सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

माश्टन्नी.


*
कभी -कभी दिनों ,नहीं हफ़्तों लगता है जैसे सिनेमा की रील चल रही हो -मैं मात्र एक दर्शक रह जाती हूँ .रोज़ के काम उसी तरह चलते हैं झाड़ू-बुहारी करती हूँ ,दूध गरम करती हूँ ठण्दा करती हूँ बच्चों के हाथ में गिलास पकड़ा देती हूँ .समय से खाना बनाती हूँ ,स्कूल जाती हूँ कक्षाओं में जा-जा कर पढाती हूँ ,शाम को फिर वही रोज़मर्रा के काम - सबकुछ उसी तरह . सबके साथ हँसती हूँ पर मन वैसा ही अवसन्न-सा रहता है .सब ऊपर-ऊपर से बीतता चला जाता है .इस स्वप्न जैसी स्थिति से जागती हूँ जब कोई बात मन की सतह तक पहुँचती है .
बिट्टू-टिक्की लड़ रहे हैं . दोनों में मार-पीट हो रही है . चीख-पुकार आवाज़ मेरे कानों में आती है .
' बिट्टू ... ' मैं आवाज़ देती हूँ .
कोई जवाब नहीं आता.हाथ का काम छोड़ कर उधर जाती हूँ - उसने टिक्की के बाल मुट्ठी में पकड़ रखे हैं,वह चीख रही है.मैं यंत्रवत् बढ़ती हूँ .
' चटाक् ' एक चाँटा पड़ता है बिट्टू के गाल पर .
वह बिलबिला उठता है .टिक्की स्तम्भित -सी खड़ी है .गाल सहलाता बिट्टू मेरी ओर ताक रहा है ,रोना तक भूल गया है . गाल पर उभर आये मेरी उँगलियों के निशान !
सात साल का बच्चा सिसकी भर -भर कर रोने लगा है .
अरे ,मैने यह क्या किया ?
मैं आगे बढ़ कर उसे अपने से चिपटा लेती हूँ .भयभीत टिक्की मेरे पास सिमट आई है .
यह क्या कर डाला मैंने , मेरी आँखों में आँसू भर आते हैं .बच्चे को थपक रही हूँ मैं , वह चुप गया है
वह मेरी ओर देखता है -
' मम्मी लोओ मत मेरे जोल छे नई लगा .'
मेरे रुके हुय़े आँसू टपकने लगते हैं - यह चाँटा तो मेरे ही गाल पर पड़ा है बेटा !
आखिर कब तक झेलती रहूँ ये विडंबनायें !मन बहुत उद्विग्न है .मैं अकेली हूँ सभी मोर्चों पर लड़ने के लिये .
एक है स्कूल का मोर्चा !वह मोटी-सी असंतुलित मस्तिष्कवाली हेडमास्टरनी हमेशा धौंस जमाती रहती है .जो उसके पीछे-पीछे घूम कर जी-हुजूरी नहीं करता ,उसी के पीछे पड़ जाती है . मेरे पास कहाँ है इतना समय ?स्कूल से घर भागती हूँ ,और घर से स्कूल .शायद ही कोई मास्टरनी किसी दिन समय से लौट पाती हो .विवाहित और बच्चेवालियों से तो जैसे दुश्मनी हो उसकी .कोई न कोई काम निकाल कर रोज़ एक- डेढ घंटा छुट्टी के बाद रोक लेती है . लौटते समय साथ होता है जाँचने के लिये कापियों का गट्ठर .
दूसरा मोर्चा है घर .हम दोनों नौकरी करते हैं ,सब को बड़ी-बड़ी आशायें हैं ,बड़ी-बड़ी फ़रमाइशें हैं .सभी को मुझसे शिकायत है .मुझे छुट्टियों में सब को घर बुलाना चाहिये ,तीज-त्योहार करवाने चाहियें ,उनके छोटे-मोटे शौक पूरे करने चाहियें .सब कहते हैं मैं हर बात में पीछे हटने लगती हूँ - ' ये'भी यही कहते हैं .शिकायतों का दस्तावेज सुनने के लिये मैं अकेली हूँ .'ये' यहाँ भी मेरे साथ नहीं हैं .
और एक है मन का मोर्चा . यहाँ अपने विगत और वर्तमान का लेखा-जोखा मुझे अकेले ही करना है .वहाँ किसी कोई दखल नहीं - इनका तो बिल्कुल ही नहीं .अच्छा ही है . होता तो हमलोगों के बीच की दूरी और बढ़ जाती .
टिक्की छोटी थी तो सास जी साथ ही थीं .जितना मुझे लौटने में देर होती ,उतना ही उनका पारा चढ़ता जाता .मर्दों को देर हो तो ,क्या हुआ उन्हें तो हजार काम रहते हैं .मुझे तो समय से घर आना ही चाहिये .
घर में पाँव रखते ही सुनने को मिलता ,इतनी देर से लड़की रो-रो कर हलकान हो रही है .तुम्हारे लौटने का कोई टाइम ही नहीं .....
दूध की शीशी अभी-अभी उन्होंने उसके मुँह में लगाई है .मैं आगे बढ़ कर उसे लेने को हाथ फैलाती हूँ .
वे झटक देती हैं , 'जाओ ,दही जमा लो अफने दूध का .नहीं आयेगी वह .'
मुझे बहुत भारीपन लग रहा है . ब्लाउज़ दूध से तर हो जाता है .जाने कितनी बार साबुन से धो-धो कर मुझे ही साफ़ करने पड़ते हैं .
टिक्की दूध पीते-पीते सो गई है .सास जी भी उसी के पास लेट गई हैं .वह गाना गाने लगती हैं ,गाते-गाते आँखें मूँद लेती हैं .मैं चुपचाप रो रही हूँ .
ढेरों कपड़े जो मेरी अनुपस्थिति में बच्ची ने गंदे किये हैं ,खाट के नीचे से मुझे मुँह चिढ़ा रहे हैं .
**
उस दिन स्कूल से लौटते में फिर बहुत देर हो
रेणुका भी थी साथ मैं ,बोली ,'घर पर सब लोग कुड़कुड़ा रहे होंगे .
' हाँ ,आज फिर इतनी देर हो गई .'
' सच बात है ..'.उसने गहरी साँस ली , 'कौन सोचेगा -- ये भी थक जाती होंगी .'
सब यही सोचेंगे कुर्सी पर बैय़ कर आ रही हूँ ,रोज़ साड़ियाँ बदल-बदल कर मौज मारने जाती हूँ .घर में घुसते ही सबकी शिकायत भरी दृष्टियाँ और दिन भर की परेशानियों का चिट्ठा सुनना - बिट्टू लड़ता है ,टिक्की रोती है .आज चार बार कपड़े गंदे किये .प्याला फोड़ दिया. .बिल्ली दूध पी गई .
फिर वही निष्कर्ष 'और घरों में भी तो बच्चे हैं ,मेरे बच्चे सबसे अधिक बिगड़े हुये हैं .,सबसे ज्यादा नालायक हैं .
बच्चों की ओर देखती हूँ ,उनकी आँखों में वही सहमापन .
जब 'ये' आते हैं वही रिपोर्ट फिर सुनाई जाती है .'
ये' तो थके हुये होते हैं ,डाँटना-फटकारना शुरू करते है .मुझ पर झल्लाते हैं- 'बच्चों को समझाती -सुधारती नहीं .'
माँजी का वही रोना-धोना - उनसे बच्चे नहीं सम्हाले जाते . उनका अब जाने का मन है .
मैं काम जाती हूँ ,सुनती जाती हूँ . बिट्टू के बाद साल भर की छुट्टी ले ली थी तो बड़ी संतुष्ट रहती थीं .खाना खा कर पड़ोस में बैठने ,मंदिर में कथा-वार्ता सुनने निकल जाती थीं .
कभी-कभी ये टोकते भी थे - ये रोज़-रोज़ क्यों निकल जाती हैं ?घर पर टिकती ही नही .
मैं जवाब देती ,'चलो अभी तो मैं घर में हूँ ,बाद में इन्हें ही सम्हालना है .'
अगर मैं फिर घर पर रह कर उनकी सेवा करने लगूँ तो वे खुश रहेंगी ..फिर कहीं और जाने को तैयार नहीं होंगी .लेकिन फिर ..घरृखर्च कैसे चलेगा ?
मैंने तो इनसे एक दिन कहा था ,तो फिर विदाउट पे छुट्टी ही ले लूँ ?
'उससे क्या होगा ?बच्चे सुधर जायेंगे ?हर दूसरे साल विदाउट पे ,तो नौकरी की जरूरत ही क्या है !
'ठीक है तो छोड़ दूँगी .'
तो नाराज होने लगे ,'तो पहले की ही क्यों थी ?बेकार मैंने इतनी दौड़-धूप करके लगवाया .और लोग तो नौकरी के लिये सालों भटकते हैं .बी.ए. ,एम.ए. पास को तो कोई पूछता नहीं तुम इन्टर पास को मिल गई तो छोड़ देने पर उतारू ! मुझे क्या फिर बाद में पछताओगी .यह तो नहीं कि बी.ए. कर लो ,ग्रेड भी बढ़ सकता है '
हाँ ,नौकरी के लिये मैंने स्वयं कहा था .मैंने सोचा था पैसे से सब-कुछ खरीदा जा सकता है - सुख शान्ति ,संतोष ,अच्छा रहन-सहन,मनोरंजन,मान -सम्मान .पर तब यह नहीं सोचा था कि छोटी-सी नौकरी पर जितनी आशायें बाँद रही हूँ वे मृगतृष्णा ही सिद्ध होंगी . सब की फ़र्माइशे बढ गई हैं घर के खर्चे बढ गये हैं .मिली है मुझे तन-मन की क्लान्ति ,ऊब, अशान्ति और शिकायतें .परिवार में कोई भी काम होने पर सब हमीं से आशा लगाते हैं .
हर जगह सुनने को मिलता है ,'तुम तो दोनों लोग कमाते हो !' 'तुम्हारी तो दोहरी कमाई है .'
जहाँ जरा हाथ समेटा सबके मुँह फूल जाते हैं .कहीं भी जाने पर किसी-न-किसी की फ़र्माइश आ जाती है .
अक्सर ही लोगों के पैसे खतम हो जाते हैं या उन्हें खास ज़रूरत पड़ जाती है .
'ये' आकर कहते हैं उन्हें चाहिये दे दो .वे जाकर एम.ओ. से वापस कर देंगे .अब यहाँ वे और किससे कहें .डेढ सौ रुपये की तो बात है .'
वापस ? अब तक तो कभी मिले नहीं .लेनेवाला सोचता है ,चलो ,भागते भूत की लँगोटी ही भली !
'ये' सब की फ़र्माइशों को पूरा करना,सब को संतुष्ट रखना चाहते हैं .मेरी ज़रूरतें तो और सिमट गई हैं - एक-एक क्रीम की शीशी के लिये हफ़्तों टालती रहती हूँ .
माँ जी रोज़-रोज़ सुना देती हैं ,'अब मैं चली जाऊंगी .'
आखिर कहाँ तक रोकूँगी उन्हें सम्हालना तो मुझे ही है .
वहाँ उनके जीवन में उत्सव हैं-त्योहार हैं,शादी-ब्याह हैं गाना-बजाना है सखी-साथिनें हैं ,रस और उल्लास से छलकता जीवन !यहाँ क्या है -व्यस्तता ,भाग-दौड़ और खीज .वे क्यों रहेंगी मेरे पास ?
सुबह उठते ही दौड़-दौड़ कर काम निवटाना ,फिर जल्दी-जल्दी स्कूल भागना -रास्ते में नाखूनों और चूड़ियों में लगा आटा छुड़ाते रहना .जल्दी इतनी होती है क नहाने के बाद दुबारा हाथ-पाँव भी नहीं धो पाती .जल्दी-जल्दी जूड़ा लपेट कर बिन्दी लगाई और उल्टे-सीधे कपड़े पहन कर भागी .चलते-चलते याद दिलाती जाती हूँ -बिट्टू का डब्बा तैयार रखा है .कल की सब्जी अलग कटोरी से ढकी है ...आदि आदि .
मेरा खाना ? भागते-दौड़तो खा ही लेती हूँ -भूखा कहाँ तक रह सकता है कोई !
बिट्टू से पहले दो बच्चे होते-होते बीच में ही गड़बड़ हो गये .फिर ये दोनो .न तो ठीक से भूख लगती है ,न खाली पेट रहा जाता है .जी घबराने लगता है .सब कहते हैं - तुम्हारी तो शकल ही बदल गई .
पड़ोस के लोग अपने बच्चों को मेरा परिचय देते हैं ,'देखो ये बहेन्जी हैं .स्कूल के बच्चों को पढाती हैं .तुम गड़बड़ करोगे तो तुम्हें भी मारेंगी .'
बच्चा भयभीत-सा मेरी ओग देखता है .पडसिने आपस में बात करती हैं तो मेरे लिये - वो मास्टरनी कहती हैं .
क्यों ? क्या मैं किसी की माँ नहीं ,किसी की पत्नी नहीं ,किसी की बहू नहीं ,मेरा कोई नाम नहीं ? दूसरी पड़ोसने ऑंटी हैं , चाची हैं ,वर्माइन हैं ,शर्माइन हैं ,ऊपरवाली हैं .मैं सिर्फ़ बेहन्जी हूँ ,माश्टन्नी !
मुझे इस शब्द से नफरत हो गई है .
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बाहर के कमरे से इन्होंने आवाज़ लगाई ,'अरे सुनती हो !'
रुक जाओ , दूध उबलने ही वाला है .'
वे खुद ही चौके के दरवाज़े पर आ गये , 'नरेश आ रहा है ,हमलोगों के साथ रहने के लिये .अब बच्चों को अकेला नहीं रहना पड़ेगा .'
'क्यों ? काहे के लिये ?जब मैं बीमार थी और आने के लिये लिखा था तब तो कोई नहीं आया ,अब कैसे याद आ गई .'
' उँह, तुम्हें तो वही सब याद रहता है .अब आ रहा है तो क्या मना कर दें !'
' कुछ काम है क्या ?'
इन्होने पत्र मेरी ओर बढ़ा दिया .अच्छा,तो यह बात है .टाइपंग और शार्टहैंड का कोर्स करना है .और भी कोई ट्रेनिंग है वह भी ज्वाइन करना चाहता है . लिखा है - पिताजी नहीं मान रहे हैं वे अभी से नौकरी कराना चाहते हैं .दादा ,आप चाहें तो करा सकते हैं .डेढ़-दो साल की बात है .फिर अच्छी नौकरी लग जायेगी तो मैं भी कुछ समझूँगा ही .अम्माँ कहती हैं आप दोनों नौकरी करते हैं भाभी को मुझसे कुछ सहारा ही मिलेगा ....
अच्छा, तो जुम्मेदारी मेरी और एहसान भी मेरे ही सिर !
जब बच्चे छोटे थे तब तो कोई आया नहीं ,अम्माँ भी रो-रो कर चली गईं .उन दिनों नरेश भी आये दस-पन्द्रह दिन रहे .सारी सुविधायें मैंने दीं, फिर भी बच्चों से अनखाते रहे ..जो चाहते थे, करते थे खाना अपने मन का चाहिये .जब चाहा बाहर लिकल गये .अब तो उनकी फ़र्माइशे मुझसे पूरी नही होंगी -कभी पिक्चर ,कभी आइसक्रीम ,कभी दोस्तों का चाय-पानी !
बच्चों की कीमत पर अब नहीं करूंगी यह सब .बिट्टू और टिक्की अब समझदार हो रहे हैं .दूसरा कोई उन्हें रोके-टोके , डाँटे-फटकारे ,दबाये-धमकाये, अब सहन नहीं करूँगी .
**
ये अभी तक चौके के दरवाज़े पर खड़े हैं .
'यह कैसे हो पायेगा ,' मैं हरती हूँ .
'क्यों ?अब तक भी तो बीच-बीच में कोई रहता ही रहा है .'
'कैसे रहा है ,यह मैं जानती हूँ ,तुम तो सुबह लिकल जाते हो शाम को लौटते हो .अब वह सब मेरे बस का नहीं है .'
'तुमसे कौन करने को कहता है ?वह कोई बच्चा है जो तुम्हें सम्हालना पड़ेगा ?'
'पर मेरी इतनी समर्थ्य नहीं है .अकेले में चाहे बच्चों को रोटी नाश्ते में दूँ ,या डबल रोटी .उसके लिये मुझे ताजा तैयार करना पड़ेगा ,खाना भी विधिपूर्वक बनाना पड़ेगा .नहीं तो वे मुँह बचकाते हैं और सबके सामने चार बातें मुझे ही सुननी पड़ती हैं .'
'मना कर देना तुम ! मत बनाना चाय-नाश्ता .और रोटी भी न बना सको तो अपनी उसकी मं बना लूँगा .'
बस अपनी उसकी ?
'अब तक तो मुझे कभी बीमारी में भी बना-बनाया खाने को नहीं मिला .अब अपनी उसकी खुद बनाओगे ?'
'मुझसे तो मना नहीं किया जायेगा . 'इन्होंने निर्णय ले लिया .
चार दिन से यही झगड़ा चल रहा है .अब तक बच्चे छोटे-छोटे थे ,तब सबको परेशानी होती थी .जब वह सब मैंने सम्हाल लिया तो अब किसी की क्या जरूरत ?'मेरी दी हुई सुविधाओं को तो वे अपना अधिकार समझते हैं .अब निश्चय कर लिया है कि किसी से कुछ आशा नहीं रखूँगी .किसी और के रहने पर बच्चे भी कैसे दबे-दबो रहते हैं .उन लोगों के आलोचनापूर्ण वाक्य दोनों को कैसा कुण्ठित कर देते हैं ..
इधर कुछ सालों से घर में शान्ति थी .मैंने भी कुछ अच्छे कपड़े बनवा लिये ,घर में आराम और सुविधा के कुछ सामान भी आ गये .पर नरेश की इस चिट्ठी ने फिर वही वातावरण बना दया .
जब आयेंगे हर चीज़ दंख-देख कर चौंकेगे- 'अरे यह कब खरीदी ?'
ये फ़र्नीचर कब लिया ?सब एक साथ ही लिया ?कैश लिया या किश्तों पर ?ठाठ तो आपलोगों के हैं .'
एक बार टिक्की बीमार थी .दवा लाने के लिये कहने पर यही नरेश कहते थे ,'भाभी ,रिक्शे के पैसे दे दो तो ला दूँ .इतनी धूप में हमसे तो पैदल नहीं चला जायेगा .'
बचे हुये पैसे कभी वापस नहीं मिलते थे .याद दिलाने पर जवाब मिलता ,'इत्ती देर हो गई थी वहाँ लस्सी पी ली .' या ऐसे ही कुछ और .
इन्जेर्शन लगवाने भी साइकल पर बच्चे को बिठाल कर नहीं ले जा सकते थे ..
तब तो कभी-कभी ये भी झींक जाते थे ,कहते थे,'जब कुछ सहारा ही नहीं ,तब इनके रहने से फ़ायदा ही क्या !'
अब फिर उधर ढल गये .
नरेश तो बाहर से आते ही कहते हैं ,'भाभी ,चाय पिलवाओ .'
'अरे, चाय के साथ कुछ है या नहीं ...?'
मैं चाय-नाश्ते में लगी रहती ,बच्चे दौड़-ददौड़ कर पहुँचाते रहते .फिर आकर धीरे-से मुझसे पूछते ,'मम्मी ,हम भी खा लें ?'
;क्यों पापा और चाचा ने तुमसे नहीं कहा खाने को ?'
'------------- '
अपने पास पटरा डाल कर मैं उन्हें बिठाल लेती हूँ .प्लेट में रख कर नाश्ता पकड़ाती हूँ .छोटे-छोटे हाथ मुँह की ओर जा रहे हैं ,इतने में आवाज़ आती है ,'बिट्टू ,एक गिलास पानी .'
वह हाथ का कौर प्लेट में डाल कर दौड़ जाता है .मैं आहत सी देखती रह जाती हूँ .
कुछ कहूँगी तो सुनने को मिलेगा - 'बच्चों को बिगाड़ रही हो .'
ऐसे कई दृष्य स्मृति-पटल पर उभर आते हैं .
मैं अब बिल्कुल नहीं चाहती कि कोई आकर रहे .'ये' मुझे तैयार करने की हर कोशिश करते हैं .समझाना-बुझाना ,लड़ाई-झगड़ा सब आज़मा चुके हैं .अंत में कहते हैं ,अच्छा मैं उसे लेकर अलग रह जाऊँगा .'
यह इनका सबसे बड़ा और अंतिम हथियार है ,मैं बच्चों को लेकर अकेली नहीं रह पाऊंगी यब 'ये'जानते हैं .
सब तरह से हार गई हूँ मैं !
**
आज सुबह जल्दी ही घर से निकल आई हूँ -अब लौटकर नहीं जाऊंगी .रोज़-रोज़ की अशान्ति अब नहीं सही जाती .
बच्चों से कह आई हूँ ,'बीना दीदी बीमार हं ,उन्हं देखने जा रही हूँ .कुछ दिन वहीं रहूँगी .'
सवा दस की जगह नौ बजे ही निकल पड़ी हूँ .खाना बना कर रख दिया है ,खाने का मन नहीं हुआ .वैसे मैं भूखी नहीं रह पाती ,पेट खाली होता है तो सिर दर्द करता है ,बार-बार रोना आता है .
घर से जा रही हूँ ,यह बोध मन को तोड़े दे रहा है .कपड़े और कुछ जरूरी सामान कण्दी में रख लिया है .दो सौ रुपये मेरे पास हैं ही .स्कूल से सीधे बस स्टैंड जाकर सीतापुर चली जाऊँगी .वापस आऊँ तो बच्चों का मोह कहीं खींच न ले !

एक सप्ताह हो गया घर में अशान्ति मची है .'ये बार बार धमकी दे रहे हैं ,'घर छोड़ कर अलग रहूँगा जाकर .'
और बच्चे,''मुझसे कोई मतलब नहीं .'
' मुझसे मतलब नहीं ,बच्चों से मतलब नहीं तो मतलब किससे है ?'सिर्फ़ उन्हीं सब से ?'
' हाँ... यही सुनना चाहती हो तो सुन लो ...पैसा क्या कमाती हो ,हमेशा मनमानी करना चाहती हो .'
'क्या मनमानी की मैंने अब तक ?'
'क्या नहीं की ?
इसी बात में देख लो कौन अपने घर वालों को नहीं करता !'
' मुझे कोई अपना समझता ही नहीं ,न कोई इसे अपना घर समझता है .'
तुम्हारा स्वभाव ही ऐसा है ,मुझसे किसी को शिकायत क्यों नहीं है ?'
'हाँ तुम क्यों नहीं भले बनोगे !बुरी तो मैं ही हूं .'
इनके मुँह से अपने स्वभाव की बात मुझे बुरा तरह खटक रही है .सारी दुनिया कह ले तो ठीक पर 'ये' भी ...!
बहुत हो गया .अब तो मैं समझौता नहीं कर सकूँगी .
मैंने साफ़ कह दिया ,'मेरी मर्ज़ी के खिलाफ़ इस घर में किसी का दखल नहीं चलेगा .'
'ये कुछ नही बोले. तमतमाते हुये बिना खाये ऑफ़िस चले गये .
शाम को फिर बोल-चाल हुई तो बोले ,'तुमने उसी वक्त क्यों नहीं मना कर दिया था ?'
मुझसे किसी ने कुछ पूछा भी था ?और बात तो हमेशा सिर्फ़ तुमसे होती है .'
'तुम कह तो सकती थीं .'
'सबसे बुरी बनने के लिये मैं ही रह गई हूँ !'
'मुझे तो वह कुछ समझती ही नहीं .मैं क्यों तुमलोगों के बीच बोलूँ !'
'तो अब क्यों बोल रही हो ?'
'घर में जो कुछ करना है मुझे ही करना है इसलिये ....'
बात तबसे शुरू हुई जब पिछले दिनों बड़ी ननद आई थीं .सास जी से पहले ही सलाह-मशविरा हो चुका था .अब तो उस निर्णय को हम पर थोपने आईं थीं ..पहले तो इन्हें वहीं बुलाया था पर ये जा नहीं पाये . नहीं तो इन्हीं के साथ पुत्तन को भेज दिया जाता .
ये लोग इधर बात कर रहे थे चौके में मुझे सब सुनाई दे रहा था .
'भइया ,हम तो पुत्तन के मारे परेशान हैं .'
'क्यों ,क्या हुआ ?'
'अरे, दुइ साल हुइ गये बराबर फ़ेल हो रहे हैं .'
'अच्छा !'
'इस्कूल के लिये घर से निकलता हैगा और दोस्तों के साथ घूमता फिरता है . कभी सनीमा ,कभी नदी किनारे ,जाने कहाँ-कहाँ निकल जाता हैगा .'
'जीजा नहीं कहते कुछ ?'
'वो तो मार-मार के बुरा हाल कर देते हैंगे ..पर दुइ दिन बाद फिर जैसे के तैसे .हम कुछ कहें तो कहेंगे ,परेशान करोगी तो घर छोड़ के चले जाय़ँगे .'
'बड़ी अजीब बात है .'
'तुम्हारे पास रह कर पढ़ जाये तो एहसान माने, भैया .'
'यहाँ हमारी सुनेगा ?'

'काहे नहीं !दुल्हन तो खुद मास्टरानी हैं. .घर पे डाँट के पढ़ाती भी रहेंगी .फिर एक बार स्कूल में चल जाये तो पढ़ने लगेगा .यहाँ तो यार-दोस्त भी नहीं हैं .'....भइया हम तो इतना पढ़ी हैं नहीं .मास्टर लगाया तो उसकी सुनता नहीं ..'
'अरे सुनती हो ,' इनने आवाज़ लगाई , जिज्जी कुछ कह रही हैं .'
जिज्जी ने मुझे नहीं बुलाया था ,मुझे मालूम है .पर मैं जाती हूँ .
बड़ी दयनीय बन कर जिज्जी समस्या प्रस्तुत करती हैं .मैं झिझकती हूँ .वह फिर कहती हैं ,'खर्च की फिकर न करो ,जो पचास पछत्तर पड़ेंगे हम भेजते रहेंगे .'
मैं उनकी असलियत समझने लगी हूँ .एक नरेश ने बच्चों को सम्हाला था ,एक ये खर्चा भेज कर उसे मेरे सिर पर चढ़ायेंगी .हमेशा सुनने को मिलेगा सो अलग .
'पर मेरे करने से कैसे होगा ?'
'अब जिज्जी ने अपना असली हथयार निकाला ,मैं अम्माँ से पहले ही बात कर आई हूँ .कह रहीं थीं -काहे नहीं रक्खेंगी !मामियाँ क्या भांजे के लै इत्ता भी नहीं करतीं ! फिर तुम्हें तो और सहारा ही रहेगा .'
सहारा !पुत्तन जैसे बिगड़े हुये लड़के से !
चीज़ उसे समय पर हाथ में चाहिये ,नहीं तो मास्टरनी मास्टरनी कह कर शोर मचायेगा .बच्चों को चिढायेगा ,रुलायेगा .माँ जी और जिज्जी यही चाहती हैं कि उसकी खातिरदारी में लगी रहूँ .ना,ना उसके साथ तो मेरे बच्चे बिगड़ जायेंगे .
'सहारे की मुझे अब जरूरत नहीं जिज्जी .और न पढ़नेवाले को कौन पढ़ा सकता है ?...फिर मुझे तो इत्ता टाइम भी नहीं मिलता .'
इनके चेहरे पर तनाव आ गया था .ननद को अपने भाई की शह मिल गई थी ,सो कहती रहीं ,'तुम न चाहो तो दूसरी बात है दुल्हन .वैसे वह ऐसा तो नहीं कि किसी की माने नहीं .'
तभी तो गाली के बिना बात नहीं करता - मैंने सोचा
'हम लोग तय करके फिर बता देंगे ,तुम फ़िकर न करो जिज्जी .' 'इन्होंने सांत्वना दी .
मैं चौके मे लौट गई .
मैं लौट तो गई पर मेरी जान को एख झंझट लग गई ..
ये कहते हैं इनने जिज्जी के सामने खुद को अपमानित अनुभव किया है .
'जिज्जी ने बचपन में मेरे लिये कितना-कितना किया है,तुम क्या जानो .पहली बार उनने एक काम के लिये कहा और तुमने इस तरह जवाब दे दिया ...मेरी कोई इज़्ज़त नहीं ...'
माँ-बाप लड़कियों का करते हैं ,लड़कियाँ भाई-भतीजों का करती हैं इसमें कौन सी नई बात है -मैंने सोचा .
'तुम्हारे साथ किसी ने किया तो बदला चुकाने की जम्मेदारी मेरी है ?'..मेरे लिये भी बहुतों बहुत कुछ किया है ,उनके लिये तुम करोगे ?'
'उनके लिये करने का ठेका मैंने नहीं लिया है .'
इनके लिये मेरे मन में गहरी वितृष्णा भर उठी है .
ओह, सारा जीवन मुझे इसी आदमी के साथ बिताना होगा !
न जाने क्यों मुझे अनिमेष का ध्यान आ जाता है .अनिमेष से मेरा कभी कोई संबंध नहीं रहा ,एकाध बार स्कूलों के गेम्स में मेरा उसका साथ हो गया था .सामान्य सा परिचय भर .पर वह चाय और नाश्ते के समय कैसी सहज मुस्कराहट से आग्रह करता है .कुछ बातों में मेरा और उसका मन बहुत मिलता है .खेल-समारोह के कुछ प्रहर उसके साथ मैंने बड़ी सहज उन्मुक्त मनस्थिति में बिताये हैं .उन तीन दिनों में चार-चार,पाँच-पाँच बार मुक्त मन से खिलखिला कर हँसी हूँ मैं .वैसे उल्लासमय क्षण मेरे जीवन में गिने-चुने ही हैं ,इसलिये बहुत सहेज कर गाँठ में बाँधे हुये हूँ .
इन्होंने सोचा होगा हर बार की तरह पुत्तन आ जायगा तो झख मार कर सम्हालूँगी ही .
अबकी बार इन्होंने कहा था ,'इससे तो अच्छा है छोड़ दो नौकरी . मुझ पर अपनी धौंस तो नहीं दिखा पाओगी .'
'जब मैं तैयार थी तब हाँ नहीं की .अब तुम्हार निर्णय मान लूँ यह जरूरी नहीं है ..फर शादी के बाद पंद्रह सालों में तुमने मुझे दिया ही क्या है ?अब न तन्दुरुस्ती है ,न वह मन ही रहा है .जो दो जीवित हैं उन्हें उन सुविधाओं से वंचित नहीं करना चाहती जो मेरी नौकरी से उन्हें मिल सकती हैं ...अच्छा हुआ जो दो मर गये .उनकी परवरिश भी कहाँ होती ठीक से !अच्छा हुआ ऑपरेशन करा लया ,नहीं तो ....'
भीतर से शायद ये भी यही चाहते थे ,'तुम करो ,या न करो मुझे क्या फ़रक पड़ता है !मैं तो अपने पर कुछ फ़ालतू खर्च करता नहीं हूँ .'
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सुबह जब सामान लेकर निकली थी ,तब वहीं बौठे शेव कर रहे थे .मुझे सुनाई दिया था बिट्टू से पूछ रहे थे ,'कहाँ जा रही हैं तुम्हारी मम्मी ?'
स्कूल में मन बड़ा उखड़ा-उखड़ा सा रहा .किसी तरह खुद को सम्हाल कर बच्चों को पढ़ाती रही .सौभाग्य से आज हेडमास्टरनी नहीं आई थी .छुट्टी के बाद सामान उठा कर चलने को हुई तो रेणुका पास आ गई .बोली ,कहाँ जा रही हो ?'
'सीतापुर .'
'यहीं से चली जाओगी ...'उसने किंचित आश्चर्य से पूछा .मेरी स्थितियों से बहुत अवगत है .
'हाँ ,लौट कर जाने से क्या फ़ायदा ?'मेरा गला भर्रा गया
वह एक ओर खींच ले गई .
'रेणू ,मुझसे कुछ मत पूछो अभी ...'मेरी आँखों में आँसू भर आये थे , 'फिर कभी बता दूँगी सब.'
'कित्ते दिन की छुट्टी ली है ?'
' चार दिन की ..अच्छा अब सबके सामने तमाशा न बनाओ ..जाने दो मुझे .'
अपनी रोई आँखों को छिपाने के लिये धूप का चश्मा लगा लेती हूँ .'और कुछ सामान नहीं ले जा रही हो ?'
नहीं और कुछ चाहिये भी नहीं .रुपये काफ़ी हैं मेरे पास .'
वह गेट तक मेरे साथ आई .चलते-चलते कह गई ,कोई खास बात हो तो चिट्ठी लिखना ..जरूर .'
'अच्छा, बाय !'
मैं हाथ उठा देती हूँ .
बाहर कई रिक्शे खड़े हैं .
'बस स्टेशन !'
रिक्शेवाले एक दूसरे का मुँह देखते हैं -वे जानते हैं मैं रोज कहाँ जाती हूँ ..
'चलेंगे ,साब .डेढ रुपया .'
मैं बैठ जाती हूँ .अधिक बोलना मेरे लिये संभव नहीं है .
**
पन्द्रह सालों में यही पाया है क्या मैंने ?सोचते-सोचते आँखें भर आती हैं .चश्मा उतार कर आँखें पोंछती हूँ .
मुझे लग रहा है मेरा चेहरा बड़ा बुझा-बुझा-सा है .
'काले तश्मे के कंट्रास्ट में कुछ पता नहीं चलेगा ,'मैं स्वयं को समझाती हूँ .
होंठ बार-बार सूख रहे हैं ,पपड़ी-सी जम जाती है बार-बार .गला खुश्क हो रहा है .खाली पेट तो पानी भी नहीं पिया जाता .पेट में जाकर लगता है .सुबहसे एक प्याली चायके सिवा कुछ भी जो पेट में गया हो !
जी हल्का रहा है .रोयेंखड़े् हो गये हैं ,ठण्ड-सी लग रही है .लगता है गिर जाउँगी .
नहीं,गरूँगी नहीं मैं ! बड़ी कड़ी जान है मेरी सब सहजाऊँगी .आज तो सुबह से ही नहीं खाया .मैं तो तीन-तीन दिन भूखी रह कर काम करती रही हूँ ,और किसी को कुछ पता नहीं चला .
सौतेली माँ थी मेरी .मैं गुस्सा किस पर उतारती ?बस खाना बन्द कर देती थी .कोई कुछ कहता भी नहीं था .अपने आप फर खाने लगती थी .अब क्या एक दिन की भी भूख नहीं सह पाऊँगी ? तब भी कभी-कभी अन्दर से बड़ा अजीब लगने लगता था ,सिर में चक्कर-सा आता था ,आँखों के आगे एकदम अँधेरा छा जाता ,पर दूसरे क्षण ठीक होकर फिर काम में लग जाती थी .
कभी चौके में काम करते-रहा नहीं जाता तो बासी पराठे में नमक चुपड़ कर चुपके-से खा लेती . एक बार सौतेली बहन ने देख लिया ,जा कर माँ से जड़ दिया .
तब कैसी झिड़की मिली थी .सबने समझा था - सामने-सामने ढोंग करती हूँ .चुरा कर खाने की आदत है .सौतेली माँ उपेक्षा से हँस दी थी .मुझे कैसी ग्लानि का अनुभव हुआ था .मेरी सहेलियों के सामने कहने से भी नहीं चूकी थीं वे .कहीं सिर उठाने की जगह नहीं रही थी .तब तो स्कूल भी नहीं जाती थी ,जो मन कुछ बदल जाता .रो-रो कर लाल हुई आँखों से रात में जाग कर इम्तहान की तैयारी करती थी .वे दिन भी काट लिये ...!
अरे ,कितनी देर हो गई रिक्शे पर बैठे !ये कौन सा रास्ता है .कभी-कभी ऐसा मतिभ्रम हो जाता है कि अनेक बार चले हुये रास्ते भी अपरिचित से लगने लगते हैं .ठीक ही ले जा रहा होगा रिक्शेवाला .अक्सर ही ले जाता है. जानता है - स्कूल की मास्टरनी है .
'बाहर जा रही हैं बेहन्जी ?' रिक्शेवाले ने पूछा .
मुझे लगा वह पीछे मुड़ कर देख रहा है .मैं मुँह फैला कर मुस्कराने की मुद्रा बनाती हूँ .गले से ' हाँ ' की आवाज़ नहीं निकलती ,सिर हिलाती हूँ .काले चश्मे के पीछे से आँसुओं ने बाँध तोड़ दिया है ,गाल पर बह आये हैं . चश्मा उतार कर आँखें पोंछती हूँ .
कोई देख ले तो क्या कहे - स्कूल की मास्टरनी रिक्शे पर रोती चली जा रही है !
पर देखेगा ही कौन ?
कोई चुपायेगा नहीं मुझे .खुद चुप जाऊँगी ,फिर बोलने लगूँगी ,फिर हँसने लगूँगी .
अनिमेष ने एक बार कहा था ,'आप गंभीरता क्यों ओढे रहती हैं ?ऐसे खिलखिला कर हँसती हुई ज्यादा अच्छी लगती हैं .'
'मैं अच्छी लगती हूँ !' ,ये तो कोई नहीं कहता.
रेणू ने एक बार छेड़ने के लिये कहा था ,'अनिमेष. अच्छा लगता है ?'
मैं गंभीर हो गई थी,' मन को मुक्त हँसी देनेवाला कोई भी हो ,अच्छा ही लगता है .
**
बस चलनेवाली है .
पाँवों के अँगूठों में नाखूनो के दोनो ओर बिवाइयाँ फट गई हैं . आज बहुत दुख रही हैं .आँखों के आगे बार-बार तारे नाच रहे हैं .
टिकट बड़ी आसानी से मिल गया -कंडक्टर बस पर ही चिल्ला-चिल्ला कर दे रहा था .सीट भी दो जनोवाली है .
अरे यह क्या ?चप्पल पर खून के छींटे !
अँगूठे की बिवाई से निकल रहा है .बस में पाँव पड़ा होगा कसी का .तभी इतना दर्द हो रहा था !
मन के दुख के आगे शरीर के बोध कितने क्षीण हो जाते हैं !
सब को महत्व देकर अपने को नगण्य समझ लिया था .और अब नगण्य हो भी गई हूँ .
बस में कोलाहल बढ गया है .अचानक झटका लगता है .बस चल पड़ी है .आगे कुछ झगड़ा हो रहा है .लोग धीरे-धीरे व्यवस्थित हकर बैठने लगे हैं ,कुछ खड़े हैं .बारह-चौदह वरस का एक लड़का मुँह बना-बना करखट्टा संतरा खा रहा है .
'काहे को खाय रहे हो ,जब मुँह खट्टा हुइ रहा है ?' एक बूढ़े ने टोका .
लड़का उलट पड़ा ,'हमारी इच्छा !हम खायेंगे .'
' मुँह भी बिगारत जैहो और चबाउत भी जैहो ?'
'तो तुम्हें क्या ?हमने पैसे दिये हैं खा रहे हैं .तुमसे कुछ कह तो नहीं रहे .'
' खाओ ,भइये खाओ .हमें का !'
हम तो खायेंगे ,तुम क्या रोक लोगे हमे !'
मुझे हँसी आ रही है .
लड़के की शक्ल मुझे अपने बिट्टू जैसी लग रही है -वैसा ही मुलायम दुबला-दुबला चेहरा .
लड़का कहे जा रहा है ,'हमें खट्टा लग रहा है ,हम मुँह बना रहे हैं ,किसी को क्यी ?ये कौन हैं हमें मना करनेवाले ?वाह ,..हमने पैसे दिये संतरे खरीदे ,अब हम फेंक दें क्या ?इन्हें पता नहीं क्या परेशानी है !'
बस के लोग मुस्करा रहे हैं .
लड़का तैश में है ,दरवाजे के पास खड़ा लगातार बोल रहा है ,' क्या कर लोगे तुम हमारा ?हम खट्टा संतरा भी खायेंगे मुँह भी बनायेंगे .तुम्हें बुरा लगे तो मीठे से बदल दो .है तुम्हारे पास मीठा सन्तरा ?'
वह खट्टा संतरा बूढ़े की ओग बढाता है .कंडक्टर आता है ,'अच्छा भइये ,बैठ तो जाओ .पीछे सीट खाली है .'
लड़का बढता है .मेरे पास की सीट खाली है .मैं इशारा करती हूँ ,वह मेरे पास बैठ जाता है .
खट्टा संतरा खाना अब उसने बंद कर दिया है ,बैठ कर अपने हाथों से ताल सी देने लगा है .
'क्यों भाई ,बड़े जोर से गुस्सा आ गया? ' मैंपूछती हूँ .
'हाँ, देखिये न .हमने संतरा खरीदा ,हम खा रहे हैं .किसी को क्या ?वो कहने लगा मत खाओ .हम क्यों न खायें .हम तो जरूर खायेंगे .हमें खट्टा लग रहा है मुँह बना कर खा रहे हैं .जिसे बुरा लगे न देखे हमारी तरफ़ .
मैं मुस्कराती हूँ .मेरा लड़का भी तो ऐसा ही है .
'कहाँ जा रहे हो ?'
'सीतापुर और आप ?'
'मुझे भी वहीं जाना है .'
लड़का निश्चिंत बैठा है .
बस स्टाप पर संतरे खरीद लिये थे . कुछ तो सहारा रहेगा .
कुछ फाँकें लड़के को देकर खाने लगती हूँ .
घर छोड़ कर आई हूँ ,मन स्वस्थ नहीं है . कल फिर इन्होंने आँखों में आँसू भर कर कहना शुरू कया था ,'अम्माँ अब कितने दिन की और हैं ,पर तुम्हारे कारण उन्हें नहीं रख पाता .'
मेरे कारण !यह क्यों नहीं कहते कि सामर्थ्य खुद में नहीं है .जितनी आमदनी है उसमें किसे-किसे संतुष्ट कर लोगे ?.सब को मेरे बलपर न्योत कर खुद निश्चिन्त रहना चाहते हैं .
सास जी कभी स्नेह-सन्तोष से मेरे पास नहीं रहीं .उन्हें अपने इन पोते-पोती से भी लगाव नहीं था ,मुझे तो खैर ,वह स्नेह देतीं ही क्या ! उनकी और बहुओं के समान मैं रुच-रुच कर व्रत पूजा नहीं कर पाती थी .!ज़िन्दगी भाग-दौड़ में ही बीती जा रही थी . इत्मीनान से सजने-धजने और कथा-कहानियाँ कहने-सुनने का अवकाश कहाँ था मुझे .उनके सामने तो लिहाज़ के मारे कुछ कर भी लेती थी ,अब तो सब छोड़ती जा रही हूँ .
उनके पुराने संबंध उन्हें वहीं खींचते थे .मेरे क्या वे किसी के पास अधिक दिन नहीं टिकती थीं .पुरानी सब चीज़ों से अलग रह कर उन्हें शून्यता का अनुभव होता था - ऊब लगती थी ,और हम लोगों पर खीज निकालती थीं. आनन्द और रस से रहित यह मशीनी जीवनउ नके बस की बात नहीं थी ,इसलिये वे लौट जाती थीं .पर 'ये'बराबर मुझे दोषी ठहराते हैं .
अब मेरी सहन शक्ति जवाब देने लगी है .मैं भी जवाब देने लगी हूँ ,इन्हें और बुरा लगता है .पुराने शिकवे-सिकायतें होने लगती हैं .
'मुझे ही तुमसे क्या मिला ?मुझे भी कोई शिकायत हो सकती है ,तुने कभी सोचा ?
'किसी पैसेवाले से ब्याह करतीं !'
पैसे तो मं खुद कमा रही हूँ .'
'तभी न जूते लगा रही हो .'
'जूते तो तुम लगाते हो और अपनो से भी लगवाते हो .इसीलिये किसी-न-किसी को लाकर रखते हो ,जिससे तुम मनमानी करो और मैं बोल भी न पाऊँ .उनके सामने तो घर में मुझसे जरा भी सहयोग करते तुम्हारी हेठी होती है .'
ठीक है मै कहीं अलग जाकर रह जाऊँगा .'
'बच्चों का ठेका मेरा है ?'
'तुम जानो ,तुम्हारा काम जाने .मेरा किसी से कुछ मतलब नहीं .अपना क्या है कहीं कमरा लेकर रह जाऊँगा .'
कितनी बड़ी धौंस है .आदमी औरत को जब कुछ और नहीं दे पाता ,तब धौंस दिखा कर , धमका कर अपना बड़प्पन जताता है .उसे छूट है जब चाहे गृहस्थी की जम्मेदीरी छोड़कर चल दे .
क्यों न मैं ही कहीं चली जाऊँ ?-मैने बार-बार यही सोचा है .अब मैं भयंकर रूप से ऊब गई हूँ .धमकियाँ कहाँ तक सुनूं !.
....और आज मैं चली आई .
किसी ने पूछा भी नहीं -कहाँ जा रही हो अकेली ?
वासना के क्षणों में आदमी कितना अपनापन दिखाता है कितना प्रेम जताता है- जैसे पत्नी को छोड़ कर उसका सगा और कोई नहीं .ज्वार उतर जाने पर रह जाती है वही सूखी रे ,वही रूखा व्यवहार और शासन की भावना .
मैंने अपने आप कभी झगड़े की शुरुआत नहीं की .शुरुआत तब होती है जब 'ये' फिर उन्हीं सब के लिये कोई नई फंर्माइश ले कर आते हैं .पहले ,मुझे बिना बताये ही ये लोग आपस में तय कर लेते थे और मैं खुशी-खुशी सब करती थी .अब मैं दखल देने लगी हूँ ,विरोध भी करती हूँ -इन्हें यही सबसे बड़ी शिकायत है .
मैं भी अगर शिकायतें करने बैठूँ तो मेरे पास भी कमी नहीं है .पर सिर्फ़ शिकायतों से जिन्दगी नहीं चलती .
**
यहाँ बच्चों की बड़ी याद आ रही है .रात में नींद भी उचटी-उचटी सी रही .
जीजी कह रहीं थीं ,'बच्चों को क्यों नहीं लेती आई ?'
बच्चों को तो मैं जान-बूझ कर नहीं लाई .उन्हें जुम्मेदारियों से बिल्कुल मुक्त कैसे कर दूं !
पर मेरे सिवा कौन उनकी भूख-प्यास का ध्यान रखेगा ?भूखे रहेंगे ,खिसियायेंगे ,लड़ेंगे और ये दो-चार थप्पड़ रसीद कर अपने कर्तव्य की इति-श्री कर देंगे .
बिट्टू और टिक्की की एक सी आदत है -एक बार खाते से उठ जायें फिर खाना नहीं खा पाते .और 'ये' बिना देखे आवाज़ लगाते रहते हैं बिट्टू ,जरा दियासलाई उठा लाओ या टिक्की ,एक गिलास पानी .बिना कुछ कहे वे दौड़ते रहते हैं. इन्हें तो सब जीज़े वहीं बैठे-बैठे चाहियें .मैं खीजती रहती हूं ,कुछ कह नहीं सकती .बच्चों से कहती हूँ खाना खा लें पेटभर कर . पर उनसे खाया नहीं जाता .
टिक्की छोटी है ,कभी-कभी कह उठती है ,'पापा तो पढने भी नहीं देते .'
अब कौन देखता होगा मेरे बच्चों को ?
बच्चों भी तो मेरी याद आती होगी .उनके रोने पर जब वे मार-मार कर चुप कराते होंगे . सोचते होंगे 'अब तो मम्मी भी हमें छोड़ कर चली इनकी किसी बात के बीच में बोल दें तो तड़ाक् से मारते हैं .वे चीखते हैं तो चटाचट् चाँटे लगाते हैे 'चोप ,चुपेगा कि नहीं ?'
और रोना बिल्कुल बंद हो जाता है .
सो जाते होंगे दोनों ऐसे ही .
तीन दिन बीत गये ,पता नहीं एक दिन भी भऱपेट खाया होगा या नहीं .बार-बार बर्तन माँजते होंगे ,चाय बनाते होंगे .इन्हे क्या बच्चों की भी ममता नहीं ?
और मैं भी तो छोड़ आई हूँ !
माँ ही नहीं करेगी तो कौन करेगा उनका ?मैं तो खुद ही उन्हें उस घर में झोंक आई हूँ .
घऱ ?कसका घर ?
घर तो मेरा ही है .'ये' क्या करते हैं घऱ के लिये .सिर्फ़ रुपये कमा कर लाते हैं .घर क्या उतने रुपयों से ही चल जाता है ?
नहीं अपनेपन से ,ममता , प्यार से ,विश्वास से बनता है .घर तो मैंने बनाया है तनका-तिनका चुन कर, कन-कन जोड़ कर. रात-रात भर अपनी नींद हराम कर बच्चों को पाला है !अपनी थकान न देख कर सबकी जरूरतें देखी हैं .
मुझे अपने बच्चों से प्यार है ,बच्चों को भी मुझसे है .
फिर मैं क्यों चली आई?
इन्हें भुगताने ! पर भुगत तो वे निरीह बच्चे रहे होंगे .
घर मेरा था . ऐसा क्यों हुआ ?यह छूट मैने ही दी .क्यों करने दी सबको मनमानी ?अपना अधिकार अपने हाथ में रखना चाहिये था मुझे.मैं क्या किसी की दया पर निर्भर हूँ ?नौकरी न करूं तो भी घर मेरा है -मैं अपने ढंग से चलाऊंगी .
ठीक है .अब से यही होगा .
**
दीदी ने टोका था,कैसी शकल बना रखी है ?मुझसे छोटी है तू .'
'टाइम नहीं मिलता क्या करूँ !'
'इस सब के लिये टाइम निकाला जाता है .'
रात को सोते समय वे पानी गरम करती हैं .
'ले ,हाथ-मुँह धो और ये लगा .'
कोल्ड-क्रीम की शीशी मेरे हाथ में पकड़ा देती हैं .वे भी लगा रही हैं .
तीन दिनों में मेरी शकल बदल गई है .हाथ-पाँव स्निग्ध हो उठे हैं ,शीशे में चेहरा देखना अच्छा लग रहा है .
मुझे अनिमेष का ध्यान आता है .उसने कहा था आप हँसती हुई ज्यादा अच्छी लगती हैं .'
अब तो मैं पहले से अच्छी लगने लगी हूँ .क्या कहेगा वह ?
मैं अपने विचार पर स्वयं लज्जित हो उठती हूँ .पैंतीस साल की हो रही हूँ .अनिमेष का ध्यान मेरे मन की किसी कुंठा परिणाम है -मैं स्वयं को समझा लेती हूँ .
साड़ियों की मैचिंग के ब्लाउज़ नहीं हैं मेरे पास .एक जोड़ी सैंडिल भी खरीदना है .खरीदूँगी .अपनी कमाई पर क्या इतना भी अधिकार
नहीं .घर के खर्च चलाने का ठेका क्या सिर्फ़ मैने ले रखा है ?
कह दूँगी ,'पहले घऱ के खर्चे पूरे करो ,उससे बचे तो चाहे जसके लिये करो .हाँ अगर किसी को बुलाओ तो एक नौकरानी जरूर लगा लेना ,क्योंकि मैं भी बाहर काम करके थक जाती हूँ .'
नौकरी करती हूँ दुनिया भऱ के लिये नहीं, अपने घर के लिये अपने बच्चों के लिये .जो लोग अच्छे-खासे रह रहे हैं उन्हें कोई अधिकार नहीं कि अपने खर्चे मेरे ऊपर लाद दें .जीवन में जो सुविधायें मुझे नहीं मिलीं उनसे मेरे बच्चे वंचित न रहें .
यहाँ तीन दिन से तटस्थ होकर सोच रही
अब समझ में आ रहा है सब .अपना ही नुक्सान करती रही अब तक .अब सब कुछ अपनी मुट्ठी मे रखना है ,जैसे और दस औरतें रखती हैं .
अब तक भीगी बिल्ली क्यों बनी रही इन लोगों के सामने -मुझे आश्चर्य हो रहा है ..वहाँ से दूर आकर निर्णय लेना कितना आसान हो गया है .
मैं भी क्यों नहीं ढंग से पहनू-ओढूँ ,मैं भी क्यों न ठाठ से रहूँ ?
लेकिन घर वापस कैसे
वे' हँसेंगे 'नहीं रहा गया न ?'लौट आईं... मैं तो बुलाने गया नहीं था ....'
मेरे पास भी जवाब है 'मुझे तुमसे आशा ही कब रही कि बुलाने आओगे !मेरा मान रखोगे .मैं तो अपने घर आई हूँ ,जब तक चाहूँगी रहूँगी ,जब चाहूँगी जाऊंगी .अपना सोचो ,चार बार घर छोड़ जाने की धमकी देकर अपना मुँह लेकर लौट आये. वह भूल गये ?'
मुझे अच्छी तरह याद है हमेशा की तरह मुझे धमकी' दी घर छोड़ कर चला जाऊंगा' .मैं आजिज़ आगई थी कुछ बोली नहीं .कहने -सुनने का मुझ पर कोई असर होते न दे, ताव ही ताव में बाहर निकल गये .मझे भी जाने क्या हुआ, कुछ नहीं लगा ,इत्मीनान से बैठी रही . चार बार निकल चुके हैं और कुछ घंटों बाद मुँह लटकाये चले आते हैं बंद दरवाज़े खुलवाने .
अब हर बात के लिये मुझे इन पर निर्भर नहीं रहना है .ठाठ से बच्चों को रखना है ,जम कर मुझे रहना है ..इस बार जाकर घर के लिये एक महरी भी रखनी है सारा काम मेरे बस का नहीं.और इन्होंने मना कया तो ? खुद करवायेंगे कुछ ?नहीं तो वे कौन होते हैं मना करनेवाले !अपनी कमाई से अपने आराम पर खर्च करने का अधिकार भी मुझे नहीं है क्या ?
जब इन्हें चिन्ता नहीं तो मुझे ही देखना होगा .
कुछ कहा तो उत्तर भी मेरे पास है -'घर में कैसे क्या होगा यह मुझे देखना है .तुम अपने ढंग का चाहते हो तो जो मैं करती हूँ खुद कर लो .'
छः महीने हो गये पिक्चर देखे .सब साथिनें जाती हैं अपनी पसन्द की खरीदारी खुद करती हैं .मैं ही क्यों हर बात में इनकी ओर देखती हूँ !रेणुका तो हमेशा रटती रहती है ,'चलो पिक्चर ,चलो नुमायश .'
वे लोग मिल कर सब जगह हो आती हैं .मैं क्यों जीती हूँ निरानन्द ,नीरस जीवन . इनकी तो इस सब में रुचि नहीं है.ऐसे ही रहा तो कैसे चलेगा !
माँजी नरेश बगैरा ने तो हम लोगों में भेद डाले रखा .मुझे जगानी होगी इनके मन की ममता . उन लोगों के प्रभाव के कारण ही तो 'ये'शुरू-शुरू में हर काम में उछल-कूद करते हैं ,फिर जब मैं नहीं मानती तो धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है .ननद को छूछक देने में यही तो हुआ था .
अरे यह सब ठीक करना तो बायें हाथ का खेल है .शुरू में कुछ दिन जरूर तनाव रहेगा .वैसे 'ये' अब समझ गये होंगे कि पुत्तन यहाँ नहीं आयेगा ..मैं कल्पना करती हूँ -'ये' कह रहे है ,मैं उसके साथ जाकर कहीं अलग रह जाऊँगा .'
'और बच्चे ?' मैं पूछूँगी .
'मुझे किसी से कोई मतलब नहीं .
'तो ठीक है !जाओ ढूँढ लो अलग मकान .बस, मुझे बख़्शो तुम . तुम्हारी सामर्थ्य नहीं है तो मैं बच्चों को भी रख लूँगी .अपने लोगों को बुला लाओ आज ही .रोज़-रोज़ धमकाते क्या हो ?'
इनके खिसियाये चेहरे की कल्पना करती हूँ .'ये' तमक कर उठते हैं .
बोलना ही किया है अभी.

मैं फ़ौरन टोकूँगी ,'बस खबरदार जो मुझसे अब कभी कुछ कहा ! घर का जो-जो सामान तुम अपना समझते हो अलग कर लो ,और आज ही अपनी व्यवस्था कर लो . मेरी जान छोड़ो .वैसे तुम्हारी कमाई तो खाने-कपड़े में ही खर्च हो जाती थी ऊपर के खर्च तो मेरे ही रुपयों से चलते थे .फिर भी तुम जो चाहो ले जाओ ...मैं ट्यूशन करके और खरीद लूँगी ...बस मुझे चैन से रहने दो .'
और भी कहूँगी 'तुम्हारे साथ मेरी ज़िन्दगी बर्बाद हो गई .अरे ,जिनके आदमी छोड़ तेते हैं,वे औरतें तो और ठाठ से रहती हैं .हाँ, जो रुपये तुमने मुझसे लोगों को कई बार उधार दिलवाये हैं ,उन्हें चुका देना . वे वापस करें तो तुम रख लेना .हिसाब मेरे पास लिखा है .असल में कुछ सामान तो मुझे फ़ौरन ही खरीदना पड़ेगा न....तुम ले जाओ ,जो चाहो ...रोज़-रोज़ मुझे सुनाते क्या हो !'
समय पर खाना परस कर बैठ जाऊँगी ,'हम लोग खाना खाने जा रहे हैं ,तुम्हारी इच्छा हो तो आ जाओ .'
मैं बड़ा हल्कापन अनुभव करती हूँ .
मेरा कब से एक मिक्सी खरीदने का मन है .'ये' बराबर रोकते रहे - अभी जिज्जी को सावन देना है .या नरेश को इन्टर-व्यू के लिये अच्छे कपड़े बनवाने पड़ेंगे .और भी जाने क्या-क्या .'
'जीजी ,एक मिक्सी मुझे भी खरीदना है .'
'हाँ,हाँ ,खरीद ले .बड़ा आराम रहता है .मैंने तो पिछली बार भी तुझसे कहा था ....अब दाम भी कुछ बढ़ गये हैं .'
'ऊँह, दाम की चिन्ता आखिर कहाँ तक करूँ ....
पहली बार मैं अकेली जाकर कुछ खरीद रही हूँ .अपनी विजय की उद्घोषणा स्वरूप बड़ा-सा पैकेट लेकर घर में प्रवेश करूँगी .
मेरा मन नये आत्म-विश्वास से भर उठा है .
*


1 टिप्पणी:

  1. बहुत badhiyaa samapan....:)..मैं khud padhte padhte kheej रही थी..कि bhai itta सहने की ज़रुरत क्या है... जब तक अंतरात्मा के आगे सर न झुके और उपरवाले का dar rahe..tab तक apni baat aaram से rakhi जा सकती है..अपने मन के मुताबिक काम किया ja sakta है.........इस कहानी के ''ये'' पर बहुत gussa आया जगह जगह.....:/:/

    वही बात घूम फिर कर वापस मेरे zehan में आ रही है.....कि आप jaisaa अपने आप को doosron के saamne darshayenge.....वैसे ही ho भी jaayenge.....dabboo तो dabbo.....sher तो sher......:)

    खैर....sehanshakti की भी seema है..seema paar ho जाने के baad अपने आप raaste nikalne lagte हैं......मगर ये मुझे aaj तक samajh नहीं आया..की bhaarat में क्यूँ striyaan had से भी ज़्यादा sehtin हैं....:( ??maatr एक grihasthi (वो भी ektarfaa kism की..) का bhram banaye rakhne के लिए क्या aatmsamman kho देना jaayaz है???

    ant की wajah से कहानी की lazzat badh गयी....

    :)
    shubh raatri

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