सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

काग भगोड़ा

[काग-भगोड़ा - उस डरावने पुतले को कहते हैं जिसे किसान अपने खेत की फ़सल को कौवे-तोते आदि पक्षियों से बचाने के लिये खड़ा कर देते हैं। एक मिट्टी की हाँड़ी को काला रँग कर उस पर सफ़ेद आँखे और नाक - मुँह बना कर, दो बाँसों को पाँव का रूप दे, उनके ऊपर सिर की तरह लगा देते हैं। हाँड़ी के नीचे बाँसों पर पेट के लिये फूस आदि लपेट दिया जाता है दोनो ओर दो डंड़े हाथ के लिये लगा कर, फटे-पुराने कपड़ों से सजा, खेत के बीच में खड़ा कर देते है। हवा के साथ पुतला हिलता है तो पक्षी डर कर उड़ जाते हैं।]
मनका ने घास का गट्ठर दरवाजे पर पटक दिया, उसमे घुरसी हथौड़ी निकाल कर चौखट की सँध में अटका दी, मोटी धोती के पल्ले से पसीना पोंछते हुए उसने ससुर के खटोले पर निगाह डाली, खाली था। पिछवाड़े गए होंगे, उसने सोचा। दिन भर की पत्थर-तोड़ मेहनत के बाद उसकी इच्छा हो रही थी दो घड़ी बैठ कर सुस्ता ले। लेकिन बैठ गई तो रोटी सेंकने में और देर हो जाएगी। ससुर वैसे ही बीमार ठहरे, समय से बकरी के दूध में रोटी मींज कर खा लेंगे।
चार कदम आगे बढ़कर उसने मुकले पर धरी ढिबरी उठाई और चूल्हे की राख में दबी आग पर घास के तिनके रख कर फूँकने लगी। राख के कण उड़-उड़ कर चेहरे पर आने लगे, उसने आँखे आधी मीच लीं। लपट आते ही दूसरे हाथ से बत्ती पर आया गुल नोच कर, जला दिया उसने। दीवारों पर परछाइयाँ नाचने लगीं।
पत्थर तोड़ते समय बदलू बार-बार उसी को तके जा रहा था। कितनी बार अनदेखी की, कड़ी निगाहों से देखा पर वह बाज़ नहीं आया। अबकी बार बोलने की कोसिस करेगा तो अच्छी तरह झिड़क दूँगी, मनका ने सोचा। वह आकर देहरी पर बैठ गई - बटलोई में दाल चुरने रख आई थी।
अभी तक नहीं आया, उसने सोचा, कहीं यार-दोस्तों में बैठा तमाखू पी रहा होगा। गुरदीन के बारे में सोच रही थी वह।.. अरे, वही ढंग का होता तो काहे का रोना था।
सास बकरी को झाड़ तले बाँध रही थी, सिर घुमाकर उसने मनका को घर में घुसते देख लिया था। अभी तक गुरवा नहीं आया उसने भी सोचा। कैसे सम्हाले लड़के को ? जब बचपन में नहीं सुनी तो अब क्या सुनेगा? और अब तो संगत भी ऐसी मिल गई - तम्बाकू और गाँजे का दम लगाए बिना चैन नहीं पड़ता! बड़ी चिन्ता में पड़ जाती है नथिया। इकलौता पूत और वह भी ऐसा! कभी निश्चिन्त होकर नहीं रह पाई।
मेहरुअन के साथ बैठकर बताती है वह – ,' पहलौठी की बिटिया ब्याही-ठाही आपुन घर की भई। उसके बाद के तीन बच्चे सौरी में ही दम तोड़ गए, तब ई भवा। किसी औघड़ की कृपा से गुरवा जीया-जागा। वह कहती है, “ ई भवा तो सनकै ना ! हम तो मार डेराय गए । दाई गरे माँ अँगुरिया डारिस । कुछू न भवा। फिन दुई धौल धरे ई की पीठै पर, तब ई रोवा। गुरु की किरपा ते जिवा-जागा तौन नाम धरि दिहिन - गुरदीन।”
ममता की मारी नथिया ने सौरी में ही नाक-कान बिंधवा दिए - छोरा सुरू से बिंधा रहेगा तो कउनो बाधा नहीं न बियापेगी! लाड़ - प्यार में बिगड़ गया गुरवा ! बड़ी साध थी, स्कूल में जा के चार आखर पढ़े, ढंग का मनई बने।
” पर जौन चाहो कहाँ होइत है,” ठण्डी साँस खीच कर कहती है, “ किस्मत में लिखाय के तो कुछू और आवा रहा।”
तम्बाकू की लत तो बचपन से ही लग गई। ' न जनै कहाँ-कहाँ ते बीड़िन के टोंटे बटोर लावत रहा, छिप-छिपके धुआँ निगलत रहा। हम तो बहिनी, बहुत देर में जान पाइन कि ई का करत हैं।'
देह पनपी नहीं, छोटा-सा कद और हाड़-हाड़ देही। मिरगी के दौरे भी पड़ते हैं , यह तो मनका ने इसी घर में आकर जान पाया।
“काम - धाम में कबहूँ ई का मनै नहीं लगा।” बाप की डाँट- फटकार सब बेकार। कभी सन्टी उठाई तो नथिया बीच में आकर खड़ी हो गई -
“उइसेई गिरा-परा रहित है मार-मार के हड्डी तुड़िहौ का?”
कभी रूठ कर कहीं भाग जाता तो ममता की मारी नथिया ढूँढती फिरती। नशे में धुत कहीं पड़ा मिलता। किसी तरह लाती, सम्हालती। बेटे को बिना खिलाए उसके गले से कैसे कौर उतरता ? बड़ी साध थी, बिटवा का बियाह होगा, बहुरिया आएगी, अँगना में पोता खेलेगा। पर गुरदीन को देखकर लड़की वाले बिचक जाते - ऐसे से कौन अपनी बिटिया ब्याहे ?
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पर नथिया कहाँ हार मानने वाली।
पार गाँव में बहिन की ससुराल थी। वहीं उसके ममिया-ससुर को लकवा मार गया।
' घर में कोई कमाएवाला नहीं। जवान -जहान दुई-दुई लौंडियाँ क्वाँरी बैठी हैं। लरिका छोट अहै दस बरिस का, निरा नासमुझ। कैसे पार लगेगी जिन्दगी ? 'बहिन से सहानुभूति दिखाती रही नथिया, पूछती-बताती रही। लड़कियन का भी देख-परख लिया।
महीने भर में तीन चक्कर लगा आई। सारी खबरें लेती रही। गाँववालो ने दुनिया भर की बातें शुरू कर दी हैं। इत्ती जवान लौंडियाँ भईं, घर में बिठाए हैं। कल को कुछ ऊँच-नीच हुई गया तो सारी बिरादरी की नाक कटेगी। बियाह करो, नहीं ती बिरादरी से बाहर कर देंगे। मामी बिचारी को मामा की तीमारदारी से कहाँ छुट्टी ? फिर कहाँ बहाय दे लड़कियन का ? बड़ी को तो एक तीन बच्चन का बाप बियाहन को तैयार है, दु साल से रँडुआ बैठा है। मामी चाहती हैं एकै मण्डप में दूनौ की भँवरी पड़ जायँ।
नथिया तरस खाती रही। बहिन से पूछ लिया कि लड़कियों के लच्छन कैसे हैं, बहिन का उत्तर था, “दूनौ नीक अहै, मुला छोटी केर रंग नेक सँवरा अहै, पर छब ऐसी कि चेहरे से निगाह ना हटे। दूनौ बहनी घर- बाहर सब सम्हारे है, गाँव भरै का कुटान-पिसा कर के, सिल्ला बीन के, घर खरच केर जुगाड़ किए हैं।”
“तौ बहिनी, नीक लौंडियन का लड़िकन की कमी थोरै है।”
“कौनो निगाह में होय तो तुही बतायो।”
“काहे नहीं, काहे नहीं।”
बहिन से मन की बात कह डाली मनका ने। पहले तो वह चौंकी, पर पलड़ा नथिया का भारी रहा - बहनौते की बात जो थी।
लड़का मिल रहा है यही कौन कम है, “बियाह- सादी में लड़िकन की सकल देखित है कोई ?”
नथिया ने गुरदीन को बदलू के साथ अपनी बहिन के घर भेजा, “आपुन रिस्तेदारी में हारी-बीमारी होय तो जरूर जाए क चाही। तुमका भेजित है ,काहे से कि अब तुमका ई सब सीखै क परी।.. जाओ बिटवा, हुअन के हाल - चाल लै आओ।” मौसी के साथ दोनों मनका के पिता को देखने गए। मौसी ने बात सम्हाल ली। दोनों को आदर से बैठाया गया। गुरदीन तो बिलकुलै चुप्प रहे, बदलू बोलत-बतियात रहे। चाय-पानी हुआ। गुरदीन की तो हिम्मत नहीं पड़ी, बदलू ने मनका से आँखें मिलाकर चलती-फिरती बातें कर लीं। मनका की माँ को लगा - इहै है लड़िका।
चट्ट बात पक्की हो गई और पन्द्रहवें दिन बड़ी लड़की की बारात के साथ गुरदीन की बारात पहुँच गई, मनका को ब्याहने।
“ई कइस लड़िका है? बात तो दूसर की हुई रहै ?”
“कइसी बात करित हो मामी ? ऊ तो लड़िके का दोस्त रहा। मुला लड़िका तो इहै है। इहै के महतारी बाप ते रिस्ता पक्का किहिन है। ऊ तो कौनो गैर जात होई।”
तेल चढ़ चुका था, कंगन बँध चुका था। अब बारात लौटा दें तो लड़किनी कहूं की नहीं रहेगी। महतारी-बाप का जीना मुस्किल हो जाएगा..। कौन मुह दिखाएँगे दुनिया को? पिता ने बिस्तर पर पड़े-पड़े कहा, “अब अपने हाथ में कुछ नहीं –जौन लिखाय के लाई है तौन..........।”
माँ रो कर रह गई, और मनका गुरदीन को ब्याह दी गई।
नथिया का पाँसा सही पड़ा।
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ऊँची-पूरी तन्दुरुस्त, जीवन की ऊर्जा से पूर्ण, यौवन से भरपूर, खिली-खिली फूल जैसी मनका !और गुरदीन - निस्तेज, मुरझाया-सा, हाड़- हाड़ देह, मिचमिचाती आँखें और झुकी कमर, जिससे छोठा कद और छोटा लगता था। मनका किससे क्या कहे ? रामजी के इहां से इहै लिखा कर लाई है तो अम्मा- बप्पा को कइसे दोस दे?
“ काहे भौजी, दिखावा तो हमका रहे। तुम्हार माई तो हमका दुलहा बनाए खातिर राजी रहे।”
“तो बरात लैके काहे नाहीं आएउ ? भौंरी की बेला काहे मुँह चुराए रहे ?”
“गुरदीन की अम्मां की हुसियारी ! ..अउर का ? हमका कउनो पता रहे कि का हुइ रहा है ? काहे से.., ऊ हमका बतावा नहीं कि का चाहित है। हमका कहिस कि गुरदीन का सरम आवत है, एहि का साथै तुमका जाए का परी। हम का जानी उन केर मन माँ का है।”
मनका सिर झुकाए पत्थर तोड़ती रही। हथौड़ी की ठाक्-ठाक् और पत्थर टूट-टूट कर गिरने की आवाजें। ऊपर तपता सूरज, सामने पत्थरों का ढेर। बीच-बीच में पत्थरों के छर्रे उछल जाते हैं, चिन्गारियाँ बिखर जाती हैं। पल्ला सिर से अच्छी तरह लपेट लिया है मनका ने। हथौड़ी लगातार चल रही है -ठाक्- ठाक्,ठाक्- ठाक्......।
रंग उड़ी मोटी-सी धोती, जिसका रंग कभी नीला रहा होगा, लगातार की धूप और मिट्टी से धूसर हो गई है। किनारी से जगह-जगह तागे निकल रहे हैं। लाँग लगाकर बाँध रखी है मनका ने। पल्ला ऊपर ले जाकर माथे और चेहरे पर लपेट लिया है -आँखें और नाक का हिस्सा भर खुला है।
नाक में चवन्नी बराबर चाँदी का फूल, हाथों में मोटी-मोटी चूड़ियाँ, कमर में चौड़ी गिलट की करधनी नाभि के नीचे धोती को कसकर बाँधे हुए, और पाँवों में मोटे-मोटे गिलट के कड़े। हथौड़ी उठा कर पत्थर पर मारती है तो चूड़ियों की हल्की -सी खनक उस कठोर आवाज़ में मिल जाती है। माथे पर आई लटों को ऊपर कर, मनका ने ढीला पड़ गया पल्ला समेट कर पसीना पोंछा और फिर से लपेट लिया।
“ भौजी इत्ता अन्याव मत करो आपुन ऊपर। ”
“ अच्छा, न्याव-अन्याव क बिचार तुम कब ते करै लागे? ”
“ हमका माफ करो भौजी, हम कित्ती बेर गुरदीन का समुझावा, मुला ऊ सुनतै नाहीं। हमार हिया बहुतै जरत है। ”
“ चुपाय जाओ बदलू, देख लिहिन हम सबका। इहै खातिर आपुन दोस्त का बियाह करावा रहे कि मउका पाय के......? ”
“ ई मतबल नाहिन हमार। भौजी, हम बहुतै पछताइत हैं। आपुन गलती सुधारै के मउका मिलै तौन हम नाहीं चूकब। ”
“ मउका ढूँढत हौ,” गहरी साँस खींची मनका ने, “तुम्हार निगाह खूब पहिचानित है हम। इत्ते दिनन से तुम इहै कोसिस में लगे हो? तुम का समुझत हौ, सिगरी दुनिया अन्हरी है? तुम्हारे कारन हमका का- का सुनन का परित है.......? ”
“ ऊ गुरवा का छोड़ देओ, हमार साथै चलो भौजी, हम तोहार पाँव परित हैं। कहूं अनतै जाय के गिरस्ती बसाय लेबै।”
“ बस बस, चुप्पै रहौ। इत्ती बात बोलै का मुँह है तुम्हार ? हम का कउनो कूकर-बिलार समुझै हो कि जौन मिले तिसके साथ लग लेई?”
डपट दिया था मनका ने। बदलू चुपचाप चला गया। पर एक बदलू ही तो नहीं। कितने लोग उस पर कैसी-कैसी निगाहें डालते हैं ? मनका सब समझती है। पर क्या करे ? अपना आदमी ढंग का होता तो काहे ई सब झेलना पड़ता।
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सास कहती है, “सुसरी बाँझ है। चार साल हुई गए, मुला एक बच्चा नहीं जन पाई। कैसी मुटाई चढ़ी है । आग लगे ऐसी जवानी में। ”
अपने बेटे को चढ़ाने से कभी नहीं चूकती वह।
“ कैसी इठलाय के रहित है। सरीर तो देखो, कपड़न में समाय नहीं रहा है। एक ई पहलवानिन , अउर हमार बिटवा मार झुराय रहा है।”
सचमुच मनका की कठोर श्रम से पकी हुई देह के सामने गुरदीन मरगिल्ला लगता है। नथिया बहू के चरित्र पर आक्षेप करती है तो बेटा तमक जाता है।
“ स्साली, जाने का समुझती है अपने आप का। इसे ठीक करना ही पड़ेगा।”
गुरदीन को बड़ा मलाल है - मेहरिया नब कर नहीं चलती, हमेसा सिर उठा कर बात करती है। अरे, अउरतजात है अउरतिया की तरह रहे का चाही।
नथिया और उकसाती है - “ इसके लच्छन ही खराब हैं। ऐसी महरारुन के औलाद भी नहीं होवत है। ”
दो दिनों से मनका शाम को आकर रोटी सेंकती है तो तीनों खा लेते हैं - ससुर तो अपनी खटुलिया पर ही दूध में रोटी मींज लेते हैं। और खाकर उठते ही सास कूकर के लिए रोटी निकालकर बाहर चल देती है। मनका के लिए एक-दो से ज्यादा नहीं बचतीं। नथिया जानबूझ कर अनदेखी कर जाती है। सोचती है - कैसी गदराय रही है, मेहरियाँ तो खाती ही बचा- खुचा हैं। दुइ दिन कम खाय लेगी तो मर नहीं जाएगी।
और तीसरे दिन मनका की खाए की बेला खूब हाय-हाय मची।
सास एकदम भड़क कर बोली, “ हुआँ काम करने जाती है कि दीदे लड़ाने ? किसउ को मुँह दिखाने लायक नहीं रखेगी।......अरे, तू कैसा नालायक है। आपुन मेहरिया को बस में नहीं रख सकता?”
गुरदीन संटी लेकर खड़ा हो गया, “ काहे हरामजादी, तू कौनो तरह समझेगी कि नाहीं ? ”
मनका उसकी तरफ देखने लगी।
“ कईसे दीदे फार-फार के घूर रही है,” सास कहाँ पीछे रहनेवाली।
गुरदीन ने आगे बढ़ कर चूल्हे के पास बैठी मनका को धक्का दिया और तीन-चार संटियाँ लगा कर चूल्हे से सुलगती चैली खींच ली।
जलती लकड़ी देख मनका झटके से उठी, एक हाथ से उसका हाथ पकड़ा और दूसरे से चैली छीन ली।
“ अब बोल, का करेगा ? “
गुरदीन के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। वह घबरा गया - कहीं मनका उसी को दागने न लगे! पत्थर तोड़-तोड़ कर कठोर पड़ गए उसके हाथों से अपने दुर्बल हाथ छुड़ा नहीं पाया वह। मनका ने झटका देकर उसे छोड़ा और जलती चैली चूल्हे में फेंकी। गुरदीन सम्हल नहीं पाया, गिरते-गिरते दीवार से सधा, बाप के खटोले से सिर टकराते बचा।
“अरे , मार डारिस रे,” सास चिल्लाई, “अरी, डाइन मोरे पूत को खाकर छोड़ेगी का ? अरे, दौरा पड़ि गवा ओहिका।”
मनका ने घूर कर देखा, सास चुप हो गई। दौरे का कोई लक्षण नहीं था।
गुरदीन की भयभीत आँखों पर वितृष्णा भरी दृष्टि डाल वह बाहर निकल गई। थाली की रोटियाँ चूल्हे की राख में बिखर गई थीं, उनकी ओर उसने देखा तक नहीं।
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एक दुलारी है , जिससे मनका अपने मन की बात कह लेती है । पर आज कुछ कह नहीं रही, बडी चुपचाप है । बीच मे दो बार पानी पीने उठी है , फिर आ बैठी है । हथौडी लेकर , पत्थरों पर चोट करती - लगातार , अनवरत । दुलारी छिपी निगाहों देख रही है । उसे कुछ अजीब लग रहा है । आज इसे हो क्या गया है ? मनका का सोच कर बडा दुख होता है दुलारी को ,पर ये भी एक ही जिद्दी है । दुलारी लाख समझाए वह समझती नहीं ।
घर पर मां-बेटे चैन नहीं लेने देते , एक बुढऊ हैं कुछ सहानुभूति रखनेवाले पर उनकी सुनता कौन है ।
जब गुरदीन के हाथ से जलता चैला छीनकर उसे धकिया कर मनका ओसारे मे निकली थी तब भी बूढे ससुर बडबडा रहे थे , " मत पराई जाई का जी जराओ , दो टिक्कड तो खा लेने दो...।" झिलँगे खटोले से उठने की कोशिश कर रहे थे । मनका ओसारे मे जा खडी हुई थी , ससुर की आवाज सुनी थी उसने ," अरे काहे अनियाव करते हो । कहीँ छोड के निकल जाई तो कौनो पूछने नहीं आएगा.।..रोटिन के लाले पड जाएँगे....तोर बिटवा कौनो काम का नाहीं । काहे उसकाती रहती है ?"
सास ने कुछ कहा , मनका सुन नहीं पाई ।
थोड़ी देर बाद शान्ति होगई थी घर में ।
मनका घुसी और चुपचाप अपनी जगह लेट गई । सब आँखें मूदे पडे रहे, जैसे गहरी नींद सो रहे हों । और सुबह फिर काम पर जा पहुँची थी - एकदम चुपचाप ।.
" काहे, आज का मऊन बरत साधै हो ?"
" नाहीं ,जी ठीक नाहिन । कुछू नीक नाहीं लागत है ।"
" सो तो हमका दिखात है । खाली पानी मत ना पियो , नुसकान करित है ।"
" मार कडू-कडू गरे तक आय रहा है, देह पिराय रही है ।"
"कउनो बात है का ?" दुलारी ने भेदभरी दृष्टि डालकर छेडा , " ई तबियत काहे ढीली है ? कुछू कमाई किहिस लागत है ?"
"अरे , न कहूँ । ऊ कोई मरद है ? बस खाए भर का है । हमार मन बहुतै उचाट है ।"
"तो काहे दिनैमान हाड - तोड काम करित हउ ? जरी-कटी सुनित हौ अऊर ऊपर ते । काहे क रहित हऊ ओहि का साथे ?"
कुछ देर चुप्पी रही फिर दुलारी समझाने लगी ," निकर जा बदलू के संगै - तेरी जोड का मरद है । तोहरे साथे जउन भवा ओहिका बहुतै पछतावा अहै ओह केर जिव मां ।"
" बदलू केर तरस खाए से हमार जिनगी पार ना होई । हमार देही त पत्थर तोडि तोडि के पथराय गई है....अब केहू केर बिसबास नाहीं ।"
" आपुन देही पे अन्याव न कर ।जिउ नीक नाहीं त काम करै काहे चली आएउ ? "
"ई देही क का होई,जेहि का देखि के लोगन केर जी जरत है ?"
" तोहरी सास आपुन बिटवा केर दोस न मानी , हमेसा तुह का दोस देइत है । कहित हई तू बाँझिन है ।"
मनका तमक गई ," ऊ हरामी , मरद सा मरद होतेउ तौन चार बरिस मे चार बच्चा जन देइत। फिन कहाँ रहित ई देही जेहिका देखि के सभै केर हिया मे आग बरत है ?"
" फिन काहे परी है हियन ? आपुन रास्ता देख । कमीली मेहरारू हन , आपुन जिनगी काहे बरबाद करे का बैठी है ?"
हथौडा चलाते-चलाते उसका हाथ रुक गया , दुलारी की ओर देखा बोली , " अऊर ऊ बुढवा-बुढिया का मरन के लै छोड देई ? भूखन मरि जाब त हत्या हमका लगी । हमार मरद ?' उसने लंबी साँस छोड़ी, ' ऊ त कौनो काज का नाहीं , ऊपर ते चिलम -गाँजा कउनो ऐब बाकी नाहिन बचा । एक दिन रोटी ना मिली त बिलकुलै मर जाई । हत्यारी होये क पाप हम ना करी ।"
और भी बोलती रही ,' उहि जलम केर पाप तो इह माँ भुगताय रहे हैं ....।'
"बस कर भवानी । हाड तोड आपुन ,अउर खा गारी ।"
यह बात तो उसकी सभी साथिने कहती हैं ," सास हमेसा गरियात है , कोसत है । तोहार मुहै मे जिबान नाहिन का ?"
" है काहे नाहीं ,मुला कहन ते का फायदा । ऊ जनती हैं कि उन केर बिटवा मे कमी अहै , तौन खुनिस हमते निकरती हैं ।"
सास के शब्द मनका ने सुने थे ," अईस ठीक न होई , ऊ मेहरिया तोहार बस की कहाँ ?"
गुरदीन का वह खिसियाया चेहरा बार-बार मनका के सामने डोल जाता है । अचानक ही क्या हो गया यह ? मन ही मन पछताती है ,पर जलती हुई लकडी ! इसके सिवा कोई रास्ता नहीं था बचने का । हे , राम जी छिमा करना ।
हम तो जनम के पापी हैं रामजी । पापी ना होइत तो काहे अइस जिनगी मिलती । जौन पडी तौन झेलब.। अरे,अभी न भोगी तो आगे कउनो जलम मा भोगन का परी । इससे अच्छा है इसी मे निपट जाए । सास कोसती है , कोसती रहे क्या फरक पडता है । छोड कर भागे भी तो बुढऊ-बुढिया की छीछालेदर हो जाएगी । कमाना तो किसउ के बस का नहीं । अउर ऊ मरद - ओहिका कौनो ठिकाना नहीं । मिर्गी का दौरा पडे ,कहीं गिर पडे । कित्ती बार तो लोगन से खबर पाकर मनका दौडी है, घर लाकर सम्हाल की है । मुला ऊ मानुस जलन मे फुंका जाय रहा है ।
काहे की जलन ? मनका समुझ नहीं पाती । उसने तो मेहरारू बन के रहने मे कोई कसर नहीं छोडी - आपुन धरम से विचलित नहीं हुई । माँ-बेटे चाहे जितनी तोहमतें लगाएं - मै तो कोरी हूँ , हे रामजी । एक बुढवा है , जिसका जिउ दुखता है मनका के कारन, पर बेबस है बिचारा । कभी कुछ कहता है तो माँ-बेटे दूनौ मिल कर गरियाते हैं ,चुप कर देते हैं ।
" आज हमार चित्त कैसेउ थिर नाहीं हुइ रहा दुलारी ,का करी ?"
एक वही है जो उसके हिरदै की पीर समुझती है । दुलारी के ध्यान मे एक ही उपाय आता है - बदलू !
पर मनका तैयार नहीं होती । मरदजात का कउन भरोसा - आज को खुस है तो सबई अच्छा , कल को गुस्साय जाय तो बाही-तबाही बकने लगे । और उस पर दूसरे की मेहरिया होने का दोस लगाया तो उससे सहन नहीं हो पाएगा । वह तो कहीं की नहीं रहेगी । सास के लांछन सह जाती है वह , जानती है कि आपुन जी की जलन वह मनका पर निकालती है।असलियत वह भी जानती है और मन ही मन बहू से डरती है.।आपुन बियाहे मरद की बात और है चाहे मिट्टी का ढेला ही होय - मनका सोचती है ।
सास कहती है ," बडी मुँहजोर लुगाई है ।"
मुँहजोर न होय तो का करी ?" मनका अपनी वेदना दुलारी से कहती है ," कमजोर की लुगाई को सिगरी दुनिया आपुन लुगाई बनाना चाहे ।
दुलारी भी जानती है, मनका को क्या- क्या झेलना पडता है.। ठेकेदार कहता है , " तू सबसे ढंग की है री , कभी - कभार पैसा- टका चाहिए तो मुझसे कह दिया कर..!..हाँ , तेरा मरद कहाँ रहता है;उसे भी ले आ , हल्का-फुल्क काम दे दूंगा ।"
मनका खूब समझती है । काम और वह आदमी ? उसके बस का कुछ भी है क्या ? नाम का मरद है और लुगाई पर मरदानगी दिखाना चाहे.। मनका के मुँह मे थूक भर आता है । पर मै तो नाम की औरत नहीं न हूँ १
हे , रामजी, ई मन कइसा पापी अहै !
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उधर मैदान मे पण्डाल लगा है . लोगें की आवाजाही , वाद्य-यंत्रों के साथ भजन के स्वर वातावरण मे गूँज रहे हैं ।. मनका और दुलारी काम से लौट रही हैं ।
" ई का हुइ रहा है इहाँ ?"
" कोई बडे पण्डित आय भए हैं ,कथा हुइ रही है ।"
सुबह से उचाट मनका की घर जाने की इच्छा नहीं हो रही , भीतर-भीतर मन की अशान्ति से जूझ रही है ।
"कए दुलारी , हमहूं कुछुक बेर कथा-कीर्तन सुन लेई , थोरा तो पुन्न मिली ।"
कथा समापन की ओर अग्रसर थी । कीर्तन मे मनका ने भी अपने स्वर मिला दिए । देवी की स्तुति के साथ-साथ व्याख्या भी करते जा रहे थे पण्डितजी - जगत की सारी विद्यायें उसी परम चैतन्यमयी देवी के भेद हैं , संसार की सारी नारियाँ उस परम शक्ति के भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं । एक वही है जो सारे जगत् मे समाई हुई है...........।
कुछ समझ रही है , कुछ उलझन मे हैं - चकित-सी सुन रही है दोनो ।
.अचानक मनका की नजर पण्डाल मे सजे चित्रों पर पडी । ये किसकी छाती पर विकराल रूप धरे देवी खडी हैं ? शिवजी हैं का ?चारों ओर देवता-मुनि स्तुति कर रहे हैं ।
अचकचा गई वह । "ई कइसे हुइ गया " सब तो कहित हैं कि महरारू क दब के रहा चाही १ औचक-सी खडी है वह। पण्डित बोल रहे हैं , मनका सुन रही है । न समझ कर भी बहुत-कुछ समझ रही है । अपना दुख-दर्द भूल कर एक नई उलझन मे पड गया है उसका मन ।
दोने मे मिला हलवा-पूरी का प्रसाद भी खा लिया उसने.। भूखा तन और उद्विग्न मन कुछ शान्त हो चला था।
** .. ... ... .. .. .. ..
सोते-जागते कुछ चलता रहता है उसके मन मे । क्या सोचती है वह खुद नहीं समझ पाती। भीतर-भीतर जैसे कुछ करवट ले रहा है , जागने को तैयार हो रहा है ।
पर गुरदीन को चैन नहीं पड रहा है । बस रोटी खाने और सोने घर आता है । वैसे ही घर से उसे कौन सा लगाव था ? अब तो मनका सामने पडती है तो मुँह फेर कर निकल जाता है । एक दिन बदलू रास्ते मे मिल गया , " काहे बदलू , अब हमार तुम्हार दोस्ती खतम हुई गई का ? सकलै नहीं दिखात हो । कहाँ रहत हो ?"
"अईस बात नहीं भइया , ई ससुरा ठेकेदार बहुतै कस के काम लेइत है , साम तक देही के जोड-जोड पिरान लगत हैं । खाय के जो परित हैं तौन सुबह ही नींद टूटत है । पइसा देइत है त जान निकार लेइत है ।"
फिर वह गुरदीन से बोला ," तुमहू काहे नहीं आय जाते भइया, कौनो हलुक काम मिल जाई - पइसा थोरा कम मिली त का । कुछू तो हाथै मे आई ।"
काम के नाम से जूडी चढती है गुरदीन को । कभी कुछ करने की आदत ही नहीं । हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है या यार-दोस्तों मे निकल जाता है । बदलू का उपदेश उसे अच्छा नहीं लगा , पर पचा गया ।
" एक बात पूछित हैं बदलू , मुला सच्ची-सच्ची बतायो ।"
बदलू ने सिर हालाया ।
" ई जौन हमार मेहरारू है , इह का बारे मे कुछू बात सुनित है - उह केर चाल-चलन.. । काहे से........। "
" भउजी केर बात पूछत हो ? निसा खातिर रहो । कउनो खोट नाहीं ।" फिर कान को हाथ लगा कर बोला, " नाहीं ,भइया , नाहीं । किसउ का मुँह नहीं लगउतीं । आपुन काम से काम । मुला कब हूँ हमै चाही कि भउजी से हँस-बोल लेई, तौन गुस्साय जाती है । "
ई साला कौन दूध का धोया है , सोचा गुरगीन ने - मिली भगत होगी दोनो मे । कुछ-न-कुछ तो करना पडेगा । अम्मा के सामने सिर नहीं उठा पाता । अरे , कमाती है तो का हुआ , मरद की इज्जत नहीं करेगी ? देह कइसी मुटाय रही है १ उसकी देह पर छिपी-छिपी दृष्टि डालता है, पर आँख नहीं मिला पाता । सुसरी की सारी जवानी एक दिन मे झाड दूँगा । कितना तीखा देखती है !
बहुत हिम्मत इकट्ठी करता है पर सामने बात नहीं कर पाता । भीतर ही बीतर घुट रहा है गुरदीन ! खिलावन से बहुत पटरी बैठा रखी है आजकल ! कई बार घर भी बुला चुका है । एकाध बार तो मनका के सामने ही । खिलावन आता है , उसकी आँखें मनका पर लगी रहती हैं , भौजी कहकर हँसी-ठिठोली करना चाहता है पर वह उखडी-उखडी रहती है.।
***. . . . . . . . . .
अपने आप मे डूबी मनका , शाम को लौटी तो दुआरे कोई नहीं था,दरवाजा उड़का हुआ था । चौखट की सँध मे उसने हथौडी घुरसी और दरवाजा खोल कर अन्दर घुसी । अँधेरे की अभ्यस्त होने में आँखों को कुछ समय लगा , वह अन्दाज से ढिबरी उठाने बढी । ससुर के आने से पहले बत्ती जलाना चाहती थी वह । अचानक किसी ने उसका बढा हुआ हाथ पकड लिया ।
"को है ?"उसे लगा गुरदीन आज कहीं गया नहीं , घर मे पडा है ।
"ई का करत हो.....",नहीं यह गुरदीन का हाथ नहीं हो सकता , कोई उसे पकडने की कोशिश कर रहा है ।
" कोऊ नहीं है इहाँ।चुप्पै रहो..." खिलावन की आवाज ।
' तुम इहाँ काहे घुसे बइठे हो ?" मनका बराबर धकियाने की कोशिश कर रही है ।
"हम हैं खिलावन !अउर केऊ नहिन है इहाँ , " सोर मचावन ते तुम्हार बदनामी होई ,भौजी । तुम्हार मरद त बेकार हन........।"
"अच्छा ,तो ई बात है ! निकर हियाँ ते....। अच्छा..ले..ले....। "चटाचट-चटाचट चाँटे मारे जारही है , ठौर-कुठौर जहाँ हाथ पडे । क्रोध मे भर पीटे जा रही है.अंधियारे मे नाक- मुँह कुछ सुझाई नहीं दे रहा , नाक पर एक झन्नाटेदार झापड पडा.। खिलावन बिलबिला गया.। इतने मे बाहर कुछ हलचल हुई , सुनकर वह चिल्लाया , " अरे , गुरदीन ! ई देखो तुम्हार मेहरिया का करत है ?"
गुरदीन हाथ मे जलती ढिबरी लिए अन्दर घुसा ।
सामने पिटाकुटा खिलावन और तमकी हुई मनका ।
" ई का हुइ रहा है ? इहै लीला करन को बाकी रहि गई ? इहाँ अँधियार मे आपुन यार को बुलाए मूं काला कर रही है , हरामजादी ! अउर खिलावन तुम्हऊ .......। "
" इहै हमका बुलावा रहै गुरदीन , हमते कहित रही.......।"
मनका फिर हाथ उठा कर झपटी , खिलावन तेजी से पीछे हटा , गुरदीन बीच मे आ गया ।
"काहे री बेसवा , ई सब करै का यू घर ही बचा रहै ?"
" हरामी कुत्ता ,झूठ बोलित है । हम या ते कबहूँ बातौ नाहीं करी ।"
"काहे ? हमका कसम न दिलाई रहे..इत्ती बेरा आवन की ? हम ईका बहुत समझावा...ई कहिन हमार मरद कउनो मरद नाहीं.....हमार भी मत मारी गई....।"
इतने मे नथिया आ गई और हल्ला सुनकर लडखडाते पैरों बुढऊ भी आते दिखे ।
" देख ले अम्मा इहका ! आज रँगे हाथ पकड लिहिन । बडी बदमास मेहरिया है ।"
नथिया भडक उठी , " इहै लच्छन हैं कलमुही केर ......"
गुरदीन और नथिया बाही-तबाही बक रहे हैं , बुढऊ अवाक् खडे हैं , खिलावन मुँह सहला रहा है ।
सब तरफ से घिर गई मनका । एकदम विमूढ !
" ई कसम नाही धराती तो हम काहे आते.?....अब तुम लोगन को देख के उलटी चाल चलित है ।"
चुप खडी मनका एकदम आगे बढी , सामने खडे खिलावन को जोर से धक्का दिया , वह दीवार से टकराया , आगे बढ दोनो हाथों से उसका सिर धाड़ से दीवार से दे मारा ।
"बोल , हरामी ! हम तोहका बुलाए रहे ? बोल कूकर , नाहीं अभै जान निकार के दम लैहौं..।"
खिलावन की कुछ कहने की हिम्मत नहीं पडी ।
सब भकुआए खडे रह गए ।
मनका फिर उसका सिर दीवार पर मारने को उद्यत हुई खिलावन की आँखे सफेद पड गईं ।
" बोल,सच्ची बोल ! नहीं तो ले...।"
वह भयभीत चिल्ला उठा ," नाहीं , हम सच्ची बात बताइत हैं.......।"
" अरे ,चण्डी..ओहि का मार डारै का काहे तुली है ? छोड दे ओहिका , " सास आगे बढी तो मनका ने एक हाथ से उसे परे कर दिया ।
"तुम सब चुपाय जाओ , आज हम निपट लेबै । बोल कूकर,नाहीं तो ले.....।"
वह बुरी तरह डरा हुआ,पीछे हटते हुए बोलने लगा,"हमका माफ करो...पहिले हमका छोड दे......।"
"नाहीं छोडब ," मनका गरजी , " पहिले कबूल...कबूल हरामी..." फिर झकझोरा उसने ।
" तुम नाहीं बुलावा । तुम कबहूँ नहीं बुलावा.....।"
" फिन तू काहे इहाँ घुस के बइठा , हरामी की औलाद ?" मनका ने उसे छोडा नहीं , फिर जोर से उसका का सिर झकझोरा , जैसे दीवार से भडीक देगी ।
"सब सच्ची बताइत हैं ," वह बेतरह घबराया बोलने लगा , " गुरदीन हमका कहे , हमार मेहरिया अईस नहीं दबेगी...ओहिका रँगे हाथ पकडना है । सो तुम हमार मदत करो....हम इहै के कहे ते...।. .तोहार पाँव परित हैं , भौजी..,"वह मनका के पाँवों की ओर झुकने लगा , " हमका माफ करो । "
मनका आग्नेय नेत्रों से घूर रही है , अपने पाँव नहीं छूने दिए उसने - एक ओर हट गई । ससुर ने कानो पर हाथ रख लिए हैं , सास ने सिर झुका लिया है और गुरदीन का चेहरा राख जैसा फक्क !
"बोल ,सिगरी बात बता , " उसने तुर्श स्वर मे आज्ञा दी ।
"बस , इहै बात रहे । हम इहका बहुत समुझावा त ई मार गुस्साए लाग,...फिन हमका कसम उठवाय दिहिस........।"
वह विचार करती-सी बोली , " काहे ई सब.....।"
खिलावन एकदम कबूलने लगा , " ई कहित रहा एक बेर औरतिया क ऐब लग जाई त सारी जिनगी सिर उठावन की हिम्मत ना करी । हमार भारी गलती रही जौन ईका कहे मे आय गए । हमका माफी देओ ," वह अपने गालों पर चटा-चट चाँटे मारने लगा ।
"चल भाग हियन ते ।आगे सकल न दिखायो अपनी..।"
वह एकदम दरवाजे से निकल भागा ।
मनका गुरदीन की ओर घूमी , वह एकदम लडखडा गया । भयभीत नेत्रों से मनका की ओर देखते हुए वह गिरते-गिरते दीवार से टिक कर जमीन पर बैठ गया ।
पाँव से उसे सीधा कर झकझोर दिया मनका ने , " आज तो जी करत है तोर छाती पे दूनौ पाँव धर के खडी हुइ जाऊँ । मरदुए , आपुन मां दम नाहीं त दूसर का न्यौत लाएउ....भडुए.., " मनका ने अपना एक पाँव उसकी ओर बढा दिया ।
"हाय,हाय ! मर जाई , " सास चिल्लाई , " अरे ,गल्ती हुइ गई , माफ कर दे ओहिका । रहै दे बहुरिया......अरे मर जाई ।"
"मर जाई त रोय के जिनगी काट लेबै , मुला अइस मरद से राँड भली...।"
वह फिर बढी । भय-त्रस्त सास दौड कर आडे आ गई , " नहीं-नहीँ , ओहिका छिमा कर दे बहुरिया । हम हाथ जोडित हैं , तोहार पाँव परित हैं....देख ऊ भी हाथ जोड क माफी माँग रहा है । छोड दे बहुरिया ।"
" ई कौनो आदमी है ," हिकारत से कहते हुए मनका ने ठेल दिया उसे, " जा-जा भाग ! दूर हो इहाँ ते । हमार एक हाथ पड जाई त चार गज दूर गिरी.....नेक ऊ सरम होय त चुल्लू भर पानी महियाँ डूबि मर...जा..हटि जा ,हमार सामै न ..।"
वह लडखडाता हुआ उठा और कोने मे ढेर हो गया ।
"अब सान्त हो जा । ओहिका कसूर माफ कर दे....." सास गिडगिडा उठी । उसकी हिम्मत नहीं हुई कि गुरदीन के पास जाकर देखे कि उसे दौरा तो नहीं पड गया ।
मनका ने तीखी दृष्टि सास पर डाली ।गला बिल्कुल खुश्क हो रहा था। झटके से घडे मे से पानी उँडेल कर पीने लगी ।
मन का ताप किसी तरह शान्त नहीं हो रहा ।झुक कर लोटा रखने के बजाय वहीं लुढ़का दिया उसने ।गुर दीन पड़ा था , देखती रही कुछ क्षण उसकी ओर ।नहीं, आज दया नहीं आ रही ,बिल्कुल नहीं ।
'ई सुसरा कोई मरद है ?

. एकौ लच्छन है मरद केर ? तन से तो निरा हिजड़ा रहा सुरू से ,मन भी मानुस केर नाहीं । मेहरिया की इज्जत बचावे का तो दम नाहीं ,औरन के हाथन लुटावै का उतारू है ।'
बोलने में आज किसी की शरम नहीं मनका को, किसी का लिहाज़ नहीं। ससुर मुँह ढँके पड़े सुन रहे हैं सास आँखें फाड़े देख रही है ,और मनका बोले जा रही है ,'एकौ लच्छन नाहीं , मरद समुझत है आपुन का ,,ई से का होई ,खड़े होवन का दम नाहीं ,मरो सो डरो रहत है ।... मइया .. ई पूतर केर  धोखे ते..बियाह कराय लाई ..अब हमका दोस लगाइत है,..हमका बाँझ बताइत है । औलाद चाहित है ?... बस हुइगा ।... जी फाटि गा हमार.. . अब नाहीं ..हम नाहीं निभाव सकित.. ना होई हम ते...एकर सकल ना दिखिबे कबहूँ ,,अब ना .नाहीं रहिबे इहाँ .. .।'
स्वर अस्फुट होता गया, वह बाहर निकल गई ।
ससुर थोड़ी देर आहट लेते रहे फिर बोले ,' अरी देख, ऊ कहाँ गई ?अब का होई ...?
सास की बाहर जाने की हिम्मत नहीं पड़ी ।
ससुर फिर बोले ,'अरी जा ,हाथ-पाँव जोड़ि के मनाय ला ।ऊ न होई तो का होई हमार ?
दरवाज़े पर खड़ी हो झाँक कर देखा - बाहर आधी रात का सन्नाटा पसरा था । सब तरफ़ सूनसान ।इधर-उधर निगाह दौड़ाई।
पेड़ के नीचे घुटनों में मुँह दिये मनका हिलक-हलक कर रो रही है । सास कुठ क्षण देखती रही फिर अंदर चली गई ।
' ऊ कहाँ गई ?'
' रोय रही है पेड़ तर बैठी ।'
ससुर बड़बड़ा रहे थे - ऊ घर माँ रहे तौ चैन नाहीं , निकरि जाय तौ हूँ चैन नाहीं !
' आँसू बहाय के जिउ पटाय जाई तौन फिन चली आई ।जाई कहाँ इत्ती बेरा ?
**
कोठरी का दरवाज़ा सुबह तक खुला पड़ा रहा ।
सुबह उठते ही बुढ़िया ने निगाह डाली । जगह खाली थी ।
झपट कर बाहर आई । मनका कहीं नहीं थी ।
सिर पीट लिया उसने ।
लुटी-सी खड़ी रही कुछ देर ।
अंदर आते ही कोने में पड़े गुरदीन को देखा ,कुछ क्षण देखती खड़ी रही । मन विरक्ति से भर उठा ।
' ई के बस का कबहूँ कुच्छौ न रहा। ...कइस-कइस जोड़-जतन कर सादी कराय दिहिन ...,अइस ढंग की लुगाई केऊ सम्हार न पावा ।' गुरदीन को कोसने लगी ,' अरे , हम का जानित रहे ! तो से तो ऊ कागभगोड़ा नीक अहै ... कौआ पंखिन ते आपुन खेत तो रखावत है ।तू तो बेहया ससरा खुदै न्यौत लावा ।...कुछौ न बचा ...।अब हम का कही ?..का करी.. कहाँ जाई ?.. लोगन का कईस मूँ दिखाई। ...सौरी में काहे न मरि गवा ..
जौन अऊर लरिकन का रोय-पीट के सबुर करि लीन इहै का करि लेतिउ .. ।'

कीचड़ भरी आँखें मिचमिचाता गुरदीन चुपचाप पड़ा था ।

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1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही अच्छी कहानी...जब शुरू शुरू में आपका ब्लॉग पढना शुरू किया था न प्रतिभा जी...तो ये कहानी छोड़ दिया करती थी..इसकी भाषा और शीर्षक से लगता था...मेरे टाइप की कहानी नहीं ही होगी..:( आज बहुत दिनों बाद इधर आना हुआ..ये कहानी पढ़ी....बस एक ही बार पढ़ी.....मनका के पात्र को जाना समझा....आशा है...उम्मीद भी..मनका ने घर छोड़ने के बाद किसी खायी कुएं नदी की शरण नहीं ली होगी....
    खैर..एक ये बात मनका की बहुत बहुत पसंद आई -

    ''गुर दीन पड़ा था , देखती रही कुछ क्षण उसकी ओर ।नहीं, आज दया नहीं आ रही ,बिल्कुल नहीं ।''

    यहाँ तो पीठ ठोक कर शाबासी देने का मन किया था मनका को......अगर उसे दया आ जाती तो मेरा मन कहानी से उचाट हो जाता.......इस एक प्रतिक्रिया से कहानी से जुड़ गयी....और वो होता है ना...आराम से कहानी पढ़ते पढ़ते एकदम सजग होकर बैठ गयी......और अंत में भरपूर मुस्कान फैल गयी चेहरे पर....:)

    कितना अच्छा असर हुआ था मनका के दिमाग पर माँ काली के स्वरुप और उस प्रवचन का.....काश मनका की तरह और महिलाएं भी इसी दिशा में इसी तरह से सोचा करें....

    बहुत बढियां प्रस्तुतीकरण है प्रतिभा जी...विषय तो हालाँकि पढ़ चुकी हूँ बहुत बार..मगर भाषा की ऐसी खुशबू....दृश्यों की ये लज्ज़त कहीं मिली नहीं.......बहुत ही प्रभावशाली गढ़ा है मनका का पात्र आपने......वहीँ उसके सास से shiddat se नफरत हो उठती है अंत के दृश्य में.....बहुत बहुत क्रोध आता है......'नारी ही नारी की दुश्मन होती है'...यही बात अंतत: सत्य साबित होती है मगर जब जागरूकता की बात आ जाती है...तो मनका सरीखी नारियों से कोई नहीं जीत सकता..:)

    माँ को एक बार एक जेल में महिला क़ैदियों के परीक्षण के लिए जाना था ....वापस लौट कर उन्होंने एक महिला के बारे में बताया...उम्रकैद की सजा काट रही वो स्त्री ....मानों 'मनका' बनकर आपकी कहानी में सजीव हो उठी हो आज.......:) बरबस उसकी yaad आ गयी...
    दरअसल...वो लड़की भी मनका के तबके की ही थी...एक मजदूर......उसके ससुर और पति उसे बेहद तंग किया करते थे.....एक दिन आजिज़ आकर उसने एक बड़ा सा पत्थर ससुर और पति (जो शराब में धुत्त हो उसे जान से मारने दौड़े थे) पर पटक दिया.....घटनास्थल पर ही दोनों की मौत हो गयी...और लड़की को सज़ा........................मगर जैसा माँ ने मुझे बताया...कि परीक्षण के दौरान उसने कोई गिला शिकवा पछतावा नहीं दिखाया....वो खुश थी... ..और ख़ुशी अन्याय से लड़ने की तो थी ही....साथ ही ये भी बात थी कि जेल में रहकर तमामतर लघु उद्योग का काम उसने सीख लिया था...बाहर निकल कर वो किसी पर बोझ नहीं रहेगी......

    वास्तव में उसी सकारात्मक लड़की ने मेरे बालमन पर इतना स्थायी प्रभाव डाला था...कि कभी उसको नहीं भूल सकती......उसने मुझे सिखाया....कि अन्याय के खिलाफ लड़ना ही चाहिए...और हर अंत में एक नया प्रारम्भ भी ढूंढना ही चाहिए........और जब वो कर सकती है...तो सब कर सकते हैं...
    हाँ मगर मैं किसी को जान से मारने का समर्थन नहीं कर रही....मनका से और क्या उम्मीद कर सकती थी मैं.....:( कोई शिक्षित लड़की होती तो उसका लड़ने का तरीका दूसरा होता....बस.....मुख्य बात अन्याय को न सहना ही है..

    उसको और आपकी 'मनका' को ''hatzz off''

    आभार..इस कहानी के लिए....इसकी सहज भाषा को भी ...जो पूरी कहानी के दौरान ज़ेहन में पहली बरसात की सौंधी महक सी महकती रही......शायद बहुत से ऐसे लोग भी इस कहानी को पढके इसका संदेश ग्रहण कर सकेंगे जिनके लिए आपने ये लिखी होगी......:) और हाँ प्रतिभा जी.....शीर्षक.......बहुत अच्छा शीर्षक दिया है.....एक दुर्बल/पौरुष से रहित पुरुष की तुलना वाक़ई काग भगोड़े से भी नहीं हो सकती.......

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