं आपकी बहन को ।और अब तो जिम्मेदारी हम लोगों की है ।'
'और क्या ?सोचते होंगे दमाद को अपनी तरफ़ फोड़ लें ।पर हमारे यहाँ के लड़के अभी तक तो ऐसे नहीं कि खुद-मुख्तार बन बैठें ..आगे की भाई, कुछ कही नहीं जा सकती ।'
गीता सुनती रही ।उसे लगता रहा माँ बीमार हं ,वे तो वैसे ही काफी कमज़ोर थीं ।मेरी चिन्ता उन्हें चैन नहीं लेने देती होगी ।
मन के भीतर कुछ बार-बार कचोटने लगता है ।-भइया रास्ते इन्तज़ार करते मिले थे ...निराश लौट गये ।माँ क्यों चिन्ता करती हैं मेरी ?छोड़ दे मुझे मेरे हाल पर ।जब ब्याह दिया तो समझो उनके लिये मैं मर गई ।
आँखों में आये आँसू उसने पोंछ लिये । रोने से आँखें और खराब होंगी ,वैसे ही काँटे-से चुभते रहते हैं ।जरा -सी रोये तो धुँधलाने-सी लगती हं सिर बिल्कुल खाली -खाली -सा लगने लगता है ।
कभी-कभी तो उठते-उठते भूल जाती किस काम से उठी थी ।अजीब सी मनस्थिति हो जाती है ।सिर चकराता-सा रहता है ।आज भी लग रहा है जैसे अन्दर से धमक रहा हो ।
चौके में बैठ कर काम करना मुश्किल लग रहा है ।
किरन चाय पीती हुई आई है ।इधर उसका व्यवहार बहुत ठीक हो गया है ।पर शुरू से एक ढर्रा बन चुका है । दोनो में अधिक बात-चीत नही हो पाती ।रीता ने किरन को इशारे से बुलाया ।
'मेरी तबियत बड़ी अजीब हो रही है तुम ज़रा,यह सब्जी देख लेना ,मैं थोड़ी देर में फिर आ जाऊँगी ।'
'अच्छा !मैं खाना बना लूँ ?'
नहीं ,अम्माँ से कुछ मत कहना ।पूछें तो मुझे आवाज दे देना ।'
किरन की मदद से किसी तरह काम खत्म होता है ।गीता कमरे में आकर गहरी नींद सो जाना चाहती है ।।पर वहाँ फ़ुल वाल्यूम पर रेडियो खुला है !
ये आवाज़ें ?...सिर में ऐसा लगता है हथौड़े से बराबर चोट कर रही हैं ।मन करता है रेडियो बंद कर दे --कह दे बाहर निकल जाओ ,मुझे चुपचाप सोने दो ।'
'तुम्हारे भैया मिले थे आज ।'
समीर के शब्द गीता के कान में गड्डृमड्ड हो कर पड़ रहे हैं ।वह सुन चुकी है ,अब कुछ सुनना बाकी नहीं है ।अब तो लड़ने की भी हिम्मत नहीं बची है उसमें ।।वह चुपचाप बिस्तर पर लेटी रही ।
रोशनी आँखों मे चुभ रही है । सिर का दर्द और तीव्र हो गया है । आँखें जल रही हैं ,जैसे अभी उफन पड़ेंगी ।
दोनो आँखों पर हथेलियाँ रख कर दबाती है ।चैन नहीं पड़ रहा किसी तरह । तकिया उठा कर सिर,आँख कान सब दबा लेती है ।
पता नहीं क्या समय है ।कोई पल्ला पकड़ रहा है अपने शरीर पर कुछ स्पर्श अनुभव होते हैं ।अधसोई अवस्था में बच्चे की किलकारी सुनाई पड़ रही है ।।गीता को लगता है नन्हा सा शिशु उसके पास लेटा हाथ-पाँव चला रहा है ।छोटा-सा बिना दाँत का मुँह ,सुनहरे बाल ।वह हाथ बढ़ाती है ।किसी ने बढा हुआ हाथ पकड़ लिया -वह चौंक कर जाग गई ।
समीर का चेहरा सामने आ गया .स्वप्न टूट चुका है ।
उफ़ !सोते पर भी चैन नहीं !
अस्वस्थ शरीर खिन्न मन और ऊपर से यह आमंत्रण ।आदमी क्या जानवर होता है ?
'मेरे सिर में बहुत दर्द है '- गीता मुँह फेर कर लेट गई है ।
***
समीर ठीक से बात नहीं करता ।हर समय झल्लाता रहता है ।गीता जानती है -ये सब क्यों है ।पर उस पर कोई असर नहीं पड़ता ।
वह सपने में मुझे देख कर मुस्कराता है ,और गोद में आने को लपकता है -उसकी पुकार कैसे अनसुनी कर दूँ ?
पर समीर तैयार नहीं होता ।गीता का कहना-सुनना सब बेकार हो गया है ।अब तो एक ही धमकी बची है -सुना है नींद की गोलियाँ खानो से गहरी नींद आ जाती है ।बहुत से लोग इकट्ठी गोलियाँ खा कर आत्महत्या कर लेते हैं ।मुझे न जलना है ,न डूबना ,न फाँसी लगानी है ।मरने का कोई इरादा नहीं है मेरा ।गीता सोचती -बस इनहें एक बार समझाना चाहती हूँ ,कि इस पर मैं कोई समझौता नहीं कर सकती ।ये समझ गये तो सब समझ जायंगे ।
नींद की गोलियों से पीड़ा नहीं होती ,शरीर विकृत और भयंकर नहीं होता और बचने की पूरी आशा रहती है ।
ये साढ़े आठ पर कमरे में आते हैं ,कपड़े बगैरह बदल कर पौने नौ की न्यूज़ सुनते हैं ।बस ठीक है नींद,की गोलियाँ खानी होंगी ।एक परचा लिख कर सेफ़्टीपिन से तकिये में लगा दूँ ।सवा आठ पर गोलियाँ खा लूँगी , साढ़े आठ पर ये आयेंगे ,परचा पढ़ेंगे ।फिर तो मुझे बचा ही लिया जायेगा ।
कंचन की कापी किताबें पेन सब यहीं पड़े हैं -पढ़ते-पढ़ते यहीं छोड़ गई है। गीता कॉपी से बीच का पन्ना फाड़ लेती है ।पेन लेकर सोच रही है-' क्या लिखूँ '।
संबोधन ?नहीं कोई संबोधन नहीं ,सीधे-से लिख देना है । लिखने लगी -
मैने नींद की पन्द्रह गोलियाँ खाई है । रोज़-रोज़ के क्लेश से अच्छा है ,मैं ही न रहूँ ।अगर तुम मुझे उचित व्यवहार और मेरे अधिकार दे सको तो बचाने की सोचना ,नहीं तो मेरे हाल पर मुझे छोड़ देना ।इस प्रकार की ज़िन्दगी से ऊब कर मैंने मौत को अधिक अच्छा समझा ।.
...बाद में क्या लिखूँ ?'तुम्हारी' ?...नहीं जिसने अपना समझा ही नहीं उसके लिये कैसे 'तुम्हारी ' !
आँखों से आँसू टपकने लगे हैं ।क्यों रो रही हूँ ?मैं कोई मरी थोड़े हा जा रही हूँ ।यह तो एक धमकी है ।बस । जिससे ये लौग सम्हल जायें ।
आँसू पोंछ कर वह फिर लिखने लगी -'सदा जिसे अपराधी समझा गया - गीता '।
****
नींद की गोलियाँ उसने खरीदी नहीं चुराई हैं।
चोरी के फ़न में तो गीता बचपन से माहिर है । किरन की एक सहेली के चाचा की दवाओं की दूकान है ।एक बार वह दवाओं के पैकेट कंडी मे भर कर दुकान के लिये ले जा रही थी ,रास्ते में किरन के पास रुक गई ।ताऊ जी के एक्सीडेन्ट के बाद गीता का दवाओं से काफ़ी वास्ता रहा था ।यों ही उलट-पलट कर देखने लगी दवाओं के पैकेट ।।कभी-कभी रात में एक-एक बजे तक नींद नहीं आती ।
पुरानी आदत ने ज़ोर मारा ।क्यों न एक पैकेट पार कर दिया जाय !और एक पैकेट उसने धीरे-से खिसका दिया ।
अल्मारी में रख कर बल्कुल ही भूल गई थी गीता । आज देखा तो फिर याद आ गई ,तभी यह प्रोग्राम बना लिया ।रोते-रोते भी वह मुस्करा पड़ी अपनी कारस्तानी पर ।
चलो,इसी काम में आये ।
वह गिलास में पानी भर लाई ।चूड़ियों से सेफ़्टीपिन निकाल कर पर्चा तकिये मे लगा कर समीर के सिरहाने रख दिया ।
जी बड़े ज़ोर से धड़कने लगा है ।
लिख तो पन्द्रह दी हैं , खाऊँ कितनी ?
इतनी खाते तो डर लग रहा है । कहीं फौरन ही न मर जाऊं ,जो कोई बचा भी न सके । नहीं... कुछ नहीं होगा । डाक्टर लोग पेट साफ़ करके बचा लेते हैं । पर बहुत देर न होगई हो तो !
बहुत देर काहे को होगी ?साढ़े आठ पर तो ये आ ही जाते हैं । न सही साढे आठ ,आठ पैंतीस सही ,चालीस सही ।
क्या बजा है ?आठ पाँच ।अभी नहीं ,आठ पन्द्रह पर ।अरे आँसू की बूँदें गिलास में गिर रही हैं ।मुझे रोना नहीं चाहिये ।
पर मन बहुत कच्चा हो रहा है ,भीतर से हृदय उमड़ा आ रहा है ।इच्छा हो रही है खूब रोऊँ ,रोती चली जाऊं ।
ये सब बेवकूफ़ी है ।मैं तो बच जाऊँगी ।ये बचा लेंगे ।ऐसे कहीं कोई किसी को मरने देता है ...!
'ये' पछतायेंगे क्या ?कहेंगे -माफ़ कर दो गीता ,मैंने अन्याय किया है ।
जब सास जी इनके कान भरतीं और ये बोलते-बोलते ताव खाते तो , मैं भी कहाँ तक सुनती ! चुभते हुये जवाब देती ।।तब उत्तर तो इनके पास होता नहीं था ,वह हाथ के ज़ोर पर चुप करना चाहते ।पहले तो सोचती रही कि बाद में मनायेंगे -मुझे माफ़ करो गीता ।पर वह कभी नहीं हुआ ।
मार क्यों खाऊं ? सोच कर एक बार मैंने इनका उठा हुआ हाथ पकड़ लिया ,और सीधे आँखों में देखती रही । तब से इनकी हिम्मत नहीं पड़ती थी इनकी कि मेरे ऊपर ...अरे क्या बज गया ?आठ बज कर बारह मिनट ।अभी नहीं, थोड़ी देर बाद ।
क्या सोच रही थी... क्रम नहीं जुड़ पा रहा ।मन उद्विग्न है ।...पता नहीं ये ऐसे क्यों हैं ?जानते हैं अम्माँ बेकार लगाती -बुझाती हैं ,फिर भी उन्हीं का समर्थन करते हैं ।
पर अब तो मैं भी जवाब देने लगी हूँ ।...न बोलूँ तो पागल हो जाऊँ ।
कभी तो ऐसा लगता है ,कि अपने पर कोई बस नहीं रहेगा ।सब कुछ फेंकना,तोड़ना-फोड़ना शुरू कर दूँगी । इच्छा होती है भाग जाऊँ यहाँ से ।कहीं भी चली जाऊं ,यहाँ नहीं रहूँ ।
कभी-कभी कमरा बंद कर बैठ जाती ।सुबह से शाम तक कोई कुछ कहने नहीं आता ।सास जी द्वारा उकसाये गये ससुरजी दरवाज़ पर आते आवाज़ देते ,'बहू,दरवाज़ा खोलो ।बहू मेरी इज्ज़त का खयाल करो ।'
और उनके स्वर के आगे मेरी ज़िद टूट जाती ।
अब क्या बज गया ?सवा आठ कबके बज चुके ,समय हो गया ।ज़रा और रुक जाऊँ ।कहीँ ये देर में आये तो ?और दो मिनट बाद सही !
इनके मन की करुणा जगाने को कितना-कितना रोई हूँ ..पर अब मैं इनके सामने बिल्कुल रोना नहीं चाहती ।कितनी राते मैंने अनसोई गुज़ारी हैं ,किसी को क्या मालूम !
और उस दिन क्या हुआ था ? ज्वर के कारण मेरी देह तप रही थी ।मैं ओढे हुये चुपचाप पड़ी थी ।
इनने आकर कहा ,'तुमने नही कहा ते न सही ।अम्माँ को ऐसा लगा होगा ।।माफी माँग लो छोटी तो नहीं हो जाओगी !'
'माफ़ी माँगने का मतलब है कि मैने यह सब कहा ?वह तो अपने आप ही अपने लिये कहती जाती हैं-हाँ मैं राक्षसी हूँ ,हत्यारी हूँ ,मैं तो डायन हूँ ।और नाम मेरा आ जाता है ।'
' वो उनकी पुरानी आदत है ।पर क्या करूँ ।घर की हर समय की किट-किट से परेशान हो गया हूँ ।अरे तुम्हीं झुक जाओ !'
पर मैंने माफी नहीं माँगी थी ।
बाहर फिर कुछ रहा-सुनी हुई थी ।ये तमतमाते हुये कमरे में आये थे ।
मुझे खींच कर ले जाना चाहते थे ।
पर हाथ पकड़ते ही इन्होंने ताप का अनुभव किया होगा ।वे ठिठके थे ।मेरी ओर अजीब-सी नज़र से देखा था ,जैसे दो अजनबी एक दूसरे को तौल रहे हों ।फिर बाहर निकल गये ।
'अम्माँ ,उसे तेज़ बुखार है ।'
गीता को सब याद आ रहा है -- मैने सोचा था तुम मेरे पास आओगे ।रात भर बेचैनी से करवटें बदली थीं मै ने ।।ज़रा-सी आहट पर आँखें खुल जाती थीं ।ज्वर के ताप से आँसू सूख गये थे ।.बार-बार सूखी हिचकियाँ गले को मरोड़े डालती थीं ।।पह तुम पानी को पूछने भी नहीं आये । तुम्हारी ऐंठ थी न ?
बाद मे पता लगा था तुम्हारी माँ ने तुम से कहा था ,' तुम थके हो आराम से बाहर सोओ ,उसे मैं देख लूँगी ।'
और आज्ञाकारी तुम बाहर सोने चले गये थे ।मैं तो जानती हूं तुम खर्राटे भर-भऱ कर निश्चिंत सो गये होगे ।।मेरा ध्यान ही कहाँ आया होगा तुम्हें ?
तुमने कहा था ,'अम्माँ क्या सोचेंगी !'
'तुमने यह नहीं सोचा ,माँ तो वह तुम्हारी थीं ,हरेक की कैसे हो सकती थीं ?वह तो हमेशा से सुनाती आई थीं -फलाँ जगह से इतना आ रहा था ,फ़ला ने इतना देने को कहा था ।शादी के बाद भी कुछ चिट्ठियाँ आ गई थीं ।मुझे नीचा दिखाने को उन्हें लेकर बैठ जातीं -हँसती जातीं और सुनाती जाती ,झींकती जाती थीं ।वह तो चाहती ही थीं -एक मरे तो दूसरी आ जाये और सामान और पैसा लेकर !
..और मैं कहाँ जाऊं?अब तो मायके में भी ठिकाना नहीं ।वहाँ का सुख-चैन नष्ट हो जायेगा ।छोटी बहन के ब्याह में बाधा पड़ेगी ।नहीं वहाँ मेरी ज़िन्दगी पार न हो सकेगी ।
अरे अब तो आठ पच्चीस हो गये जल्दी-जल्दी खा लूँ !
उसने पानी का गिलास उठाया ,एक गोली मुँह मे डाली -घुट्ट, दूसरी- घुट्ट, तीसरी घुट्ट !
यह कैसी आहट ?...कोई आ रहा है ।
हड़बड़ी में कई गोलियाँ मुँह में डालीं ...एक बार , दो बार , तीन बार !कतनी डालीं, पता नहीं डालती चली गई ।कितनी खा लीं पता नहीं ।
शीशी हाथ से छूट कर बिस्तर पर गिर गई ।पानी का गिलास रखते-रखते ज़मीन पर गिर पड़ा - टूट गया गिलास !
परचे में तो पंद्रह लिखी हैं खाईँ कितनी ?
उसने निढाल-सी हो सिर तकिये पर रख दिया । जैसे सब गोल-गोल घूम रहा है ।उसने आँखें बंद कर लीं ।
कैसा लग रहा है !मैं बचूंगी नहीं क्या ?
ये बचा लेंगे ।पर पता नहीं कितनी देर में आयें ।मुझे क्या हो रहा है !
कोई आ रहा है -आहट सुनाई दे रही है ।नहीं कोई नहीं । लौट गया जो आया था । अरे, मैं मर रही हूँ और उन्हें आज भी ...पाँच मिनट की फ़ुर्सत नहीं ।
कैसी सनसनाहट-सी लग रही है ..कहीं कोई आहट नहीं ...इधऱ उधर कहीं कुछ नहीं ...बस नींद का अँधेरा !
**
उसे लगा चक्कर पर चक्कर आ रहे हैं ।सब कुछ घूम रहा है ।आँखें खोलना चाहती है पर खुलती नहीं ।कानो में कैसी-कैसी आवाज़ें आ रही हैं -साय़ँ-साय़ँ ,भाय़ँ-भाय़ँ ,विचित्र-विचित्र ध्वनियाँ ।
'क्या होश आ रहा है ?'
शायद !.पलकें हिल रही हैं जरा-जरा ।'
गीता याद करने की कोशिश करती है -कुछ याद नहीं आ रह ।कुछ समझ मे नहीं आ रहा ...।'पलकों पर तो जैसे मन-मन भर का बोझ रखा है ।भीगे पन का शीतल स्पर्श माथे और आँखों पर अनुभव हो रहा है ।।
'कल रात से ऐसे ही पड़ी है ।डाक्टर कहते हैं अब भी होश न आया तो बचने की उम्मीद विल्कुल नहीं है ।
अच्छा ..तो ये लोग बचाने आये हैं ।कमरे में चला-फिरी हो रही है ।'ये'भी जरूर होंगे !धीरे-धीरे कुछ याद आने लगा उसे ।
'बहू ,अब कैसा लग रहा है ?'-पहली बार सास का स्वाभाविक स्वर है ,गीता को विश्वास नहीं होता ।वहहल्के से आँखें खोलती है ।पैताने कौन है ?'ये'
कैसा उजाड़-सा चेहरा लिये खड़े हैं ।और ससुर जी भी हैं ।
'बहू ,लेटी रहो आराम से ,' ससुर कह रहे हैं ।
कप में पानी और चम्मच लेकर समीर आगे बढ़ा है -उसने धीरे से मुँह खोल दिया ।आज इन्हें शरम नहीं आ रही सबके सामने पानी पिलाते ?
ऊपर से कोई झुक आता है ,'गीता मुझे माफ़ कर दो ,तुम बहुत नाराज़ हो ?'
माथे पर पानी की बूँगें टपकीं ।
गीता को अन्दर-ही-अन्दर हँसी आ रही है ।आँखें पूरी तरह खुल नहीं पा रही हैं ।
मेरे आँसुओं पर दया आई थी किसी को ?तुम्हें कैसे माफ़ कर दूँ ?वह कोशिश कर के भी बोल नहीं पा रही है ।
सास-ससुर कमरे में नहीं हैं ।
समीर ने आगे बढ़ कर गीता के दोनो हाथ पकड़ लिये ,'मुझे माफ़ नहीं करोगी, गीता ?'
'बेकार की बातें !..उससे क्या होगा ..तुम क्या बदल जाओगे ?
बड़ी धीमी रुकी-रुकी आवाज़ है ।समीर निराश हो कर बाहर चला गया ।।बाद में किरन ने बताया -'भैया के गले में एक बूँद पानी भी कल रात से नहीं गया है ।अम्माँ से बहुत नारीज़ हो रहे थे ।बाबू भी अम्माँ को दोष दे रहे थे ।पड़ोस में तरह-तरह की बातें हो रही हैं ।सब कह रहे हैं बहू को ज़हर दे दिया ।' बाबू ने साफ़ कह दिया है -तुम उसे चैन से नहीं रहने दे सकतीं ,तो अलग कर दो ।'
कल सुबह अस्पताल से छुट्टी मिल जायगी ।

सब कुछ बड़ा अजीब लग रहा है।घर ले जाने की बात सुन रही है वह । अरे ,जी कैसा घबरा रहा है ।
सब लोग इतने सदय कैसे हो गये?
क्या इन लोगों ने अस्पताल लाकर अपनी मनमानी कर डाली ।वह चिल्ला उठी ,' मेरे इस बच्चे को भी मार डाला तुम लोगों ने ?'वह उठने की कोशिश कर रही है ।
'अरे उठो मत अभी।ड्रिप लगी हुई है ।' सास ने हाथ बढ़ाक पकड़ना चाहा ।गीता ने हाथ हटा दिया ,'फिर मरवा दिया ,मेरे बच्चे को ?
'अब नहीं जाऊँगी उस घर में !तुम सब हत्यारे हो !अरे मेरा बच्चा ...।'
ससुर जड़ -से होगये ।सास को देखे जा रहे हैं ।
'यह क्या कह रही है ?'
सास अपराधी -सी सफ़ाई दे रही हैं ,'नहीं अबकी से कुछ नहीं किया ... सब ठीक है ।'
ससुर उन पर नाराज़ हो रहे हैं । समीर आगे बढ़ा ,'गीता ,बच्चे को कुछ नहीं हुआ ।वह ठीक है ।'
'कभी नहीं जाऊँगी उस घर में !फिर बच्चा गिराने को मजबूर करोगे । तुम लोग मुझे जानवर समझते हो ...पापी ,मतलबी और कितना अत्याचार करोगे ?अब नहीं करने दूँगी ।'
सब स्तबध खड़े हैं ,सिर झुकाये ।
सास रो रही है ।ससुर बाहर निकल गये हैं ।
समीर आगे बढ़ा ,'अब कोई कुछ नहीं करेगा ।गलती मेरी थी ,जो सबको मनमानी करने दी ।मैं भी बहकावे में आ गया ।''
गीता ने मुँह फेर लिया ।
समीर कुछ देर खड़ा रहा फिर बाहर निकल गया
**
शाम को समीर आया सूखा-सा चेहरा लिये ।पीछे-पीछे गीता की माँ और बहन आईं ।ख़ुद समीर लेने गया था उन लोगों को ।माँ को देख गीता की आँखों में चमक आ गई । तीन वर्ष से बिछुड़ी बेटी को इस हालत में देख माँ की हिचकी बँध गई ।समीर आँखें पोंछता खड़ा रहा ।

गीता ने कह दिया है मुझे अब नहीं जाना है उस नरक में ।वहाँ रहने से मौत अच्छी !
किरन नेबाहर खड़े, पिता की ओर देखा और भाभी की बात दुहरा दी ।
ससुर सीधे गीता के पास चले आये ,'बहू,अब माफ़ करो ।तुम्हारी सास भी बहुत पछताई हैं ।लोग जाने क्या-क्या कह रहे हैं ।तुम्हें अब कोई शिकायत हो तो मुझ से कहना ।'
बाबू जी ,अब उसकी जरूरत नहीं पड़ेगी ।वह नहीं रहना चाहती यहां तो न रहे ।जब से आई है एक बार भी मैके नहीं भेजा गया ।अब उसे चला जाने दीजिये ।लोगों के कहने की चिन्ता कहाँ तक की जायेगी ?जब तक उसकी इच्छा होगी और कुछ व्यवस्था कर पाऊँगा तो ले आऊँगा ।'
यह समीर की वाणी थी ।
फिर वह गीता की ओर घूम कर बोला ,'माँजी, अपनी बेटी से कह दीजिये उस पर अब कोई रोक नहीं लगायेगा ।'
','माँ ,अभी तो तुम्हारे साथ जाऊँगी ,बाकी सब फिर बाद मे देखा जयेगा ।'

1 टिप्पणी:

  1. phewwwwww....!!

    हम्म.....क्या कहा जाए अब..? उम्मीद है...गीता वापस आकर भी संभलके रहेगी....४ दिन का प्यार उसे बेखबर नहीं बनाएगा......और पश्चाताप सच्चा हगा..तो उसको पता चल ही जायेगा....मतलब यही है..किसी के कंधे पर सर रखकर चलना अच्छा है..बहुत अच्छा है...मगर होश itne काबू में रहने चाहिए..कि कभी कोई एकदम सहारा हटा ले तो संतुलन न बिगड़े....हम खुद को संभाल सकें....

    मगर कितनी ही लड़कियां गीता सी जिंदगी जी रहीं होंगी.....:( उनकी भी मदद वे स्वयं ही कर सकती हैं कोई और नहीं........

    अच्छी थी कहानी प्रतिभा जी......जगह जगह दिल हौलता रहा,....जाने लोग इत्ता सारा सहते ही क्यूँ हैं....:(...??sach kahoon to itna sehan karne se ladkar mar jana hi behtar hai.....:(

    जवाब देंहटाएं