सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

फुलमतिया


*
रोज़-रोज़ उसका वही ढर्रा देख मैं खीज उठी थी .उसके आते ही बरस पड़ी ,'साढ़े पांच बज रहे हैं और अब तुम आ रही हो ?मैं तो तुम से कहते-कहते थक गई . तुम्हारे ऊपर असर ही नहीं पड़ता !'
आँगन के कोने में अपना डंडा टिका कर उसने चप्पलें उतारीं और नल के नीचे लगाने को बाल्टी उठाई .
'का करी बहू ,सुबू चार बजे उठित हैं.तऊ काम नहीं सपरत .आज पप्पू के बप्पा का मिल पठै के हम उद्यापन में लगी रहिन .'
'काहे का उद्यापन ? '
'सुक्करवार का .चहा तक नाहीं पियेन ,दउर-भाग करत-करत इत्ती बिरिया भई .बुढऊ हरामजादा तो फली नाहीं फोरत हैं .हम बनावा सबका खबावा तौन सीधी हियाँ आइत हैं .'
'अरे उद्यापन तो आज हुआ .तुम्हारा तो रोज़-रोज़ का यही ढंग है .'
कहती हुई मैं कमरे मेँ आकर धम्म से पलँग पर बैठ गई .
न बहुओं को काम करने देगी ,न खुद से सम्हलेगा !छोड़ती भई तो नहाॉीं ,जो दूसरी ही ढूं लूं .जब कह-सुनी तो वदो एक दिन साढे तीम बजे आ जायेगी ,नहीं तो वही चार-साढे चार -पाँच. भला यह भी कोई चौका बर्तन करने का टाइम है !
और कुछ कहो, तो अपना दुखड़ा लेकर रोने बैठ जायेगी .श्यामू की ससुराल यहीं शहर में है . पर उसकी सास बिदा नहीं करती बेटी को .श्यामू गये तो कह दिया ' नहीं बिदा करेंगे हम !'
' घर की खेती हो गई .फिर ब्याह क्यों किया था बिटिया का ! घर बैठाये रखते ! तुम लोग भी अजीब हो ,कह क्यों नहीं देते रख लो, हम भी नहीं बुलायेंगे .'
हम लोगन में ये सब नहीं चलता है बहू ,ऊ आपुन बिटिया केर दूसर सादी करन को तैयार हुइ जाई तो का होई ?ऊ तो कहती हैं एक महीना हमार बिटिया एक महीना ससुरारै रही तौन एक महीना पीहर माँ रही .'
'और वहाँ उससे चार घर का चौका-बर्तन करवाया जाता है .तुम क्यों नहीं उसे काम पर ले जातीं ?'
'का करी ! हमार घर के मरद नाहीं निकरन देत हैं .बुढ़ऊ हरामजादा तो हमऊ से कहित हैं -घर में बैठ के बहू की रखवारी करौ .'
मैं खिसिया उठती हूँ .
'तो तुम भी छोड़ो काम-धन्धा और बैठ जाओ घर . वो बैठालते हैं तो तुम्हें क्या परेशानी है ?और फिर अब तो बुढ़ऊ, पप्पू ,श्यामू सब कमाते हैं .'
'कमाइत तो हैं बहू ,बाकी हम जिनगी भर काम करत रहीं तो अब खाली बैठ जाई का ?'
'बुढ़ापे मे आराम करो .'
'आराम कबहूँ ना मिली बहू ,' वह हाथ हिला कर कहती है ,' घर केर काम करो ,बाहरऊ का करौ तऊ हजरामजादा गरियात है .जवान-जहान लरिकन का सामै जौन मुँह मे आवत तौन बकत है .
कहत है -साली को घर में चैन नहीं पड़ता .सच्ची बहू,हम तो कह दिहिन , कबहूँ हमका एक धोती लाय के पहराई है ?तुम्हारी सबकी उतरन पहिन के जिनगी गुजार दिहिन .'
शुरू-शुरू में उसके मुँह से 'बुढ़ऊ हरामजादा' सुनती तो हँसी भी आती और गुस्सा भी .
पहले समझ में नहीं आया तो पूछना पड़ा,'कौन ?'
बोली ,'और किसउ का काहे कहि हैं .'
और दो-एक गालियाँ सुना दीं उसने बुढ़ऊ के नांम पर .
देखा तो नहीं है अभी, पर वही बताती रहती है .उसका आदमी उससे बालिश्त भर छोटा है . बड़ा दुबला-पतला ,पक्के रंग का - पक्के रंग से उसका मतलब होता है चमकता गहरा काला रंग .
महरी खूब लंबी है .अब तो कमर भी झुक गई है. डंडे के सहारे बिना, सीधी होकर खड़ी नहीं हो पाती .एड़ी भऱ-भऱ महावर लगाती है और माथे पर बड़ी-सी कत्थई प्लास्टिक की बिन्दी .गेहुआँ चेहरे पर अब भी सलोनापन है .अपनी उमर में तो बहुत आकर्षक रही होगा !
कहती है ,'सामू पप्पू हम पे गये हैं बड़कऊ बुढऊ जइस छोट रह गये .'
क्या पप्पू से बड़ा भी है कोई ?'

'दुइ हैं बहू !एक तो गाँव में रहित है और जे हरस राम फऊज की डिरैवरी से रिटाइर हुई के आय गये हियन .'बाबू के आफिस मां डिरैवर की कौनो नौकरी होय तो लगवाय देओ .'
'अब कहाँ है नौकरी ? पिछले साल जरूरत थी, तब तुमने कहा नहीं .उसे तो पेंशन मिलती होगी ?'
' मिलत तो है ,मुला सब उड़ाय देत है .कल्ह दस रुपैया लै गई रहिन ऊ पाँच की मछरी लै आये .तब रात में मसाला पीसेन ,मछरी धोय-धाय के बनाइन .खावत-उठाइत बारह बजिगा .'
'क्यों देती हो तुम ?महीने भर मेहनत तुम करो और वो मछली में उड़ा दें !'
'माँगत हैं ऊ ! हाथ मे रुपैया होय तो नाहीं कइस करी ?कुछ दिनन में गाँव चले जइ हैं तब काहे हम से माँगन अइहैं ?'
सुबह के चौके निपटाते - निपटाते उसे दस बज जाते है .फिर थोड़ी देर गोड़ सीधे करती है ,तब खाना बनाने का लग्गा लगाती है .
पप्पू की बहू की अभी बिदा करानी है ,रामू की यहीं शहर में है. पर उसकी माँ उससे चौके करवाती है ससुराल नहीं भेजती .
बड़ा सब्र है महरी में . कहती है , ' देखित रहो बहू , दुइ-चार बरिस में बच्चा-कच्चा हुइ जाई तब देखी महतारी केतने दिन रखती हैं .अभै तो अकेल दुइ परानी हैं.बिटिया चाकरी करिके हाथ में पइसा धरत है घरउ केर धंधा करत है . तौन ऊ काहे भेजी ?'
महरी बताती है बुढ़ऊ डेढ-दो बजे आते हैं तब वह खाना बनाती है . अपने घर के कच्चे आँगन में उपलों की धुआँती आँच पर धारे-धीरे रोटियाँ सेंकती है. सूरज सिर पर आ जाता है तो छतरी लगा लेती है .
अरे,मैं तो ऐसे कहे जा रही हूँ जैसे महरी की राम-कहानी कहनी हो !
परेशानी तो मुझे है कोई क्या समझे .
सुबह सब लोग ग्यारह बजे तक निकल जाते हैं .खाना निपट जाता है .ये जाते हैं साढ़े नौ पर लंचबाक्स लेकर . रवि-छवि दस-सवा दस तक और मन्टू का तो स्कूल पास है. एक बजे तक लौट भी आता है .खाना खा कर सोता है तो चार बजे तक की छुट्टी .ग्यारह बजे भी आये तो चौका खाली हो जाता है .शाम तक जूठे बर्तन फौले रह़ें, कितना बुरा लगता है !गंदी रसोई और जूठे बर्तनों में चूहे दौड़ लगाते रहते हैं . उधर निगाह डालने की इच्छा नहीं होती .
वैसे तो महरी रसोई धो कर कपड़े पोंछ कर सुखा देती है .पर मुझे तो ये शिकायत है कि यह जल्दी आती क्यों नहीं !
जब इससे तय किया था, तो पहली बात मैंने यही कहा थी कि काम दुपहर ग्यारह-बारह कर कर लेना है.इसी बात पर मैंने मुँह माँगे पैसे दिये थे - साठ रुपये महीना !मैंने तो ये भी कह दिया था कि फिर पाँच बजे तक कोई घर में नहीं मिलेगा .
लेकिन वह तो जानती है न कि चौका-बर्तन कराये बिना मैं जाऊंगी कहाँ ! वह अपने उसी समय पर आती है और मैं इन्तज़ार करती मिलती हूँ ,जैसे उसकी नौकर होऊं .मैं तो बल्कुल बँध गई हूं -कहीं जा भी तो नहीं सकती .जानती हूँ वह चार बजे से पहले नहीं आयेगी पिर भी बैठी-बैठी बाट जोहती हूँ . बीच में निश्चिनत होकर सो भी नहीं सकती .ज़रा झपकी आई और कुंडी खटकी तो फ़ौरन उठना पड़ेगा.नींद तो हिरन हो जायेगी और सिर दर्द करता रहेगा शाम तक .ऐसा कई बार हो चुका है .
बार-बार घड़ी देखती हूं -इतने बज गये अभी तक नहीं आई -सोच-सोच कर झींकती हूँ उसके नाम को .
उस दिन तो हद हो गई !
मैने सुबह ही कह दिया था का कि ग्यारहृ-बारह बजे तक आ जाना .पर नहीं आई .पप्पू आया -पौने चार बजे .पूछा तो बोला,' अम्माँ ने कहा ही नहीं .'
'तुम्हारी अम्माँ के बस का काम नहीं है पप्पू ,तुम अपनी दुल्हन को क्यों नहीं बुला लेते ?'
'हम अपने मुँह से कैसे कहें बहू जी ?घरवालों की मर्जी होगी तब वही बुलायेंगे .'
घरवाले भी अजीब हैं .पप्पू की बहू का मायका यहीं धरा है क्या ? इतनी दूर गोंडा से बुलाने में किराया खर्च होता है .पप्पू का ससुर भी बड़ा जबर आदमी है 'कहता है नौकरी करके पेट भर सको तब बिदा करा ले जाना .'
**

'क्यों तुम इतनी लंबी और तुम्हारा आदमी बालिश्त भर छोटा ! तुम्हारे पिता ने नहीं देखा था पहले ?'
'अर् बहू ,अब ऊ सब मत पूछो .का बताई ...बाप का सराब की लत रही और हमार बियाह की अइस जल्दी पड़ी रही कि महीना भऱ माँ जइस मिला तस कर दिहन .'
'इतनी जल्दी क्यों पड़ी थी ,क्या उमर थी तुम्हारी ?'
'उमिर ?उमिर हम का जानी बहू .सुरू से डील अच्छा रहा हमार .महतारी करत रही तेरह बरिस की उमिरमें पूरी जवाल लगत रहीं .'
बाद में कई बार धीरे-धारे करके उससे पता चला था ---
तब वह महरी नहीं फुलमतिया थी .ऊँची-पूरी ,जीवन भरा तन और सपनों भरा मन .एक दिन किसना ने उसके बाप से कहा था - 'फुलमतिया से बयाह करूँगा .'
बचपन का साथी था वह फुलमतिया का .दूसरे टोले में रहता था बचपन के खेल बंद हो गये आपस की बोल-चाल बंद नहीं हुई .चुपके-चुपके कचौरियाँ लाता था वह ,उसके लिये इमली की चटनी के साथ .
एक बार फूलमती के बाप ने देख लिया ,किसना को पकड़ लाया घर के अन्दर .
किसना जरा नहीं डरा .उसने तन कर कहा ,''विवाह करूंगा फुलमतिया से .'
फूलमती की ऊपर की साँस ऊपर नीचे की नीचे .
बाप ताव खा गये .लौंडे की इतनी हिम्मत !
बोले ,'फुलमतिया से बियाह करन को गज भर का कलेजा चाही ....फिर तुम हो का ?न हमारी जात के न बिरादरी के ! हम कहार हैं तुम काछी ,हमारा तुम्हारा क्या जोड़ा .'
बस यहीं मात खा गया था वह !
फिर भी मन का मोह नहीं टूटता था .रास्ते में मिल जाता तो चाव भरी आँकों से देखता कहता हुआ निकल जाता था ,'कब तक तड़पायेगी फुलमतिया ?'
'मैंने उत्सुकता से पूछा था ,'कैसा था किसना ?'
'अब पूछि के का होई बहू ,हमार तो जलम इनहिन के हाथ बिकिगा .'
फूलमती रोती रह गई पर अपने मन का नहीं कर सकी.बाप तो वैसे ही माँ को पीटता था.कहता था ,'तू ही लड़की को बेकाबू छोड़ रही है . कुछ आगा-पीछा हो गया तो न माँ को छोड़ूँगा न बेटी को ,और न उस हरामी की औलाद किसना को . फिर चाहे फाँसी ही काहे न लग जाय .'
एक बार फूलमती के भाई लाठियाँ लेकर खड़े हो गये थे .बात कुछ नहीं थी .रास्ते में किसना मिल गया और फूलमती जरा-सा रुक गई थी -दो मिनट बात करने में ऐसा क्या बिगड़ जाता ? पर भाइयों को लगा उनकी इज़्ज़त का सवाल है .
फूलमती आड़े आ गई थी ,'तुम्हार सिर नीचा न होई भइया ,हम अइस कबहूँ न करी .मला किसना को जाये देओ .'
'अब कहाँ है वह ",मैं पूछती हूँ वह कुछ जवाब नहीं देती गहरी साँस छोड़ कर बर्तन माँजने चल देती है .
***

कितनी तेज़ धूप है !अचार मर्तबान छत पर रखने गई इतनी देर में ही सिर चटक गया .ढाई बज भी तो गया है .मिन्टू कब का सो गया .पर मुझे नींद कहां ?दिन में ज़रा-सी सो जाऊं तो कोई-न -कोई आकर दरवाज़ा भड़भड़ाने लगेगा .सबसे बड़ा झंझट है महरी का . जिस समय झपकी लगेगी उसी समय ये ज़रूर दुपहरी में आकर जगायेगी .
वैसे तो चार से पहले रवि-छवि आते नहीं और इनका लौटने का तो ठिकाना ही नहीं साढ़े पाँच से पहले तो सोचना ही बेकार है ,कभी-कभी छः-सात भी बज जाते हैं .मैं तो ऊब जाती हूं . दिन भर घर में करूँ भी क्या ? थोड़ी-बहुत सिलाई या इधर उधर का काम कर लिया बस . गर्मी में कुछ करने की इच्छा नहीं करती .कढ़ाई करने का शौक है पर रोज़-रोज़ उससे भी जी ऊबता है .
सिर अभी तक गरम है .पाँच मिनट और धूप में खड़ी रहती तो चक्कर आ जाता .
अरे , महरी अभी तक नहीं आई .आँगन में छाता लगा कर उपलों की धुयेंदार आँच में रोटी सेंक रही होगी .उपलों की आग फूँकते-फूँकते राख उसके बालों में भर जाती है आँखें लाल हो जाती हैं .ढाई तीन तक खा-खिला कर सफ़ाई करती है बर्तन माँजती है ,फिर गोड़ सीधे करते-करते चार बज जाते हैं, रोज़ .
लेकिन मैंने जब पहले ही तय किया था तो 'हाँ-हाँ' क्यों कर लिया था इसने ? एक-दो दिन तीन बजे आई भी पर आकर कमरे में पंखे के नीचे पसर गई .काम करने उठी वही चार बजे .
लकड़ी का सहारा लेकर तेज़ धूप में धीरे-धीरे चल कर आती है .कहती है ,'मूड़ तचि गवा .'
मैं क्या करूँ ?बहू को क्यों नहीं बुला लेती ?लड़के भी तो घऱ का कुछ काम नहीं करते .सुबह खुद दूध लाकर चाय बनाती है और हरेक को उसकी जगह पर जाकर पकड़ाती फिरती है .लड़के भी मजे के हैं .एक तो बीस का होगा -श्यामू ,दुकान पर काम करता है .दूसरा पप्पू उससे दो साल छोटा -ठेला लगाता है पर आलू उबालना छीलना समलना गोलियाँ बनाना .बेसन घोलना चटनी पीसना -सब काम मां से करवाता है .फिर टाइम से खाना चाहिये .बुढ़या झींकती जाती है और सब काम करती जाती है .
ऊँह , मुझे क्या ?मुझे तो रोज़ झिंकाती है -चौका जूठा पड़ा रहता है शाम के पाँच बजे तक . जितना मैं देती हूँ कहीं से नहीं मिलता होगा !होली-दिवाली पर -नकद दस-दस रुपये ,खाना अलग .कपड़े भी पा ही जाती है दो-चार जोड़े . काफ़ी मज़बूत होते हैं ,मेरी साड़ियाँ वैसे भी घिसी हुई नहीं होतीं .ब्लाउज़ उसके नहीं आते इतनी लंबी जो है .
दो-चार,दो-चार रोटियाँ रोज़ ही बचती हैं और कभी-कभी आठ-दस भी .सब उसी को मिलता है .सुबह बासी दाल या तरकारी के साथ एकाध रोटी खा लेती है बाकी बाँध लेती है -पप्पू नास्ता कर लेई .
एक बार दाल कुछ महक गई थी .मैंने उससे कह दिया था ,'दाल खराब हो गई है ,फेंक आना .'
जब नहा कर मैं आँगन में निकली तो देखा जल्दी-जल्दी दाल सड़ोप रही थी वह .मुझे देख कर सकुचा गई .
मुझे जाने कैसा लगा .
'दाल खराब थी इसलिये मैंने सब्ज़ी रख दी थी ,वह क्यों नहीं खाई ?'
'तुम्हार घर की तरकारी बुञऊ का बहुत परसंद है .घर लै जाइबे .'
'और तुम सड़ी दाल खाकर बीमार पड़ोगी ?'
'सबाद खराब नहीं रहा बहू ,जरा-सी महक गई रहे .नुसकान ना करी .'
अब तो ऐसी चीज़ मैं खुद फिंकवा देती हूँ -खायेगी तो बेकार बीमार पड़ेगी .
महीने में दो-एक बार तो पड़ ही जाती है .कभी पेट-दर्द कभी पेचिस .दो-तीन दिन में बुढ़िया का चेहरा बिल्कुल उतर जाता है .
मैं भी कहाँ बुढ़िया पुराण ले कर बैठ गई !सवा चार बज गये हैं अभी तक आई नहीं है .
***
''बहू,चक्करदार ऊँचावाला झूला लगा है उधर का पारीक में . झूल आओ बाबू केर साथे .'
'मुझ से झूले पर झूला नहीं जाता है . जब नीचे आता है तो लगता है दिल डूबा जा रहा है .'
वह छेड़ती है ,'बाबू केर साथ बैठिहो ,उन केर कंधा का सहारा लै लिहो . दिखियो कइस साध लेत हैं तुमका .'
मुझे हँसी आ गई .मैं उसके चेहरे को पढ रही हूँ -क्या अपना अतीत देहरा रही है !
'आज अपने दिन याद आ गये हैं तुम्हें ?'
वह चौंक गई .
'कहाँ ? दुई बार बैठे रहे . सामू केर बप्पा को केऊ को सौख नाहीं .'
'कहाँ झूला था ,वहाँ या यहाँ ?'
' हियाँ कउन बैठाईन हमका ?'
रंग में आने पर गाँव के गीत और मेले के किस्से फुलमतिया खूब सुनाती है .रंग-बिरंगी चूड़ियाँ ,फुँदनेदार चुटीले ,बालों की क्लिपें और जाने क्या-क्या मिलता था .मेले में ऐसी भीड़ होती थी कि कई बार फुलमतिया माँ-बाप से अगल हो गई .
उसका बताया गाँव के मेले का दृष्य मेरी कल्पना में साकार हो उठता है . रंग-बिरंगी चुनरियों से सजी ग्रामीणाओं की भीड़ - दुकानों पर खरीदारी की होड़ लगी है .चाट के , जलेबी के ठेलों पर लोग जमा है . झुंड-केझुंड लुगाइयां, पगड़ी बाँधे मनई, मचलते बच्चे ,उड़ती धूल ,बैलों के गले में घंटियाँ और गाड़ियों की चरमर ध्वनि के बीच उठती ग्राम्य गीतों की ताने !
फुलमतिया ने पहले ही तय कर लिया है -- माँ-बाप सोचेंगे मेले में हिराय गई .कहीं रो रही होगी अकेली !
देवी के थान के पीछे खड़ा किसना बाट देख रहा है . फुलमतिया पहुँच जाती है . दोनों चाट खाने पहुँचे .खाती जा रही है ,सी-सी करती जा रही है और ही-ही करके हँस रही है .आँखों में पानी भरा आ रहा है .किसना सब-कुछ भूल कर उसकी ओर देख रहा है .मगन हैं दोनों !
माँ सोच रही है -बिटिया किसी दुकान पर होगी या सहेलियों से बातें कर रही होगी .बाप को अभी कुछ पता नहीं है . काफ़ी देर बाद जब पता चलेगा कि वह हेराय गई ,तब खोज-बीन होने से पहले वह पहुँच जायेगी .
पर एक बार सचमुच ही ढूँढ पड़ गई -- बड़ी देर कर दी फूलमती ने .
'हियाँ सहर में मेला नहीं लागत है ?"
गाँव के मेले की बात करते-करते वह वर्तमान को भूल जाती है --- आँखों में सपने छलक उठते हैं .चेहरा माधुर्य से दीप्त हो उठता है .
उस दिन वह झूला झूलने में समय का भान भूल बैठी थी .जहाँ झूला नीचे आता वह घबरा कर किसना का बलिष्ठ कंधा पकजड़ लेती .वह मुस्करा कर उसे साध लेता .फूलमती को लगता यह समय कभी समाप्त न हो .
किसना ने उसे रुपहले सितारों वाला रेशम का चुटीला और चमकीली बिन्दी दिलाई थी . जलेबी और कचौड़ी खिलाई थी बातों-बातों में यह सब उसने कबूला है .
गाँव उसे बहुत याद आता है -झूला ,मेला चटपटी चाट और जाने क्या-क्या . सब वहीं रह गया .
इधर फूलमती की ढूँढ पड़ गई थी
तभी वह किसना के साथ आती दिखाई दी .भागती -सी आई और माँ से लिपट गई ,'अम्माँ ,तुम कहाँ चली गई रहीं .हम चुटीलावाली दुकान देखित रहेन और तुम हमका छोड़ दिहन ...हम सारे मेला माँ खोजत फिरेन .'
'ई हुआँ इकल्ली रोय रही रहे ,तौन हम कही डरो ना ,चलो हम ढुँढवाय दें ,' किसना ने आगे बढ़ कर बताया .
माँ उसे असीसें दे रही है ,'तुम नाहीं रहत तो हमार फुलमतिया हेराय जाती ...जुग-जुग जियो बिटवा .'
बाप चुप है गंभीर .
फूलमती के चेहरे पर खोनेवाली क्लाति नहीं -- दमक है पानेवाली .
ओफ़्फ़ोह , इस बुढ़िया के मारे चैन नहीं .एक तो इतना इन्तज़ार करवाती है और जब तक आ नहीं जाती ,मेरा ध्यान उसी के चारों ओर घूमता . नहीं तो मुझे क्या करना ,वह जाने उसका काम जाने !

***
' बहू, बाबू का कोई पुरान-धुरान सूटर होय तो हमका मिल जाय .'
'उनका स्वेटर तुम्हारे कहाँ आयेगा ? कार्डिगन दया तो था .'
'हमका नाहीं ऊ हरामजादा बुढ़ऊ ठंड माँ कँपकँपात रहत है .कहत रे साली अपने लिये माँग लाई और किसउ का धेयान नहीं .'
मुझे ताव आ गया ,'तुम तो हमारा काम करती हो ,बुढ़ऊ क्या करते हैं ?'
'करत तो कुच्छो नाहीं बहू,पर ऊ हरामजादा हमार मनई है . हमका गरियात है .दु इ दिन हुइ गये मुला खाँसी के मारे रोटी नहीं खाय पाइत है .हमार ऊपर दया हुइ जाय बहू .'उसने हाथ जोड़ दिये हैं .
मन नहीं करता पर उसकी बहुत विनती पर इनका एक पुराना, पूरी बाहों का स्वेटर निकाल देती हूँ आखिर को मेरा काम तो वही करेगी
-- बेकार कपड़ों का करूँगी भी क्या ?
***
ठंड में सिकुड़ती रहे पर मेरा दिया कार्डिगन सहेज कर रख देती है बर्तन माँजते समय . इसे क्या ?बीमार पड़ेगी तो परेशानी तो मुझे होगी .
'क्यों कार्डिगन क्यों नहीं पहनतीं ?'
' ऊ लंबा अहै नीचे लटक आवत है . पल्ला कइस घुरसी ?'
'अरे, ऊपर से पहनो ,धोती के ऊपर से .जैसे मैं पहनती हूँ .पल्ला भी सधा रहेगा .'
'अब का फैसन करी बहू ! जवान-जहान रहे तबहूँ कोई सौख पूरा नाहीं कियेन.अब का ....'
'बुढऊ खुश हो जायेंगे देख कर ,कहेंगे -आज बड़ी अच्छी लग रही हो .' मैं हँसती हूँ .
'खुस नाहीं ,जल मरिहैं . कबहूँ कुछू लाय के नहीं दिहेन .माँग-जाँच के रंगीन कपरा पहिर लेय हम तो खौखियाय के दौरत हैं हमार ऊपर .चिल्लाइत हैं ,कहतहैं ,दुनिया को दिखाने जाती है साली ,यारी जोड़ती फिरती है इधर -उधऱ .'
'अरे ! मैं विस्मित रह जाती हूँ ,' सुन्दर पत्नी के हज़ार नखरे आदमी सह लेता है ,यहाँ ये कैसी उल्टी बात .
महरी का आदमी ?बालिश्त भर छोटा तो है ही ,शक्ल-सूरत भी अजीब.गहरा काला रंग ,मुँह कुछ आगे को निकला-सा ,सींकिया शरीर .शुरू-शुरू में लोग छींटाकशी करते थे -मेहरिया अइस जइस गुलाब क फूल और मगद जइस काँटा !'
आसके आदमी को हमेशा यही खटकता है कि मेहरिया उससे कहीं बढ़कर है .खुद को घटिया अनुभव कर अपनी भड़ास निकालता रहता है .
यह भी जानता है कि किसना इससे ब्याह रचाना चाहता था ,और खुद को उसके पासंग भी नहीं पाता .पर यह तो शादी के पहले सोचना था .
मनुष्य का स्वभाव विषेश रूप से इन स्त्रियों का, चक्कर में डाल देता है .कुछ-कुछ समझ रही हूँ - पर अनसमझा बहुत कुछ छूटा रह जाता है .
ब्याह कर यहाँ आई, तो फूलमती को लोग अपनी ओर आकृष्ट करना चाहते थे . एकाध ने अकेले में कहा भी ,'तेरे जोड़ का मरद नहीं है रे फुलमतिया , हमारी चूड़ियाँ पहन ले फिर हम सब निपट लेंगे ...उस आदमी में दम कितना !'
'अच्छा !' मैं थोड़ा आश्चर्य व्यक्त करती हूँ .
हमारे इहाँ ई सब चलता है बहू,पर धन्न है हमार छाती किसउ पर मन नहीं डोला .रूखा-सूखा खाय के जलम बिताय दिहिन .अब का बहू,बुढ़ापा है .फिर भी मरद चैन नाहीं लेन देइत .सक के मारे मरा जात है हरामजादा .हमसे कहित है -आदतें सुरू से बिगड़ी हैं मरदों से आँख लड़ाती फिरती है .
' हम बियाह के बाद किसउ को गलत आँखिन से देखा होय तो हमार आँखी फूट जाय, बहू .'
वह रोटी हाथ में पकड़े है .कह रही है ,'अन्न देवता हाथ में हैं बहू,कबहूँ जौन मरद से छल किया होय तो ई साच्छी हैं.मुला उहका हमार बिसबास नाहीं .
'हमार किस्मत फूटी अउर का . हमसे कहित है तू तो किसना के फेर में पड़ी रहै . ओहि का भागै का तैयार रही . तेरे बाप ने जबरन तेरा बियाह हमसे कर दिया .'
'तुम ?...क्या ऐसी कोई बात थी ?'
शायद बताना नहीं चाह रही थी ,पर मुँह से निकल गया था उसके .
संकुचित हो कर बोली ,'ऊ कहत रहा ,पर उससे का होत है .'
'कौन ?किसना ?'
वह अपनी सफ़ाई देने लगी ,'हम तो नाहीं भागेन .ऊ कहत रहा -चल फुलमतिया ,कहूं दूर भाग चली .मेहनत-मजूरी करके गुजर कर लेंगे .पर हम नाहीं गयेन .
'ऊ करत रहा -हमारे साथ नेपाल चल ,ऊ मुलुक अइसा नहीं है .पर हम जवाब दै दिहिन -हमका माफ करो किसना .ई हमसे ना होई .'
इच्छा हो रही है उससे पूछूँ ,'न जाकर तुमने कौन-सा कमाल कर दिखाया ,फूलमती ?तुम किसना के साथ भाग जातीं तो कौन सा इतिहास बिगड़ जाता ,और नहीं भागीं तो कौन सा बन गया है ?'
पर वह यह सब समझेगी नहीं .उस दिन वह गोल कर गई थी, पर आज मझे उत्तर मिल गया है -कि उसके ब्याह की इतनी जल्दी उसके बाप को क्यों पड़ गई थी .'
यह जो इसका आदमी है इससे ब्याह की बात फूलमती के बाप ने की थी ..यह कुछ दिन को देस गया था .उसके बाप के साथ उठना-बैठना हुआ ,बात-चीत हुई .एक बिरादरी थी ,दोनों ने आपस में तय कर लिया .
बाप ने पहले तो रौब से बताया ,' लड़का सहर में रहता है ,मिल में नौकरी करता है .राज करेगी लड़की .'
माँ ने विरोध किया था ,' ई मरद हमार बिटिया के जोड़ का नहीं .ऊ से नाहीं करिबे .'
बाप दहाड़ा था ,'ऊ काछी से कर दे हरामजादी .'
'हमने सादी पक्की कर दी है,उहीं होयगी .'
वह तो माँ को पीटने को तैयार हो गया था .
किसना को जब इस सब का पता चला तो वह उसके सामने खड़ा हो गया था ,'साले ,तू इसके लायक है ?'
'तू कौन होता है कमीने, दूसरन के मामले में बोलनवाला ?'
उसने आगे बढ कर इसकी गर्दन पकड़ ली .यह गिड़गिड़ाने लगा ,'ओही का बाप कह रहा है बियाह करने को .हम थोड़े ही कहन गये रहे .
किसना भैया, तुम बेफालतू में बिगड़ रहे हो .'
' हमार बाप उइसेइ सराब पी के महतारी को मारत रहा .हम भाग जाइत तो हत्या हुइ जाती .अम्माँ से कहत रहा ,तूने ही लौंडया को मूड़े पे चढ़ाया है .मैं तो इह के लच्छन देख के गर्दन काट के फेंक देता .फिर चाहे फाँसी हुइ जाती .'
मां ने फूलमती से पूछा था ,'तू का कहती है फुलमतिया ,ई मरद तो हमका जरा नाहीं सुहात है .'
फुलमतिया क्या कहती ,उसे तो डर था बाप और भाई मिल कर किसना की हत्या न कर दें .
बाप ने ज़िद पकड़ ली थी .महीने भर के अन्दर लड़का ढूँढने से लेकर शादी के फेरे तकसब निपटा दिया .
माँ ने रोते-रोते कहा था 'भगवान मेहरारू का जलम काहे दिहिन जौन सपनेहुँ मां सुख नाहीं .कबहूँ चैन नहीं - चाहे बाप होय चाहे खसम ,जिनगी भर मरद की ताबेदारी करो .'
बिदा होती पूलमती ने समझाया ,'हमका हमार कस्मत पे छोड़ देओ अम्माँ .हमरे लिलार जौन सुख-दुख बदा होई तौन जहाँ जाइब तहाँ पाइब .तुम सबुर करौ .'
'अब तो हमार आँखिन तरे कोऊ नहीं आवत है बहू .'
छीक कहती हो .अब तुम्हारी आँख तले कोई आयेगा भी नहीं .
' किस्मत है बहू,भाग तो ई मरद से जुड़ा रहा ....'
मुझे हँसी आ रही है .'जो हो गया वही किस्मत .भाग गई होतीं तो किस्मत वैसी होती.'
'काहे मजाक करतिउ बहू ?'
उसे कैसे समझाऊं कि मैं मज़ाक नहीं कर रही हूँ .लेकिन वह इन सब बातों को नहीं समझती .उसे लगता है सब उस पर हँसेंगे ,उसका मज़ाक उड़ायेंगे .उसका चेहरा बड़ा दयनीय, बड़ा निरीह हो उठा है .
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आज मेरा जन्मदिन है.मनाती तो नहीं पर इन लोगों ने पिक्चर का प्रोग्राम बनाया है .इन्होंने मुझे पिंक कलर की साड़ी गिफ़्ट की है .
तैयार होकर आँगन में निकलती हूँ .महरी चाह-भरी निगाहों से मेरी साड़ी की ओर देख रही है .
'बड़ा नीक रंग है .'
अच्छा लगा तुम्हें ?'
'हाँ बहुत नीक है .हमार लै भी आई रहे ऐसई रंग की चुनरी .'
'कौन लाया था पप्पू के बप्पा ?'
वह बिगड़ उठी ,'ऊ हरामजादा का लाई ?कबहूँ एक नई धोती लाय के पहिराई है ?हम तो चउका-बरतन करि के आप लोगन से माँग-जाँच के तन ढाकित हैं .'
'फिर कौन लाया तुम्हारी पसन्द की चुनरी ?'
'हमार परसंद ते का होत है ?हमार बप्पा चिंदी-चिंदी करि के मुँह पे फेंक मारिन .हम का एकौ बार तन से छुआय पायेन ?'
कौन लाया होगा मैं सोच रही हूँ - भाई अपनी बहिन के लिये लाता तो बाप क्यों फाड़ के फेंक देता ?माँ भी नहीं लाई होगी ,बाप के लाने का सवाल ही नहीं उठता .
जो लाया उसे बाप पसंद नहीं करता था .
तब से फूलमती ने शादी के अलावा नये कपड़े ही कहाँ पहने ,गुलाबी रंग की तो बात ही दूर की है .
फूलमती की आँखों का मोह भरा सपना टूट गया है - हमेशा के लिये .उसके बाप ने गुलाबी चूनर की धज्जियाँ उड़ा दी हैं .पर जाने क्यों मुझे लगता है उसकी भटकती दृष्टि अब भी वही रंग खोज रही है .
मुझे याद आ रहा है कुछ दिन पहले पड़ोस के घर में शादी हुई थी .हमलोग बाहर बारात देख रहे थे .महरी पहले तो रोशनी और बाजे-गाजे देख खुश होती रही पर जब दूल्हा देखा तो चुप हो गई .फिर अन्दर जाकर बड़बड़ाने लगी थी ,'अईस सोने की मूरत अस लौंडिया और दुलहा जइस बबूर !गालन पे चकत्ता अउर माता के दाग .'
'तो क्या हुआ पैसा तो खूब है उनके पास ,लड़की का बाप भी नहीं है भाई लोग कर रहे हैं .'
'जोड़ ना मिली तो जिनगी भर लरकिनी के मन माँ काँटा अस चुभत रही .ऊ कहे चाहे न कहे .'
मैं अवाक् उसका चेहरा देखती रह जाती हूँ !'
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रामू की दुलहिन अपने मैके में बीमार पड़ी है .उसकी अम्माँ कहती हैं ,'समधिन देखन नहीं आईं .'
हमका कहाँ फुरसत है बहू,जौन घंटा भर हुअन जाय के बैठी .'
'क्या बीमार पड़ गई ?'
'दुद्दुइ घरन के बियाह मां रात दिन बत्त्तन माँजिन है , फिन अढ़ाई सेर आटा की रोटी इह जून पोई ,अढ़ाई की उह जून -छोटी-छोटी पतरी-पतरी .तौन बीमार हुइ गई .उनहिन का पीछे तो ...हम का करी?जेह केर अम्माँ ने पइसा वसूल किहिन ओही दवा करी .
कउन आपुन कमाई हमाये हाथ में धर दिहिन .
'हमार हियन रही तौन ऊ खाली रोटी सेंकि लेत रही ,बत्तन हम कबहूँ मँजवावा नाहीं रहे .नई बहुरिया रहे तौन ....'
'ये तो बुरी बात है ,बहू तुम्हारी और काम का पैसा लें वे लोग .'
उसने बताया ,'रामू की सास कहती है ,' उन केर बिटिया होय तौन बिटिया की कदर जानें .हम नाहीं भिजिबे .
महरी के कोई लड़की नहीं है न !
' ऊ आवा चाहित है पन ऊ लरकिनी केर मन नाहीं देखित हैं .'
वह बताती है -
दुइ बिटियाँ मर गईं तब रामू भे .बड़ी मुसकिल उठाई रही .जब ई भवा तो सनकै ना ,सब मार घबराय गये बहू .फिर दाई इह केर हिलावा-डुलावा ,पीठ पे थप्पड़ मारेन ,तब ई रोवा . फिन हम कान छिदाय दहिन .'
नहीं भेजेगी रामू की सास अपनी लड़की को तो महरी क्या कर लेगी ?पप्पू के ससुर ने अपनी सड़की डेढ़ साल से नहीं भेजी तो क्या कर लिया इसने ?वे पैसेवाले हैं तभी इतना गुमान है . पर पप्पू को कुछ नहीं देते ,सीधे मुँह बात भी नहीं करते .लड़की काली है और खूब तंदुरुस्त .वे तो कहते हैं नहीं जायगी ससुराल ,न होगा दूसरा व्याह कर देंगे ..बड़े जबर हैं लड़कियों के बाप !
ऊँह, होते रहे अपन को क्या ?अपना ते बस काम चलता रहे .पर फिर तरस आ जाता है .कोई ढंग की मिलती भी तो नहीं . यह ईमानदार भी बहुत है .
चो-तीन बार आटा गूंदते पर अँगूठी चौके में रख कर भूल गई ,उठा ले जाती तो क्या कर लेती मैं उसका ?आटा सनी अँगूठी . चूहे खींच कर ले गये होंगे यही लगता !चौके में कोई देखनेवाला था भी नहीं .
पर उसने छुई तक नहीं आवाज़ लगा कर बोली ,'ई आटा सनी तोहार अँगूठी धरी है का ?मूस उठाय लै जाई तौन हमार नाम आई .'
हाथ जोड़ कर सिर तक ले जाती है वह ,कहती है ,'माँग के लै लेई बहू ,चोरी करि के पाप न चढ़ावे .ऊ जलम का भुगतान तौन ई जलम में करित हैं ,और अवगुन करी तौ आगिल जलम नसाय जाई .'
औगुन-गुन की परिभाषा उसकी अपनी है .मेरा दखल तो वहाँ भी नहीं चलेगा .
पिछली महरी तो बड़ी चोर थी .हमेशा कुछ-न-कुछ माँगती रहती थी -कभी रोटी दे दो पानी पीना है ,कभी मिर्चें देदो कभी प्याज.चाय पीने तो रोज ही बैठी रहती थी .बच्चों के कपड़े भी हमेशा चाहियें.ऐसी महरी थी कि दो नये पेटीकोट आँगन से गायब कर दिये और अफनी लड़की को दे आई .एक तो मैंने पहचान भी लिया -वही लेस लगी थी जो मैंने जोड़ कर सिली थी .पर उसकी ब्याही लड़की से रहती भी क्या ?और लट्ठे के पेटीकोट में कोई पहचान मानेगा ही क्यों ?
जब से ये आई है ,सुई तक गायब नहीं हुई . अपने काम से काम .हाँ, मुँह से बड़बड़ करती रहती है .मन हुआ तो हाँ हूँ कर देती हूँ नहीं तो चुपचाप किताब पढ़ती रहती हूँ . इसके साथ बच्चों का झंझट नहीं और लालच बिल्कुल नहीं है इसमें .तभी तो निभाये जा रही हूँ .
और वह कहती क्या है ?
'बहू,तुम्हार आँखिन से अइस लागत है के मन की बात पढ़ि लेत हौ .तुम से हम कुछू छिपाय नाहीं सकित हैं .'
कसम भी दिला जाती है 'तुम्हार सामुहै हमका जाने का हुइ जात है जौन सब बकि देत हैं .मुला तुमका कसम भगवान की जौन किसउ के आगे कह्यो .'
एक बार यों ही मैंने पूछा ,'किसना तुम्हारे लिये क्या-क्या लाता था ?'
बुढ़िया मुस्करा दी .चेहरे पर अपूर्व माधुर्य छलक उठा .
'का फायदा बहू ,ई जलम तोन गवा ,ऊ जलम काहे बिगारी ?'
बेवकूफट हो तुम !पहुँच में आये हुये से हाथ खींच कर अपना यह जन्म तुमने खुद बिगाडा .अब अगला नहीं बिगड़ेगा ,इसकी गारंटी दी है क्या किसी ने ?
लेकिन उससे ऐसा कुछ कहना बेकार है . वह समझेगी नहीं .
शादी के बाद उसका आदमी इसे लेकर यहाँ चला आया . फिर इसे मायके नहीं जाने दिया .चार बच्चे हो गये तब गई थी बाप के मरे पर. दस साल में कितना बदल गये था गाँव ,गाँव के लोग !
वह कहती है ,'अब हुआँ जाय के का करी ? न बाप रहे ,न संग-साथ को लोग .हमारे लै तो गाँव उजड़िगा .'
आदमी ने कसम धरा दी थी कभी किसना से बात भी करे तो बाप-भाई ,आदमी सबका मरा मुँह देखै क मिलै !'
छःबरस बाद जब दो बच्चों की माँ बन गई तब गाँव जाने का हठ पकड़ा था इसने .पर नहीं जाने दिया ,माँ मर गई तब भी नहीं .
गई तब जब बाप भी मर गया तब भी आदमी के शब्द थे ,'जौन किसना की सकल भी देखी तौन चारों लरिकन और हमती लहास तोहरे सामने एक ही दिन में उठ जाये !'
जाने क्या-क्या कसमें दिलाईं थीं उसने फुलमतिया को .वह लाचार हो गई थी -गाँव गई और वह मिल गया तो ?...एकदम सामने ही पड़ गया तो !
'फिर मिला था कभी ?'
नहीं फिर कभी नहीं मिला ,फुलमतिया की शादी के बाद कहीं चला गया था वह .
'नेपाल गवा होई ' इसका अन्दाज है ,' हुअन जान की हमेस कहचत रहा .अच्छा भवा जौन नहीं मिला ....'
क्या सात फेरे घुमा देने से और कसमें धरा देने से मन भी बस में हो जाता है ?
इसने कुछ सुख दिया होता ,कुछ मन पूरा किया होता तो शायद उसे भूल गई होती .पर यहाँ मिलते हैं हमेशा किसना के नाम के ताने --भूले भी कैसे उसे ?
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कभी-कभी मैंने देखा है,कही हुई बात सुनाई नहीं दे रही उसे , ऐसी गुम-सुम बैठी रहती है .
पूछती हूँ ,'क्या आज बुढ़ऊ से झगड़ा हो गया ?'
' इत्ती-इत्ती-सी बात पर हरामजादा ताना मारत है --कहत है जौन किसना होत तौन तन-मन से सेव करती .हमका कऊन पूछित है ?'
हम कबहूँ छिपाव नाहीं कियेन बहू,किसना कहाँ होई कइस होई हमारा ऊ से कौनो मतबल नाहीं .मुला ई दईमारा विसवास न करी .'
'बाबू लोगन से आँखी लड़ाये बिना चैन नहीं पड़ता सुसरी को ,'उसका आदमी उससे कहता है .
जब वह जवान थी उसका घर से निकलना आदमी को अच्छा नहीं लगता था .पर उसकी यह बात फूलमती ने नहीं मानी .
'घर माँ घुसे-घुसे तो हमार जी घबरात है ,थोरा बाह-भीतर तो होय का चही .'
गाँव की उन्मुक्त हवा में पली लड़की शहर के कमरे मे बंद होकर जियेगी कैसे ?
तभी वह कहती है ,'थोरा तुम पंचै से बतियाय लेइत है जी और हुई जात है .पइसा-कौड़ी का सहारा हुइ जात है .घर माँ बंद हुइ के मर जाई का ?'
'हम कमाइत हैं तौन आपुन ऊपर तो खरिच नाहीं लेइत ,उनहिन का पूरा करत है .पर ऊ दईमारा कबहूँ ना समझी .'
हज़ार विरोध के बाद भी वह उसे काम करने से नहीं रोक सका
वह चिल्ला-चिल्ला कर कहती थी ' कौनो ऐब करा होय तो सबका सामने बताय देओ .हम काम काहे न करी ?'

पहले कभी-कभी उसके काम वाले घरों में चक्कर भी लगा आता था .अब बंद कर दिया है . सोचता होगा बूढी हो गई है . पर उलाहना देने से फिर भी नहीं चूकता .
कभी-कभी उसकी आप बीती सुनी नहीं जाती तो उठ कर चली जाती हूँ .
कुछ देर पहले तुलसी के चौरे में जो दिया जलाया था उसका घी चुक गया है .एक धुँधुआती हुई बाती सुलग रही है ..जरा देर में यह रुई में चमकती चिंगारी धुय़ें की गहरी लकीर छोड़ कर विलीन हो जायगी .
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ये अच्छी रही ! हारी-बीमारी में काम करने तो कोई न आये ,कपड़े सबको चाहियें .सब के सब कमाते हैं पर सब खा-उड़ा डालते हैं - कभी माँस ,कभी मछली कभी और कुछ .और फिर जैसे के तस !
अब फिर मुझसे कमीज़ माँग रही है ,बुढऊ के लिये .मैं जानती हूँ ,उसी ने कहा होगा ,'साली अपने लिये माँग लाती है ,और किसउ की चिन्ता नहीं .'
वैसे तो दे भी दूँ पर यह सब सुन कर देने की इच्छा खतम हो जाती है .
उस दिन कह रही ती ,'बहू,दस रुपैया चाही .'
मैं कुछ नहीं बोली .कठोर मुद्रा देख कर चुप हो गई.
कुछ देर में बोली ,'दस नाहीं तो पाँचै मिल जाय.'
'काहे के लिये ?'
'बुढ़ऊ बीमार पड़े हैं .तवा अइस तचि रहे हैं बहू . दवा-दारू कइस करी ?'
श्यामू ,पप्पू ,और खुद बुढ़ऊ ,सब कहीं न कहीं काम करते हैं ,पर उधार देने के लिये हूँ सिर्फ़ मैं ! कोई महीना ऐसा नहीं जाता जब उधार न माँगती हो ,और फिर भी दो - चार दिन काम पर नहीं आती .
'क्यों ? सभी तो कमा रहे हैं ,तुम्हीं क्यों उधार माँगती हो ?'
वह बताती है ,' बुढ़ऊ तो हफ्ते भर से काम पर नहीं गये .पप्पू ने कमीज़ का कपड़ा खरीद लिया और श्यामू घर में रोज़ दो रुपये देता है बस !'
मैं खिसिया उठती हूँ .ये तो बेवकूफ़ है ही और मुझे भी उल्लू बना रखा है .'
वह गिड़गिड़ाने लगी 'बहुत कमजोर हुई गये हैं .तीन दिन हुइ गवा अन्न का दाना मुँह में नहीं डालेन बहू ,.चहा पी-पी के चेहरा उतरि गवा है .रुपैया मिल जाय तो डबलरोटी मुसम्मी के साथ खबइबे .मुला ताकत न होय तो मिल में काम कइस करी ?'
हार कर मैं दस रुपये लाकर पटक देती हूँ
'और किसी को फ़िकर नहीं तो तुम्ही क्यों मरी जाती हो ?'
'हमार मन नहीं मानत है, का करी !'
'जब कोई हारी-बीमारी में भी तुम्हारी नहीं सोचता ,तो तुम्हें भी क्या करना ?'
'नहीं बहू ,सब हमार है .हमार मनई ,हमार लरिका .हम मर जाई तौन हमारी मिट्टी कउन ठिकाने लगाई .'
मरने के बाद ठिकाने लगने के लिये ही जिन्दगी के सरंजाम किये हैं तुमने ! सिर्फ़ उसी दिन की प्रतीक्षा में संबंधों को निभाया है .यही इनकी सार्थकता है तो इतने लंबे जीवन का तात्पर्य क्या ? लेकिन उसका दिमाग इन उलझनों से परे है .
मैं चुप हूँ .चुपचाप चाय बनाती हूँ ,उसे भी देती हूँ .हम दोनों चाय पी रही हैं.वह चौके में पट्टे पर मैं कमरे में पलँग पर .
उदास-सी चुप्पी हमलोगों के बीच पसर गई है .
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